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सहेलियां

सहेलियां

by वैशाली कुलकर्णी
in मार्च २०१६, सामाजिक
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“आजकल की मांएं लड़कियों को सिर पर चढ़ा रखती हैं… वे भी कुछ पूछना हो तो मां से ही पूछती हैं, सास से नहीं। मां भी बेटी की घर गृहस्थी में टांग अड़ाती है। मियां-बीवी में, सास -बहू के रिश्ते में इगो आड़े आता है। इससे रिश्ते हद तक बिगड़ जाते हैं।”

(चबूतरे पर उषा जी बैठी है। अपनी सहेलियों की राह देख रही है।)
उषाजी- (स्वगत) छह बज गए, अबतक किसी का अतापता नहीं। ज्यादा देर तक बैठा भी नहीं जा सकता। ‘प्रिया’ को लेने इनको जाना पड़ेगा। प्रिया -अशोक जल्दी घर आ गए तो मैं अकेली क्या क्या करुंगी? शाम का नाश्ता, रसोई सब गड़बड़।
मंगला जी का ठीक है-मियां-बीबी दोनों अकेले रहते हैं। चिंता नहीं किसी बात की। बच्चे भी पास ही रहते हैं।
सुजाता को उसकी रसोई का घमण्ड है। उसकी बेटी अमेरिका में है न! मियां- बीबी दोनों गए थे, बेटी के परस अमेरिका । क्या-क्या लेकर आए थे। हमें बुलाया था देखने को।

शांताजी की हालत अच्छी नहीं, अकेली ही रहती है। छह महीने पहले उनके पति कार-दुर्घटना के शिकार हुए। शांताजी अब थोड़ी-थोड़ी संभल रही हैं।

मुक्ता सबसे अजीब है। शादी हुई तब से महेश के साथ उसकी पटती नहीं थी। डिवोर्स ले लिया। अब मजे से घूमती है। दोस्तों के साथ ट्रेक के लिए जाती है, होटल में जाती है। आजकल किसी लड़के साथ घूमते हुए दिखाई देती है। क्या रिश्ता रखती है उससे, राम जाने! परसो ही बता रही थी कि फिर से शादी न करेगी। कहती थी ‘दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है।’
मंगलाजी- अरे, उषा जी आई हैं। मुझे आज खिड़की से दिखाई नहीं दी, नहीं तो मैं चली आती। आप क्या सोच रही हैं? शांता जी नहीं आई हैं। हमेशा तो वे जल्दी आती हैं। मै घर में अकेली बोअर होती हूं। यहां पर टाइम पास होता है। आसपास बच्चे भी खेलते रहते हैं। वह अभी भी नॉर्मल नहीं हुई है। अरे वाह! शांता जी भी आ गईं, देख लीजिए। सौ साल की उमर है
शांताजी- इतनी लंबी जिंदगी लेकर क्या करूं! किसके लिए जीऊं? उस हादसे के बाद जीने का मेरा मन नहीं करता।
उषाजी- हां, आपको महत्वपूर्ण मीटिंग में जाना था, इसलिए आप उनके साथ नहीं गईं। शांता जी, आपका बेटा, बहू सारे उस एक्सिडेंट के शिकार हो गए। वह सब भयंकर था। वह घटना याद आने पर आज भी सिहर उठते है।

मंगलाजी- क्यों पुरानी यादें दोहराती हो? शांता जी आप परसों संस्था की मीटिंग में गई थीं न? क्या चर्चा हुई बताइये न।
शांताजी- किसी भी काम में मेरा जी नहीं लगता, मंगला जी, कोई जिम्मेदारी उठाने की इच्छा नहीं होती।
मंगलाजी- ऐसा मत सोचिए। जाना शुरू कर दीजिए।

मुक्ता- कहां भेज रही हैं शांता आंटी को?
उषाजी – आज तुम्हें समय मिला क्या मुक्ता? कहां रही इतने दिन?
मुक्ता- उषा मासी, मैं लेह-लद्दााख ट्रेक के लिए गई थी। बहुत चैलेजिंग ट्रेक था। हम दस लोग थे। मजा आया। सुजाता कहां है? उसके साथ मॉल में जाना था। नहीं आई शायद आज, बहुत सारी खरीदारी करनी थी।
उषाजी- क्या खरीदारी करती हो मॉल में? कीमतें दुगुनी-तिगुनी होती हैं। दूसरी दुकानें तो खुली हैं ना?
मुक्ता- उषा मासी, ब्रान्डेड चीजों के दाम तो ऐसे ही रहेंगे ना? क्वालिटी अच्छी रहती है? दिखती भी अच्छी ही है।
उषाजी- पर उसके लिए इतने पैसे…………?

