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भारतीय संविधान और डॉ. आंबेडकर

भारतीय संविधान और डॉ. आंबेडकर

by प्रो श्याम अत्रे
in अप्रैल -२०१५, सामाजिक
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बाबासाहब ने देश के सामने विषयसूची निर्धारित की है, उसकी पूर्तता के लिए जिस राह से गुजरना है उसका नक्शा भी बना दिया है। इसमें केवल तत्व चिंतन नहीं, बल्कि जीवन की वास्तविकता तो ध्यान में लेकर देश की प्रगति के लिए और लोकतंत्र की सफलता के लिए किया मौलिक मार्गदर्शन है।

भारतीय संविधान की निर्मिति एक ऐतिहासिक और महत्व की प्रक्रिया है और उसमें डॉ. बाबासाहब की भूमिका मैदान में आकर नेतृत्व करने वाले सेनापति की है। कुल मिलाकर इस प्रक्रिया का और बाबासाहब की भूमिका का परामर्श लेना, प्रस्तुत लेख का उद्देश्य है।

स्वतंत्र भारत के लिए संविधान समिति का गठन 9 दिसंबर 1946 को हुआ। सच्चीदानंद सिन्हा इस संविधान समिति के अंतरिम अध्यक्ष थे। 11 दिसंबर 1946 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस समिति का अध्यक्षपद स्वीकारा। 26 नवंबर 1949 को संविधान लिखकर तैयार हुआ और 26 जनवरी 1950 को उसे कार्यान्वित किया गया। इस प्रकार 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिनों में संविधान निर्मिति की चुनौती संविधान समिति ने पूर्ण की।

मसविदा समित

संविधान समिति के अंतर्गत 10 उपसमितियां थीं। उनमें सबसे महत्व की थी ‘मसविदा समिति’। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर उसके अध्यक्ष थे। मसविदा समिति में आठ सदस्य थे। बी.एन.राव मसविदा समिति के सचिव और क़ानूनी सलाहगार थे। उन्होंने तैयार किए कच्चे मसविदे पर इस समिति ने चर्चा की। अल्हादी कृष्ण स्वामी अय्यर, एन गोपालस्वामी आय्यंगार, डा. के.एम. मुंशी, सईद मोहम्मद सादुल्ला, बी.एल.मित्तल और डी.पी. खेतान समिति के अन्य सदस्य थे। आगे जाकर बी.एल. मित्तल और डी.पी. खेतान के स्थान पर क्रमशः एन. माधवराव और टी.टी. कृष्णस्वामी सदस्य बने। मसविदा समिति की पहली बैठक हुई। उसकी कुल 44 सभाएं हुईं। 13 फरवरी 1948 को संविधान का मसविदा, मसविदा समिति के अध्यक्ष के सामने रखा गया। उसके बाद आठ महीनों तक उसे जनता के विचारार्थ रखा गया। इस मसविदे पर और जनता से मिली सूचनाओं पर 114 दिनों तक अनुच्छेदों के अनुसार चर्चा की गई। 4 नवंबर 1949 को यह प्रक्रिया पूरी हुई और संविधान का संशोधित मसविदा संविधान समिति ने स्वीकार किया। 25 नवंबर 1949 के दिन डॉ. आंबेडकर ने समिति के सामने ऐतिहासिक भाषण दिया।

डॉ. आंबेडकर के समक्ष चुनौतियां

डॉ. आंबेडकर के लिए संविधान का मसविदा तैयार करना और संविधान समिति में यथार्थ योगदान देना आसान काम नहीं था। उनके सामने अनेक चुनौतियां थीं। संविधान समिति सदस्यों को उत्तम और कार्यान्वित हो सके ऐसा संविधान निर्माण करना और हर प्रकार के स्वार्थ से दूर रहना था। यही संविधान समिति के सदस्यों और संसद सदस्यों के बीच का अंतर है यह बात सबके गले उतारने की जिम्मेदारी बाबासाहब पर थी।

