ज्ञानपिपासु – डॉ. आंबेडकर

दुनिया के इतिहास मेंकेवल अपने कर्तृत्व से करोड़ों लोगों को दीक्षा देने का, अनुयायी बनाने का और परिवर्तन के जरिए पराक्रम का संदेश देने का काम चुनिंदा लोगों ने ही किया है। अमेरिका में अब्राहम लिंकन, इंग्लैण्ड में विंस्टन चर्चिल जैसे लाखों लोगों के दिलों पर राज करने वाले मान्यवरों की सूची में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का भी शुमार किया जा सकेगा। पृथक मार्ग अपनाकर समाज को नई दिशा देने वाले व्यक्तित्व के रूप में बाबासाहब का गौरव किया जाता है। डॉ. बाबासाहब के विचारों, व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर गौर करते समय ‘आदमी ही इतिहास रचता है’ इस बात की प्रतीति होती है।
अपने भारत में एक कालखंड ऐसा था कि समाज का विकास ही रुक ्रगया था। उसकी गति थम गई थी। किसी डबरे की तरह समाज प्रवाह पतीत हो गया था। और, जब जब समाज जीवन में रुकावट या प्रवाह पतीतता आती है तब तब ऐसी परिस्थितियों से समाज को बाहर निकालने के पुराने परंपरागत मार्ग निष्फल साबित होते हैं। ऐसे समय में नए मार्ग खोजने होते हैं। और, इसीसे इतिहास रचता है। इस इतिहास को रचने का श्रेय डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का है। भारत को एक शक्तिसम्पन्न राष्ट्र के रूप में खड़ा करने के लिए जाति व्यवस्था और छुआछूत को पूरी तरह खत्म करने पर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने बल दिया। दूसरी ओर अस्पृश्य समाज को स्वाभिमान से जीने का बाबासाहब का आदेश था। बाबासाहब ने दलित बंधुओं से कहा कि स्वाभिमान को चोट पहुंचे ऐसा कोई काम न करें, अपने दैनंदित जीवन में अत्यंत व्यवस्थित व स्वच्छ रहें। शिक्षा ही प्रगति का मार्ग है। इसलिए कष्ट सहकर भी शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रयास करें।
बचपन से ही शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने के लिए संघर्षरत बाबासाहब ने समाज को विचारों की बहुत बड़ी धरोहर सौंपी हैं। उनकी शिक्षा की लगन से ही स्वाभिमानी जीवन जीने का आदर्श उन्होंने प्रस्थापित किया। बाबासाहब के आरंभिक जीवन का महत्वपूर्ण चरण है भारत में अध्ययन समाप्त होने पर अमेरिका में अध्ययन के जाने का निर्णय। उन्हें प्राप्त दुर्लभ अवसर का सोना बनाने का उन्होंने मन ही मन निर्णय किया। उच्च शिक्षा पाकर भरपूर वेतन की नौकरी प्राप्त कर अमेरिका में स्थायी होने जैसी हल्की अभिलाषा वे नहीं रखते थे। उनकी महत्वाकांक्षा थी, मानववंश शास्त्र से समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र विषयों में पारंगत होना, जिसे उन्होंने अपने जीवन में सफल कर दिखाया। अमेरिका में शिक्षा के दौरान उन्होंने कल्पनातीत कष्ट सहे। उनकी ज्ञानपिपासा की कोई तुलना ही नहीं हो सकती। केवल दो से तीन वर्ष के कठोर अध्ययन के बाद कोलंबिया विश्वविद्यालय को उन्होंने प्रबंध पेश किया। अल्पावधि अध्ययन के बल पर उन्हें मिली सफलता न केवल मार्गनिर्देशक है, अपितु चिंतन करने के लिए मजबूर भी करती है। इसीलिए आंबेडकर के जीवन का सार ग्रहण करते समय उनकी ज्ञानपिपासा आज भी समाज को प्रेरणा देती है।
अमेरिका में उनका निवास उन्हें दिशा देने वाला साबित हुआ। वहां समता का उनका अनुभव विलक्षण था। अमेरिका की प्रगति, वहां के समाज की एकता देखकर भारत में भी इस तरह का माहौल बनाने का लक्ष्य उन्होंने मन ही मन तय किया। उनके मन में सतत यह विचार गुंजन करता था कि उन्हें प्राप्त ज्ञान का अपने समाज के दलित-पीड़ित लोगों को किस तरह उपयोग हो। अपने पिता के एक मित्र को लिखे पत्र में उन्होंने कहा कि शिक्षा के प्राप्त हर अवसर का लाभ उठाया जाना चाहिए। इस पत्र से पता चलता है कि शिक्षा से व्यक्ति को वैभव प्राप्त होता है, यह विचार उनके मन पर अंकित हो गया था।
कोलंबिया विश्वविद्यालय के द्विशती समारोह में दुनिया के तत्कालीन पांच पंडितों का सम्मान किया गया, जिनमें एक थे डॉ. बी.आर.आंबेडकर! सदन में जब उनका ‘एक महान समाज सुधारक, मानवी अधिकारों के आधारस्तंभ डॉ. बी.आर.आंबेडकर’ के रूप में परिचय कराया गया तब सदन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा और डॉ. आंबेडकर ने सम्मान स्वीकार किया। यह यश ज्ञान पाने की लगन का था। इस तरह का सम्मान इसके पूर्व किसी भी भारतीय विद्यार्थी को प्राप्त नहीं हुआ था। कोलंबिया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्ययन कर किसी भी भारतीय छात्र ने डॉक्टरेट प्राप्त नहीं की थी। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर कहते थे, ‘इस दुनिया में प्रयत्नों से जो चीज प्राप्त की जा सकती है वह है ज्ञान।’ और, इस बात को डॉ. आंबेडकर ने साबित कर दिया।