मुक्ता- नो प्रॉब्लेम… इतना कमाते किसलिए है? काफी तनख्वाह मिलती है, सो खर्च करते हैं।
मंगलाजी- मुक्ता! बुढ़ापे की सोच…..कुछ बचाके रख।
मुक्ता- मेरी बुजूर्ग सहेलियो! मैंने अपने पैसे का निवेश व्यवस्थित रूप से किया है। शेयर, यूनिट ट्रस्ट, मशहूर कंपनियों के शेयर भी खरीदे हैं। फिक्र की कोई बात नहीं। बुढ़ापे का भी ठीक ही इंतजाम किया है। बीमार हो गई तो मेडिक्लेम की पॉलिसी भी ली है। सो डोन्ट वरी। मेरी चिंता छोड़ दीजिए।

शांताजी- सच, तुम लड़कियां… कितनी होशियार हो। हमने तो कभी सोचा ही नहीं कि मेडिक्लेम की पॉलिसी लेनी चाहिए। जो कुछ पास था, वह सारा इनकी बीमारी में लग गया। ऑपरेशन का खर्चा इतना! ब्लॉकेजेस भी निकले बहुत। अब ये मुसीबत।
मुक्ता- शांता आंटी, अब पिछली बातों को भुला दीजिए। आपको कुछ जरूरत है क्या? यह आपकी भतीजी आपके साथ पहाड़ जैसी खड़ी है। आप चिंता न कीजिए।

शातांजी- मेरे सगे संबंधियों ने मुझ से आंखें फेर लीं। तुम से कोई रिश्ता नहीं, फिर भी तुमने मदद की, मेरे सोसायटी वालों ने मेरी मदद की, इसलिए मैं संभल गई हूं। तुम सब का एहसान मैं कैसे चुकाऊंगी?
मंगलाजी-फिर वही बात, ऐसा मत कहिए। हम आपकी सच्ची पड़ोसनें हैं न? क्यों उषा जी, मुक्ता?
उषाजी- हम खुशी में एक दूसरे के साथ थे- फिर दुःख में नहीं हो सकते क्या? अब यह विषय आगे नहीं।

मुक्ता- उषा मासी अपनी परसों की चर्चा को आगे बढाओ। हम अपनी बचपन की यादें बता रहे थे। आप आरंभ कीजिए।
उषाजी- तुम्हारा कहा सच है मुक्ता! वह समय अलग था। अब मिक्सर, फूड प्रोसेसर, मायक्रोवोवन आ गया है। होली आ जाने पर पुरणपोली (महाराष्ट्र का विशेष मीठा व्यंजन) बनती थी। सिल-लोढ़े पर दाल पीसनी पड़ती। चटनी भी सिल-लोढ़े पर पीस कर ही बनाते थे। सींगदाना भी ओरवली में मूसल से कूटते थे। त्यौहार पर कामवाली बाई नहीं आती थी। कपड़े भी हाथ से धोते, बर्तन मांजते। तब वॉशिंंग मशीन थोड़े न थी। बहुत मेहनत करनी पड़ती थी।

मंगलाजी- उषाजी हमारे दिन पुराने दिनों की तुलना में अच्छे ही थे। हमारी मां -नानी चूल्हे पर खाना बनाती। लकड़ी ठीक न जलने पर धुआं होता था। चूल्हे भी अलग-अलग प्रकार के थे। लकड़ी का बुरादा सुलगा कर चूल्हा जलाया जाता। बीच में डंडा रख कर गोल-गोल भूसा भरा जाता था। डंडा निकाल कर चूल्हा जलाया जाता। मिट्टी के चूल्हे – कोयले के चूल्हे। स्टोव भी बाद में आए। वह भी बत्तीवाला स्टोव, बर्नर का स्टोव, पीतल का स्टोव। मेरी मां तो स्टोव देख कर खुश हुई, इसलिए कि अब उसे चूल्हा गोबर से लिपना न पड़ेगा।

उषाजी- हां, और पूरा घर भी लिपना पड़ता था। फर्श टाइल्स थोड़े ही थे। गोबर लाकर पूरा लिपना पड़ता। पानी में गोबर पानी में घोल कर आंगन में सिंचना पड़ता। रंगोली भी बनानी पड़ती थी।

