आओ, चलें, स्वप्न पूरा करें!

परमपूज्य डॉ. बाबासाहब आंबेडकर स्वप्नरंजन करनेवाले विचारक नहीं थे। उसी प्रकार आरामकुर्सी पर बैठ कर विचार करनेवाले विचारक नहीं थे। साथ-साथ व्हाईट कॉलर प्रोफेसरपंथी विचारक भी नहीं थे। वे कृतिशील विचारक थे। उनकी हरेक कृति के पीछे विचार था और हरेक विचार का अनुसरण कृति करती थी। इसीलिए ‘कृतिशील विचारक’ यह विशेषण उनको सही मायने में लागू होता है।

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर डॉग्मॅटिक विचारक नहीं थे। डॉग्मॅटिक का मतलब होता है कि किसी ग्रंथ को प्रमाण मानकर उसी के अनुसार चलना। उनके काल के सबसे बड़े डॉग्मॅटिक विचारक थे कम्युनिस्ट। मार्क्स ने क्या लिखा है? लेनिन ने क्या लिखा है? उसी को प्रमाण मान कर कम्युनिस्ट चलते थे और आज भी चलते हैं। वे धरातल का विचार नहीं करते हैं। लंबी बहस करना और लंबे लंबे प्रबंध लिखना इसी में उनकी शक्ति का व्यय होते रहता है। लंबे भाषण और प्रबंध का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आंदोलन में बहुत सीमित उपयोग होता है। भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन यशस्वी नहीं हो पाया इसके अनेक कारणों में से यह एक कारण है।

डॉ. बाबासाहब प्रागतिक विचारक थे। वे कहते थे भगवान गौतम बुद्ध, महात्मा कबीर और महात्मा ज्योतिबा फुले मेरे गुरू हैं। लेकिन बाबासाहब जी ने ‘बाबा वाक्यं प्रमाणं’ इस कहावत के अनुसार ‘गुरू वाक्यं प्रमाणं’ नहीं माना। वे काल के अनुसार उसमें संशोधन करते गए और काल की मांग के अनुसार उसमें नई नई बातें जोड़ते गए। भगवान गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्यों को वे अस्वीकार करते हैं। साथ साथ जन्म दु:खमय है इस सिद्धांत को भी वे स्वीकारते नहीं। भगवान गौतम बुद्ध के विचारों को उन्होंने नए ढंग से ‘गौतम बुद्ध और उनका धम्म’ इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया है।

प्रत्येक विचारक अपने सामने कुछ आदर्श रखता है, कुछ सपने देखता है और समाज जीवन की रचना कैसी हो इसका रेखांकन करता है। ज्मेष्ठ विचारक मार्क्स ने ऐसा एक सपना देखा था। मार्क्स का सपना था वर्गविहिन समाजरचना का। मार्क्स की मान्यता थी कि समाज में दो वर्ग रहते हैं, (1) पूंजीपति और (2) सर्वहारा। पूंजीपति अपनी पूंजी के आधार पर मजदूर वर्ग का- मतलब सर्वहारा वर्ग का शोषण करता है। अपनी पूंजी के आधार पर वह राज्यसत्ता को भी अपने अनुकूल बना लेता है। धर्मसत्ता भी पूंजीपति की दास बनती है। मार्क्स ने दो सिद्धांत रखे, 1: राज्यसत्ता का विलय होना चाहिए, 2: धर्मसत्ता का विलय होना चाहिए। धर्म अफीम की गोली है।

राज्यसत्ता का विलय कैसे होगा? मार्क्स बताता है कि, विलय के पूर्व सर्वहारा की सत्ता आएगी। पूंजीपति समाप्त कर दिए जाएंगे। हिंसक क्रांति होगी। सर्वहारा की सत्ता आने के बाद प्रत्येक व्यक्ति को उसकी मूलभूत आवश्यकता के अनुसार सब कुछ मिलेगा। उसके भरणपोषण की चिंता राज्य करेगा। धीरे धीरे राज्य समाप्त हो जाएगा और राज्यविहीन समाज रचना निर्माण होगी। जिसमें पुलिस, सेना आदि दंडशक्ति की आवश्यकता नहीं रहेगी। मार्क्स ने आदर्श समाज का यह चित्र प्रस्तुत किया। इसका क्रियान्वयन करने के लिए उसने मजदूरों से कहा, ‘मजदूरों संगठित हो जाओ। संघर्ष करो। आपको केवल अपनी बेडियां ही तोड़नी हैं और कुछ गंवाना नहीं है।’

