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 वेदों में ग्राम का स्वरूप

 वेदों में ग्राम का स्वरूप

by डॉ. बृजेश कुमार शुक्ल
in ग्रामोदय दीपावली विशेषांक २०१६, सामाजिक
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 वैदिक ग्रामों में जीवन को सुंदर बनाने तथा पुरुषार्थ को प्राप्त करने के साधनों की न्यूनता नहीं थी| यहां तक कि ग्रामीण संगीत विद्या में भी निष्णात थे| कृषि, व्यापार तथा पशुपालन से ग्राम अत्यंत समृद्ध थे| वैदिक ग्राम बहुत विकसित अवस्था में थे| वैदिक ग्राम्य जीवन अपनी आवश्यक सामग्रियों के लिए किसी अन्य पर आश्रित न होकर पूर्णरूपेण स्वावलम्बी था|

भारत में प्राचीन काल से ही ग्रामों में जनसमूह के रहने का         उल्लेख प्राप्त होता है| लोगों के छोटे-छोटे समुदाय जहां निवास करते हुए अपने जीवन का निर्वाह करते थे उसे एक ‘ग्राम’ की संज्ञा प्राप्त थी| ग्राम राष्ट्र की एक इकाई है| ग्राम, नगर, देश तथा राष्ट्र उत्तरोत्तर बढ़ते क्रम में सामाजिक ऐक्य को प्रदर्शित करते हैं|

संसार का सर्वप्राचीन ग्रंथ ॠग्वेद है, जिसमें ‘ग्राम’ शब्द का उल्लेख अनेकत्र हुआ है| ॠग्वेदकालीन समाज का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि देश का विकास ग्रामों में ही हुआ| ॠग्वेद के एक सूक्त में अग्नि को ग्रामों की रक्षा करने वाला बताया गया है- ‘‘असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोसियज्ञेषु मानुषः|’’ ग्रामों में प्रायः अग्नि चूल्हे के रूप में अथवा यज्ञों में निहित होती थी| वैदिक काल में लोग अग्नि में सायं-प्रातः आहुति देते थे| अतः यह अग्नि ग्रामों की रक्षा करती थी, ऐसा विश्वास तत्कालीन समाज में था| ग्रामों से सम्बद्ध अनेक कार्यों का उल्लेख वेदों में प्राप्त होता है| कृषि कर्म उस समय मुख्य उद्योग था| ॠग्वेद कृषि करने का आदेश देता है| -‘‘अक्षैर्मा दीग्यः कृसिमित् कृषस्व|’’ वैन्य नामक राजा हल से भूमि जोतने की विद्या जानते थे, इसका उल्लेख अथर्ववेद में प्राप्त होता है| ॠग्वेद में कहा गया है कि हमारे फाल सुखपूर्वक भूमि का कर्षण करें, हल चलाने वाले सुखपूर्वक बैलों से खेत जोतें तथा मेघ मधुर जल से हमारे लिए सुख की वृष्टि करें और शुनासीर हमें सुख प्रदान करेंः-

 शुनंनः फाला विकृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभियन्तु वाहैः|

 शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभिः शुनासीरा शुनमस्मासु यत्र|

गांवों में खेतों की जिस तरह माप की जाती है, उसका उल्लेख ॠग्वेद में प्राप्त होता है| वैदिक काल में अन्न से ग्राम समृद्ध रहते थे| यजुर्वेद में अनेक अन्नों के नाम इस प्रकार दिए गए हैं-

‘‘ब्रीहयश्च में यवाश्च में तिलाश्च में, मुद्गाश्च में स्वल्वाश्च में प्रियघ्गवश्च में अगवश्च में श्यामाकाश्च में नीवाराश्च में गोधूमाश्च में मसूराश्च में यज्ञेन कल्पन्ताम|’’

वैदिक काल में भी ग्रामों में आजकल की तरह अनाज की कटाई, मड़ाई आदि होती थी तथा अन्न को भूसे से अलग किया जाता था| इसके स्पष्ट संकेत ॠग्वेद में अनेक स्थानों पर उपलब्ध होते हैं| ग्रामों में खेतों की सिंचाई का भी उत्तम प्रबंध था, जिसके लिए कूप, कुल्या, सुत्पार (नाला), आवद्रय (पोखर) तथा वैशन्त (तालाब) इत्यादि का उल्लेख प्राप्त होता है| ॠग्वेद इत्यादि में सूर्योदय तथा अन्य प्रकृति के जो चित्रण प्राप्त होते हैं उनका मूल उत्स ग्राम ही हैं| ग्राम धन के स्रोत हैं| इन्द्र के लिए मरुतों के ग्रामों से धन देने का कथन ॠग्वेद में प्राप्त होता है-

