हरियाणा के रोड़ मराठों के वंशज

हरियाणा के रोड़ महाराष्ट्र के मराठों के वंशज ही हैं। पानीपत के तीसरे युद्ध में पराजित होने पर बचे हुए मराठा सैनिक कुरुक्षेत्र के जंगल में अपनी पहचान छिपा कर रहने लगे, क्योंकि चारों ओर दुश्मन होने से महाराष्ट्र लौटना संभव नहीं हुआ। रोड़ों और मराठों के बीच शक्लों, रिती-रिवाजों में गजब की समानता और बोली में मराठी शब्दों की बहुतायत से दोनों के एक होने के तथ्य की पुष्टि होती है।

सन 1192 में तरावड़ी की दूसरी लड़ाई दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान व मुहम्मद गोरी के बीच हुई थी। इस लड़ाई में मुहम्मद गोरी जीत गया था और अपने गुलाम कुतबुद्दीन ऐबक को दिल्ली पर अपना एजेंट नियुक्त करके वापस गजनी चला गया था। सन 1206/1208 ई. में मुहम्मद गोरी की मृत्यु के पश्चात कुतबुद्दीन ऐबक ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया।
विश्वप्रसिद् इतिहासकार लॉर्ड कनिंघम के अनुसार इसी समय में आगरा व आज के राजस्थान के बीच के क्षेत्र पर राजा खंगड के पुत्र ’राजा रोड़’ का राज्य था। यह क्षेत्र उस समय राजपूताना का एक भाग था। इसके राज्य में बावन गढियां थीं। इस बावन गढ़ी के राज्य का शासकीय केंद्र खगंड रोड़, खगरोल, कगरोल था।

यह बावन गढ़ी राज्य तेरहवीं शताब्दी में ही उजड़ गया था। दिल्ली के शासक कुतबबुद्दीन ऐबक ने ’राजा रोड़’ की कन्या का डोला मांगा था। ’राजा रोड़’ एक क्षत्रिय राजपूत था। राजा रोड़ की शक्ति दिल्ली के शासक की अपेक्षा कम थी। इसलिए उसने लड़ाई का मार्ग न अपना कर अपनी आन-बान के लिए सेना व प्रजासहित पलायन करना ही उचित समझा और वह महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में विस्थापित हो गया। यह दनि पौंची (रक्षाबंधन) के त्यौहार का दिन था। इसलिए वर्तमान में रोड़ों में कुछ समय पूर्व तक यह त्यौहार बिल्कुल ही नहीं मनाया जाता। यह प्रथा प्रारंभ से चली आ रही है जो ‘राजा रोड़’ के उजड़ने का निश्चित समय बताती है। ’राजा रोड़’ के नाम पर ही बिरादरी का नाम रोड़ पड़ा है। ‘रोड़’ नाम होने का और कोई कारण नहीं है।
यह भी प्रमाणित तथ्य है कि वीर मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज के पूर्वज भी 13वीं शताब्दी में मुसलमान शासकों के तंग किए हुए राजपूताना से निकल कर महाराष्ट्र के पश्चिमी घाटों में बस गए थे, जो क्षत्रिय राजपूत थे। इससे स्पष्ट होता है कि वे पूर्वज कोई और नहीं बल्कि ’राजा रोड़’ ही थे। दोनों की जाति एक है व उजड़ने का स्थान, समय तथा कारण भी एक ही है।
महाराष्ट्र के पश्चिम घाटों में विस्थापित क्षत्रिय राजपूत अपने युद्ध कौशल के आधार पर ही विभिन्न शासकों की सेनाओं में बड़े-बड़े ओहदों पर आसीन थे। इनकी वीरता का लोहा प्राय: सभी शासक मानते थे। वीर योद्धा शाहजी का नाम मराठा सरदारों में अग्रणी रहा है। इन्हीं के यहां मां जीजाबाई की कोख से शिवाजी महाराज ने जन्म लिया। शिवाजी महाराज ने बिखरी हुई मराठा शक्ति को संगठित किया और 1674 ई. (राज्याभिषेक का वर्ष) मेें मराठा साम्राज्य की स्थापना की। धीरे-धीरे मराठों का राज्य सारे भारत में फैल गया।