मार्क्स के कालखंड में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी और पूंजीपतियों द्वारा प्रचुर मात्रा में संपत्ति का निर्माण हो रहा था। संपत्ति का बंटवारा विषम ढंग से हो रहा था। गरीब अधिक गरीब बनते जा रहे थे और पैसे वाले अधिक पैसेवाले बनते जा रहे थे। इस विषमता की खाई के कारण आम जनता पीड़ित थी। युवा वर्ग पीड़ित था। बुद्धिवादी पीड़ित थे। और उन सबको मार्क्स का तत्वज्ञान आकृष्ट कर गया। इसलिए उस समय एक कहावत बनी थी, ‘युवा रहते मार्क्सवादी नहीं बनना यानी दिमाग नहीं होना।’ भारत में हम देखते हैं कि 19वीं सदी के प्रारंभ में ही भारत का युवा वर्ग मार्क्सवादी बन चुका था। विवेकानंद जी को भी एक बार कहना पड़ा कि मैं समाजवादी हूं। यद्यपि वे तत्वत: समाजवादी नहीं बल्कि वेदान्ती थे। राजनीति में पंडित नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश, डांगे, रणदिवे आदि नाम हम जानते हैं उसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में पंडित राहुल सांकृत्यायन, शरद्चंद्र मुक्तिबोध, ऐसे कई नाम आते हैं।

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने मार्क्सवाद का गहरा अध्ययन किया था। लेकिन वे मार्क्सवादी नहीं बने। उसके दो कारण थे। पहला कारण वे कट्टर धार्मिक थे। यहां कट्टर धार्मिक का मतलब पूजापाठ, उपवास, व्रत, तीर्थयात्रा करनेवाला इससे नहीं है। इन सारे बातों पर आंबेडकर जी का विश्वास नहीं था। समाज की धारणा के लिए धर्म आवश्यक है, धर्म के बिना आदमी पशु बन जाता है ऐसी उनकी मान्यता थी। मार्क्सवाद में धर्म को कोई स्थान नहीं था। दूसरा कारण बाबासाहब स्वतंत्र प्रज्ञा के विचारक थे। उनकी प्रज्ञा की जड़ें भारतीय थीं। अपनी संस्कृति और विरासत में यह जड़ें खूब गहराई तक गई थीं। उनकी बुद्धि को वहां से जीवनरस प्राप्त होता था। विदेशी विचार उनकी जीवन की प्रेरणा कभी नहीं बना। यद्यपि उन्होंने विदेश से आए सभी अच्छे विचारों का खुले दिल से स्वागत किया है लेकिन उनका अंधानुकरण नहीं किया, जो कि पंडित नेहरू करते थे।

मार्क्स की वर्गवाद की कल्पना को बाबासाहब ने ठुकरा दिया। भारत में वर्ग नहीं है। भारत में जातियां हैं। वर्ग और जाति समव्याप्त नहीं हैं। अंग्रजों के शासनकाल में पूंजीपतियों का वर्ग सीमित था। जीवन के सभी क्षेत्रों पर वह हावी नहीं था। राज्य शासन पूंजीपति नहीं चलाते थे, अंग्रेज चलाते थे। धर्म शासन स्वयंभू और स्वायत्त था। उसे पूंजीपति नहीं चलाते थे। भारत के मार्क्सवादी भारत की वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था को समझ नहीं पा रहे थे। वे पोंगापंडित जैसी तोते की रट लगाते थे कि, वर्ग के आधार पर समाज का संगठन हो जाने से जातिभावना अपने आप समाप्त हो जाएगी। वर्ग अनुभूति यह जाति अनुभूति को खा जाएगी ऐसी उनकी मान्यता थी।

आंबेडकर जी का कहना इससे उल्टा था। वे कहते थे कि, जाति अनुभूति यह वर्ग अनुभूति को खा जाएगी क्योंकि वर्ग का निर्माण तो अभी अभी हो रहा है और जातियों का निर्माण हजारों साल पुराना है। मजदूर के सामने अगर संघर्ष खड़ा होता है कि वह जाति को प्रमाण माने या वर्ग को प्रमाण माने तब मजदूर जाति को प्रमाण मानेगा, वर्ग को नहीं। इस तथ्य की अनुभूति हम आज भी समाज के अंदर कर सकते हैं। डॉ. बाबासाहब मुंबई के मिल का उदाहरण दिया करते थे। उस समय मुंबई में कपडों की मिलें बहुत थीं। उसमें काम करनेवाले मजदूर जाति के आधार पर ही बंट चुके थे। अस्पृश्यों को एक विशिष्ट विभाग में काम करने नहीं दिया जाता था। यूनियनें तो कम्युनिस्टों की थीं, लेकिन किसी भी कम्युनिस्ट नेता ने इस अन्याय को दूर करने का प्रयास नहीं किया।

