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देवतुल्य पर्जन्य

देवतुल्य पर्जन्य

by प्राची पाठक
in जुलाई-२०१६, सामाजिक
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वेदकाल, जो साहित्य की गंगोत्री है, उसमें प्रकृति के विविध रूपों को देवत्व प्रदान कर उसकी आराधना की जाती थी। पर्जन्य नाम से वर्षा ऋतु की प्रशंसा करने वाले वैदिक ऋषियों ने इसे पितृतुल्य माना है। स्वयं को पृथ्वी माता का पुत्र कहला कर ये ऋषि पर्जन्य हमारा पिता है, वह हमारी रक्षा करें, जैसी सदिच्छा व्यक्त करते हैं।

बच्चों से लेकर बड़ों तक सबकी मनभावनी ऋतु! नियमितता से आने वाला ग्रीष्म और शीत जैसा यह सिर्फ वातावरण में बदलाव नहींं लाता, बल्कि सारी सृष्टि में मयूर पंख की तरह सुखद नवचैतन्य लाता है। गर्मी से तप्त, पीड़ित तन-मन को शीतलता प्रदान करने वाला यह कुदरत का करिश्मा है। नव निर्मिति का बीज बोने वाले इस ऋतु के अनगिनत रुपों से मानव जाति, पशु पक्षी, पेड़ इन सब को जीने की नई ऊर्जा मिलती है।

पहली बारिश की आतुरता से राह देखना, बादलों की गड़गड़ाहट में वर्षा के आगमन से आनंद, उसके बरसने से मिलाने वाली राहत, सब को संतोष देकर चार महीने का वास्तव्य समाप्त कर उसे दी गई भावभीनी विदाई… इन सारी भावनाओं का प्रतिबिम्ब साहित्य में न दिखाई दें तो आश्चर्य!

प्राचीन परंपरा से समृद्ध संस्कृत साहित्य भी इसका अपवाद नहींं। वेदकाल, जो साहित्य की गंगोत्री है, उसमें प्रकृति के विविध रूपों को देवत्व प्रदान कर उसकी आराधना की जाती थी। पर्जन्य नाम से वर्षा ऋतु की प्रशंसा करने वाले वैदिक ऋषियों ने इसे पितृतुल्य माना है। स्वयं को पृथ्वी माता का पुत्र कहला कर ये ऋषि पर्जन्य हमारा पिता है, वह हमारी रक्षा करें, जैसी सदिच्छा व्यक्त करते हैं।

माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: ।
पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तु ॥

पर्जन्य के सामर्थ्य का स्तवन कर ये ऋषि उसे प्रार्थना करते हैं कि चारों तरफ सही मात्रा में जल वृष्टि हो, हमारे लिए और मवेशियों के लिए पीने का पानी विपुल मात्रा में उपलब्ध हो।

यही पितृत्व की भावना थोड़े अलग रूप में आदि काव्य रामायण में दिखाई पड़ती है।
आदि कवि वाल्मीकि कहते हैं-सूर्य अपनी किरणों से सागर का पानी सोख लेता है। यही सागर का पानी आकाश नौ महीने गर्भ में धारण करता है और अब अमृत के समान जल वर्षा रूपी अपत्य को जन्म देता है।

नवमासधृतं गर्भ भास्करस्य गभ्स्तिभी: ।
पीत्वा रसं समुद्राणाम द्यौ: प्रसूते रसायनम् ॥

सृजन की कारण इस ऋतु के सृजन की कल्पना सचमुच रम्य और मनोहर है। बारिश और प्रेम का अनोखा रिश्ता है। साहित्य में प्रेमीजनों की प्रिय वर्षा अलग-अलग रूपों में बरसती है। प्रेम और बारिश का सम्बंध संस्कृत साहित्य में देखा जाए तो सबसे पहले याद आती है कवि कुलगुरु कालिदास की।

प्रेम का चिरंतन काव्य है, कालिदास का मेघदूत। उसके नायक यक्ष को पत्नी विरह असह्य होता है, इसलिए वह बारिश के बादल को ही दूत बना कर भेजता है। यह मेघदूत की कथावस्तु का विषय है। इसमें वर्षा ऋतु प्रेमी जनों की विरह व्यथा बढ़ाने वाली, बेचैन करने वाली, उन वेदनाओं को हल्का करने वाली, पुनर्मिलन की आस जगाने वाली सखी आदि रूपों में पाठकों से मिलती है।

