सबल महिलाएं…बलसागर भारत

सन 1975 अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में घोषित हुआ और महिलाओं के बारे में सदियों से छिपे प्रश्न सतह पर आने लगे। धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक समाज व्यवस्था में महिलाओं को दिया जाने वाले गौण स्थान के खिलाफ महिलाएं जागृत हुईं। उनकी सामाजिक, राजनीतिक अनूभूतियों को वे विभिन्न तरीकों से उजागर करने लगीं। इन बातों के आलोक में पिछले 45 वर्षों में महिलाओं का मार्गक्रमण जारी रहा। प्रगति की दिशा में उनकी इस यात्रा से महिलाओं की स्थिति में आए बदलाव को आज हम रेखांकित कर पा रहे हैं। पश्चिमी दुनिया के मुकाबले भारत में सुधारों का आरंभ कुछ धीमी गति से होने से भारतीय महिलाओं को पारम्पारिक, सामाजिक तथा पारिवारिक बंधनों को उतार फेंकने का अवसर भी विलम्ब से ही मिला। अपना आकाश खुद गढ़ने के लिए भारतीय महिलाओं को जो प्रयास एवं संघर्ष करना पड़ा, वह मुख्य रूप से पुरुष-प्रधान व्यवस्था और मनोवृत्ति के विरुद्ध रहा है।

‘महिलाओं के चारों ओर एक गूढ़ वलय है…’, ‘महिलाओं के बर्ताव का तार्किक स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता…’, ‘महिला एक पहेली है…’ आदि वक्तव्य पुरुषों के मनोविज्ञान में निरंतर होते रहते हैं। जो जो कुछ पुरुषों का है, वह सब सर्वोत्तम और जो जो कुछ महिलाओं का है वह सब दोयम दर्जे का है। यही पुरुषों का आज तक पैमाना रहा है और इसी फुटपट्टी से महिलाओं का तुलनात्मक आकलन करने की पद्धति समाज में रूढ़ होती गई, ऐसा लगता है। लेकिन जब तक महिलाओं को ठीक से समझा नहीं जाता, तब तक उससे परिपूर्ण सम्बंध स्थापित करना असंभव है। पुरुषों के अहंभाव के कारण भी वे महिलाओं को समझ नहीं पाते; क्योंकि यह तो उन्हें अपनी तानाशाही स्वीकार करने जैसा लगता है। स्त्री-पुरुष समानता का अर्थ ‘स्त्री विरुद्ध पुरुष’ संघर्ष नहीं है; अपितु इसका अर्थ है स्त्री-पुरुष का परिवार में परस्पर समन्वय, हर तरह के सामाजिक व्यवहार में पुरुषों के साथ महिलाओं को समान अवसर, परस्पर सम्मान-भाव की रक्षा करना। दोनों ‘अपूर्णांक’ हैं। दोनों को ‘पूर्णांक’ होना है। एक दूसरे को ‘स्पेस’ देते हुए, एक दूसरे को संवारते हुए दोनों को साथ-साथ बड़ा होना है यह भाव निर्माण होना और उस पर प्रत्यक्ष कृति महसूस होना ही ‘स्त्री-पुरुष समानता’ है। राष्ट्र जीवन में, समाज जीवन में और पारिवारिक जीवन में दोनों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण हैं, इसे महसूस करना स्त्री-पुरुष समानता है। दो वर्ग, दो देश, दो जातियां, दो धर्म की लड़ाई की तरह स्त्री-पुरुष संघर्ष नहीं है। क्योंकि, लड़ाई में एक की जीत व दूसरे की हार होती है। ऐसा इस संघर्ष में अपेक्षित नहीं है। यहां दोनों के हित एक ही हैं। यह शांतिपूर्ण सहअस्तित्व व सामंजस्य का अंग है। एक दूसरे का सम्मान रखते हुए देश, समाज, परिवार जैसे सभी स्तरों पर बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है।