मार्क्स के समान डॉ. बाबासाहब जी ने आदर्श समाज का एक सपना देखा था। बाबासाहब जी के आंखों के सामने हिंदू समाज था। हिंदू समाज की समाजरचना चातुर्वर्ण्य और जातिभेदों के आधार पर हुई। चातुर्वर्ण्य ने पहले समाज का विभाजन चार वर्णों में किया – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पुरुष सूक्त में यह कहा गया कि, ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय बाहू से, वैश्य जंघा से और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए हैं। इस चातुर्वर्ण्य ने ब्राह्मणों को असीम अधिकार दिए थे। थोड़े कम अधिकार क्षत्रियों को दिए, उससे थोड़े कम वैश्यों को दिए और शूद्रों को समाज की सेवा करने को कहा। इस चातुर्वर्ण्य से आगे चल कर जातियां बनती चली गईं। भिन्न भिन्न व्यवसाय करनेवाले लोकसमूह एक एक जाति के बन गए।

बाबासाहब कहते हैं कि, जाति निर्माण का श्रेय न तो ब्राह्मणों को जाता है न ही मनु को जाता है। जाति जैसी जगत् व्यापी संस्था का निर्माण किसी एक व्यक्ति अथवा व्यक्तिसमूह के परे हैं। जाति निर्माण होने के कुछ कारण बाबासाहब बताते हैं। (1) अपनी ही जाति में विवाह, (2) जन्म से जाति का निर्धारण, (3) जाति का अपरिवर्तनीय स्वरूप। इस जाति संस्था ने अस्पृश्य वर्ग को जन्म दिया। चातुर्वर्ण्य के बाहर उनको रखा गया और उनकी भी अलग अलग जातियां बनाईं। साफसफाई, मृत जानवरों को ढोना तथा उनकी खाल निकालना और भिन्न भिन्न प्रकार के गंदे काम इनको दिए गए। इन गंदे कामों से वे अस्पृश्य बन गए। उन पर कड़े सामाजिक निर्बंध लगाए गए। सभी प्रकार के अधिकारों से उनको दूर रखा गया। सामाजिक दासता की एक अमानवीय संस्था का जन्म हुआ। ऐसे ही एक अछूत जाति में बाबासाहब जी का जन्म हुआ था और बाल्यकाल से ही अछूतेपन के दुख को उनको सहन करना पड़ा है।

जातिभेद और अस्पृश्यता ने अपने राष्ट्र का अपरिमित नुकसान किया है। इस बात को डॉ. बाबासाहब बार बार बताते रहे। और उसके खिलाफ संघर्ष करते रहे। संघर्ष की एक वैचारिक पृष्ठभूमि उन्होंने तैयार की। उस पृष्ठभूमि का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि हिंदू समाज एकवंशीय समाज है। आर्य बाहर से आए और उन्होंने यहां के मूल निवासियों को जीत लिया इस सिद्धांत का जबरदस्त खंडन उन्होंने ‘शूद्र पहले कौन थे?’ इस पुस्तक में किया है। इसी पुस्तक में उन्होंने यह साबित कर दिया है कि पूर्वकाल में केवल तीन वर्ण थे। ब्राह्मण और क्षत्रियों का लंबा संघर्ष चला। इस संघर्ष में ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का उपनयन संस्कार बंद कर दिया। उसके कारण वे शूद्र बन गए। शूद्र राजाओं की लंबी सूची भी बाबासाहब जी ने पुस्तक में दी है।

इस एकवंशीय समाज की संस्कृति भी एक है। वे अपने ‘कास्ट इन इंडिया’ प्रबंध में लिखते हैं कि, ‘सांस्कृतिक एकता के संदर्भ में भारत की बराबरी कर सके ऐसा एक भी देश विश्व में नहीं है। भारत में भौगोलिक एकता के सिवा अत्यंत गहरी मूलभूत एकता है जिसका प्रभाव देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रहता है।’