काव्य समाप्त करते समय कालिदास मेघ और उसकी पत्नी बिजली का विरह न हो, ऐसी आशा व्यक्त करते हैं। इस तरह उन्होंने प्रकृति और मानवीय भावनाओं का तालमेल बनाते हुए प्रेम को चरम सीमा पर पहुंचाया है।

मा भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युत विप्रयोग: ।

छह ऋतुओं को समर्पित ‘ऋतु संहार’ काव्य में कालिदास वर्षा ऋतु के आगमन से एक दूजे के साथ रहने वाले प्रेमी जनों के आत्यंतिक आनंद का वर्णन करता है। बादलों की गड़गड़ाहट से डर कर स्त्रियां अपने पति से हुए झगड़ों को भूल जाती हैं, वर्षा उनके बीच की दूरी समाप्त करने का मधुर कारण बनती है। जिन स्त्रियों के पति सफ़र से नहींं लौटे वे उनकी राह पर आंखें बिछायी बैठी हैं। ऐसी स्त्रियां बरखा के आगमन से और व्यथित होती हैं।

निरस्तमाल्याभरणानुलेपना: स्थिता निराशा: प्रमदा प्रवासिनाम ।

सिर्फ मानव जाति ही नहीं अपितु प्राणियों को भी बारिश अच्छी लगती है, इसका अद्भुत वर्णन कालिदास ने किया है। अचानक बारिश आने से घबड़ाए मोर पंख फैला कर नाचने लगते हैं। मधुर कलरव करने लगते हैं। एक दूजे के लिए प्रेम व्यक्त करने लगते हैं।

सदा मनोज्ञं स्वनदुत्सवोत्सुकं विकीर्णविस्तीर्णकलापशोभितम ।
ससंभ्रमालिंगनचुम्बनाकुलं प्रवृत्तनृत्यं कुलमद्य बर्हिणाम ॥

बारिश से उत्तेजित होकर भंवरे मधुर ध्वनि करते हुए, लता और फूलों को छोड़ कर, मोर के फैले हुए पंख को कमल का फूल समझ कर, उस पर ही मंडराने लगते हैं।

विपत्रपुष्पां नलिनीं समत्सुका विहाय भृंगा: श्रुतिहारिनिस्स्वन: ।
पतन्ति मूढा: शिखिनां प्रन्तुत्यतां कलापचक्रेषु नवोत्पलाशया ॥

हल्की बारिश सुखद लगती है। कभी-कभी वह रौद्र रूप भी धारण करती है। शूद्रक के प्रसिद्ध नाटक ‘मृच्छकटिक’ में बारिश के रौद्र रूप का चित्रण मिलता है। शूद्रक लिखता है, मूसलाधार बारिश की वजह से आसपास का कुछ दिखाई नहींं पड़ता। रात और दिन में फर्क नहींं लगता। बीच-बीच में बिजली चमकने के कारण अंधेरे का अस्तित्व मालूम पड़ता है। समूचा विश्व बंद आखों वाला और क्रियाशून्य हो गया है।

विश्चेष्टम स्वपितिव सम्प्रति पयोधारागृहांतर्गतम ।
स्फिताम्भोधरधामनैकजलद्च्छत्रापिधानं जगत ॥

शूद्रक कहता है, प्रलयकारी मेघ गर्जना, आंधी, बिजली कौंधना ये आकाश की डरावनी जम्हाई है।

विद्युज्जिह्वेनेदं महेंद्रचापोच्छितायभुजेन ।
जलधरविवृध्हहनुना विज्रुम्भितमिवंतारिक्षेण ॥

विख्यात संस्कृत साहित्यिक बाणभट्ट ‘कादंबरी’ जैसी असामान्य कलाकृति में बारिश के भयावह रूप का इंद्र के अजस्त्र धनुष को तोड़मरोड़ कर, पर्जन्यधरा रूपी बाणों का वर्षाव करने वाली, शत्रु पर असंख्य शस्त्र फेंक कर, आंखों को कुछ भी दिखाई न देने वाली ऋतु, ऐसा वर्णन करता है।

‘भागवत’ पुराण के गोवर्धन पर्वत की कथा सब ने सुनी है। इसमें आरंभ में बारिश का उल्लेख इन्द्रदेव का कृष्ण के विरोध में प्रयोग किया हुआ हथियार इस सन्दर्भ में है। इंद्र ने अपने प्रभाव से गोकुल में जोरदार बारिश करना शुरू किया।

