डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के विचार चिरकालीन प्रेरणास्रोत

धन का निस्पृह प्रयोग, वचन का पालन, दूरगामी विचार के साथ उक्ति व कृति, न्याय तथा मानवता की पूजा, इन सब पहलुओ के समेकित प्रयोग से सार्वजनिक जीवन का आध्यात्मिकरण साकार होता है। गोपाल कृष्ण गोखले का भी यही आग्रह था। इस वर्ष उनका जन्मशती वर्ष है, जबकि बाबासाहब का 125वां जयंती वर्ष। दोनों महापुरुषों का अभिवादन!

यह सच्चाई है कि डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने अपने जीवन का प्रत्येक कदम सोचविचार कर तथा उसके दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखकर उठाया। जीवन भर प्रतिकूल परिस्थितियों को मात देते हुए उन्होंने अपना सबकुछ दीन दुखियों के कल्याण हेतु दांव पर लगा दिया। इस निश्चय को दृढ़तापूर्वक अपने जीवन में उतारने के कारण ही वे अपनी मृत्यु के चार वर्ष पूर्व सन 1952 में एक भाषण में पूरे विश्वास के साथ यह दावा कर पाए कि ‘मैंने अमेरिका जाने के पूर्व बडोदा नरेश सयाजीराव गायकवाड को जो कुछ कहा था उसे पूरा कर दिखाया!’ डॉ. आंबेडकर ने बडोदा नरेश को क्या कहा था? कौन सा वचन दिया था? उन्होंने कहा था कि ‘जो उच्च शिक्षा मैं अमेरिका जाकर प्राप्त करूंगा उसका उपयोग अपने दीन हीन भाई-बहनों के हित में करूंगा।’

सन 1952 में मुंबई में आयोजित उनके स्वागत समारोह के अवसर पर उपरोक्त बात उन्होंने कहकर अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित की थी। बाबासाहब ने एक निस्पृह कर्मयोगी की भांति जीवन के प्रारम्भ में ही अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित कर लिया था। कोई भी बाधा, किसी भी कठिनाई को उन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति के मार्ग में आड़े नहीं आने दिया। उनके जीवन की यह विशेषता हम सब के लिए प्रेरणादायी है। स्वयं ली गई प्रतिज्ञा को पूरा कर दिखाने वाले बाबासाहब ने ‘भीम प्रतिज्ञा’ शब्द को सार्थक कर दिया। अपने कर्तव्य से सार्थक सिद्ध कर दिया। हम यह कह सकते हैं कि उनका जीवन, ध्येय साधना के लिए की गई अनवरत तपश्चर्या थी। इसीलिए उनकी कृति तथा उक्ति को दूरगामी तथा गम्भीर विचारों का अधिष्ठान प्राप्त था। यदि हमने धर्मांतरण के निर्णय को सही दृष्टिकोण ही समझा तो उपरोक्त निर्णय की यथार्थता का गहरा अनुभव होगा।

बाबासाहब ने 1935 में पूरी दुनिया को सूचित किया कि ‘मैं हिन्दू नाम से मरूंगा नहीं।’ इस घोषणा को बीस वर्ष बीत जाने के बाद जब उन्होंने क्रियान्वित किया तो हमें समझना पड़ेगा कि उन्होंने इन बीस वर्षों ने कितना गहन चिंतन किया होगा, कितना अध्ययन किया होगा, कितने लोगों से मुलाकात की होगी, कितना विचार-विमर्श किया होगा, तब जाकर भगवान बुद्ध के चरणों में आश्रय लिया। उन्हें ज्ञात था कि, बौद्ध, जैन, सिख ये सब विशाल हिन्दू समाज की परिधि में आते हैं। उन्ही के द्वारा लिखे गए संविधान में हिन्दू शब्द की व्याख्या दी गई है, उसे पढ़कर यह बात समझ में आती है कि मैं हिन्दू इस नाम से नहीं मरूंगा‘ इस घोषणा का क्रियान्वयन करते समय कितना गम्भीर तथा सम्यक विचार बाबासाहब ने किया होगा। बाबासाहब इस देश से बहुत प्रेम करते थे। वे सच्चे राष्ट्रभक्त थे। इस भारत भू पर उनका प्रेम निश्छल था। जब तक सूर्य चंद्र है तब तक यह सभ्यता व संस्कृति अक्षुण्ण बनी रहे यह उनकी दृढ़ इच्छा थी। इसीलिए तो वे अपने अनुयायियों से कहते हैं कि इस भूमि के साथ बेइमानी करने की बात मैं अपने अनुयायियों से कभी नहीं कहूंगा। यह उनके देशभक्ति से प्रेरित विचारों को अभिव्यक्ति थी। भारत की सीमा के बाहर का कोई भी धर्म उनके लिए स्वाभाविक रूप से स्वीकार्य नहीं था। अतएव उन्होंने बुद्ध की शरण में जाने का निश्चय किया। और ‘मैं हिन्दू नाम से मरूंगा नहीं’ इस घोषणा का अनोखे ढंग से क्रियान्वयन किया।

