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पावन तीर्थ कुरुक्षेत्र – अतीत एवं वर्तमान

पावन तीर्थ कुरुक्षेत्र – अतीत एवं वर्तमान

by हिम्मत सिंह सिन्हा
in अगस्त -२०१६, सामाजिक
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कुरुक्षेत्र अपने पुराने गौरव तथा अपनी खोयी हुई कीर्ति को पुन: प्राप्त करने के लिए विश्व पटल पर उभर कर आ रहा है। शीघ्र ही यह विश्व का एक प्रमुख पर्यटण स्थल बन जाएगा, जहां से पुन: वेदों की ॠचाएं तथा गीता का दिव्य संदेश गूंजेगा।

कुरुक्षेत्र को वैदिक संस्कृति का उद्गम एवं विकास स्थल होने का गौरव प्राप्त है। यहीं ॠग्वेद में वर्णित, वेद-वन्दिता, नदियों में सर्वोतम, सदानीरा सरस्वती के किनारे ॠषियों ने वेद की ॠचाओं को संहिताबद्ध करके सारे विश्व को मानवता का संदेश दिया था। वैदिक-ॠषियों ने कुरुक्षेत्र में वास करने की प्रार्थना के साथ-साथ इस क्षेत्र को छोड़ कर अन्यत्र कहीं गमन न करने की अभिलाषा व्यक्त की थी (ॠ 6/61/14)। इसी स्थान पर महर्षि वेदव्यास जी ने पंचम वेद महाभारत की रचना की थी।
विभिन्न पुराण तथा महाभारत कुरुक्षेत्र के भौगोलिक वर्णन एवं धार्मिक महत्त्व से परिपूर्ण हैं। प्राचीन ग्रंथों में इस भूमि को कुरुराष्ट्र, कुरु जांगल तथा कुरुक्षेत्र आदि नामों से वर्णित किया गया है। हज़ारों वर्षों से भारतीय चिंतनधारा को झंकृत करने वाली इस पवित्र स्थली का भूत अत्यंत गौरवशाली रहा है। इस भूतल पर तीन पावन स्थल ऐसे हैं जिनकी प्राचीनता का अनुमान लगाना बहुत कठिन है। वे हैं – काशी, कुरुक्षेत्र तथा यरूशलम।

महाभारत, मत्स्यपुराण तथा पद्मपुराण में कहा गया है कि पृथ्वी पर नैमिष तीर्थ तथा अंतरिक्ष तीर्थ श्रेष्ठ है, किन्तु तीनों लोकों में तो कुरुक्षेत्र ही सर्वश्रेष्ठ है। वामनपुराण के अनुसार जो व्यक्ति कुरुक्षेत्र में यज्ञ करेंगे वे पाप रहित होकर पुण्य लोकों को प्राप्त करेंगे। महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र के मध्य में सूर्योपासकों का देवयजन स्थान है। (वन पर्व 126/45)। इन्हीं दोनों पुराणों के अनुसार कुरुक्षेत्र में विधिवत् अमावस्या को किया जाने वाला श्राद्ध अक्षय होता है तथा जो पुत्र कुरुक्षेत्र में पितरों का पूजन करता है वह पितृ ॠण से मुक्त हो जाता है। मत्स्यपुराण में कुरूक्षेत्र को सभी तीर्थों से श्रेष्ठ बताया गया है। इसके अनुसार महापुण्यशाली तीर्थ कुरुक्षेत्र में प्रयाग आदि सभी तीर्थ समाहित हो जाते हैं।

संस्कृत साहित्य में उत्तर कुरु तथा दक्षिण कुरू का वर्णन प्राप्त होता है। महाभारत (आदि पर्व) में इन दोनों देशों को साथ-साथ ही कहा गया है। बौद्ध साहित्य में (ललित विस्तार) कुरु राष्ट्र की स्थापना उत्तर कुरू से आए हुए लोगों द्वारा बताई गई है। प्राचीन काल में ब्राह्मण ग्रंथों के समय से ही ‘कुरूक्षेत्र’ नाम प्राप्त होता है।