सन् 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई अफगान बादशाह अहमदशाह अब्दाली तथा मराठों के बीच हुई थी। मराठा सेना के सेनापति सदाशिवराव भाऊ थे। भारत के सभी इतिहासकर लिखते हैं कि इस लड़ाई मेें मराठा तीन लाख की संख्या में आए थे; लेकिन कुछ कारणों से दो लाख सेना वापस चली गई। शेष एक लाख मराठा वापस नहीं गए। दाएं-बाएं के सुरक्षा कवच के टूटने से मराठों की केंद्रीय सेना अहमदशाह अब्दाली के घेरे में आ गई। जिससे मराठों की जबरदस्त हार हुई। हारने के पश्चात शेष बचे हुए मराठा सैनिक अपने देश वापस नहीं गए, क्योंकि यह संभव नहीं कि सारे के सारे मराठा सैनिक इस लड़ाई में मारे गए हो।

मराठा वीर अपनी पत्नियों और बच्चों सहित यहां पर आए हुए थे। जिनके लाने का प्रयोजन कुरूक्षेत्र का तीर्थ कराना था। इसलिए लड़ाई शुरू होने से पहले ही मराठों ने अपनी पत्नियों और बच्चों को कुरूक्षेत्र मेें बिठा दिया था। मराठों का यह उद्देश्य रहा कि लड़ाई जीतने के पश्चात पवित्र स्नान आदि ने निवृत्त होकर वापस चले जाएंगे। लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या था यह कोई नहीं जनता था।

इस लड़ाई में शेष बचे हुए मराठा सैनिक कुछ सैकड़ों मेेें ही रह गए होेंगे क्योंकि निश्चित संख्या के बारे में अनुमान लगाना कठिन है। अलग-अलग रूप में छुपते-छुुपाते जब अपनी पत्नियों, बच्चों के पास जय को रोते हुए पहुंचे, तो इनकी पत्नियों ने उनको ‘जयरोये’ का ताना दिया। तब से आजतक यह ताना केवल रोड़ मराठा समाज में ही पत्नी द्वारा पति को कोसने के रूप में बोला जाता है, अन्यों में नहीं। इन बचे हुए मराठों के पास वापस जाने का कोई भी सुरक्षित मार्ग शेष नहीं था, क्योंकि इनके चारों ओर मुसलमान व स्थानीय शासन के कईशत्रु बन गए थे। मराठा पहचान कायम रखते हुए कुरूक्षेत्र में रहना भी सुरक्षित नहीं था। विवशता ने इनको अपनी पहचान छुपाने के लिए मजबूर कर दिया। कुछ समय तक ‘और’ – ‘और’ कहलाने लग गए। ‘रोडे’ कुल, उपकुल (सरनेम) को ही अपनी जाति बता कर रहने लगे, ताकि दुश्मन को इनकी पहचान ‘मराठा’ प्रकट ही न हो। अपनी व अपने परिवार की सुरक्षा के लिए कुरूक्षेत्र के दक्षिण के जंगलों में ही ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगातार घूमते रहे। भय और शर्म के वातावरण में जीना ही संस्कार रूप में आज भी रोड़ जाति में विद्यमान है।

