वैश्विक पटल पर नए भारत का उदय

इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में भारत की अपार आर्थिक संभावनाओं की चर्चा प्रारंभ हुई, परंतु विदेश नीति और कूटनीति के क्षेत्र में हमारी क्षमताओं का विषय प्राय: चर्चाओं से अछूता ही रहा। 26 मई 2014 को नई भारतीय कूटनीति का आगाज हुआ है, जो इच्छाशक्ति के साथ भारतीय हितों को आगे बढ़ाने को प्रतिबद्ध तो है ही, साथ ही क्षेत्रीय शक्ति बनने की महती आकांक्षा से भी प्रेरित है। नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति से इस बात के संकेत मिलते हैं।

सितंबर माह में जब आस्ट्रेलिया के प्रधान मंत्री टोनी अबॉट भारत आए तो उनसे भारत को यूरेनियम की आपूर्ति करने संबंधी प्रश्न पूछा गया। अबॉट का जवाब था “भारत किसी के लिए खतरा नहीं है, और बहुतों का मित्र है।” कूटनीतिक भाषा में इसका अर्थ है, भारत सॉफ्ट पॉवर है। दूसरा संदर्भ-सामरिक व रक्षा विशेषज्ञों ने हाल ही में एक नए मुहावरे का प्रयोग शुरू किया है, वह है – भारत प्रशांत महासागर में धुरी और हिंद महासागर क्षेत्र में नौसैनिक शक्ति है। आशय महासागर क्षेत्रों में भारत की बढ़ती सामरिक क्षमता से है। कुछ वर्षोें पूर्व इसकी कल्पना भी कठिन थी। कूटनीतिक भाषा में इसे ‘भारत का हार्ड पॉवर’ कहेंगे। सरल भाषा में कहें तो साम, भेद अर्थात् सॉफ्ट पॉवर और दाम, दंड अर्थात् हार्ड पॉवर। ये समीकरण भारत के पक्ष में जाते दिखाई दे रहे हैं।

इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में भारत की अपार आर्थिक संभावनाओं की चर्चा प्रारंभ हुई, परंतु विदेश नीति और कूटनीति के क्षेत्र में हमारी क्षमताओं का विषय प्राय: चर्चाओं से अछूता ही रहा। 26 मई 2014 को नई भारतीय कूटनीति का आगाज हुआ है, जो इच्छाशक्ति के साथ भारतीय हितों को आगे बढ़ाने को प्रतिबद्ध तो है ही, साथ ही क्षेत्रीय शक्ति बनने की महती आकांक्षा से भी प्रेरित है। इतना ही नहीं, कूटनीति का अपनी प्रथम रक्षा पंक्ति के रूप में उपयोग करने का हुनर भी भारत सीख रहा है। जिस पर पहला आघात तब हुआ था, जब तिब्बत के कम्युनिस्ट चीन के हाथों पतन पर नेहरू ने अपनी मौन स्वीकृति दी थी। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित करने के साथ ही क्षेत्र में भारत के स्वाभाविक प्रभाव के आरोपण और विस्तार का रास्ता खोला तथा अपनी नेपाल व भ्ाूटान यात्राओं से उसे सुद़ृढ़ किया है। 2014 की गर्मियों में शुरू हुई ये यात्रा जाड़े के आते-आते नए मुकाम पर पहुंचती दिख रही है।

