भिटाई घोटु अर्थात शाह अब्दुल लतीफ़ (1689-1752) सिंध के पहले महान सूफी कवि थे जिन्होंने सिंध के लोगों की आम भाषा में अपना कलाम लिखा। उनका कलाम सीधे-सादे देहाती लोगों को बहुत भाता था। खेतों में हल चलाते किसान, थार की गर्म रेत पर ऊंटों पर सफर करते व्यापारी, गहरे समुद्र में जाल बिछाते मछुआरे आदि सभी इस कलाम को गाते हुए आनंद मग्न हो जाते थे।
शाह लतीफ का कलाम आज भी सिंध में उतने ही आदर, सम्मान और श्रद्धा के साथ पढ़ा, सुना और गाया जाता है जितना मौलाना रुम को ईरान में। दुनिया के हर हिस्से में सिंधी लोग, खास तौर पर बुजुर्ग पीढ़ी के लोग, शाह साहब का कलाम बड़ी श्रद्धा और सम्मान से सुनते और गाते हैं।
शाह लतीफ के पूर्वज हैरात (अफगानिस्तान) से आकर सिंध (पाकिस्तान) में, मतीआरी गांव में बस गए। मतीआरी से उनके पिता सैयद (सैय्यद) हबीब शाह हैदराबाद सिंध के हाला हवेली नामक स्थान में जा बसे। यहीं सन् 1689 ई में शाह साहब का जन्म हुआ।
छह साल की उम्र में उन्हें अरबी वर्णमाला सीखने के लिए उस्ताद के पास भेजा गया। उन्होंने अरबी वर्णमाला के पहले अक्षर ‘अलिफ’ से आगे पढ़ने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि सब कुछ एक ‘अलिफ’ में समाया हुआ है। ‘अलिफ’ अल्लाह के एक होने का सूचक है। यही तथ्य शाह लतीफ द्वारा रचित रचनाओं में पूरी तरह झलकता है। उनके कलाम से पता चलता है कि वे सिंधी, संस्कृत, फारसी और अरबी भाषाओं में निपुण थे। वे कुरान और रुमी की मसनवी हमेशा अपने साथ रखते थे।
कहते हैं कि 21 वर्ष की आयु में जब वे ‘गंजो पर्वत’ पर भ्रमण के लिए गए, तब उनकी मुलाकात योगियों की एक टोली से हुई। उनकी टोली में शामिल होकर उन्होंने हिंगलाज, जूनागढ़, लाहूत, लखपत जैसलमेर और थरपारकर जिले के तीर्थों का भ्रमण किया। हिंगलाज की दूसरी यात्रा में वे योगियों से अलग होकर घर लौट आए। शाह लतीफ के जीवन पर योगियों के साथ भ्रमण का गहरा असर पड़ा। उन्होंने अपने कलाम में जो योगियोें की प्रशंसा की है उसका वर्णन ‘शाह जो रसालो’ ग्रंथ में किया गया है।
प्रोफेसर कल्याण आडवाणी के अनुसार शाह लतीफ पंद्रह वर्ष की उम्र में ‘शाह इनायत’ की संगति में आए। शाह इनायत ‘हाला हवेली’ गांव से 15 मील की दूरी पर ‘झोंक’ में रहते थे। शाह लतीफ वहां जाकर उनका कलाम बड़ी श्रद्धा से सुनते और अपना कलाम सुनाते भी थे। वे दोनों आपस मेें बहुत निकट हो गए। 16 साल की संगति के बाद जब ‘शाह इनायत’ ने शरीर त्यागा, उस समय शाह लतीफ़ 31 वर्ष के थे। शाह इनायत की मृत्यु से उनके दिल को गहरा सदमा पहुंचा। हालांकि इस बात का संकेत कहीं नहीं मिलता कि ‘शाह इनायत’ उनके गुरु थे, किन्तु विद्वानों के अनुसार उनके कलाम पर ‘शाह इनायत’ का गहरा प्रभाव नज़र आता है। शाह लतीफ ने अपने कलाम में मुर्शिद (गुरु) की खूब महिमा गाई है।
एक बार शाह लतीफ की मुलाकात सिंध के प्रसिद्ध सूफी फकीर ‘सचल सरमस्त’ के दादा ‘मियां साहिबडिनों’ से हुई। उस वक्त बालक सचल की आयु पांच साल की थी। उसे देखते ही शाह साहब ने फरमाया, ‘हमने जो देग चढ़ाई है, उसका ढक्कन यह बालक उठाएगा। शाह लतीफ का यह कथन आगे चलकर सही साबित हुआ, क्योंकि जो बातें शाह लतीफ ने पोशीदा रखीं, सचल ने उन्हें खोलकर बयान किया।