महाभारत तथा पुराणों के अनुसार सर्वप्रथम यह क्षेत्र ब्रह्मवेदी के नाम से जाना जाता था, फिर इस क्षेत्र का नाम समंतपंचक हुआ और अंत में ‘कुरुक्षेत्र’। महाभारत से पूर्व इस क्षेत्र का नाम कुरुक्षेत्र के साथ-साथ प्रजापति की वेदी (ब्रह्मवेदी) भी सर्वप्रथम पंचविंश ब्राह्मण 25/13/3 में मिलता है। कुरुक्षेत्र का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा में मिलता है। ॠग्वैदिक साक्ष्यों के अनुसार आर्यों की प्रमुख जातियां भरत एवं कुरु इसी भूमि से सम्बंधित हैं। इन्हीं दोनों जातियों के सम्मिश्रण से कुरु नामक जाति का अविर्भाव हुआ। कुरुओं के इस स्थान पर निवास करने के कारण यह स्थान कुरुक्षेत्र के नाम से विख्यात हुआ। वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में इस भूमि से जुड़ी अनेक कथाओं तथा आख्यानों का विशद वर्णन मिलता है जिनमें शर्यणावत सरोवर के निकट महर्षि दधिचि द्वारा दानवों को मारने के लिए अस्थियां दान करने का प्रसंग, स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी का पुरुरवा से पुनर्मिलन, परशुराम द्वारा अत्याचारी क्षत्रियों के रक्त से पांच कुण्ड भरने की कथा, महाराज कुरु द्वारा इस भूमि में अपना शरीर दान करके धर्म का बीज बोने की कथा, जिसके कारण यह भूमि धर्मक्षेत्र कहलाई आदि कई आख्यान बहुत प्रसिद्ध हैं। महाभारत पूर्व के प्राचीन ग्रंथों में समंतपंचक का नामोल्लेख कहीं भी नहीं है। महाभारत और पुराणों में प्रसिद्ध इन दो नामों के आधार निश्चित रूप से ब्राह्मण ग्रंथ रहे हैं।

इसके अतिरिक्त ब्राह्मण ग्रंथ (शतपथ, ऐतरेय, पंचविश), आरण्यक (ऐतरेय) उपनिषद् (छांदोग्य, जाबाल), धर्मसूत्र तथा श्रोतसूत्रों में भी कुरुक्षेत्र एक देवयज्ञ भूमि के रूप में प्रसिद्ध रहा है। वामन पुराण में ब्रह्मा की पांच वेदियां अर्थात वैदिक संस्कृति के पांच प्रमुख केन्द्र बताए गए हैं जहां से वैदिक संस्कृत सारे उपमहाद्वीप में प्रसारित हुई। उनमें कुरुक्षेत्र उत्तरवेदी है। (वेदयो लोक नाथस्य पंचधर्मस्य सेतव: (वामन पुराण 23/18 तथा 23/19)।

कुरुक्षेत्र का एक अन्य नाम समंतपंचक भी था। महाभारत (आदिपर्व 2/11) में वर्णित कथा के अनुसार परशुराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध स्वरूप क्षत्रियों के रक्त से पांच हौद को भर दिया। पितरों के आशीर्वचनों से ये पांचों हौद तीर्थरूप में परिवर्तित हो गए। इन्हीं हौदों के समीप का प्रदेश समंतपंचक कहलाया। महाभारत तथा पुराणों में उत्तरवेदी और समंतपंचक को एक ही क्षेत्र कहा है। महाभारत में कौरव और पाण्डवों के युद्ध को समंतपंचक में लड़ा बताया गया है। अत: इसमें कोई भी संदेह नहीं कि समंतपंचक क्षेत्र ही कुरूक्षेत्र था।

कुरुक्षेत्र का वर्तमान नाम महाराजा कुरु से सम्बंधित है। (शल्यपर्व 53/2; आदि पर्व 94/49-50 वामनपुराण सरोवर 1/13, 11/24) – कुरु के नाम से इस क्षेत्र का नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। राज्यभार ग्रहण करने के पश्चात् कुरु ने कीर्ति हेतु पृथ्वी पर भ्रमण करना प्रारंभ किया, भ्रमण करते हुए जब वह समंतपंचक पहुंचे तो कुरू ने उस क्षेत्र को महाफलदायी बनाने का तथा वहां पर कृषि कार्य करने का निश्चय किया। तत्पश्चात् कुरू ने सोने के हल से कृषि कार्य किया। कुरू को अनेक वर्षों तक कृषि कार्य में प्रवृत्त देख कर विष्णु ने उसकी परीक्षा ली। परीक्षा में सफल होने पर विष्णु ने प्रसन्न होकर कुरू को वर मांगने के लिए कहा। इस पर कुरू ने ‘कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र’ कहलाए ऐसा वर मांगा, जिसको कि विष्णु ने सहर्ष स्वीकार कर तथास्तु कहा। उसी समय से कुरू द्वारा कृष्ट होने के कारण यह क्षेत्र कुरुक्षेत्र के नाम से प्रख्यात हुआ।(शल्यपर्व 53/2)