भारत में शालेय व महाविद्यालयीन शिक्षा के दौरान जाति का दंश सहन करने के बावजूद वे अमेरिका में अध्ययनरत भारतीय छात्रों में घुलते-मिलते थे। वहां के भारतीय शिक्षा मंडल के वे अध्यक्ष भी रहे। वहां होने वाली राजनीतिक चर्चाओं में वे अवश्य हिस्सा लेते थे। लेकिन ये चर्चाएं उन्हें अधूरी लगती थीं, क्योंकि उनमें दलितों-पीड़ितों के जीने की व उनके बुनियादी अधिकारों की चर्चा नहीं होती थी। भारतीय स्वाधीनता के बाद अस्पृश्यों की समस्याएं, अस्पृश्यों की दयनीय स्थिति कब और कैसी खत्म होगी यह स्पष्ट नहीं होता था। देश कब मुक्त होगा इसका उत्तर वहां की चर्चाओं में मिल जाता था। लेकिन, भारत में अस्पृश्यता का प्रश्न उपस्थित होने पर उनके भारतीय मित्र कहते थे, ‘भारत स्वतंत्र होने पर गोरों का राज खत्म होगा और यह प्रश्न अपने आप हल हो जाएगा। लेकिन इस जवाब से डॉ. आंबेडकर को संतोष नहीं होता था।
डॉ. आंबेडकर के मन में देश की संकल्पना अत्यंत अलग थी। केवल भौगोलिक सीमा रेखाएं, समुद्र, पहाड़-घाटियां इसकी सूची का मतलब देश नहीं है। अवलिया, संत-महंतों की लम्बी सूची का माने देश नहीं है। देश का अर्थ है जहां व्यक्ति के विकास को परिपूर्ण अवसर उपलब्ध है। सुख-दुख का समान वितरण है। ज्ञान-सम्मान के समान अवसर हैं। समावेशक विचार हैं।
परस्पर के आदर का आचार है। इस तरह के विचारों पर ही देश का स्थान निश्चित होता है यह डॉ. आंबेडकर मन से महसूस करते थे। समाज के विभिन्न घटकों के बीच औचित्यपूर्ण समझ ही सामाजिक परिवर्तन करा सकती है यह उनकी व्यक्तिगत निष्ठा थी। पहले स्वाधीनता या पहले सामाजिक सुधार इस विवाद में कौन सही था, यह आज महसूस होता है। देश की स्वाधीनता के ६७ वर्ष बाद भी जातिद्वेष से प्रेरित घटनाएं हो रही हैं। देश की सामाजिक परिस्थिति जिस गति से बदलनी चाहिए थी वह गति अब तक प्राप्त नहीं हुई है। लेकिन जो पददलित समाज है, जिसकी छाया से भी घृणा की जाती थी, जिनकी कोई आवाज ही नहीं थी, उस समाज का व्यक्ति देश का राष्ट्रपति बनता है, देश का प्रधान न्यायाधीश बनता है, मंत्री बनता है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उस समाज के लोग अग्रसर हैं। यह परिवर्तन किसने कराया? यह विचार, यह भान दिलाया डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने ही!
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के जातिभेद के विरुद्ध संघर्ष में महत्वपूर्ण कड़ी थी, समाज के पददलित वर्ग में शिक्षा का प्रसार, शिक्षा के प्रति जनजानगरण। डॉ. बाबासाहब का यह कार्य अधिक प्रभाव व चिस्स्थायी परिवर्तन लाने वाला साबित हुआ। डॉ. आंबेडकर ने अज्ञानी, दरिद्र, बहिष्कृत समाज घटकों को जगाकर शिक्षा की ओर उन्मुख किया। उनमें आत्मविश्वास जगाया। उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाया। उच्च विद्या व ज्ञान पाने के लिए बाबासाहब ने कितनी कठोर तपश्चर्या की यह उनके समाज बंधुओं के लिए बेहतर उदाहरण साबित हुआ। स्वजनों के उद्धार का लक्ष्य तय करने के बाद इसके लिए जो ज्ञान सम्पदा प्राप्त करने के लिए आवश्यक सब कुछ जान उंडेल कर बाबासाहब ने किया। ज्ञानयुक्त चौतरफा शिक्षा का यह अस्त्र बाबासाहब ने प्राप्त किया न होता तो जाति-पाति, भेदभाव निर्मूलन व अस्पृश्यों का उद्धार करने का उनका कार्य भोथरा हो जाता। यह आंबेडकर जानते थे और इसीलिए पहले ज्ञान प्राप्त कर बाद में समाज सुधारों के कार्यों में वे कूद पड़े।
डॉ. आंबेडकर न होते तो भी देश स्वाधीन अवश्य होता, लेकिन सामाजिक गुलामी कायम होती। इसलिए डॉ. बाबासाहब की प्रासंगिकता कालातीत है। समाज में जैसे जैसे जागरुकता आएगी वैसे वैसे डॉ. आंबेडकर के बारे में कृतज्ञता का भाव सदैव बढ़ता ही जाएगा। क्योंकि, सामाजिक सुधारों के लिए व्यक्ति के पास दृष्टि व साहस की जरूरत होती है। प्रचंड इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। कुछ समय बाद समाज में परिवर्तन होता है। उस समय इस तरह के समाज सुधारकों को चिरकालिन आदर व प्रेम प्राप्त होता है।
मो.: ९८६९२०६१०६

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