स्थूणास्थूला वर्षधारा मुन्चत्स्वभेष्वभीक्ष्णश:।
जलौघे: प्लाव्यमाना भुर्नादृश्यत नतोन्नतम ॥

इसके बाद श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अंगुली पर धारण कर गोकुल के गोप-गोपियों को, मवेशियों को लगातार सात दिन आश्रय दिया। अंत में इन्द्रदेव पीछे हट गए और बारिश थम गई। गोवर्धन के कारण गोकुल में बारिश थमी इसलिए कृष्ण ने दूसरे किसी देवता के बजाय इस पर्वत की पूजा होनी चाहिए ऐसा कहा। कृष्ण का यह तत्कालीन दृष्टिकोण आज के काल में भी अनुकरणीय है।

‘भगवद् गीता’ में भी सृष्टिचक्र को अव्याहत रूप से चलने वाले पर्जन्य को महत्वपूर्ण घटक माना गया है। प्राणी मात्र जिस भोजन सामग्री के बल पर जीते हैं, वह भोजन या आहार पर्जन्य निर्माण करता है। पर्जन्य निर्मिति के लिए यज्ञ किया जाता है। यज्ञ विहित कर्मों के द्वारा होता है। सारांश, मनुष्य अपने कृत्यों से प्रकृति का संतुलन बनाए रखे तो प्रकृति भी अपने विहित क्रम से कार्यरत रहती है।

अन्नाद्भावती भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव: ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥

कई साहित्यिकों ने बारिश, मेघ, बारिश के कारण सृष्टि में होने वाले परिवर्तन के उदाहरण देकर अपने मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं।

सृष्टि को वर्षा का दान करने वाले बादलों के काले रंग का सुयोग्य उपयोग कर ‘भामिनी विलास’ काव्य के रचनाकार जगन्नाथ पंडित कहते हैं कि अमीरों से स्वार्थ हेतु से पैसे ऐंठने वालों का मुंह काला हो तो आश्चर्य नहींं। मेघ दूसरों के लिए समुद्र से पानी लेता है, फिर भी उसका रंग बदल जाता है, वह काला हो जाता है।

स्वार्थं धनानि धनिकात्प्रतिगृह्णतो यदास्यं भजेंमालिनतां किमिदं विचित्रम ।
गृहणन्परार्थमपि वारिनिधे: पयापि मेघोी यमेति सकल: किल कालिमानम ॥

भर्तृहरि अपने ‘नीतिशतक’ नामक सुभाषित संग्रह में कहते हैं कि जैसे सज्जन दूसरों की मदद करते हुए मांगने की राह नहींं देखते, वैसे बारिश के मेघ किसी से कुछ न मांगते हुए भी पूरे विश्व पर पर्जन्य वृष्टि करते हैं।

नाभ्यर्थितो जलोधरोीपि जलं ददाति सन्त: स्ययं परहितेषु कृताभियोगा: ।

वर्षा ऋतु के संदर्भ में साहित्यिकों की सम्मिश्र भावनाएं हैं। फिर भी वर्षा का मौसम इन सब को अपना सखा लगता है। अपना नजदिकी रिश्तेदार अपने मन को ठेस पहुंचाए, दुःख दें तो भी इससे पैदा होने वाली अलगाव की भावना थोड़ी देर के लिए होती है। अपनों के विरह से वर्षा दाहक लगती है, फिर भी वर्षा का विरह कोई नहींं चाहता। अतिवृष्टि के कारण प्रलयंकारी अवस्था निर्माण होती है तो भी हर वर्ष उसके आगमन की आतुरता से प्रतीक्षा होती है।

साहित्यिकों का बरसात से होने वाला अपनापन चेतन अचेतन सृष्टि के साथ होने वाले रिश्तों का साक्षी है। बारिश के विविध पहलुओं को शब्दबद्ध करने वाले साहित्यिकों के शब्द कुसुम के सुगंध के साथ-साथ संस्कृत भाषा की यह प्रार्थना मन में हिलोंरे लेने लगती है।

काले वर्षतु पर्जन्य: पृथिवी सस्यशालिनी।
सही समय (सही मात्रा में) बारिश हों, पृथ्वी अनाज दानों से संपन्न हों।
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प्राची पाठक

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