श्री दत्त संप्रदाय

समन्वयवादी द़ृष्टिकोण तथा श्री दत्तात्रेय भगवान के क्षमाशील गुण के कारण दत्त संप्रदाय के प्रति बहुत श्रद्धाभाव है। श्री दत्त भगवान की कृपा से ”मैं“ के भाव का लोप, वैराग्य की अनुभूति, भयरोग से मुक्ति, स्वभाव में ऋजुता और ऐहिक व पारलौकिक जीवन में सफलता अर्जित की जा सकती है बशर्तें कि भक्त निश्चल व निरपेक्ष भाव से भक्ति करें।

जटाधरं पांडुरंगं शूलहस्तं कृपानिधिम्।
सर्वरोगहरं देवं दत्तात्रेयमहं भजे॥
(महर्षि नारद विरचित दत्तात्रेय स्तोत्र)

क्या है जीवन? कैसे जन्मता, कैसे चलता, कैसे समाप्त होता? क्या है इसकी उर्जा? जो इसे फैलाती, चलाती, सिकोड़ती, विदा करवा देती है। धर्म की भाषा कहती है ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं। विज्ञान की भाषा कहती है इलेक्ट्रान, प्रोट्रॅान, न्यूट्रॉन हैं। प्रोट्रॅान को धनात्मक ऊर्जा कहना चाहिए यानी ब्रह्मा, इलेक्ट्रान को ऋणात्मक ऊर्जा कहना चाहिए यानी महेश, न्यूट्रॉन दोनों के बीच डोलता है और जोड़ता है जिसे विधायक ऊर्जा कहना चाहिए यानी विष्णु। जीवन में अवतरण विष्णु का ही होता है। जीवन का नाम ही विष्णु है। ब्रह्मा और शिव के बीच की यात्रा का नाम विष्णु है। वैदिक काल से यद्ययावत काल तक विष्णु के अवतार का ही फैलाव है। त्रिमूर्ति दत्तात्रेय की संकल्पना को अपने आप में समेटे हुए हम देख सकते हैं। जैसे ब्रम्हा, विष्णू,महेश। ये तीनोें उत्पत्ति, स्थिति व लय के संयुक्त प्रतीक हैें। हम अपने जीवन का अर्थ प्रतीकों में खोजते रहते हैं।

संप्रदाय

एक विशिष्ट आराध्य को श्रध्देय भाव से अपनेे मन-मस्तिष्क व अंत:करण में विराजित कर तथा निश्चित उपासना पध्दति को अंगीकृत करते हुए सम्यक आचार-विचारों की सोपान परंपरा का निर्वाह निरपेक्ष भाव से करनेवालों के सात्विक समूह का नाम संप्रदाय हेै। संप्रदाय के अंतर्गत गुरू-शिष्य परंपरा चलती है, और यह परंपरा गुरू व्दारा प्रवर्तित तत्व सिध्दांत को बलवती करते हुए अपने आचरण से समाज पर गहरी छाप छोड़ती हुई अपने गतंव्य की ओर निरंतर रूप से प्रगमित होती, मुमुक्षत्व की ओर प्रवाहित होती रहती है।

