क्या डॉ. आंबेडकर दलितस्तान चाहते थे?

“…मैं (डॉ. आंबेडकर) स्पष्ट करता हूं कि जब कभी मेरे एवं राष्ट्र के हितों के बीच टकराव होगा तो मैं अपने व्यक्तिगत हितों की चिंता नहीं करूंगा। परन्तु मेरी अपनी एक प्रतिबद्धता है जिसे मैं नहीं छोड़ सकता। वह प्रतिबद्धता है मेरे अछूत बंधुओं के प्रति।” महज इस कथन के आधार पर यह निहितार्थ निकालना कि डॉ. आंबेडकर दलितस्तान चाहते थे, सही नहीं होगा।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने तीन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जीवनभर निष्ठापूर्वक प्रयत्न किए- (1) भारत की स्वतंत्रता एवं देश में जनता के द्वारा, जनता का एवं जनता के लिए शासन की स्थापना के लिए; (2) पिछड़े समाज के उद्धार के लिए (विशेष रूप से अनुसूचित जाति के लिए) तथा छुआछूत के समाप्त करने के लिए; (3) अनुसूचित जाति समाज एवं गरीबों के साम्यवादियों का ग्रास बनने से रोकने के लिए तथा इस समाज को अपने धर्म एवं संस्कृति के अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता प्राप्त होने के लिए।

उनके जीवन के उपरोक्त पहलुओं पर बड़ी संख्या में लेख एवं किताबें लिखी जा चुकी हैं। मेरे इस लेख का उद्देश्य पाठकों का ध्यान एक अन्य प्रश्न की ओर आकर्षित करना है, जैसा कि उनके प्रशंसक एवं अनुयायी कहते हैं कि क्या बाबासाहब की इच्छा एक अलग दलितस्तान की थी? उनके अनुयायी उनके कुछ भाषणों एवं लेखों का उल्लेख करते हुए यह कहते पाए जाते हैं जिस दलितस्तान को डॉ. आंबेडकर जीते जी प्राप्त नहीं कर पाए उसे अब प्राप्त करना है।

इस समस्या की स्पष्ट समझ प्राप्त करने के लिए अपने समय के प्रसिद्ध लेखकों का दृष्टिकोण भी देख लें। डॉ. ??? भिमन्ना ने, जो तेलुगू भाषा के एक महान कवि एवं नाटककार थे, डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक ‘अपपळहळश्ररींळेप ेष उरीींश‘ का तेलुगू भाषा में अनुवाद किया तथा अस्पृश्यता के सवाल पर एवं हरिजन उद्धार पर कई किताबें भी लिखीं। भारत सरकार ने पद्मश्री एवं पद्मभूषण जैसे अलंकरणों से उन्हें नवाजा भी। उन्होंने बार-बार अपने लेखों में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के लेखों को संग्रहित करने की वकालत की जिससे उन तथ्यों का विश्लेषण किया जा सके और उन अंशों को हटाया जा सके जो डॉ. आंबेडकर के विचारों का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि डॉ. आंबेडकर देवदूत नहीं थे। उन्होंने केवल अपने अनुयायियों के लिए एवं अंधभक्तों के लिए ही भाषण नहीं दिए। उन्होंने अपने विरोधी विचार रखने वाले समाज के बीच भी अपनी बातें रखीं, बड़ी संख्या में भाषण दिए। उन्हें दूसरे पक्ष या समुदाय द्वारा प्रस्तुत तर्कों का जवाब भी देना पड़ता था एवं अपने वाक्चातुर्य से जीत भी प्राप्त करनी होती थी। उन्हें अपने दृष्टिकोण को रखते समय उन शब्दों तथा कथनों का कूट प्रयोग भी करना पड़ता था, जो उनके वास्तविक दृष्टिकोण का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।
अरुण शौरी ने एक बहुखण्डीय किताब ‘थेीीहळिळिपस षरश्रशी सेेव‘ लिखी और दावा किया कि जब तक यह किताब विमोचित नहीं हुई थी तब तक बहुत से लोगों को यह जानकारी नहीं थी कि डॉ. आंबेडकर ब्रिटिश सत्ता के साथ थे। उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि डॉ. आंबेडकर की महानता का बयान करने वाले उनके प्रशंसकों के लिए उनके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को स्वीकार करना सम्भव नहीं है। उन्होंने अपने तर्कों को मजबूत करने के लिए डॉ. आंबेडकर के किताबों, लेखों एवं भाषणों के अंशों को भी प्रस्तुत किया ही होगा।

इसके पहले कि इस निर्णय पर पहुंचे कि किस हद तक साक्ष्यों एवं तथ्यों पर विश्वास किया जाए, पुराने युग के एक विद्वान न्यायाधीश मर्यादा रमन्ना से सबंधित एक कहानी का पुनर्स्मरण करने से कुछ सहायता प्राप्त हो सकती है।