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार विभिन्न कालों में कुरूक्षेत्र की सीमा बदलती रही है। महाभारत में कुरुक्षेत्र को द़ृषदवती एवं सरस्वती के मध्य का क्षेत्र कहा गया है। मनु ने इस क्षेत्र को ब्रह्मवर्त देश कहा है (मनुस्मृति 2/17) परंतु वास्तव में कुरुक्षेत्र और ब्रह्मवर्त एक ही है। ब्रह्मा की वेदी होने के कारण कुरुक्षेत्र ब्रह्मर्षि देश भी कहलाता था (ब्रह्मवेदी कुरुक्षेत्रं वामन-सरो 12/15)।
वैदिक संस्कृति का उद्गम स्थान होने के तथा ब्रह्मा की प्रथम वेदी, जहां विश्व का सबसे प्रथम यज्ञ हुआ था, होने के कारण कुरूक्षेत्र वैदिक काल से ही एक अति पावन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध रहा है। कुरूक्षेत्र की सीमा में महाभारत तथा पुराणों में वर्णित लगभग 360 तीर्थ विद्यमान हैं, जिनका पुराणों में एक सुनिश्चित क्रम से वर्णन किया गया है। इनमें से बहुत से तो बाह्य आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दिए गए और बहुत से मध्यकाल में उपेक्षा का शिकार बनकर लुप्त हो गए। कुछ प्रसिद्ध तीर्थ अभी तक विद्यमान हैं। इन तीर्थों में सन्निहित सरोवर, ब्रह्मसरोवर, सरस्वती तीर्थ (पेहवा), स्थानेश्वर महादेव बहुत महत्वपूर्ण हैं। महाभारत से जुड़े अनेक तीर्थों में ज्योतिसर (जहां भगवान कृष्ण ने विशादग्रस्त अर्जुन को गीता का दिव्य ज्ञान दिया था) तथा नरकातारी (जहां शय्या पर लेटे भीष्म पितामह को अर्जुन ने भूमि से बाण मार कर जलधारा प्रकट की थी) अति महत्वपूर्ण हैं। इन तीर्थों में कई महत्वपूर्ण मंदिर उत्तर मध्यकाल के वास्तुशिल्प के सजीव उदाहरण हैं।

दधिचि सारस्वत तीर्थ
यह दधिचि और उसके पुत्र सारस्वत से सम्बंधित तीर्थ है। यहां दधिचि ने इन्द्र को राक्षसों का संहार करने के लिए अस्थियां प्रदान की थीं।

स्थाण्वीश्वर (स्थानेश्वर)
विद्वानों ने इसका सम्बंध थानेसर से स्थापित किया है। यह अति प्राचीन तीर्थ है। वामन पुराण में इस तीर्थ का अति महत्व कहा गया है। यहां स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। इसके दर्शन मात्र से ही व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है।

सन्निहित
यह कुरुक्षेत्र के अति प्रसिद्ध तीर्थों में से एक और सर्वाधिक प्राचीन तीर्थ है जहां पर अमावस को एक बड़ा मेला लगता है जिसमें सिख श्रद्धालु भी बहुत बड़ी मात्रा में स्नान के लिए आते हैं। इसके किनारे सिखों के छठवें गुरू श्री हरगोविन्द जी का भव्य ऐतिहासिक गुरूद्वारा स्थापित है। वामन पुराण की एक कथा के अनुसार शिव ने ॠषियों से कहा कि वे इस तीर्थ में उसके लिंग की स्थापना करें। किन्तु ॠषि लोग लिंग को हिलाने में भी समर्थ नहीं हो सके। अत: शिव ने कृपा कर स्वयं ही यहां लिंग की स्थापना की। वामन पुराण के इस वर्णन से प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में सन्निहित बहुत विशाल और स्थाणुतीर्थ भी इसमें समाहित था। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी की उत्पत्ति इसी सरोवर से हुई।

यद्यपि विख्यात महाभारत युद्ध से बहुत पहले ही इस क्षेत्र की आध्यात्मिक प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल चुकी थी, परन्तु इस विनाशकारी युद्ध में मोहग्रस्त अर्जुन को निमित्त बना कर भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवदगीता के दिव्य तथा आलौकिक संदेश से मानव को कर्तव्यपरायण तथा स्वधर्म पालन का बोध कराया था जिसके कारण यह स्थान जन-जन के लिए श्रद्धा तथा आस्था का अद्भुत केन्द्र बन गया।

श्रीमद् भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय धर्म है। गीता का आरंभ भी धर्म से होता है (धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे 1.1)। अपना उपदेश भी भगवान कृष्ण धर्म के साथ ही समाप्त करते हैं वे कहते हैं –