सनातन भारतीय समाज में हमें अनेकानेक संप्रदाय देखने को मिलते है, जिनमें से शैव संप्रदाय, शाक्त संप्रदाय, वैष्णव संप्रदाय प्रमुख हैं। जहां तक महाराष्ट्र की ओर हम अपनी द़ृष्टि को एकाग्र करें तो हम पाएंगे कि महराष्ट्र संतों का नंदनवन रहा है। यहां दत्त संप्रदाय, नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय, स्वरूप अथवा समर्थ संप्रदाय आदि ने वटवृक्ष की तरह अपनी जड़ों को द़ृढ़ किया है तथा अपनी अपनी विशेषताओं की अमिट छाप छोड़ी है। इन सभी संप्रदायों नें परस्पर प्रेम, आदर एवं सहिष्णुता की अद्भुत मिसाल कायम करते हुए भक्ति आंदोलन की ध्वजा के नीचे आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना को जागृत कर विपदा व विपत्ति पर विजय पाकर मनुष्य को उसके अंतिम लक्ष्य मोक्ष की सीढ़ी तक पहुंचाया है। दत्त संप्रदाय ने शैव-वैष्णव तथा हिंदू-मुसलमानों में समन्वय स्थापित किया है। गुरूगीता, अवधूतगीता, जीवनमुक्तगीता में संप्रदाय के सिध्दांत का विवेचन किया गया है। श्रीदतात्रेय महायोगी होने के कारण इस संप्रदाय में योग को वरीयता दी गई है। श्री दत्त मूर्ति के साथ एक गाय व चार श्वान दिखाई देते हैं, जो पृथ्वी व चार वेदों के प्रतीक हैं।

श्री दत्त तत्व

भगवान दत्तात्रेय को ”अवधूत“ व ”दिगंबर“ संज्ञा से भी संबोधित किया जाता है। अवधूत का अर्थ अहं को धोने वाला। दिगंबर अर्थात दिशाएं ही जिनकी वस्त्र हैं। संप्रदाय में जीवन मुक्ति के लिए सगुणोपासना तथा योगमार्ग के अवलंबन का मार्ग इंगित किया गया है। 15 वीं सदी में हिंदू राज्यों का नष्ट होना प्रारंभ हो गया था। यवन सत्ता काबिज होने लगी थी। ब्राम्हणों ने भी अपना आचार धर्म छोड़ दिया था। इस संप्रदाय ने समाज में सौहार्द का विलक्षण कार्य किया है। आज जिसे हम कौमी एकता कहते हैं वही कार्य संप्रदाय ने किया है। समाज को संगठित कर वैदिक व भागवत धर्म की रक्षा का कार्य भी किया है।

दत्त तत्व अविनाशी रहकर सदैव विद्यमान रहता है तथा स्मरण करने पर भक्त के समक्ष साद़ृश होकर उस पर अपनी कृपाद़ृष्टि से अनुकंपा करता है। इसलिए श्री दत्तात्रेय भगवान को ”स्मर्तुगामी“ तथा ”स्मृतिमात्रानुगन्ता“ कहा गया है। मन की उन्मनी अवस्था का नाम दत्तात्रेय है। श्री दत्तात्रेय भगवान की आराधना संपूर्ण भारत में निवासरत महाराष्ट्रीयन परिवारों में प्राणार्पण भाव से की जाती है। दत्त संप्रदाय में प्रतिपाद्य आराध्य की मूर्तिपूजन की अपेक्षा इस दैवत के पादुकाओं केपूजन अर्चन को अधिक महत्व दिया गया है। औदुंबरवृक्ष के नीचे पारायण, भस्म लेप, रूद्राक्षधारण, दत्त संप्रदाय की विशेषता है, गुरूवार का दिन विशेष महत्व रखता है। दत्त के अलर्क, प्रल्हाद, व सहस्त्रार्जुन ये शिष्य थे। उन्हें भगवान ने ब्रह्मविद्याा का उपदेश दिया था।

श्री गुरूचरित्र दत्त संप्रदाय का सर्वमान्य प्रामाण्य ग्रंथ है। इसे वेदतुल्य महत्व है। प्रतिदिन व उत्सव के अवसर पर प्रमुखत: इसी ग्रंथ का पारायण किया जाता है। इस ग्रंथ के रचियता श्री सरस्वती गंगाधर है। सरस्वती गंगाधर कौंडिण्य गोत्र के थे। नृसिंह सरस्वती, सरस्वती गंगाधर के परात्पर गुरू थे। दत्त प्रबोध में श्री दत्तात्रेय तथा सती अनसूया माता का परस्पर गहन संवाद है। संप्रदाय के सिध्द पुरूष श्रीपाद वल्लभ, नृसिंह सरस्वती, सरस्वती गंगाधर, जनार्दन स्वामी, एकनाथ महाराज, दासोपंत, माणिक प्रभु, नारायण महाराज, टेंबे स्वामी, अक्कलकोट स्वामी समर्थ महाराज, मुक्तेश्वर, निरंजन रघुनाथ आदि महायोगियों ने संप्रदाय की परंपरा को पोषित कर उसका अस्तित्व अक्षुण्ण रखा है।