मर्यादा रमन्ना आंध्र प्रदेश के किसी गांव के ग्राम प्रधान हुआ करते थे, जिन्होंने कई स्मरणीय न्यायिक फैसले दिए। एक बार उनके पास एक अजीब तरह का प्रकरण आया। दो आदमी उनके पास आए। उनके साथ एक सुंदर युवती भी थी। दोनों व्यक्ति यह दावा कर रहे थे कि वह युवती उनकी पत्नी है। इस प्रकार उस युवती को दोनों एक दूसरे से लेना चाहते थे। जब उनसे उनके दावे के पक्ष में सबूत देने को कहा गया तो उनमें से एक व्यक्ति (मान लो वह ‘क’ है) ने कहा कि वह उस युवती के शरीर पर तिल के जो निशान हैं उन्हें बता सकता हूं। किसी प्रौढ़ महिला को बुलाकर इसकी जांच कर ली जाए। यदि मेरा कथन झूठा साबित हुआ तो मैं अपना दावा छोड़ दूंगा। मर्यादा रमन्ना ने तत्काल ग्राम सेवक को बुलाकर कहा कि इस व्यक्ति ‘क’ को वृक्ष से बांधकर इसे दस कोड़े लगाए जाएं। और दूसरे व्यक्ति से कहा कि वह अपनी पत्नी को साथ लेकर जाए

गांव के सयानों ने मर्यादा रमन्ना से उनके इस निर्णय का आधार जानना चाहा तो उन्होंने जवाब दिया कि कोई भी पति अपनी पत्नी के आंतरिक अंगों में स्थित चिह्नों को सार्वजनिक नहीं करना चाहेगा। यदि यह व्यक्ति ऐसा गंदा काम करने को तैयार है तो उसका पति नहीं है। वह धोखेबाज है। उसको दण्ड मिलना चाहिए। जब ‘क’ को कोड़े पड़ने लगे तो उसने अपना अपराध स्वीकार करते हुए जो घटना घटी उसको भी कहा।

वह गांव के लिए आते समय एक नाला पार कर रहा था। एक युगल उसके सामने जा रहा था। महिला पानी से पार करने में हिचकिचा रही थी। इस पर पति ने कहा कि केवल घुटना भर पानी है इसमें चलने मे कोई खतरा नहीं है। तुम मेरे पीछे आओ यह कह कर वह पानी में आगे बढ़ने लगा। अब उस युवती के पास कोई विकल्प नहीं था। वह भी अपनी साड़ी ने निचले भाग को हाथ की अंगुलियों से पकड़ कर चल पड़ी। जैसे-जैसे पानी का स्तर पैरों, घुटनों तथा जांघों तक बढ़ता गया वह वैसे-वैसे उस स्तर तक अपनी साड़ी उपर करती गई। और जैसे-जैसे पानी का स्तर नीचे आता गया वह उस स्तर तक साड़ी को नीचे करती गई। जब महिला ने अपनी साड़ी को अधिकतम स्तर पर उठाया था उसी समय ‘क’ ने महिला के नितम्ब पर स्थित एक बड़े तिल के निशान को देख लिया। उसी समय उसके दिमाग में विचार आया कि इस युवती पर अपनी पत्नी होने का दावा कर वह युवती को अपने साथ ले जा सकता है।

उपरोक्त कथानक से यह निहितार्थ निकाला जा सकता है कि केवल कुछ तथ्य ही किसी बात के लिए, निर्णय के लिए अंतिम साक्ष्य नहीं होते, परन्तु हमें किसी बात के अंतिम निर्णय तक पहुंचने के लिए मानव मनोविज्ञान को भी ध्यान में रखना पड़ेगा। यही कारण है कि डॉ. ??? भिमन्ना नीरक्षीर विश्लेषण के आग्रही रहे।

डॉ. आंबेडकर के जीवन की एक घटना हमारी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा सकती है। 1939 में डॉ. आंबेडकर प्रांतीय सदन के सदस्य थे, और बी. जी. खरे प्रधान मंत्री। बी.जी.खरे द्वारा रखे एक प्रस्ताव पर चल रही थी। बहस में भाग लेते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि सरकार का दृष्टिकोण गरीब अछूतो को राहत दिलाने वाला नहीं है। अपने तर्क के पक्ष में तथ्यों की लम्बी सूची प्रस्तुत करते हुए वे भावुक होकर कहते हैं- “मैं जानता हूं मुझे बहुधा गलत समझा जाता है। मैं स्पष्ट करता हूं कि जब कभी मेरे एवं राष्ट्र के हितों के बीच टकराव होगा तो मैं अपने व्यक्तिगत हितों की चिंता नहीं करूंगा। परन्तु मेरी अपनी एक प्रतिबद्धता है जिसे मैं नहीं छोड़ सकता। वह प्रतिबद्धता है मेरे अछूत बंधुओं के प्रति। आप लोग केवल देश के नाम पर मुझे डरा नहीं सकते; दबा नहीं सकते। मैं अपने लोगों को अकेला छोड़ कर सत्ता में बैठी बहुमत वाली पार्टी का समर्थन नहीं कर सकता।”