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यसंवादमावयो:
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्याभिति में मति: (18:70)

(हे अर्जुन! जो व्यक्ति हम दोनों के इस धर्ममय संवाद रूप शास्त्र के पढ़ेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है।)

अत: यह धर्म का बोध कराने वाला ग्रंथ है। अधिकांश लोगों को जीवनभर पता ही नहीं चल पाता है कि उनका धर्म क्या है अर्थात संसार में तथा संग्राम में तथा जीवन के समरांगण में उन्हें क्या करना चाहिए। जिसको धर्म का विवेक नहीं वह तो पशु के समान है। अत: गीता धर्म का बोध कराके मनुष्य को मानवता में प्रतिष्ठित करने वाला ग्रंथ है।

हर वर्ष मार्गशीर्ष (माघ मास) की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती का अति भव्य उत्सव मनाया जाता है जिसमें सारे देश से विद्वत जन, गीता ज्ञान मर्मज्ञ तथा कलाकार भाग लेते हैं। अब भारत सरकार इसको अन्तरराष्ट्रीय रूप देने के लिए प्रयासरत है।

कुरुक्षेत्र का सब से विशाल समागम सूर्यग्रहण के अवसर पर होता है जिसमें देश के कोने-कोने से मठाधीश, धार्मिक नेता, संत महात्मा लगभग 14-15 लाख की संख्या में कुरुक्षेत्र की इस पूतपावन धरा पर आकर यहां के सरोवरों में स्नान करते हैं। प्राय: सभी धर्मग्रंथों में सूर्यग्रहण का मेला कुरुक्षेत्र में और चन्द्रग्रहण का काशी में उत्तम माना है। ऐसा जनमन का विश्वास है कि ‘कुरुक्षेत्र महापुण्यं राहुग्रस्तं दिवाकरे’ अर्थात जब राहु ने सूर्य को पकड़ रखा हो तो कुरुक्षेत्र का स्नान महापुण्यदायी होता है।
इसके अतिरिक्त यहां शाक्त सम्प्रदाय का भी महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। यहां अति प्राचीन शक्तिपीठ, जो भारत के 51 सिद्ध शक्तिपीठों में गिना जाता है, भद्रकाली मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है जहां एक अति भव्य मंदिर है। शास्त्रों के अनुसार यहां सती का दायां टखना गिरा था। ‘कुरुक्षेत्रेऽपरोगुल्फ: सावित्री स्थाणु भैरवम।’ यहां नवरात्रि में लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से आते हैं।

ब्रह्मसरोवर
कुरुक्षेत्र का सर्वाधिक प्राचीन, भव्य तथा विशाल तीर्थ ब्रह्मसरोवर है। ॠग्वेद के अनेक मंत्रों में शर्यणावत का उल्लेख मिलता है और प्रत्येक मंत्र में सायण इसकी व्याख्या कुरुक्षेत्र के मध्य में स्थित एक सरोवर के रूप में करते हैं। इसी सरोवर के तट पर स्थित सोम का इन्द्र ने पान किया था। इससे प्रतीत होता है कि सोम की उत्पत्ति कुरुक्षेत्र में होती है। शतपथ ब्राह्मण में भी इसका वर्णन आता है। सायण के मत की पुष्टि जैमिनीय ब्राह्मण से भी होती है। इसमें भी शर्यणवत को कुरुक्षेत्र के जधनार्थ का सर कहा है। मैक्समूलर भी स्पष्टतया सायण का समर्थन करते हुए इसे कुरुक्षेत्र का एक सरोवर मानते हैं। इन साक्ष्यों के अनुसार ॠग्वेद का शर्यणावत ही कुरुक्षेत्र में विद्यमान आज का ब्रह्मसरोवर है। इस प्रकार यह सरोवर उतना पुराना तो है ही जितना ॠग्वेद है। आज यह एशिया का सबसे सुंदर सरोवर माना जाता है। इसका पूर्वी भाग 1800 फुट लम्बा तथा 1500 फुट चौड़ा है और पश्चिमी भाग का विस्तार 1500 फुट है तथा इसकी गहराई 15 फुट है। इसके तट पर अनेक भव्य मंदिर तथा आश्रम हैं। दूर-दूर तक लहराती ब्रह्मसरोवर की अपूर्व सौंदर्यमयी जलराशि की नीलिमा बलात् पर्यटकों के चित को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।