पूर्व में विभिन्न समाज के भाट हुआ करते थे और वे समाज की वंशावलियों को दर्ज करके रखते थे। इसी परम्परा में जागे भाट उनके सम्पर्क में आए। उनके पास 1970 ई. के दशक में रोड़ों की 8-9 पीढ़ियों की वंशावली का होना यह प्रमाणित करता है कि जागे भाट लगभग 100 वर्ष पूर्व ही रोड़ों के सम्पर्क में आए थे। जागे भाटों के सम्पर्क में आने की वास्तविकता इस प्रकार है –
सन 1880 से 1904 तक अंगे्रज प्रशासक मि. डोई अपने जुण्डला स्थित कार्यालय से भूमि का पक्का बंदोबस्त कर रहे थे। इसमें क्षत्रिय पहचान वाली जातियों को ही या जिन्होंने 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों को सहायता दी थी, उन्हें ही जमीनें दी जा रही थीं। यह बात घरौंडा के बनिए ने भगवानदास रोड़ (गांव अमीन) व अन्य को आकर बताया कि पक्के बंदोबस्त में रोड़ों को जमींने नहीं दी जा रही हैं; क्योंकि अंगे्रज शासकों के रिकार्ड में रोड़ जाति को क्षत्रिय माना नहीं जा रहा है। यह जाति निरंतर अपना स्थान परिवर्तन करती रही है। इस विकट समस्या के समाधान के लिए ही जागे भाट से संपर्क बनाया था, कुछ धनराशि के बदले में जागे भाट द्वारा क्षत्रिय जाति सत्यापित करने पर मि. डोई ने रोड़ जाति को क्षत्रिय मान कर जमीनें दी थीं। मि. डोई के पूछने पर जागे भाट ने उत्तर दिया कि यह जाति बादली (यह शब्द बावन गढ़ी का अपभ्रंश रूप भी हो सकता है) से उजड़ कर यहां बसी हुई है। हमारे पास इनकी पुरी वंशावली है। बादली (बावन गढ़ी) वही क्षेत्र है जो आगरा व राजस्थान के मध्य में स्थापित है न कि दिल्ली के पास वाली बादली जैसा कि जागे भाट द्वारा बताया गया था। अत: इस बात में कोई संशय नहीं है कि जागे भाट से सम्पर्क केवल जमीनें दिलवाने से है; न कि मूल इतिहास से।

रोड़ों के मराठा होने के प्रमाण

हमें प्रमाण, ऐतिहासिक तथ्य और तर्क के आधार पर काफी कुछ विचारणा होगा। अब से 40-50 साल की पूर्वस्थिति में रह कर ही देखना होगा। ऐसा क्या कारण है कि रोड़ जाति कुरूक्षेत्र की दक्षिण दिशा में ही पाई जाती है, उत्तर दिशा में नहीं? यदि हम ऐतिहासिक तथ्यों पर विचार करें तो यह बात स्पष्ट है कि लड़ाई की हार के पश्चात पानीपत की तीसरी लड़ाई के बचे हुए मराठा सैनिक अपने देश वापस नहीं गए। तो वे फिर कहां गए? यदि हम तर्क से विचार करें तो क्या बचे हुए शेष मराठा सैनिक अपनी पत्नी-बच्चों के पास नहीं गए होंगे? जिन्हेें वे लड़ाई से पहले कुरूक्षेत्र में तीर्थ करने के लिए बिठा कर गए थे। इन तथ्योें का मिलान करने पर यह कहा जा सकता है कि रोड़ समाज मराठों के ही वंशज हैं।

रोडों की भाषा में मराठी भाषा के अनेक शब्दों का समावेश-

रोडों की भाषा में मराठी भाषा के अनेक शब्दों का समावेश मिलता है जबकि आसपास की अन्य जातियों में ऐसा नहीं है। यहां से 1500-2000 किलोमीटर दूर की एक भाषा और बच्चों को छींक आने पर ‘छत्रपति की जय’ बोलने का रिवाज आदि-आदि कारणों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि वर्तमान में रोड़ जाति का विस्तार ही पानीपत की तीसरी लड़ाई में उन शेष बचे हुए मराठों से है जो अपने देश वापस नहीं गए।

इन पूर्व मान्यताओं पर गौर करें जो रोड़ जाति व मराठों के बीच सदियों से चली आ रही है जैसे कि मुसलमान शासक द्वारा रोड़ राजा से लड़की का डोला मांगना, बादली से उजड़ कर आना, रोड़ों में पौंची (रक्षाबंधन) का त्यौहार न मनाया जाना, ‘जयरोया’, ’बड़ा मराठा’ और ’छत्रपति की जय’ बोलने का रिवाज, दीपावली की अपेक्षा गोवर्धन पूजा का महत्व, सीधे-साटे की प्रथा का होना, अपनी कौम को एक शुद्ध कौम रखने में गौरव अनुभव करना आदि।