1)संविधान समिति द्वारा स्थापित मसविदा समिति में भले ही आठ सदस्य थे लेकिन फिर भी संविधान के मसविदा को अंतिम आकर देने का दायित्व अकेले बाबासाहब पर ही था।
2)प्रत्यक्ष संविधान निर्मिति प्रक्रिया में बाबासाहब को आए अनुभव बड़े दुखद हैं। उन्हें लगातार संविधान समिति के अन्य सदस्यों और मंत्रियों के विरोध और असंतोष का सामना करना पड़ा। उन्हें अनेक ऐसे अनुच्छेदों को मान्यता देनी पड़ी जो उन्हें अमान्य थे। बाबासाहब ने इस बात को प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया और अपना मत दूर रखकर आवश्यक समझौते किए।

पहला क्रांतदर्शी भाषण- बाबासाहब का पहला भाषण, आशय और चिंतन के कारण अत्यंत महत्व का था। यह संविधान समिति के अन्य भाषणों और चर्चाओं के लिए दिशा दर्शक रहा।

भाषण के प्रारंभ में उन्होंने कहा, प्रस्तुत प्रस्ताव के दो भाग हैं। एक विवादास्पद है और दूसरा वादातीत है। इस प्रस्ताव में 5 से 7 तक के अनुच्छेद वादातीत हैं। इनमें देश के भावी संविधान के उद्दिष्ट निश्चित किए गए हैं। सकारात्मक निरीक्षण रखने के बाद बाबासाहब ने कहा, मेरे हिसाब से यह भाग अत्यंत निराशाजनक है … क्योंकि इसमें जो विचार रखे गए हैं उन पर अधिक गहराई के साथ चर्चा होनी चाहिए थी ऐसी मेरी धारणा है। प्रस्ताव की कमियों की ओर संकेत करते हुए बाबासाहब ने कहा, प्रस्तुत प्रस्ताव में अधिकारों की बात की गई है, लेकिन उपायों के बारे में कुछ नहीं कहा गया। जब तक कार्यान्वयन का मार्ग न दिया जाए, तब तक अधिकार कोई मायने नहीं रखते।

एक और महत्वपूर्ण विषय पर बहस छेड़ते हुए बाबासाहब कहते हैं, आर्थिक और सामाजिक न्याय की व्यवस्था यहां की गई है। किन्तु यदि ऐसा न्याय प्रत्यक्ष रूप से कार्यान्वित करना होगा तो इस प्रस्ताव में जमीन और उद्योग व्यवसायों के राष्ट्रीयकरण का स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिए।

इसके बाद बाबासाहब ने विवादस्पद मुद्दे की ओर ध्यान केंद्रित किया। मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति में संविधान समिति में आगे चर्चा जारी रखना उचित नहीं होगा, इतना कह कर बाबासाहब ने जिन मुद्दों को प्रस्तुत किया वे उनके चिंतन की व्याप्ति स्पष्ट करते हैं। उन्होंने कहा, इस महान देश के भावी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक विकास के बारे में मेरे मन में रत्ती भर भी संदेह नहीं। मैं जानता हूं कि आज हम सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक रूप से बिखरे हुए हैं। हमारे बीच आपसी संघर्ष है, बल्कि मैं स्वयं ऐसे एक गुट के नेता भी हूं। परन्तु समय और परिस्थितिनुसार यह देश एकजुट होगा इस बारे में मन में कोई आशंका नहीं। जात-पात और वंश भेद में फंसे होने पर भी किसी न किसी धागे में बंध कर हम एक हो जाएंगे। मुस्लिम लीग ने आज हिंदुस्तान के विभाजन के लिए आंदोलन छेड़ा है, लेकिन इस बारे में भी संदेह नहीं कि, एक न एक दिन उन्हें इस बात का एहसास होगा कि अखंड हिंदुस्तान किस तरह उनके लिए भी हितकारक है।