उपरोक्त कथन का संदर्भ देकर यदि कोई कहे कि डॉ. आंबेडकर राष्ट्र की अपेक्षा अपनी बिरादरी के पक्ष में (यदि राष्ट्रहित एवं बिरादरी के हित में टकराव हो तो) अधिक रहा करते थे, तथा हमेशा अपनी बिरादरी का पक्ष लेते थे। तो यह तथ्यों का गलत ढंग से प्रस्तुतीकरण होगा। हम अच्छी तरह जानते हैं कि उन्होंने राष्ट्रहित के विरुद्ध कोई काम नहीं किया। गांधीजी के साथ एक करार में शामिल होना इसका एक प्रमाण है। केवल डॉ. आंबेडकर के सहयोग के कारण ही 1935 में प्रांतीय विधान सभा में कांग्रेस बहुमत प्राप्त कर सकी और अपना मंत्रिमंडल बना पाई। ब्रिटिश सत्ता ने भारतीयों के द्वारा स्वयं की बनाई जाने वाली सरकार के साथ धोखा किया। ब्रिटिशों ने यह कह कर कि कांग्रेस एवं अन्य बहुमत नहीं जुटा पाए, इसलिए इस सरकार को अमान्य कर दिया।

हम सब जानते हैं कि महात्मा गांधी कहा करते थे- ‘देश का बंटवारा होने से पहले मेरे शरीर के टुकडे कर देना। देश का विभाजन मेरे मृत शरीर पर होगा।’ इसका अर्थ इतना ही है कि देश का विभाजन उतना ही असम्भव है जितना महात्मा गांधी को अपने ही हाथों से मारना। इसी प्रकार तो डॉ. आंबेडकर दलितस्तान की बात करना उतना ही व्यर्थ है जितना दलितस्तान की। दूसरे शब्दों में कहे तो बच्चों से मां का यह कहना कि आपस में झगड़ने से पहले उसे मार डालो, जो किया जाना असम्भव है।

डॉ. आंबेडकर ने विभाजन के शुरुआती बहस के दौरान सम्भवत:???????? परन्तु एक बार भारत का विभाजन एवं पाकिस्तान का निर्माण निश्चित हो गया तो उन्होंने भारत विभाजन को स्वीकार तो किया ही साथ ही यह भी मत रखा कि विभाजन के साथ-साथ नागरिकों की अदला-बदली भी कर दी जाए, जिससे कि यह विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो सके। इस बात के लिए वह बहुत चिंतित थे कि विभाजन के बाद बनने वाला नया भारत एक समरस राष्ट्र बने। उन्होंने कठिन परिश्रम के साथ संविधान का निर्माण करते हुए स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व को समाज के लिए अटूट स्तम्भ के रूप में स्थापित किया। दूसरी ओर जाति प्रजाति एवं धर्म के आधार पर बिना भेदभाव किए सामाजिक न्याय के सुनिश्चित किया।

दुर्भाग्य से कांग्रेस विचारों के उस छोर को पकड़ नहीं पाई और समझौते तथा तुष्टिकरण के रास्ते पर चलकर देश को आंतरिक समस्याओं का भंडार गृह बना दिया।

चलते-चलते यह एक मजेदार बात है कि सी. पी. एम. के पूर्व महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजित सिखों के लिए अलग होमलैंड की मांग करने वालों में से एक थे। ‘डर्ळीीशीं ऊरीरीीं ाश कळपव‘ नामक किताब में प्रसिद्ध पत्रकार शमील ने इस बात का जिक्र किया। उन्होंने यह भी उद्घाटित किया कि 1940 में रूस द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीयता का सिद्धांत इसका आधार था। हरिकिशन सिंह सुरजित एवं उनके सहयोगी कम्युनिस्टों ने मिलकर- ‘सिख हिन्दुस्तान के रूप में नहीं रहेंगे। उनको अलग राष्ट्र चाहिए।’ यह दस्तावेज तैयार किया। उन दिनों सुरजित (1940) देवलाली जेल में थे। एक वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता ने मुस्लिम नेशन पाकिस्तान नामक दस्तावेज तैयार किया, उसी से प्रेरणा लेकर सुरजित ने भी उक्त दस्तावेज तैयार किया।

यह जानकारी 25 अक्टूबर 2000 के ‘हिन्दू’ में प्रकाशित हुई, चार दिन बाद सुरजित ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि सिख राष्ट्र का नारा अलग पाकिस्तान के तर्कों की धार को बोथरा करने के लिए दिया गया जवाबी नारा था।
यह पाठकों के विवेक पर निर्भर है कि वे सुरजित ने जो स्पष्टीकरण दिया उस पर विश्वास करें या ना करें, पर यदि सुरजित के स्पष्टीकरण पर विश्वास करना है तो फिर डॉ. आंबेडकर ने अलग पाकिस्तान की मांग की धार को कम करने के लिए अलग दलितस्तान का नारा दिया होगा ऐसा मानना उचित ही होगा।
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