‘स्वतंत्रता के पूर्व काल के बाबासाहब व स्वतंत्रता के बाद के दशक के बाबासाहब‘ यह स्वतंत्र अध्ययन का विषय है। 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं, ‘जयचंद की मानसिकता के कारण भारत गुलाम बना, इसीलिए अब इस मानसिकता को गहरे दफना दिया जाना चाहिए।’ 1951 में मुंबई में बोलते हुए वे श्रोताओं को मंत्र देते हैं कि, भविष्य में सभी लोगों को संकुचित दायरे से बाहर निकलकर केवल भारत के प्रति निष्ठावान बने रहना होगा। काठमांडू में भाषण देते हुए वे कहते हैं कि ‘मार्क्स की अपेक्षा भगवान बुद्ध ही हमें सही मार्ग की ओर लेकर जाएंगे। राज्य सभा के सदस्य के रूप में उन्होंने ‘भारत की सीमा को सुरक्षित रखने की गांभीर सलाह भारत सरकार को दी।’

‘हमारा उद्देश्य राष्ट्रभक्ति के हित का वितरोधाभासी न होकर, उसका संवर्धन करने वाला हो’ आंबेडकर जी का यह विचार राष्ट्रहित का शाश्वत मार्गदर्शन है। डॉ.आंबेडकर द्वारा इस्लाम के विषय में रखे गए विचारों की सत्यता तो समय ने ही सिद्ध कर दी है। इसिस जैसे संगठनों ने जो एक खास मुस्लिम पंथ का नहीं है वह दुश्मन है इसलिए मार डालने योग्य है इस प्रकार का एक अभियान चला रखा है। जिसको मारना है उसके तड़पा-तड़पा कर मारकर बुरा हाल बनाकर समुद्र में डुबो देना यह इस्लामिक राज्य की शैली बन गई है। ‘थॉट्स ऑन पकिस्तान’ किताब में डॉ. आंबेडकर ने अपनी विवेचना में कहा कि इस्लाम को विश्व बंधुत्व स्वीकार नहीं है, क्यों कि जो इस्लाम का अनुयायी नहीं वह भाई कैसे हो सकता है? वह तो कट्टर शत्रु ही रहेगा। आज भी बाबासाहब के विचार कितने सामायिक हैं यह अलग से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है।