 स ग्रामेभिः सनिता स रथेभिर्विदे विश्वाभिः कृष्टिभिन्चद्य|

 स पौंस्पैभिरभिभूरशस्ती मरुत्वान नो भवत्विन्द्र ऊती॥

‘तैत्तिरीय संहिता’ में अन्न बोने की भिन्न-भिन्न ॠतुओं का वर्णन प्राप्त होता है| सामवेद के एक मंत्र में सभी ॠतुओं के अनुकूल होने की कामना की गई हैः-

 ‘‘वसन्त इन्नु रन्त्यो ग्रीष्म इन्तु रन्त्यः| वर्षाण्यनु शरदो हेमन्तः

 शिशिर इन्नु रन्त्यः|’’

अर्थात वसन्त और ग्रीष्म ॠतुएं रमणीय हों, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ॠतुएं भी हमारे लिए रम्य रहें| यहां ॠतुओं का क्रम से उल्लेख है जिसका ज्ञान ग्रामीण संस्कृति के बिना असम्भव है| ॠग्वेद के एक मंत्र में ग्राम के प्राणियों की हृष्ट-पुष्टता तथा द्विपद और चतुष्पद का उल्लेख तथा इसकी शांति की व्यवस्था होने का वर्णन है-

 ‘‘इमारुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः|

 पथा शमसद द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरः॥

यहां ‘द्विपद’ मनुष्यों के लिए तथा ‘चतुष्पद’ पशुओं के लिए कहा गया है| इससे वैदिक युग में पशुपालन होने का संकेत मिलता है| ॠग्वेद के पुरुष सूक्त में अनेक पशुओं की उत्पत्ति का कथन प्राप्त होता है-

 तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभपादतः|

 गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥

पुरुष सूक्त में दही से सम्पृक्तत घृत का वर्णन ग्रामों की संस्कृति का कथन करता है| सर्वहुत पाग से ग्राम्य पशुओं का प्रादुर्भाव भी पशुपालन का स्पष्ट संकेत है| वन्य पशु भी थे और ग्रामों में पशुपालन भी होता था| जैसा कि उल्लेख आया है-

 तस्माद्यज्ञात सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम|

 पशून तॉंश्चक्रे वायव्यानारण्यान ग्राम्याश्च ये॥

     अथर्ववेद में भी आरण्य (वन्य) तथा ग्राम्य पशुओं का उल्लेख है-

 पार्थिवा दिन्याः पशवः आरण्या ग्रामाश्च ये|

इससे पता चलता है कि ग्रामों में पशुपालन होता था तथा वैदिक काल में पशु अथवा गायें ही मुख्य धन थीं| इससे ग्रामों की पर्याप्त समृद्धि का ज्ञान होता है| गाय, अश्व, बकरी, भेड़ तथा कुत्ते पालतू पशु थे| बैल के अनेक रूपों का वर्णन वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है|  ॠषभ, अरुण, दिव्यवाह, पंचावि, त्रिवत्स, तुर्यवाह, प्रष्ठवाह आदि अनेक नाम बैलों के लिए विभिन्न अवस्थाओं में दिए जाते थे| गाय तो सबसे प्रिय तथा पवित्र पशु थी, जिसे रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री तथा आदित्यों की बहन के रूप में प्रस्तुत करते हुए वेद में उसे अहिंसनीय बताया गया है| इस प्रकार कृषि तथा पशुपालन की दृष्टि से वैदिक ग्राम पर्याप्त विकसित थे|

‘ग्राम’ शब्द का अर्थ मनुष्यों के समुदाय का वासस्थान है परंतु यह नगर की संस्कृति से भिन्न है| खेत, नदी, जंगल तथा सरोवर इत्यादि के आसपास मनुष्यों के घरों का समूह ग्राम शग, से अभिधेय हो सकता है| ग्रामों में कदाचित इसीलिए भेड़िए आदि का आतंक रहता था जिसका उल्लेख ॠग्वेद में प्राप्त होता है| वेद का कथन है कि ग्राम केवल मनुष्यों का ही नहीं अपितु पशुओं तथा पक्षियों इत्यादि जीव-जन्तुओं के सुखपूर्वक शयन का निश्रब्ध स्थान था-