हम जातिपाति में बंट जाने के कारण असंगठित हो गए। जाति निर्मूलन इस प्रबंध में डॉ. बाबासाहब जी लिखते हैं कि जब तक हिंदू समाज में जातियां हैं। तब तक हिंदू समाज बंटा रहेगा और बंटा रहने के कारण दुर्बल रहेगा। और दुर्बल रहने के कारण अन्य संगठित समाज से मार खाता रहेगा। वे और भी लिखते हैं कि किसी एक समय हिंदू धर्म प्रचारकी धर्म था। लेकिन अब वह सिकुड़ गया है। उसकी अवस्था दो नल वाले पानी की टंकी जैसी बन गई। पानी की टंकी घर के ऊपर रहती है और उस टंकी में पानी लानेवाला एक नल रहता है और घर में उपयोग के लिए अन्य नल रहते हैं। हिंदू समाज ने पानी की टंकी भरनेवाला नल बंद कर दिया है और पानी बाहर छोड़ने वाले नल को चालू रखा है। हिंदू धर्म में आने के सारे रास्ते बंद हैं, बाहर जाने के सारे मार्ग खुले हैं। इसके कारण हिंदू समाज का संख्याबल तेज गति से घट रहा है। यह हिंदू समाज के लिए खतरे की घंटी है। इस बात को भी डॉ. बाबासाहब जी ने बताया है।

मार्क्स के सामने प्रश्न था पूंजीवाद को खत्म करने का। बाबासाहब जी के सामने प्रश्न था जातिभेद और विषमता को समाप्त करने का। वे चाहते थे कि समाज का पुनर्निर्माण स्वतंत्रता, समता और बंधुता के आधार पर हो। वे सामाजिक प्रजातंत्र की बात करते हैं। उनके लिए प्रजातंत्र केवल राजनीतिक प्रजातंत्र नहीं था। राजनीतिक प्रजातंत्र में सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार होता है। राजनीतिक दल बनाने का अधिकार होता है। चुनाव में खड़े रहने का अधिकार होता है। सामाजिक प्रजातंत्र में सामाजिक आवागमन पर कोई बंधन नहीं रहता है। उदाहरणार्थ, हिंदू समाज में शादियां आज भी जाति में ही होती हैं। अंतरजातीय विवाह अब भी सर्वमान्य नहीं हुए हैं। बाबासाहब जी की कल्पना थी कि अगर सामाजिक प्रजातंत्र का अनुभव करना है तो अनुरूप युवक युवतियां आपस में विवाह करें। इसमें जाति बंधन का कोई बाधा नहीं रहनी चाहिए। उसी प्रकार सभी को व्यवसाय स्वतंत्रता हो। चमार जाति में जन्मा व्यक्ति अगर कपड़े की दूकान डालने की क्षमता रखता है तो वैसी उसे स्वतंत्रता रहनी चाहिए और महार जाति का व्यक्ति अगर होटल खोलना चाहता है तो उसे होटल खोलने की अनुमति मिलनी चाहिए।

लेकिन केवल अनुमति देने से काम नहीं चलता है। अनुमति कानून से दी जा सकती है। उसे सामाजिक मान्यता भी मिलनी चाहिए। सामाजिक मान्यता का मतलब होता है, समाज ने उस प्रकार से व्यवहार करना चाहिए। चर्मकार अगर कपड़े की दूकान डालता है तो लोगों को वहां जाना चाहिए। और कोई अछूत उपाहारगृह खोलता है तो वहां भी जाना चाहिए। इस मान्यता के बिना समाज परिवर्तन होना संभवनीय नहीं है। जाति निर्मूलन होना चाहिए, जाति निर्मूलन होना चाहिए ऐसी केवल घोषणा करने से जाति निर्मूलन नहीं होगा। हम लोग नारेबाजी तो बहुत करते हैं लेकिन उस प्रकार से व्यवहार करने में चूक जाते हैं। यह हमारे सामाजिक जीवन की विसंगति और विडंबना है।
सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए मानसिक परिवर्तन की आवश्यकता होती है। मानसिक परिवर्तन राज्यसत्ता के कानून द्वारा कभी नहीं होता। राज्यसत्ता अगर कानून बनाती है कि शराब नहीं पीनी चाहिए तो लोग शराब पीना छोड देंगे ऐसा नहीं होता है। वे तो चोरीछुफे शराब पीते रहते हैं। परिवर्तन लाने के लिए समाज के मानस में परिवर्तन करना पड़ता है। समाज के मानस में परिवर्तन लाना इस शरीर के कपड़े बदलने जैसा आसान काम नहीं है। साल दो साल में हम घर का फर्निचर बदल सकते हैं और कुछ बदलाव घर में कर सकते हैं। यह काम आसान है। लेकिन करोड़ों लोगों के मन के भीतर परिवर्तन लाना यह आसान काम नहीं है।