पड़ोस की पगडंडियों व राजमार्गों पर

किसी भी देश के पड़ोसियों के साथ उसके समीकरणों का उसकी शांति, सुरक्षा और प्रगति पर गहरा असर होता है। क्षेत्रीय अथवा वैश्विक शक्ति बनने की भारत की राह भी पास पड़ोस के छोटे-छोटे गलियारों से होकर जाती है। नेपाल में माओवादी गठजोड़ के उदय के बाद से ही भारत विरोधी भावनाएं भड़काई जा रही थीं। भ्ाूटान भी बहुत उत्साहपूर्ण नहीं था, और स्वयं को अलग-थलग महसूस कर रहा था। ये दोनों पड़ोसी देश भारत की आंंतरिक सुरक्षा की द़ृष्टि से अहम हैं। उत्तर प्रदेश व बिहार समेत सारे भारत में जिहादी आतंकवाद के मद्देनजर नेपाल की आंतरिक परिस्थितियां खास महत्व की हैं। नेपाल के माओवादियों के भारतीय नक्सलवादियों से गहरे संबंध हैं। भारत का हित स्थिर नेपाल में है, तो चीन व पाकिस्तान की रूचि अस्थिर नेपाल में है। भ्ाूटान भी लगातार चीन के निशाने पर है। भ्ाूटान की परिस्थितियां भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की आंतरिक सुरक्षा पर असर डालती हैं। प्रधान मंत्री ने जब देश के बाहर कदम रखा तो सबसे पहले इन्हीं दोनों देशों का आतिथ्य स्वीकारा। वहां पर दिल खोलकर पारस्परिक हितों की बातें कीं। नेपाल की संविधान सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा कि “जब आपको ठंड लगती है, तो हमें भी ठंड लगती है।” अपने पूर्ववर्तियों से थोड़ा हटकर मोदी ने भारत के सांस्कृतिक संबंधों और आध्यात्मिक परंपराओं का उपयोग एक सेतु के रूप में किया, और चीन के नेपाल में बढ़ते प्रभाव की रोकथाम करने का प्रयास किया। अब बांग्लादेश व श्रीलंका में बहुत सावधानी से बढ़ने की आवश्यक्ता है। दोनों को चीन फुसला रहा है। बांग्लादेश की प्रधान मंत्री शेख हसीना वाज़ेद चीन होकर आई हैं। वहां पर उन्होंने चीन के नेतृत्व वाली इक्कीसवीं शताब्दी का सक्रिय भागीदार बनने की इच्छा व्यक्त की। बांग्लादेश के हथियार आयात में 82 प्रतिशत हिस्सा चीन का है। दोनों देशों ने चित्तगांग में चीनी आर्थिक-निवेश क्षेत्र बनाने का समझौता किया है। साथ ही सोनादिया द्वीप को चीन बंदरगाह के रूप में विकसित करने जा रहा है। सोनादिया में उपस्थिति से चीन का हिंद महासागर में प्रभाव बढ़ेगा और उसे एक और वैकल्पिक ऊर्जा व व्यापार मार्ग उपलब्ध हो जाएगा। श्रीलंका संबंधों को दक्षिण भारत की तमिल राजनीति की छाया से दूर विकसित करने का प्रयास आरंभ किया है। श्रीलंका और मालदीव दोनों के साथ रक्षा सहयोग बढ़ाया जा रहा है।

ड्रैगन को साधने का प्रयास

वार्ता की मेज पर आने के पहले सीमा पर तनाव पैदा करना चीन की पुरानी और हमेशा परिणाम देने वाली चाल रही है। सीमा की तपिश का उपयोग वह अपने स्वार्थ साधने और बातचीत के दौरान मांगें मनवाने के लिए करता है। इस बार भी चीन ने वही किया, परंतु चाल काम न आई। भारतीय सुरक्षा बलों ने सीमा पर चीनी दुस्साहस का संयत लेकिन द़ृढ़ प्रतिरोध किया। भारतीय सीमा में चीन द्वारा बनाई जा रही सड़क को हमारे सैनिकों ने खोदकर अलग कर दिया। चीन से व्यापार और सहयोग पर बातचीत के साथ प्रधान मंत्री ने स्पष्टता से कह दिया कि व्यापार तभी फल-फूल सकता है, जब सीमाओं पर शांति हो। तभी दलाई लामा का बयान आया कि चीनी राष्ट्रपति को भारत के शांतिप्रिय वातावरण से बहुत कुछ सीखने की आवश्यक्ता है। इसी बीच तिब्बती प्रदर्शनकारी वार्ता स्थल तक पहुंच गए। जिनपिंग ने दीवार पर लिखी इबारत अवश्य ही पढ़ ली होगी कि तिब्बत का उलझा हुआ मसला चीन को किसी भी समय दु:स्वप्न दिखा सकता है। अरूणाचल मामले पर चीन ने अपनी धौंस इस कदर जमा रखी थी, कि प्रधान मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के अरूणाचल दौरे पर आपत्ति दर्ज कराने का दुस्साहस कर डाला था। 15 अक्टूबर को चीन ने अरूणाचल प्रदेश की सीमा पर मैकमोहन रेखा के समानांतर भारत द्वारा सड़क निर्माण की योजना पर कड़ा एतराज जताया। 16 अक्टूबर को गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बयान दिया कि “भारत एक शक्तिशाली देश है, और कोई हमें धमका नहीं सकता।” अक्टूबर के अंत में संपन्न हुई चौथी इस्तंबुल वार्ता में भारत और अफगानिस्तान ने चीन को चेताया कि पाकिस्तान उसका साझीदार है, परंतु वह आतंकवाद का निर्यात कर रहा है। इस पर चीन सोचने को बाध्य अवश्य हुआ है, क्योंकि उसके सीमांत में वह स्वयं जिहादी आतंकवाद से हाथ दो चार कर रहा है। कहा जा सकता है, कि भारत- चीन संबंधों में बहुत कुछ नया घट रहा है।