संप्रदाय के प्रमुख ग्रंथों में गुरूचरित्र, कावडी बाबा का दत्तप्रबोध, टेेंबे स्वामी का दत्त पुराण, दत्त महात्म्य शामिल हैं तथा संप्रदाय के सिध्दक्षेत्रों में काडेवाडां, गिरनार, नेपाल, गाणगापुर ,औदुंबर, नरसोबाची वाडी, माहूर, कारंजे, प्रसिध्द हैं। माहूर क्षेत्र श्री दत्त भगवान का निद्रा स्थान है।

संप्रदाय का उदय एवं विस्तार

”दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा“ ये दिव्य नाम जप दत्त भक्तों में प्रचलित है। दत्त संप्रदाय के पितृपुरूष श्रीपाद श्री वल्लभ महाराज है। पीडापुर गांव में चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में आपका जन्म हुआ ऐसा माना जाता है। अपनी तप:साधना के व्दारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया और सभी के उध्दार के लिए प्रार्थना की। गुरूचरित्र नामक ग्रंथ के अध्याय 5 से 10 में उनके चरित्र का वर्णन आता है।

इ.स.1408 से 1458 के दरम्यान दत्त संप्रदाय में नृसिंह सरस्वती नामक विभूति का अवतरण हुआ। यह काल संत ज्ञानेश्वर एवं संत एकनाथ के कालावधि के बीच का कालखंड है। आपका जन्म यवतमाल जिले में मूर्तिजापुर रेलमार्ग पर स्थित कांरजा गांव में हुआ। उपनयन होने तक आप प्रणव के जप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बोलते थे। उपनयन के समय माता व्दारा तीन बार भिक्षा प्रदान करने की प्रथा है। पहली भिक्षा के समय ऋग्वेद की ऋचा, दूसरी भिक्षा के समय यजुर्वेद व तीसरी भिक्षा के समय सामवेद का गायन आप बाल्यावस्था में करने लगे। संन्यास आश्रम का स्वीकार कर आप हमेशा भ्रमणशील रहे। सन 1458 के आसपास आपने श्रीशैलगमन किया तथा कर्दली के वनों में अंतर्धान हो गए। अनेकों लोगों का आपने रोगनिवारण किया, मंदबुध्दि वालों को बुध्दिमान किया। ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ को सदाचार का पाठ पढाया। नि:संतानों को पुत्रवान किया एवं दत्त भक्ति की अलख जगाई। जिन जिन स्थानों में उन्होेंने तपस्या की वे स्थान सिध्दक्षेत्र बन गए।

एकनाथ स्वामी का कालखंड सन 1533 से 1599 का माना जाता है। संत एकनाथ को मलंग वेष में दत्तात्रेय ने दर्शन दिए ऐसी धारणा है। ”त्रिगुणात्मक त्रयमूर्ति दत्त हा जाणा। त्रिगुणी अवतार त्रैलोक्य राणा“ इस विश्व प्रसिध्द आरती की रचना एकनाथ ने की। इस आरती के बिना दत्तात्रेय की उपासना पूर्ण नहीं होती।