अत: इसमें कोई संदेह नहीं है कि लगभग सभी सूत्र ग्रंथों, श्रौत सूत्रों तथा पुराणों में कुरुक्षेत्र को देवयज्ञ भूमि ‘ब्रह्म सदन’ तथा पवित्र धर्मस्थल माना गया है।

सम्राट हर्ष की आंखें मुंदते ही (647-48ई) उसका विशाल साम्राज्य बालू की दीवार की भांति ढह गया। चारों ओर बड़ी भीषण अराजकता फैल गई। कई शक्तियां राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए मैदान में कूद पड़ीं और साम्राज्य छोटे-छोटे गणराज्यों में बंट गया। इसके कुछ काल पश्चात पश्चिम दिशा से आक्रमण आरंभ हो गए, जिनको रोक पाने की शक्ति किसी गणराज्य में नहीं थी। इन आक्रमणकारियों ने कुरुक्षेत्र को खूब लूटा। महमूद गजनवी का तो उद्देश्य ही धन प्राप्त करना था। उसने कई बार आक्रमण करके कुरूक्षेत्र के प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त किया। अन्य आक्रमणकारियों ने भी इस नगर को लूटा। कुरुक्षेत्र को मुगलों के भी अनेक आक्रमण सहने पड़े और इसका पतन ही होता चला गया। 19वीं शताब्दी तक आते-आते कुरूक्षेत्र खण्डरों का उजड़ा हुआ एक गांव बन कर रह गया। सर्वत्र निर्धनता छाई हुई थी। यातायात के भी उचित साधन उपलब्ध न होने के कारण यात्रियों को बड़े खतरे और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इन प्राचीन तीर्थों के भाग्य जागे। 1968 में भारत के पूर्व प्रधान मंत्री भारत रत्न श्री गुलजारी लाल नन्दा कुरूक्षेत्र पधारे। उन्होंने देखा कि जो श्रद्धालु किसी पर्व पर यहां आते थे तो उन्हें पवित्र तालाब में दुर्गंधयुक्त जल से ही काम चलाना पड़ता था। कई बार तो ऐसा होता था कि तालाबों मेंं पानी ही नहीं मिलता था। तीर्थों की यह दुर्दशा देख कर उनकी आंखों में अश्रु आए। उन्होंने बड़ी श्रद्धा से कीचड़ ही उठाई, माथे पर लगाई और प्रण किया कि वह कुरूक्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बना कर तीर्थों की दैन्यावस्था को सुधारेंगे। इस द़ृष्टि से एक अगस्त 1968 को कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड का गठन किया गया। सब से पहले दो करोड़ रूपया लगा कर ब्रह्मसरोवर का जीर्णोद्वार तथा सौंदर्यकरण कराया गया। आज यह सरोवर देश-विदेश से आने वाले हज़ारों यात्रियों तथा पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र बन गया है; क्योंकि इससे अधिक सुंदर सरोवर सारे एशिया में नहीं है। इसके उत्तर तट पर भव्य मंदिरों तथा आश्रमों की एक श्रृंखला खड़ी हो गई है जिनमें हज़ारों यात्री प्रति दिन आते हैं। अब यहां श्रीकृष्ण संग्रहालय, पैनोरमा विज्ञान केन्द्र, कल्पना चावला तारामण्डल, हरियाणा की लोक संस्कृति को दर्शाने वाला धरोहर संग्रहालय ऐसे स्थल बन गए, जहां वर्ष में कई लाख दर्शक, पर्यटक तथा यात्री इनसे ज्ञान का लाभ उठाने आते हैं। शिक्षा का तो बहुत बड़ा केन्द्र बन कर उभरा है, जहां हरियाणा की सब से पहली यूनिवर्सिटी तथा अनेक महाविद्यालय हैं। सरकारी आयुर्वेदिक महाविद्यालय भी भारत रत्न नन्दा जी की देन है, जिसे अब राष्ट्रीय आयुर्वेदिक यूनिवर्सिटी बनाया जा रहा है। अब सभी तीर्थों के विकास की द़ृष्टि से भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने इसको श्रीकृष्ण सर्किट में सम्मिलित किया है और अंतरराष्ट्रीय गीता अनुसंधान केन्द्र की भी स्थापना की है जिस पर करोड़ों रूपया खर्च किया जा रहा है। कुरुक्षेत्र अपने पुराने गौरव तथा अपनी खोयी हुई कीर्ति को पुन: प्राप्त करने के लिए विश्व पटल पर उभर कर आ रहा है। शीघ्र ही यह विश्व का एक प्रमुख पर्यटक स्थल बन जाएगा, जहां से पुन: वेदों की ॠचाएं तथा गीता का दिव्य संदेश गूंजेगा।
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