दूसरा महत्वपूर्ण घटनाक्रम भारत और चीन की क्षेत्रीय आकांक्षाओं के संदर्भ में है। विगत कुछ दशकों से भारत के अन्य पड़ोसियों से संबंधों का ठहराव चीन के लिए मौका बन गया। पाकिस्तान को उसने भारत के खिलाफ मोहरा बनाया, जबकि अन्य पड़ोसियों के असंतोष को भ्ाुनाने के लिए उसने बांहें चढ़ा लीं। चीन ने इन देशों की ओर हाथ बढ़ाकर भारत के चारों ओर रणनीतिक व्यूह खड़ा करने का प्रयास किया। चीन 1965 के बाद से ही पाकिस्तान को शस्त्रों से सुसज्जित करने में लगा है। उसने पाकिस्तान को टैंक, मिसाइल, लड़ाकू विमान से लेकर परमाणु बम का डिजाइन तक उपलब्ध करवाया। साथ ही आर्थिक-कूटनीतिक संबंध द़ृढ़ किए। फलस्वरूप पाकिस्तान ने चीन को उसके अवैध कब्जे वाले कश्मीर में सड़क और आधारभ्ाूत ढांचे के निर्माण तथा खनन के लिए आमंत्रित किया। चीन ने पाकिस्तान के अरब सागर तट पर विशाल नौसैनिक बंदरगाह ग्वादर विकसित किया। जिसे सड़क रेलमार्ग द्वारा पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर से होकर चीन से जोड़ दिया गया। इससे चीन की पश्चिम एशिया के तेल क्षेत्रों तथा अफ्रीका के व्यापार मार्ग तक सीधी पहुंच हो गई, साथ ही भारत के पश्चिम में चीनी नौसेना की उपस्थिति दर्ज होने लगी। पाकिस्तान को सीधा फायदा तो मिला ही, उसने अपने कब्जे वाले कश्मीर में चीन के हितों को जोड़कर भारत की चुनौती को दुहरा कर दिया। चीन ने हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी में भी कदम रखा। श्रीलंका में उसने हम्बनटोटा और बर्मा में सीटवे, क्यूक्यू, हाइंगई व तननथलाई बंदरगाह तैयार किये। बर्मा ने अंडमान निकोबार के समीप कोको द्वीप भी चीनी नौसेना को सौंप दिया। इसके अतिरिक्त चीन ने इन सभी देशों के साथ व्यापारिक कूटनीतिक संबंध गहरे किए एवं प्राय: सभी का शस्त्र आपूर्ति करने वाला मुख्य देश बन गया। बर्मा भी ऐसा ही एक लाभार्थी था।