समाज विज्ञानी हमेशा कहते रहे हैं कि देश की स्त्री-शक्ति का सकारात्मक उपयोग हो, और महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध हो तो, देश का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व अन्य क्षेत्रों में तेजी से विकास होगा। भविष्य में स्त्रियों को उचित अवसर प्राप्त हो तो वे क्या कर सकती हैं, इसका स्पष्ट चित्र वैश्विक स्तर की एक कम्पनी ने रेखांकित किया है। मैककिन्से नामक इस वित्तीय सलाहकार कम्पनी का अनुमान है कि देश में सम्पत्ति निर्माण करने वाले क्षेत्रों- अर्थात उद्योग, कामगार क्षेत्रों में स्त्री-पुरुष समानता पर बल दिया गया तो सन 2025 तक देश के कुल उत्पादन में लगभग 700 अरब डॉलर का इजाफा हो सकता है। इससे देश के आर्थिक विकास पर दीर्घावधि सकारात्मक परिणाम होंगे। भारत की लगभग 49.6 करोड़ महिलाओं की आर्थिक एवं सामाजिक बंधनों से मुक्ति होनी चाहिए। और वह भी केवल कानून बनाकर नहीं, केवल सैद्धांतिक रूप से नहीं; बल्कि प्रत्यक्ष व्यवहार में दिखाई दे इस तरह होनी चाहिए। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान चलाने का आवाहन किया है। ‘बलसागर भारत’ की कल्पना यथार्थ में लाने के लिए, भविष्य में स्त्री-शक्ति का सशक्तिकरण क्या चमत्कार कर सकता है, इसे ही तो मैककिन्स ने हमारे समक्ष रखा है।
भविष्य में आने वाले अवसरों को देखें तो, महिलाओं के भावविश्व में बहुत बड़ा परिवर्तन आना अभी बाकी है। सीता और सावित्री की परम्परा विशद करने वाला महिला आंदोलन सरोजिनी एवं कस्तुरबा तक पहुंचा था। यह महिला आंदोलन अब गुडिया और निर्भया के लिए इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने तक पहुंचा दिखाई देता है। ये घटनाएं शर्तनाक हैं ही, लेकिन यह आशंका भी पैदा करती हैं कि महिला आंदोलन क्या चमक-दमक की ओर मुड़ रहा है? महिला सशक्तिकरण की मिसाल देने वाले प्रसार माध्यम ‘पावर वूमन’ की कल्पना ला रहे हैं। पिछले दो दशकों से फैशन शो, फिल्म क्षेत्र, ‘विश्व सुंदरी’, ‘भारत सुंदरी’ के क्षेत्रों की महिलाओं को चमक-दमक के साथ पेश किया जा रहा है। इन्हीं क्षेत्रों की महिलाओं को लगातार सामने लाकर ‘पावर वूमन’ की कल्पना हमारे मन पर थोपी जा रही है। इस बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। विभिन्न क्षेत्रों में पंचायतों से लेकर चौराहों तक, स्वास्थ्य से लेकर समाज की विभिन्न समस्याओं के लिए संघर्ष करने वाली महिलाओं की मिसालें क्या प्रसार-माध्यन जानबूझकर टाल रहे हैं? उनके प्रयास क्या ‘पावर वूमन’ की परिभाषा में फिट नहीं बैठते? यथार्थ से दूर इस चमक-दमक और भ्रमित करने वाली बात को चमकीले ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास हो रहा है। ‘पावर वूमन’ की परिभाषा एक निश्चित क्षेत्र की महिलाओं को आगे कर हम पर थोपी जा रही है। इस भ्रम से हमें सतर्क होने की जरूरत है।

समाज और राजनीति के क्षेत्र के विद्वानों की राय है कि भारत में दिखावटी परिभाषा से महिलाओं का विकास नहीं होता। यदि सम्मान एवं अनुकरण करना ही हो तो उन महिलाओं का किया जाना चाहिए, जो वैकल्पिक विकास का संकल्प लेकर अनेक दिक्कतों का सामना कर आगे बढ़ रही हैं। ‘बलसागर भारत’ हमारा स्वप्न है और महिलाओं के सहयोग से ही वह पूरा होगा। लेकिन भविष्य की ओर देखते समय ‘पावर वूमन’ जैसी थोपी जाने वाली ‘चमकीली छवि’ एवं भ्रम के प्रति महिलाओं को सतर्क रहना चाहिए।
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