अगला मुद्दा संविधान समिति की कार्य पद्धति से सम्बंधित है। संविधान समिति की चर्चा में किस बात का आधिष्ठान होना चाहिए, कौनसी दिशा होनी चाहिए इसी बात को बाबासाहब अंकित करते हैं। इस संदर्भ में उनका दृष्टिकोण राष्ट्रकेंद्री है। वे कहते हैं, बात जब राष्ट्र का भवितव्य निर्धारित करने की और जनता की प्रतिष्ठा संभालने की हो तो, पार्टी की प्रतिष्ठा विशेष मायने नहीं रखती। राष्ट्र का भविष्य अन्य बात से अधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए संविधान समिति को एकजुट हो कर काम करना चाहिए। आज देश की संसद में और राज्य के विधि मंडल के बीच जो घमासान चलता है, जिस प्रकार की धांधली मची रहती है उसका, बाबासाहब के चिंतन की पृष्ठभूमि पर विचार किया जाना देश के लिए हितकारक होगा।

उस दिन बाबासाहब ने संविधान समिति के सम्मुख जो प्रदीर्घ भाषण दिया वह संविधान निर्मिति प्रक्रिया को पारदर्शक रूप से उजागर करने वाला था। इस भाषण के पहले भाग में मसविदा समिति के कामकाज का लेखाजोखा है और दूसरा भाग बहुत विस्तृत और महत्वपूर्ण है। इसमें प्रमुखत: ‘संविधान में कौनसी शासन व्यवस्था बताई गई है’ और ‘संविधान का ढांचा कौनसा और कैसा है’ इन निर्णायक प्रश्नों का विचार बाबासाहब ने किया है।

अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष और भारत के राष्ट्रपति के बीच नाम की समानता के अतिरिक्त अन्य कोई समानता नहीं। अमेरिकी शासन पद्धति को ‘अध्यक्षीय’ लोकतंत्र कहते हैं तो भारतीय संविधान समिति ने ‘संसदीय लोकतंत्र’ शासन प्रणाली को अपनाया है। दूसरी ओर इंग्लैंड की शासन व्यवस्था में राजा का जो स्थान है वही हमारे संविधान के अनुसार राष्ट्रपति का है। वह राजा है लेकिन कार्यकारी मंडल का प्रमुख नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, पर राष्ट्र की सत्ता उसके हाथ नहीं होती। वह राष्ट्र का प्रतीक है। शासन व्यवस्था में उसका स्थान शोभनीय वस्तु जितना ही है। संविधान के मसविदे में संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का समर्थन किया है, और इस बात को हमें हमेशा याद रखना चाहिए।

लोकतांत्रिक शासन पद्धति में दो शर्तों का पालन करना आवश्यक होता है, 1) कार्यकारी मंडल स्थिर होना चाहिए और 2) कार्यकारी मंडल उत्तरदायी और जिम्मेदार होना चाहिए। इस मुद्दे को बाबासाहब ने अनेक उदहारण देकर स्पष्ट किया है। वे कहते हैं, अमेरिकी और स्विट्जरलैंड की शासन व्यवस्था स्थिरता तो प्रदान करती है लेकिन वह तुलना में कम जिम्मेदार है। बल्कि इंग्लैंड की शासन व्यवस्था अधिक जिम्मेदार है, पर वह स्थिरता कम देती है। अमेरिकी कांग्रेस (संसद) कार्यकारी मंडल को बरखास्त नहीं कर सकती। इसके विपरीत इंग्लैंड में कार्यकारी मंडल यदि संसद में अपना बहुमत खो देता है तो संसदीय सरकार को तुरंत त्यागपत्र देना पड़ता है। भारत के संदर्भ में, संसदीय लोकतंत्र में कार्यकारी मंडल पद्धति के साथ संविधान मसविदा में स्थिरता से जिम्मेदारी को अधिक महत्वपूर्ण और स्वीकारार्ह माना है। तथापि, इंग्लैंड और भारत की संसदीय लोकतंत्र में सूक्ष्म किन्तु महत्वपूर्ण भेद है। इंग्लैंड में संसद सार्वभौम और सर्वश्रेष्ठ है, तो भारत में संविधान सार्वभौम और सर्वश्रष्ठ है। इसके अतिरिक्त भारतीय संसद के लिए एक लक्ष्मण रेखा बनाई गई है कि, संसद में पारित किए गए कानून की वैधता को जांचने का अधिकार भारतीय न्याय व्यवस्था का रहेगा।