 ‘‘नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः|

 नि श्येनासश्चि दर्शिनः॥

शत्रुओं तथा जंगली जानवरों से रक्षा हेतु वेदों में अनेक मंत्र आए हैं जिनमें ग्राम की भी रक्षा करने की स्तुति की गई है| ॠग्वेद में वीर मरूतों से उत्तम अंतःकरण के द्वारा ग्रामों की रक्षा करते हुए बुद्धि के वर्द्धन की प्रार्थना इस प्रकार है-

 ‘‘यूयं न उग्र मरुतः सुचेतुनारिष्टग्रामाः सुमतिं पिपर्त न|’’

इसी प्रकार इन्द्र के लिए कहा गया है कि ये सम्पूर्ण गांव, गायें, रथ और घोड़े इन्द्र के ही हैं-

 ‘‘यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा

 यस्य विश्वे रभासः॥

यह कथन इसीलिए है कि इन्द्र इन ग्रामों, अश्वों तथा रथों की रक्षा करें| एक राजा दूसरे राजा के ग्रामों को युद्ध इत्यादि के द्वारा जीत  लेता था| इसका उल्लेख ‘ग्राम जितो यथा नरो’ इस मंत्र भाग में किया गया है| कदाचित इसीलिए ग्रामों की रक्षा का अभिप्राय था|

वैदिक ग्रामों में कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त अन्य अनेक धंधे प्रचलित थे- कुलाल (कुम्हार), कार्मार (लोहार), चर्मम्न (चर्मकार), वप्ता (नाई) तथा भिषक (वैद्य) भी ग्रामों में अपना उद्योग करते थे| ॠग्वेद में अनेक स्थानों पर इनका उल्लेख प्राप्त होता है| ग्रामों में वस्त्रों के बुनने, चटाई (कशिपु) बनाने तथा विभिन्न ग्रामोद्योग-व्यापार इत्यादि का पर्याप्त संकेत वेदों में उपलब्ध है| ‘पणि’ लोग व्यापार का कार्य करते थे| वैदिक काल में ग्रामीण ॠण लेकर उसका ब्याज भी चुकाते थे| वेद में ‘बेकनाट’ शब्द आया है जिसका अर्थ निरूक्त के अनुसार ‘ब्याज खाने वाले’ हैं| इस प्रकार आजकल की भांति तत्कालीन समाज में ॠण की सुविधा भी उपलब्ध थी|

वैदिक काल यज्ञ प्रधान था और यज्ञ में वहित घृत, समिधा, पत्र, पुष्प, यूप तथा सोम आदि वस्तुएं ग्रामों में ही उपलब्ध थीं| इसलिए ग्राम का अपना एक विशिष्ट महत्व था| वेद पाठ भी ग्रामों में बहुतायत में होता था| ॠग्वेद का मण्डूक सूक्त इस विषय में प्रमाण है| ‘वेदमंत्र ध्वनि का अनुकरण कदाचित मेंढ़क करते थे’ इत्यादि बातें मण्डूक सूक्त में कही गई हैं| मेंढ़क ग्राम के तालाबों, नदियों तथा नालों में ही पाए जाते हैं| सामवेदीय गान ग्राम में ही गाया जाता था तथा अरण्य गान को ग्रामों में गाना शुभ नहीं माना जाता था| इस प्रकार ज्ञान तथा वेद वाङ्मय के विकास में ग्रामों की महत्वपूर्ण भूमिका थी| आर्थिक स्तर के साथ ही साथ ग्रामों का साहित्यिक स्तर भी उच्च था|