मुक्ता- उषा मासी, थोड़ा डिस्टर्ब करती हूं। रंगोली से याद आया, ‘चैत्रागंडा’ यानी क्या?
मंगलाजी- चैत्र शुध्द प्रतिपदा से घर के सामने ‘चैत्रगंडा’ बनाया जाता था। उसमें विशिष्ट प्रकार से रंगोली बनाने की प्रथा है। ये चित्र दीवार पर गेरू से बनाते हैं या जमीन पर रंगोली बनाई जाती है। चौसट आकृतियां बना कर उसमें दो गौरी (देवी) पाटा, श्रीचक्र, पंखा, सूर्य, चंद्र, तारे, पद्म, गदा, गोपद्म, माना लक्ष्मी के दो पैर, स्वस्तिक, कलश,ध्वज, त्रिशूल, धनुष्य, तीर, डमरु, कंघी, कुमकुम की डिबिया, शीशा, प्रवेश द्वार, तुलसी बिरवा, श्रीफल, बिल्वदल, अष्टदल, करघा (मराठी-माग) कछुआ, हाथी, बंंदनवार, पलना, नागयुग्म शृंखला, ऊँ, श्री इत्यादी शुभचिह्न बनाए जाते हैं। इसके बारे में और जानकारी फिर कभी दूंगी।
शातांजी- दीवाली में हम ‘आकाशदीप‘ घर में बनाते थे। मैंने अपनी संस्था में आकाशदीप बनाना सिखाया है। अपनी सोसायटी में वही लगाएंगे। हम बड़ी-बड़ी रंगोली भी बनाते थे। पैरों से ‘किरट’ (एक प्रकार का छोटा फल) तोड़ते थे। घर में सब को तेल उबटन लगाते, खुशबूदार साबुन से नहाते थे। दीवाली के मौके पर बनाई जाने वाली मिठाई सब एक साथ खाते थे।
उषाजी- हम घर में सारी चीजें बनाते थे- जैसे चकली, गुझिया, अनारसा, चिवड़ा, लड्डू इत्यादी। अब बेटे कहते हैं कि क्यों इतनी मेहनत करती हो। बाहर बहुत सारी अच्छी चीजें मिलती हैं- उसे ही खरीद कर लाते हैं। बाहर का खाना अच्छा तो नहीं लगता, पर अकेले बनाना अब नहीं होता।

मंगलाजी- ‘नवरात्रि’ में हम सारी सहेलियां एक दूसरी के घर जाकर ‘भोंड़ला’ खेलती थीं। प्रसाद के रूप में जो चीजें बनाई जातीं, उन्हें पहचानना पड़ता। बहुत सारे गीत गाते थे। हमारे पड़ोस में एक गुजराती परिवार था। उनको अपने गांव के नृत्य की याद आती। कुछ परिवारों में ‘भूलाबाई’ (गुड़िया) के गीत गाए जाते।

उषाजी- ‘भोंड़ले’ के गीतों में ससुराल वालों की निंदा की जाती थी और मायके वालों की तारीफ होती थी।
मुक्ता- मंगला आंटी, भोंड़ले का एकाध गीत गाओ ना?
मंगलाजी- सबसे पहले गणेश स्तवन होता था, लकड़ी के पटे पर हाथों का चित्र बनाया जाता, हस्तनक्षत्र होता था न इसलिए। रंगोली बनाकर लकड़ी का पटा रखा जाता, पूजा की जाती थी। पटे के गोल-गोल घूम कर गीत गाए जाते थे।
शांताजी- बचपन गरीबी में गुजर गया। सबके ऐसे रईसी ठाट नहीं थे। सब खा- पीकर सुखी रहते थे। त्योहार पर नए कपड़े खरीदते, मिठाइयां लाते। भरापूरा परिवार रहता था भाई बहनों से।

उषाजी- शांता जी आपकी शादी जल्दी ही हुई थी न?
शांताजी- जी,हां, पंद्रह साल की ही थी मैं। मेरी सांस बहुत तंग करती थी, उसे दहेज नहीं मिला था न, हमारी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी, पिताजी कहां से पैसा लाते? जैसे-तैसे गुजारा होता था।