इस भाषण के अगले भाग में बाबासाहब ने संविधान के ढांचे को लेकर जो विश्लेषण किया है वह वास्तव में भारत के भविष्य का दृष्टिपत्र है। यहां उन्होंने अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया इन देशों के संविधान में किए गए उपबंधों की चर्चा की। उन उपबंधों को भारतीय संविधान में अंतर्भूत करते समय किन बातों को बदला गया और क्यों बदला गया इसकी विस्तार से चर्चा की। संसदीय मंच पर किसी एक विषय की प्रस्तुति किस प्रकार की जाए, दलीलें कैसे रखी जाएं, आपत्तियों का परिहार करने के लिए भाषण का उपयोग किस तरह किया जाए, यह भाषण इन बातों का आदर्श था।

भारतीय संविधान में दी गई दोहरी राज्य व्मवस्था (केंद्र सत्ता और राज्य सत्ता की इकाई) की विशेषताओं और अमेरिकी राज्य व्यवस्था के बीच की भिन्नताओं को स्पष्ट करते हुए बाबासाहब ने ‘संपूर्ण भारत के लिए एक नागरिकत्व पद्धति और उनके सर्वत्र समान अधिकार’ तथा ‘किसी भी राज्य को अपना स्वतंत्र संविधान बनाने का अधिकार नहीं, संघ राज्य और सभी राज्य की इकाइयों का संविधान एक ही है, इस एकमेव संविधान से कोई अलग नहीं हो सकता, सबको इसी की बनाई चौखट में रह कर ही काम करना होगा’ ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है। इसका अर्थ यह है कि, इस मसविदा के अंतर्गत केंद्र राज्य इकाई के संबंध, अमेरिकी केंद्र- राज्य इकाई के संबंधों की तरह कमजोर नहीं; बल्कि वे बहुत सुगठित और मजबूत हैं। देश की एकता और एकात्मता के लिए ऐसा होना आवश्यक भी है।

भारत संघ राज्य रहे और साथ ही उसकी एकता बनाए रखने की दृष्टि से मूलभूत कानून में एकरूपता रखने के लिए संविधान के मसविदा में तीन मार्ग दिए गए हैं – 1) संपूर्ण देश के लिए एकमेव न्याय व्यवस्था, 2) दीवानी और फौजदारी के मूलभूत कानून में अखिल भारतीय एकरूपता, 3) महत्वपूर्ण पदों के लिए समान अखिल भारतीय नागरी सेवा। व्यापक दूरदृष्टि के बिना संविधान का ऐसा विशिष्टतापूर्ण ढांचा तैयार करना संभव नहीं। इसीलिए संविधान निर्मिति में बाबासाहब मोगदान अमूल्य है।