जनार्दन स्वामी का कालखंड सन् 1504-1575 का माना जाता है ये एक महान दत्तभक्त थे। उनका जन्म चालीसगांव के देशपांडे परिवार में हुआ। आप नृसिंह सरस्वती के शिष्य रहे। उन्हें प्रत्यक्ष भगवान दत्तात्रेय ने दर्शन दिया ऐसी मान्यता है। वे देवगड़ के किले के किलेदार थे तथा अपनी भक्ति व शुध्द आचरण के कारण हिंदू व मुसलमानों में लोकप्रिय थे। आपका एक ”पंचीकरण“ नामक श्रेष्ठ ग्रंथ उपलब्ध है।
दासोपंत का काल सन् 1551-1615 तक मिलता है। एकनाथ के समकालीन इस संत का जन्म बाहमनी राज्य के नारायणपेठ में हुआ। उन्होंने किसी की भी चाकरी नहीं की तथा अपना जीवन वाङमय निर्मिति में लगाया। दत्तभक्ति के माध्यम से आपने पीड़ित लोगों की सेवा की तथा उनका भूत-पिशाच्चों से निवारण किया।

संप्रदाय के अखिल भारतीय स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करने पर हमें दिखता है कि गुजरात के सौराष्ट्र में गिरनार दत्त भगवान का प्रसिध्द स्थान है। श्री दत्त प्रबोध व गुरूलीलामृत ग्रंथ का बड़ोदा से निकट का संबंध है। गुजराती भाषा में दत्त बावनी नामक भक्ति पुस्तक भी उपलब्ध है। ओच्छण, राजपिपला सरखेज, नवापुर दत्त में संप्रदाय का प्रभाव देखने को मिलता है। श्री वासुदेवानंद सरस्वती उर्फ टेंबे स्वामी ने गुजरात में दत्त भक्ति के अविरत प्रवाह की धारा को दिशा दी।अरावली पर्वत के नैर्ऋत्य-ईशान्य भाग, जो राजस्थान में आता है, माउंट आबू पर्वत को गुरू शिखर कहते हैं। यहां पर दत्तात्रेय ने निवास किया था। उनकी चरण पादुका का एक मंदिर भी वहां पर स्थित है। कर्नाटक में भी दत्त संप्रदाय का प्रसार परिलक्षित होता है। गुरूचरित्रकार सरस्वती गंगाधरजी की मातृभाषा कन्नड थी। बिदर, गाणगापुर, गोकर्ण में संप्रदाय का प्रभाव दिखता है। वासुदेवानंद सरस्वतीजी ने अपने अनेक चातुर्मास तंजावर, करूगट्टी, हावनूर आदि स्थानों मे व्यतीत किए हैं। कर्नाटक के सिध्दनाल स्थान पर ही गुचरित्र ग्रंथ की रचना हुई। मैसूर के महाराजा श्रीजयचामराजेंद्र वाडियार बहादुर ने अंग्रेजी भाषा में ‘दत्तात्रय: द वे एंड द गोल’ ग्रंथ की रचना की जिसकी प्रस्तावना सर्वपल्ली राधाकृष्णनजी ने लिखी है। आंध्र, तमिलनाडु में भी संप्रदाय का विस्तार है। श्रीपाद वल्लभ व नृसिंह सरस्वती जी को कन्नड व तेलुगू भाषा के अनुयायी भी विपुल मात्रा मे मिले। मद्रास विश्वविद्याालय के तेलुगू विभाग के प्रमुख श्री एन. वेंकटराव ने ”तेलुगू साहित्य में दत्त संप्रदाय“ नामक लेख लिखा है।

महाराष्ट्र के प्रमुख पांचों संप्रदायों में दत्त संप्रदाय के प्रति अत्यधिक श्रध्दा का भाव है। इसका प्रमुख कारण इस संप्रदाय का समन्वयवादी द़ृष्टिकोण तथा श्री दत्तात्रेय भगवान का क्षमाशील गुण है। श्री दत्त भगवान की कृपा से ”मैं“ के भाव का लोप, वैराग्य की अनुभूति, भयरोग से मुक्ति, स्वभाव में ऋजुता और ऐहिक व पारलौकिक जीवन में सफलता अर्जित की जा सकती है बशर्तें कि भक्त निश्चल व निरपेक्ष भाव से भक्ति करें।
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