नेताओं का व्यवहार कैसा होना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए डॉ. आंबेडकर के जीवन का सापेक्ष अध्ययन करना चाहिए। नाशिक के ‘काला राम’ के मंदिर के द्वार सब के लिए खुले होने चाहिए, इस मांग को लेकर कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड के नेतृत्व में सत्याग्रह चल रहा था। उस समय उनके अभावग्रस्त अनुयायियों को धूप पानी में धरना देना पड़ रहा है। दूसरी ओर सवर्णों के हृदयशून्य तर्कों व हमलों का जवाब भी देना पड़ता है, इस विचार मात्र से बाबासाहब बहुत असहज थे। वे मुंबई में थे, कार्य की अधिकता के कारण वे नाशिक नहीं जा पा रहे थे। परन्तु उनका मन नाशिक में ही था, तन मुंबई में। उन्होंने पत्र लिखे। शौर्य के साथ उत्साह का भी संचार किया। श्री चांगदेव खैरमोडे द्वारा लिखित पुस्तक में आंबेडकर के चरित्र पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है, इसी किताब में डॉ. आंबेडकर द्वारा अनेक लोगों के साथ स्थापित सुसंवाद को लिपिबद्ध किया गया है। हमारा कौन भाई कितनी खस्ता हालत में भी अपनी ध्येय साधना में अपनत्व से लगा है उस पर बाबासाहब का पूर्ण ध्यान होता था। मोरे उपनाम का एक दलित कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम करता था। वह एक बार कामगार मैदान की ओर गया जहां बाबासाहब की सभा आयोजित थी। ‘मैं तो कम्युनिस्ट हूं सभा में जाना उचित नही’ इस विचार के साथ कामरेड मोरे सभा से थोड़े दूर पर एक वृक्ष के नीचे फुटपाथ पर खड़े हो गए। आश्चर्य की बात यह कि डॉ. आंबेडकर का ध्यान मंच की सीढ़ी चढ़ते समय कामरेड मोरे की ओर गया। वह फुटपाथ पर खड़ा है, वह सत्येन्द्र मोरे है, कामरेड है, दलित है, निष्ठावान है, पूरी निष्ठा से पार्टी का काम करता है’ बाबासाहब यह बात अपने साथ चल रहे सहयोगी से कह रहे थे। परंतु माइक चालू होने के कारण यह बात दूर श्रोताओं तक पहुंच गई।

दलित महिलाओं की सभा में बाबासाहब जोर देकर कहते, झाडू पोछा बर्तन कर के प्राप्त होने वाले पैसे देह बेच कर कमाए गए धन से कई गुना श्रेष्ठ है। सही कहे तो अनमोल है। इमारत फण्ड के लिए जमा की गई राशि का मुझे साफ सुथरा हिसाब चाहिए। एक पैसे की भी अफरातफरी अक्षम्य है। आंबेडकर के उद्गार जब मिलिंद महाविद्यालय की इमारत का काम चल रहा था तब सिने अभिनेता दिलिप कुमार ने बाबासाहब से पूछा, ‘मैं कुछ चंदा दू क्या?’ आंबेडकर ने उत्तर दिया, ‘सिनेमा में काम करने वाले से चंदा लेकर मुझे सरस्वती का मंदिर नहीं बनाना है, क्षमा करें।’ विख्यात लेखिका अरुणा ढेरे ने बाबासाहब के जीवन पर एक अनुपम लेख लिखा है। उस लेख से जानकारी प्राप्त होती है कि आयु के चौदहवें वर्ष में बाबासाहब का रमाबाई के साथ विवाह हो गया था वे अपनी सती साध्वी व मेहनतकश पत्नी के साथ सौ प्रतिशत एकनिष्ठ रहे। बाबासाहब जब लंदन में थे, उनकी मुलाकात एक आयरिश युवती फ्रांसिस्का किटसैराल्ड से हुई। जानपहचान भी बढ़ी। परन्तु उन सम्बन्धों को डॉक्टर आंबेडकर ने आगे नहीं बढ़ने दिया। उनके लिए भगवान बुद्ध का शील ही सब कुछ था, अनुकरणीय था। यदि धर्म भिक्खू अनुयायियों का स्नेह प्राप्त करना है तो स्वयं का चरित्र निष्कलंक रखना पड़ेगा, इस बात को उन्होंने व्यवहार में कर के दिखाया।

भारत के संविधान में ‘संवैधानिक वैधिकता’ यह शब्द बाबासाहब ने बहुत सोच समझकर रखा। अपने ध्येय पर निष्ठा रखने वाले नेता को सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत जीवन मे अंतर नहीं रखना चाहिए। धन का निस्पृह प्रयोग, वचन का पालन, दूरगामी विचार के साथ उक्ति व कृति, न्याय तथा मानवता की पूजा, इन सब पहलुओ के समेकित प्रयोग से सार्वजनिक जीवन का आध्यात्मिकरण साकार होता है। भारत सेवक गोपाल कृष्ण गोखले भी इसी आध्यात्मीकरण का आग्रह किया करते थे। सन 2015 गोखले शताब्दी वर्ष है तथा इसी वर्षं बाबासाहब आंबेडकार की 125 वी जयंती वर्ष भी है। इस महान भारत रत्न को विनम्र अभिवादन!
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