वर्तमान में प्रमाण

कुरूक्षेत्र के दक्षिण में होना व उत्तर में बिल्कुल भी नहीं, रोड़ों की शक्लें व स्वभाव का मराठों से मेल होना, रोड़ व मराठों के गोत्रों का एक होना जैसे- भाऊ, गोरे, दाहे, झांकले, बोदले, बालदे, कादे, खोपडे, खोकरे, दाबडे, रोजड़े, कैरे कल्याणिया, घडताण, जोगरण, कुंकाण, कलतगडिया, हुरडे, मलगस, टाया, सुरहे, ढांकर इत्यादि। ये गोत्र केवल रोड़ों व मराठोें में ही मिलेंगे, अन्यत्र नहीं। रोड़ों के बाकी सारे मूल गोत्र भी मराठों में पाए जाते हैं। रोड़ और मराठों के तीज़-त्यौहार, रीति-रिवाज व खान-पान का एक होना।

यही कारण है कि 255 सालों के उपरांत भी रोड़ जाति का अपने आसपास की अन्य जतियों से मेल न खाकर मराठों से मेल खाना शक्लें व स्वभाव भी एक होना। वेशभूषा हू-ब-हू मराठों जैसी होना; जैसे सिर पर पगड़ी बांधने का तरीका व पुरुषों द्वारा गले में कण्ठी का पहनना। रोड़ों और मराठों के खानपान में समानता होते हुए भी कुछ विशेषताएं हैं जैसे- दिन में मिस्सी रोटी के साथ भोजन व रात में दाल-चावल का आवश्यक रूप में बनना, जबकि अन्य जातियों में चावल सामान्यत: दिन में बनते हैं।
रोड़ों और मराठों के रीति-रिवाज का एक होना जैसे- रोड़ जाति में दीपावली के त्यौहार को न मना कर गोवर्धन पूजा का महत्व विशेष है। इस दिन अस्त्र-शस्त्रों को पवित्र धागे बांधे जाते हैं, जिसे मराठा शस्त्रपूजा का नाम देते हैं। भैयादूज का त्यौहार अन्य समुदायों में भी मनाया जाता है, लेकिन रोड़ जाति में इस त्यौहार का एक विशेष कोथली का चलन है जो हू-ब-हू मराठों में भी है। यदि रोड़ों का मेल जाटों व राजपूतों से होता तो हमारे पर्व, रीति-रिवाज उनसे अलग न होकर एक समान ही होते। विवाह की रस्में व क्रियाएं भी रोड़ और मराठों की एक समान ही है। ‘पौंची’ (रक्षाबंधन या सूलमन) का त्यौहार न तो रोड़ मनाते हैं और न मराठा।

रोड़ व मराठों का अपनी कौम को शुद्ध रखने में गौरव का अनुभव करना भी एक ऐतिहासिक तथ्य है; क्योंकि यह समुदाय अपनी जाति से बाहर न तो लड़की देते हैैं और न लड़की लेते हैैं। भले ही जीवन भर अविवाहित रहना पड़े। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि मुसलमान शासकों द्वारा लड़की का डोला मांगना ही तेरहवीं शताब्दी में रोड़ों केउजडने का कारण है।

रोड़ों के कुछ एक गोत्र आसपास की अन्य जातियों में मिलने पर भी उनसे स्वाभाविक मेल नहीं खाता। कुछ एक गोत्र तो रोड़ों ने अन्य जातियों से मिलाने के लिए नाम परिवर्तन कर लिए हैं जैसे कोद से कदियान, खोपडे से चोपडे, चव्हाण से चौहान, खोकर से खोखर, दाहे से दहिया, दाबडे से डाबर, दंदयाल से दीनदयाल, भाऊ से अत्री, हुरडे से हुरडा, कलतगडिया से काहलों, लठवाल से लाठर, जोगरण से जागलान, कल्याणिया से कल्याण आदि।