चीन की इस घेराबंदी के जवाब में भारत की ‘पूर्व की ओर देखने’ (लुक ईस्ट) की नीति रही है। मोदी सरकार ने इसे नया आयाम देते हुए ‘एक्ट ईस्ट’ नीति नाम दिया है। इसके अंतर्गत सभी आसियान देशों (इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन्स, सिंगापुर, थाईलैंड, बू्रनेई, कंबोडिया, लाओस, म्यांमार, और वियतनाम) से व्यापारिक व सामरिक संबंध सुद़ृढ़ करने की महत्वाकांक्षी योजना तैयार की गई है। आसियान देशों की सामूहिक शक्ति को देखा जाए तो वे विश्व की सातवें क्रमांक की अर्थव्यवस्था हैं। इन देशों के साथ भारत के पुराने सांस्कृतिक संबंधों का भी आधार है। बर्मा में चीन की उपस्थिति सर्वत्र अनुभव की जा सकती है, परंतु परिस्थ्िितयां बदल रही हैं। चीन के पास आज धनबल भारत से अधिक है, परंतु भारत के पास मजबूत संस्थागत ढांचा है। जापान की भी यहां मजबूत उपस्थिति है, ऐसे में नई ऊंचाई पर पहुंच रहे भारत जापान संबंध इस क्षेत्र में भी परिस्थितियों को नया मोड़ देने में सक्षम हैं। नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार नेपाल, भ्ाूटान व जापान में सांस्कृतिक संबंध को पोषित करने का प्रयास किया है, उससे आसियान क्षेत्र में आशाजनक वातावरण बना है। भारत के लिए भी यह क्षेत्र संभावनाओं से भरा है। यदि भारत को इन देशों के साथ सड़क व रेल मार्गों से जोड़ने का महती प्रयास किया जाए, तो आर्थिक विकास को तरस रहे पूर्वोत्तर के राज्यों का भाग्य पलट सकता है। चीन दुनिया का ऐसा देश है, जिसके अधिकार वाली भ्ाूमि से सर्वाधिक अंतरराष्ट्रीय नदियां निकलती हैं। चीन विश्व का सबसे बड़ा बांध निर्माता भी है। भारत समेत कई आसियान देशों का पानी आज चीन की नीतियों के कारण खतरे में आ गया है। ये सभी देश भारत के साथ सहयोग करने के इच्छुक हो सकते हैं। वियतनाम चीन के साथ खूनी लड़ाई झेल चुका है, और आज भी अपनी सीमाओं को लेकर आशंकित है। सितंबर माह में भारत ने चीन की नाराजगी को दरकिनार करते हुए वियतनाम के साथ अति महत्वपूर्ण व्यापार व रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर किए। इस तरह निरंतर आक्रामक रहे चीन का पिछला दरवाजा खटखटाना एक महत्वपूर्ण पग है। दक्षिण चीन सागर में चीन की धौंसबाजी से परेशान वियतनाम लंबे समय से भारत से युद्धपोत भेदी ब्राह्मोस मिसाइल खरीदना चाह रहा था। भारत ने रूस के साथ मिलकर इसे विकसित किया है। अब रूस को भी तैयार कर भारत ने वियतनाम को हरी झंडी दे दी है। भारत वियतनाम को 100 मिलियन डॉलर के नौसैनिक पोत व साजोसामान भी बेच रहा है, बदले में वियतनाम ने भारत की पेट्रोकेमिकल कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमिटेड को दक्षिण चीन सागर में तेल की खुदाई के लिए आमंत्रित किया है। कह सकते हैं कि आत्मविश्वास से भरी भारतीय कूटनीति ने इस क्षेत्र में नए उत्साह का संचार किया है। भारत 2015 तक इस क्षेत्र में अपने द्विपक्षीय व्यापार को 100 बिलियन डॉलर तक ले जाने की योजना बना रहा है। त्रिपक्षीय भारत, म्यांमार, थाईलैंड सड़क-रेल परिवहन की योजना बन रही है।

पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया एवं भारत, जापान, अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया

अपनी जापान यात्रा के दौरान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने आह्वान किया कि भारत और जापान को मिलकर विकासवाद का उदाहरण खड़ा करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम आज भी 18 वीं सदी की मानसिकता वालों को देख रहे हैं, जो दूसरे देशों की भ्ाूमि, उनके समुद्र क्षेत्र में अवैध प्रवेश करते रहते हैं। भारत की ओर से इतना सीधा हमला झेलना चीन के लिए नया अनुभव है। जापान चीन की बढ़ती आक्रामकता और चीन द्वारा उसकी संप्रभ्ाुता को निरंतर दी जा रही चुनौतियों से चिंतित है। ऐसे में जापान भारत को अपना स्वाभाविक साथी व हितचिंतक मानता है। भारत जापान के संबंध प्रगाढ़ रहे हैं। इस बार रक्षा-व्यापार व सांस्कृतिक संबंधों को नई ऊंचाई देने का प्रयास किया गया। तकनीक स्थानांतरण पर भी बात बढ़ी। ‘काशी-कयोटो’ मोदी के ‘डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी व डिमांड, बुलेट ट्रेन’ आदि की तो भारतीय मीडिया में खूब चर्चा हुई, परंतु महत्वपूर्ण संकेत सुर्खियों से प्राय: अछूता रह गया।

जापान के प्रधान मंत्री शिंजो आबे ने 2012 में कहा था, “मैं आवाहन करता हूं कि आस्ट्रेलिया, भारत, जापान तथा अमेरिका मिलकर हिंद महासागर से लेकर पश्चिमी प्रशांत महासागर तक के समुद्री क्षेत्र की सुरक्षा के लिए एक हीरक (चतुष्क) बनाएं।”
उल्लेखनीय है, कि भारत की उसके समुद्री क्षेत्र में नौसैनिक घेराबंदी करने की चीन की रणनीति को ‘मोतियों की माला’ सिद्धांत (स्ट्रिंग ऑफ पर्ल) कहा जाता है। मोदी-आबे संयुक्त प्रेस वार्ता में भी समुद्री सुरक्षा पर विशेष जोर दिया गया। ऐसे में आबे द्वारा 2012 में किया गया आह्वान एक ठोस वास्तविकता बन सकता है। आस्ट्रेलिया और अमेरिका भी चीन को लेकर गंभीर रूप से आशंकित हैं। अमेरिका व चीन के बीच व्यापार व आर्थिक व्यवहार लगातार बढ़ा है, पर सामरिक हितों को लेकर अविश्वास की खाई जस की तस है। भारत और जापान सहित आसियान देश भी इस समुद्री क्षेत्र में बढ़ती चीनी नौसैनिक गतिविधियों से चिंतित हैं। हिंद महासागर से लेकर मलक्का से होकर जापान तक के इस जलमार्ग से प्रति दिन 200 के लगभग जहाज गुजरते हैं। ऐसे में ‘एशिया-प्रशांत’ से ‘भारत-प्रशांत’ तक का ये परिवर्तन गहरे मायने रखता है।