इस मुद्दे पर उठाई गई आपत्तियों का परिहार करने और उन्हें ख़ारिज करने के लिए समर्पक दलीलें बाबासाहब ने दी हैं। आपत्तियां हैं – 1) संविधान के इस मसविदा में कोई नई बात नहीं 2) इस मसविदा में 1935 के भारतीय शासन कानून का ही अधिकतर भाग है 3) संविधानात्मक नैतिकता विकसित करने के लिए कोई ठोस उपाय योजना नहीं दी गई 4) प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था स्वयंपूर्ण और स्वतंत्र, ग्रामराज्य-गणराज्य का इस मसविदा में नामोल्लेख भी नहीं है 5) अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का उपबंध इस मसविदा में किया गया है 6) मूलभूत अधिकारों का विवेचन करने वाले अनुच्छेदों में अनेक अपवादों का उल्लेख किया गया है। इन अपवादों ने मूलभूत अधिकारों को खा डाला है। यह तो सीधी सीधी धोखाधड़ी है 7) मार्गदर्शक तत्व दिए गए हैं, लेकिन कानून की दृष्टि से वे बंधनकारक नहीं 8) केन्द्रीय सत्ता अधिक बलवान है 9) भारत का वर्णन राज्यों की इकाइयों का एक संघ ऐसा किया गया है। उसके बजाय राज्य इकाइयों का संघ ऐसी अचूक शब्द रचना होनी चाहिए थी 10) संविधान सुधारों के उपबंधों में विसंगति है।

बाबासाहब ने अपने इस भाषण का जो समापन किया वह न केवल चिंतन करने लायक है अपितु अपूर्व है। वे कहते हैं, कोई भी संविधान परिपूर्ण नहीं होता। परंतु प्रांतिक विधान सभाओं में हुई चर्चा मेरी दृष्टि से दिलासा देने वाली है। इसीलिए मेरा दावा है कि एक प्रारंभिक बिंदु के रूप में मसविदा समिति ने तैयार किया हुआ संविधान बहुत अच्छा है। मुझे लगता है कि यह संविधान कृति प्रवर्तक, लचीला, शांति और युद्ध सदृश स्थिति में राष्ट्र की एकता को अबाधित रखने वाला है। मुझे एक वक्तव्य करने की अनुमति हो तो इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि, इस संविधान को लेकर भविष्य में यदि विपरीत घटनाएं घटती हैं, तो उसके लिए संविधान बुरा था यह कारण नहीं होगा।

संविधान समिति में दिया गया अंतिम भाषण

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने संविधान समिति के सामने 25 नवंबर 1949 के दिन अंतिम और समापन भाषण में जो विचार रखे वे ऐतिहासिक और मील का पत्थर थे।

‘इस देश की स्वतंत्रता का क्या होगा? क्या देश अपनी स्वतंत्रता अबाधित रख पाएगा या पुन: उसे गंवा देगा? ऐसे प्रश्न उपस्थित कर बाबासाहब ने प्राचीन और अर्वाचीन इतिहास के अनेक संदर्भ दिए और इन प्रश्नों में छिपे भय को व्यक्त किया। अपने रक्त की अंतिम बूंद तक हम अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे ऐसा निश्चय करना चाहिए, ऐसा आवाहन उन्होंने किया।

इस देश के लिए लोकतांत्रिक संविधान नई बात नहीं। पुराने समय में छोटे छोटे लोकतांत्रिक राज्य हुआ करते थे। परन्तु मध्ययुगीन कालखंड में ऐसा कोई संविधान प्रचलित नहीं था इसलिए वह संकल्पना नई है ऐसा समझा जा सकता है। उन्होंने चेतावनी दी कि, किसी भी स्थिति में हमें तानाशाही को स्थान नहीं देना चाहिए।

ऐसा तभी हो सकता है जब हम लोकतांत्रिक संविधानात्मक पद्धति से जरा भी विचलित नहीं होंगे। रक्त रंजित क्रांति, अवज्ञा आंदोलन, असहकार और सत्याग्रह आदि मार्गों का पूर्णत: त्याग करना होगा। ये सारे मार्ग वर्तमान में अराजकता का कारण सिद्ध होंगे। हमें सावधान रहना होगा।