मुक्ता- शांता आंटी आपके हाथ पर यह दाग कैसे? पहले भी मैंने आपसे पूछा था पर तब आपने कुछ कहा नहीं। अब बताइये न।
शांताजी- उसमें बताने लायक कुछ नहीं, मैं बहुत सुंदर दिखती थी, इसलिए शादी जल्दी हुई। रसोई बनाने की आदत नहीं थी। घर में बुजुर्ग महिलाएं थीं, वे रसोई संभालती थीं। एक बार मेरे हाथ से दाल का पतीला चूल्हे से उतारते समय गिर गया। सास ने चूल्हे की गर्म लकड़ी उठाई और दाग दिया। क्या बताऊं? ये वही दाग है।

मुक्ता- बाप रे फिर आपने क्या किया?
शांताजी- क्या करती? सिफर्र् सहती रहती थी? प्रतिकार करने की हिम्मत नहीं थी।
मुक्ता- अंकल कुछ कहते नहीं थे अपनी मां को?
शातांजी- वे अपनी मां से डरते थे। सास की धाक ही ऐसी थी। पर मुझ से बहुत प्रेम करते थे। इनका तबादला हो गया दूर नागपूर की ओर, तब जाकर मुझे सास से छुटकारा मिला। बाद में हम बड़े सुखचैन से रहे। इन्होंने मेरी सारी इच्छाएं पूरी कीं। अब निवृत्ति लेने के बाद यहां आए। बेटा-बहू भी मेरा खयाल रखते थे। अब आराम से जिंदगी बिताने के दिन आए तो यह विपरीत हुआ। अब मैं बिलकुल अकेली अकेली हो गई।
उषाजी- शांता जी, अब पिछली बातों को भूल जाइये। हम सब हैं ना? फिर आप अकेली कैसी?
शांताजी- नहीं मुक्ता, अब वे यादें नहीं दुहराऊंगी।

मुक्ता- वेरी गुड, हमारा बचपन ठीक ही था। माता- पिता दोनों नौकरी करते थे। घर में दादा-दादी थे हमारा ध्यान रखने के लिए। बेटी होकर भी मुझे किसी चीज की कमी न थी। बिल्कुल जैसे भाई के लाड़ हुए वैसे मेरे भी हुए।
मंगलाजी- इसलिए बिंदास हो, किसी से नहीं डरती थी।

मुक्ता- हालात ने मुझे ऐसा बना दिया। मां और पिता ने मेरे लिए अचछा लड़का चुना। मंदार दिखने में तो अचछा था, पर स्वभाव से हठी। बात-बात पर मुझे तुच्छ समझता। मेरी कमाई उसकी कमाई के बराबर थी, बड़ा अहंकारी स्वभाव था उसका। सोशल पार्टियों के नाम से शराब पीने लगा, व्यसनाधीन हुआ। न ऑफिस जाता, न ही काम का ध्यान रखता। मुझे तो लगता था कि शायद उसका किसी लड़की के साथ अफेयर चलता था। हमारी शादी से पहले ही उसकी एक दोस्त थी। वह इस दोस्ती में बहुत आगे निकल गया था। मेरे भी दोस्त थे, सहेलियां थीं पर दोस्ती में कहीं खोट नही। अंत में मेरे बरदाश्त करने की हद हो गई। छोड़ दिया मैंने उसे, आपस का वैचारिक मेलजोल बिल्कुल नहीं था। ओ ऽऽऽ सॉरी मैं भी कहां से कहां पहुंच गई।
उषाजी- आजकल की मांएं लड़कियों को सिर पर चढ़ा रखती हैं, बहुत लाड़ करती हैं वे उनसे। कुछ भी पूछना हो तो मां से ही पूछती हैं, सास से नहीं। मां भी बेटी की घर गृहस्थी में टांग अड़ाती है। मियां-बीवी में, सास -बहू के रिश्ते में इगो आड़े आता है। दोनों एक-दूसरे की माताओं को सदा बुरा कहते रहते हैं। साधारण सी बातों को इतना तूल दिया जाता है कि विवाह- विच्छेद की नौबत आती है।

मुक्ता-जैसा आप सोचती है, वैसा मेरे बारे में नहीं हुआ। मेरी मां और पिता ने निर्णय मुझ पर सौंपा था। शराब पीकर घर आने के बाद जब उसने मुझ पर हाथ उठाया तब मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। सांझ होने तक वह घर छोड़ दिया। मां ने भी यह निर्णय स्वीकार कर लिया। नहीं चाहिए वें यादें। अब हम सकारात्मक विचार करने की सोचें। आप के कहेनुसार घरगृहस्थी बसाना-सब कुछ अपनी इच्छानुसार थोड़े ही न मिलता है। उस नए आदमी में भी दोष तो होंगे न, मुझ में भी हैं।
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वैशाली कुलकर्णी

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