30 सितंबर 2014 को अमेरिका की भ्ाूतपूर्व विदेश मंत्री मैडलिन अलब्राइट का एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने लिखा “दो सप्ताह पहले जब मैंने नई दिल्ली में कदम रखा तो भारत की सांस्कृतिक, पांथिक और भौगोलिक विविधता की विशालता को देख कर अवाक् रह गई। यही बात भारत को विशिष्ट बनाती है। इसी वर्ष 55 करोड़ लोगों ने मतदान कर के नई सरकार चुनी और विश्व नेे इतिहास का सबसे बड़ा चुनाव देखा।” प्रधान मंत्री की अमेरिका यात्रा का एक महत्वपूर्ण आयाम अमेरिका में मैडलिन अलब्राइट के उपरोक्त शब्दों को दुनिया के सामने चरितार्थ करना था। मेडिसन स्क्वायर पर भारतीयों की भावुक और उत्साही भीड़ को विश्व ने भारत की बढ़ती शक्ति के रूप में देखा। मोदी के उस भाषण में उभरते हुए नए भारत की आकांक्षाओं और संभावनाओं के दर्शन हुए।

संयुक्त राष्ट्र में बोलते हुए प्रधान मंत्री ने पिछली शताब्दी से चली आ रही वर्जनाओं पर सवाल उठाया एवं 2015 तक संयुक्त राष्ट्र में सुधार करने का आह्वान किया। व्यापार समझौतों और आर्थिक सहयोग पर बातें हुई परन्तु बातचीत का दायरा कहीं बड़ा था। बातचीत का एक प्रमुख विषय आतंकवाद और भारत के विरूद्ध चल रहा छाया युद्ध था। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल प्रधान मंत्री के लौटने के बाद भी अमेरिका में रूके रहे। बताया जाता है कि डोभाल की अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सुसन राईस के साथ इस्लामिक स्टेट से लेकर अफगानिस्तान की स्थिरता तक चर्चा हुई। खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान तथा आतंकवाद के विरोध में मिलकर काम करने पर सहमति बनी। इसके पूर्व भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने के लिए एशिया में शक्ति संतुलन, ऊर्जा संसाधन आदि विषयों पर बात हुई। एशिया के संदर्भ में भारत और अमेरिका दोनों के विचार के केंद्र में चीन है। दोनों की नीति चीन के साथ मजबूत आर्थिक और कूटनीतिक संबंध बनाने के साथ दूसरी क्षेत्रीय शक्तियों को अपने साथ जोड़ते जाने की है, जिसमें वे एक दूसरे को भी शमिल करते हैं। चीन की चुनौति का सामना करने के लिए भारत और अमेरिका परस्पर इच्छुक दिखाई दे रहे हैं, पर दोनों को अभी लंबा रास्ता तय करना है, विशेष रूप से अमेरिका को भारत के सुरक्षा सरोकारों के बारे में प्रतिबद्धता दिखानी होगी, क्योंकि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के लिए भारत को अमेरिका की आवश्यक्ता है। वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान में स्थायी शांति के लिए भारत की महती भ्ाूमिका आवश्यक है।

विदेश नीति और कूटनीति के कुछ आधारभ्ाूत सिद्धांत हैं। सर्वप्रथम तो यही है कि आप कौन हैं और क्या हैं। दुनिया आपको आपकी जमीन और आपकी जड़ों से पहचानती है। दूसरा, आप क्या चाहते हैं और बदले में क्या प्रस्ताव देते हैं। क्या आप आगे बढ़ने और पीछे हटने के समय को पहचानते हैं ? सुरक्षित चलने के साथ नपीतुली जोखिम उठाने की क्षमता और उत्साह आपमें कितना है? रणनीति के आधार पर वार्ता करने वाले और वार्ता के आधार पर रणनीति बनाने वालों में से आप कौन हैं? दूसरे शब्दों में आप शुरूआत करते हैं या प्रतिक्रिया देते हैं? फिलहाल भारत इन सभी सोपानों पर सधे हुए कदम जमाता दिख रहा है।
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