परिवर्तन के बाबासाहब जी के कुछ सिद्धांत हैं। वे जानते थे कि, सामान्य व्यक्ति परंपराओं पर चलने वाला होता है। परंपरा से उसे प्यार होता है। रूढ़िवादिता से उसे लगाव रहता है। एक प्रकार के संरक्षण की भावना उसके अंदर रहती है। इसको बदलना कठिन काम होता है। बाबासाहब कहते थे कि अन्याय परंपरा से चलता आया है इसलिए उसे सहन करना चाहिए यह विचारधारा गलत है क्योंकि अन्याय की कोई परंपरा नहीं होती। परंपरा की आड़ में अन्याय का समर्थन नहीं हो सकता है। उसे बदलना चाहिए। लोग जाति से क्यों चिपके रहते हैं? अस्पृश्यता का पालन क्यों करते हैं? पशु से भी हीन बर्ताव मनुष्य के साथ क्यों करते हैं? क्या हिंदू समाज के व्यक्ति दुष्ट स्वभाव के हैं? बाबासाहब कहते हैं कि, हिंदू व्यक्ति दुष्ट स्वभाव का नहीं होता है लेकिन उसे ऐसा लगता है कि जाति से चिपके रहना यह मेरा धर्म है, अस्पृश्यता का पालन करना यह मेरा धर्म है, यह धर्माज्ञा है।

धर्म के इस गलत अर्थ को डॉ. बाबासाहब जी ने नकारा है और ऐसे धर्म पर उन्होंने कठोर प्रहार किया है। उनका कहना था कि, धर्म का काम समाज का बंटवारा जातियों में करना नहीं है। धर्म का काम एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ संबंध किस प्रकार हो, यह बताना है। धर्म को समाज की धारणा करनी चाहिए। और धारणा करते समय ऐसे नियम बनाने चाहिए जो सबको समान न्याय दें। नियमों के आधार स्वतंत्रता, समता और बंधुता होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को व्यवसाय चुनने की और अपनी उन्नति करने की अमर्याद स्वतंत्रता होनी चाहिए। सभी प्रकार के कृत्रिम बंधनों को हटा देना चाहिए। साथ साथ समाज के सभी अंगों में समता चाहिए। जन्म से कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। वर्ण के कारण कोई उच नहीं होता, कोई नीच नहीं होता। व्यक्ति का मूल्य स्वयंभू है, उसे मूल्यहीन बनाने का काम किसी व्यवस्था को नहीं करना चाहिए। इसी के साथ साथ समाज में व्यक्ति का स्तर उसके गुण और कर्तृत्व के आधार पर निर्धारित हो।

बाबासाहब जानते थे कि, जन्मत: सब समान नहीं होते, प्रत्येक की गुणसंपदा समान नहीं होती। रंग भी हर एक का समान नहीं होता, हर एक की बुद्धि भी समान नहीं होती। लेकिन ऐसे सभी लोगों को जीवन संघर्ष में उतरना पड़ता है। डार्विन का सिद्धांत है कि, जीवन संघर्ष में जो बलवान है, वह टिकेगा। जो दुर्बल है वह समाप्त होगा। सामाजिक व्यवस्था में भी इस सिद्धांत को लागू करने का काम कुछ लोग करते हैं। लेकिन यह सरासर गलत है। बाबासाहब जी को इस सोशियल डार्विनिज्म को पूर्णरूपेण नकार दिया है। उनका प्रश्न है कि, क्या समाज को योग्यतम (बलवान) व्यक्ति की या श्रेष्ठतम व्यक्ति की जरूरत है? बाबासाहब उत्तर देते हैं कि, समाज को श्रेष्ठतम व्यक्ति की जरूरत होती है। श्रेष्ठतम व्यक्ति भले ही आर्थिक दृष्टि से या अन्य किसी कारण से दुर्बल क्यों न हो, समाज को उसकी आवश्यकता या जरुरत होती है।