भारत में लोकतंत्र को सफल करने की पूर्व शर्तों का बाबासाहब ने स्पष्ट शब्दों में मार्गदर्शन किया है। वे कहते हैं, 1) केवल राजनैतिक लोकतंत्र लाकर हमें संतुष्ट नहीं होना चाहिए। उसका रूपांतर सामाजिक लोकतंत्र में होना आवश्यक है। सामाजिक लोकतंत्र के अधिष्ठान के बिना राजनैतिक लोकतंत्र टिक नहीं सकता। सामाजिक लोकतंत्र माने स्वतंत्रता, समता और बंधुता के जीवन तत्वों को मानकर तदनुसार जीवनयापन करना। यह त्रिसूत्री एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकती। उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। इन तीन तत्वों में से किसी एक को भी छोड़ देना याने लोकतंत्र को तिलांजलि देने जैसा है। स्वतंत्रता को समता से अलग नहीं जा सकता। बंधुता को स्वतंत्रता और समता से अलग नहीं किया जा सकता। बंधुता के बिना स्वतंत्रता और समता स्वाभाविक रूप से रह नहीं सकेंगे….बंधुता का मतलब है सभी भारतीयों के बीच आपसी प्रेम का एहसास। सामाजिक जीवन में एकता और समरसता का आत्मसिंचन बंधुता तत्व से ही होता है। 2) हम एक राष्ट्र हैं ऐसी भावना यदि मन में है तो वह एक बहुत बड़ी भूल है। हजारों जातियों में छिन्न भिन्न हमारे लोगों का एक राष्ट्र कैसे हो सकता है?

सामाजिक और मानसिक तौर पर हम अभी एक राष्ट्र नहीं इस बात का एहसास जितनी जल्दी होगा उतना हमारे लिए हितकारक होगा। क्योंकि यही एहसास हमें ‘राष्ट्र’ के पद तक पहुंचने की आवश्यकता का ध्यान दिलाएगा … भारतीय समाज आज जातियों और उपजातियों में बिखरा होने के कारण खोखला है। जात-पात की कल्पना राष्ट्र विरोधी है। जाति संस्था के कारण सामाजिक जीवन विभक्त हो जाता है। भिन्न भिन्न जातियों के होने से मत्सर और तिरस्कार निर्माण होता है। बंधुता अस्तित्व में न हो तो, समता और स्वतंत्रता दीवार पर लगे रंगों की परतों से अधिक महत्व नहीं रखतीं। 3) भारत की राजनैतिक सत्ता को मुट्ठीभर लोगों ने अपना एकाधिकार मान कर उसका उपभोग लिया है। इस एकाधिकार ने दलितों को उनका जीवन सुधारने से सदा वंचित रखा। यही नहीं, जीवन जीने का अवसर तक उनसे छीन लिया। ये बहुजन अब सत्ताधीश वर्ग की मनमानी से उकता चुके हैं। आत्मनिर्भरता और आत्मनियंत्रण के लिए वे सभी बेताब हैं। अर्थात इससे वर्ग युद्ध नहीं छिड़ना चाहिए। नहीं तो घर का विभाजन हो जायेगा और टूटता बिखरता घर दीर्घकाल तक टिक नहीं सकता। अत: पद दलितों की इच्छा, आकांक्षा और उन्नति की पूर्तता के लिए शीघ्रातिशीघ्र उन्हें अवसर उपलब्ध कराना आवश्यक है। तभी वह राष्ट्र के उत्थान, स्वतंत्रता की रक्षा और लोकतंत्र की रचना को दृढ़मूल करने के लिए हितकारक सिद्ध होगा। जीवन के सभी क्षेत्रों में समता और बंधुता प्रस्थापित होने पर ही यह साध्य हो पाएगा।

इस विवेकी और भावपूर्ण भाषण द्वारा बाबासाहब ने देश के सामने विषयसूची निर्धारित की है, उसकी पूर्तता के लिए जिस राह से गुजरना है उसका नक्शाभी बना दिया है। इसमें केवल तत्व चिंतन नहीं, बल्कि जीवन की वास्तविकता तो ध्यान में लेकर देश की प्रगति के लिए और लोकतंत्र की सफलता के लिए मौलिक मार्गदर्शन किया है।

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