रोड़ मराठा-इतिहास (एक झलक-एक संकेत) पुस्तिका में लेखक प्रो. ओमप्रकाश एवं महेंद्रसिंह आर्य ने प्रतिपादित किया है कि पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों की पराजय के बाद बचे हुए सैनिक कुरूक्षेत्र के दक्षिण में ढांक के जंगल में अपने परिवार समेत छुप कर रहे। अपनी मराठा पहचान छुपाने और अपने राजा रोड़ का स्मरण रखने के लिए ही उन्होंने अपने समाज को ‘रोड़ समाज’ कहना शुरू किया। आज हरियाणा में जो रोड़ समाज है वह मूल रुप से मराठा समाज ही है। राजा रोड़ तो प्रजासहित इसलिए महाराष्ट्र भाग गए; क्योंकि दिल्ली के तत्कालीन शासक कुतुबुद्दिन ऐबक ने उनसे उनकी कन्या का डोला मांगा था।

रोड़ों की भाषा में पर्याप्त मात्रा में मराठी शब्द मिलते हैं। वे बच्चों को छींक आने पर ‘छत्रपति की जय’ बोलते हैं। मराठा व रोड़ों में शक्ल व स्वभाव की समानता, वेशभूषा की समानता, रीति-रिवाज, सीधे-साटे की प्रथा तथा रोड़ और मराठों के गोत्रों में समानता आदि के विवेचन के आधार पर रोड़ समाज का मूल मराठा ही है।

कुछ नए गोत्र भी बन गए। सगे से जाकर कौल ग्राम में बसने के कारण प्रारंभ में सगेवाले कहलाए। धीरे-धीरे सागवाल कहलाने लगे तथा अब तो कुछ अपने को संगावान भी लिखने लग गए। यह स्वाभविक है कि कोई भी अपनी गोत्र व जाति का ऐसा नाम पंसद नहीं करता; जिसके उच्चारण से उसको मिलने वाले सम्मान में कमी आती हो। काफी गोत्र स्थान विशेष के नाम से बने हैैंं। तुरणा गोत्र भी उस स्थान के नाम से बना जो महाराष्ट्र में ऐतिहासिक स्थान है। ‘तुरण’ (तोराणा) के किले को छत्रपति शिवाजी ने मुसलमान किलाध्यक्ष से बिना किसी युद्ध के स्वतंत्र कराया था। शिवाजी के जीवन की यह पहली जीत मानी जाती है। ‘कल्याणिया’ गोत्र भी स्थान के नाम पर बना। शिवाजी के साथी आबाजी सोनदेव ने ‘कल्याण’ पर चढ़ाई करके मुल्ला अहमद को कैद किया था। इस जीत पर खुश होकर शिवाजी ने कल्याण पहुंच कर आबाजी सोनदेव को बहुत-सा धन दिया था। इसी तरह ‘मढ़गांव’ से मढ़, गोरेगांव से गोरे, कोकण से कूंकाण गोत्र बने इत्यादि। इस प्रकार रोड़ जाति के बाकी सभी गोत्र भी मराठों से शतप्रतिशत मिलते हैं।

रोड़ों व मराठों के ‘गोत्रों का एक होना’ ही सारी शंकाओं का निवारण और सारे प्रश्नों के उत्तर दे देता है कि रोड़ों का वर्तमान विस्तार ही पानीपत की लड़ाई के बचे हुए वीर मराठों से है। पूर्व में दिए हुए प्रमाणों, ऐतिहासिक तथ्यों व तर्क के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘रोड़ो का मराठों से सीधा सम्बंध है।’ बिना किसी शंका के यह कहा जा सकता है कि रोड़ पानीपत की तीसरी लड़ाई के बचे हुए वे मराठा हैं जो शर्म व भय के कारण वापस न जाकर अपनी पहचान छुपा कर कुरूक्षेत्र के दक्षिण के जंगलों में बस गए तथा अपने पूर्वज राजा रोड़ की याद आने पर अपने को रोड़ कहलाने लगे।

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