स्वतंत्रता और समता के साथ साथ समाज में भाईचारे का माहौल होना चाहिए। केवल संस्कृति एक है, देश एक है, वंश एक है, इसके कारण राष्ट्र नहीं बनता। राष्ट्र बनने के लिए भाईचारे का रिश्ता होना आवश्यक है। सभी भारतीय मेरे भाई हैं, यह भावना हर एक के मन में रहनी चाहिए। हम परस्पर संलग्न हैं, परस्पर पूरक हैं, इसिलिए हमें परस्परानुकूल व्यवहार करना चाहिए। इसी को भाईचारा कहते हैं। समाज को जोड़ने वाला यह सिमेंट है।

डा. बाबासाहब जी ने एक आदर्श समाज का सपना देखा था। वे ऐसा समाज जीवन देखना चाहते थे जिसमें किसी भी प्रकार का जातिभेद नहीं होगा, कोई भी अस्पृश्य नहीं होगा, अपनी उन्नति करने के समान अवसर सब को मिलेंगे और समाज आपसी प्रेम और भाईचारे से बंधा रहेगा। बाबासाहब जी की आदर्श समाज की यह कल्पना मार्क्स के वर्गविहीन समाज से भिन्न है। मार्क्स का रास्ता हिंसा का है, डॉ. आंबेडकर का रास्ता मन परिवर्तन का है। मार्क्स का रास्ता धर्म को त्यागने का रास्ता है, डॉ. आंबेडकर जी का रास्ता धर्म के आधार पर समाज के पुनरुत्थान का रास्ता है। इसिलिए उनको भगवान गौतम बुद्ध का बुद्ध धर्म प्रिय लगा। उनको ऐसे लगा कि, इसी धर्म में स्वतंत्रता, समता तथा भाईचारा है। और भारतीय लोगों को भगवान बुद्ध के विचारों का अनुसरण करना चाहिए।

डॉ. बाबासाहब जी की आदर्श समाज की संकल्पना आज कितनी व्यवहार में आई है, इस पर हमें विचार करना चाहिए। विचार करते अगर यह सिद्ध होता है कि, आदर्श समाज की यह संकल्पना राष्ट्र के हित में है, और मानव जाति के हित में भी है तो उस आदर्श समाज की ओर हमें जाना पड़ेगा। वैसे प्रयास करने पड़ेंगे। मार्ग में जो बाधाएं आती हैं, उन्हें दूर करना पड़ेगा। समाज के मानसिक परिवर्तन के मार्ग पर चलना पड़गा। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय का मंत्र जपते हुए निरंतर चलते रहना पड़ेगा। हमारा संविधान ऐसे समाज का दिशादर्शन करता है। लेकिन केवल संविधान बनने से या संवैधानिक कानून बनने से सामाजिक परिवर्तन नहीं होता। सामाजिक परिवर्तन के लिए बुद्धि परिवर्तन, मानसिक परिवर्तन, व्यावहारिक परिवर्तन लाना पड़ता है।

इस दृष्टि से विचार करें तो, हम यह कह सकते हैं कि, हमने आदर्श समाज की ओर अब तक कई कदम उठाए हैं। लक्ष्य बहुत दूर है, मार्ग बहुत लंबा है, कठिन भी है, लेकिन उसे पार करना पड़ेगा। यह काम शायद अनेक पीढ़ियों को करना पड़ेगा। और प्रत्येक पीढ़ी को लक्ष्य प्राप्ति की दिशा को पकड़ते हुए हमें क्या करना है, क्या करना चाहिए इस पर चिंतन, मनन करना चाहिए। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर केवल दलित चिंतक नहीं थे। वे एक महान समाज चिंतक थे, राष्ट्र चिंतक थे, और मार्क्स के समान एक दार्शनिक चिंतक थे। उनके दर्शन को जातिपाति के बंधन से ऊपर उठ कर समझना पड़ेगा। 21वीं सदी और सशक्त भारत की बात सब लोग करते हैं। सशक्त भारत केवल आर्थिक कारणों से या सैनिकी कारणों से नहीं बनेगा। भारत की शक्ति उसकी समाजरचना में है। उसके धर्म में है। इन दोनों में युगानुकूल परिवर्तन करना आज की आवश्यकता है। और इस दिशा में हमको चलना पड़ेगा।

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