शाह लतीफ के कथनानुसार परमेश्वर के तालिब को एक पल के लिए भी संसारी ऐश अशरतों में मन नहीं लगाना चाहिए। कहते हैं कि एक दोपहर को शाह साहब भोजन के बाद आराम फरमा रहे थे, तो इतने में एक सब्जी बेचने वाले के ये शब्द उनको सुनाई पड़े। ‘सूआ-पालक-चूका’, ‘सूआ-पालक-चूका’। शाह साहब ये शब्द सुनते ही अपने सोने के स्थान पर उठ बैठे। अपने मुरीदोें को बुलाकर कहा-‘सुनो-सुनो, वह सब्जी बेचने वाला क्या कह रहा है।’ मुरीदों ने कहा, ‘साहब जी, वह तो ‘सूआ-पालक-चूका’ खरीदने के लिए आवाज दे रहा है। इस पर शाह साहब ने कहा-यह तो ठीक है। मैंने भी यही सुना है। लेकिन इसका अर्थ बहुत गहरा है। सभी मुरीद जिज्ञासा भरी दृष्टि से शाह साहब की तरफ देखने लगे। तभी शाह साहब ने समझाया कि जो परमात्मा का तालिब, रब की राह पर निकल पड़ा है, उसे जब तक अपने मतलूब (अल्लाह) से एक हो जाने की मंजिल प्राप्त नहीं होती, तब तक उसे प्रभु की भक्ति में लीन रहने का पैगाम दिया है। ग़ाफिल होकर सोने के बजाय जो सदैव आठ ही प्रहर उसी प्रीतम की याद में जागते हैं, वे मनुष्य जन्म के असली उद्देश्य को पूऱा करने में सफल होते हैं।
वे सदा चिंतन-मनन की अवस्था में रहते और एकांत पसंद करते थे। इसी मनोवृति के कारण वे ऐसी जगह की तलाश में थे जहां बैठकर इबादत कर सकें। ‘हाला हवेली’ से चार मील की दूरी पर ‘किराड़’ झील के पास रेत का एक कांटेदार टीला था, जो शाह लतीफ को बेहद पसंद आया। उस टीले को ‘भिट’ कहते थे। उन्होंने उसे आबाद करने का फैसला किया। उनके शिष्यों ने दूर से रेत लाकर उस कांटेदार टीले को समतल किया। उसमें एक कमरा भूमिगत और दो कमरे उसके ऊपर बनवाए। तभी से वे शाह अब्दुल लतीफ ‘भिटाई’ के नाम से जाने जाते हैं।
जिंदगी के आखिरी आठ साल उन्होंने ‘भिट’ में गुजारे। शरीर त्यागने से पहले वे भिट के नीचे भूमिगत कमरे में एकांतवास के लिए चले गए। वहां वे इबादत में मग्न रहे। इक्कीस दिन के बाद वे बाहर आए, स्नान किया और अपने ऊपर सफेद चादर ओढ़कर लेट गए। उन्होंने मुरीदों से साज़ों पर धुन छेड़ने को कहा। यह सिलसिला तीन दिन तक चलता रहा। तीन दिन बाद जब चादर हटाई गई तो उनकी रूह वजूद छोड़कर अल्लाह के मुकाम पर जा चुकी थी। उन्हें ‘भिट’ में दफनाया गया। उनकी मज़ार आज भी वहां मौजूद है।
शाह लतीफ के कलामों को ‘शाह जो रसालो’ ग्रंथ के माध्यम से विदेशों तक पहुंचाने का श्रेय जर्मन विद्वान अर्नेस्ट ट्रम्प और टी. आर. सोरले को दिया जाता है। इनके अलावा मिर्ज़ा कलीच बेग, गुरबख्शानी और सिंधी भाषा के विद्वान प्रो. कल्याण बी. आडवाणी आदि ने भी इनके कलाम को न केवल सिंध और भारत में, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रसिद्ध किया।
‘शाह जो रसलो’ ग्रंथ भगवद् गीता के समान एक पवित्र ग्रंथ है जिसका सतत अभ्यास हमें जीवन के अंतिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ तक पहुंचाता है।
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