वैदिक काल में ग्राम पंचायतें भी थीं, जिससे ग्राम के प्रशासनिक स्तर का पता चलता है| ॠग्वेद में अनेक स्थानों पर ‘ग्रामणी’ शब्द आया है जो ग्राम प्रधान अथवा नेता के लिए है प्रयुक्त होता था| ग्रामणी में तत्कालीन समाज का परम विश्वास था तथा वह उनका प्रिय नेता हुआ करता था| संकट के अवसर पर अथवा आवश्यकता पड़ने पर समृद्ध ग्रामणी अपने लोगों को सहस्रों गायें (धन) प्रदान करता था| ॠग्वेद में ऐसे ग्रामणी की हिंसा न करने की प्रार्थना की गई है- ‘सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन|’’ यजुर्वेद में ग्रामणी को ॠतुओं का प्रतीक माना गया है| उसमें प्रशासन की अद्भुत क्षमता होती थी| शत्रुओं से आक्रांत होने पर उसे सेनापति के रूप में भी देखा जाता था| यजुर्वेद के दो मंत्र यहां दर्शनीय हैं-

 ‘‘अयं पुरो हरिकेशः सूर्यरश्मिस्तस्य रथगृत्यसश्च

 रथौजाश्च सेनानी ग्रामण्यौ॥

 अयं दक्षिणा विश्वकर्मा तस्य रथस्वनश्च रथे

 चित्रश्च सेनानी ग्रामण्यौ॥

ग्रामणी उदार होता था, इसीलिए दक्षिणादान के लिए उसे प्रथम आहूत किया जाता था| ग्रामणी दान देने हेतु सबसे आगे चलता था, वही मनुष्यों का राजा होता था ओर मनुष्यों में सर्वप्रथम दक्षिणा देता था| जैसा कि कहा गया है-

 ‘‘दक्षिणावान प्रथमो हूत एति दक्षिणावान ग्रामणीरग्रमेति|

 तमेव मन्ये नृपतिं जनानां यः प्रथमो दक्षिणामाविवाय॥

अथर्ववेद में भी ग्रामणी के प्रथम कुभिषिक्त होने का उल्लेख है| ग्रामणी का अभिषेक होने के बाद ही अन्य लोग अभिषिक्त होते थे| यथा-

 ‘‘ग्रामणीरसि ग्रामणीरूत्थायाभिसिक्तोभि मा सिंच वर्चसा|’’

इससे ज्ञात होता है कि ग्राम में ग्रामणी (ग्राम प्रधान) का अत्यधिक सम्मान था| ग्रामणी वही होता था जिसके पास जन-बाहुल्य हो अर्थात कदाचित मतदान की प्रक्रिया रही होगी| यजुर्वेद में ‘मह से ग्रामण्यम’ कह कर ग्रामणी को तेजस्वी और शक्तिशाली बताया गया है| अतः वैदिक कालीन ग्रामों में प्रशासनिक क्षमता का अभाव नहीं था| हमारे देश में प्राचीनकाल से ही ग्राम एक संगठित शक्ति थी| ग्रामीणों का स्थैर्य बड़ा प्रसिद्ध था| बच नामक औषधि से स्थैर्य की कामना करते हुए ग्रामीण जनों से उसकी उपमा दी गई है-

‘‘परि ग्राममिवाचितं वचसा स्थापयामसि|’’ इससे ग्रामीणों में एकता तथा शक्तिशालिता का बोध होता है| पुर अथवा नगरवासियों की अपेक्षा ग्रामणी अधिक शक्तिशाली तथा दृढ़ संकल्पी रहे होंगे| आज भी भारतवर्ष के जनमत का अधिकांश प्रतिशत ग्रामीणों में ही है| ग्रामों के लिए शत्रुओं के आक्रमण का भी भय था| अथर्ववेद कालीन ग्राम समाज में ईर्ष्या-द्वेष तथा आपसी फूट भी देखी जाती है| एक मंत्र में शत्रु गांव को छोड़ कर जायें, यह प्रार्थना की गई है|

वैदिककालीन ग्रामों में कुछ आततायी तत्व भी थे, जिनसे ग्रामों इत्यादि को हानि पहुंचती थी| इनमें वृत्त, शम्बर तथा चुमुरि हैं जिनसे तत्कालीन समाज आतंकित था| इन सब का वध इन्द्र ने किया था| ॠग्वेद में इसका उल्लेख प्राप्त होता है| पिशाचों, चोरों तथा दस्युओं से भी ग्रामों का नुकसान होता है| अथर्ववेद में कहा गया है कि पिशाचों तथा चोरों के उन्मूलन में ही कल्याण निहित है| पिशाचों, चोरों तथा डाकुओं के साथ मित्रता रखना उत्तम नहीं है-

 न पिशाचैः सं शक्नोगि न स्तेनैर्न वनर्गभिः|

 पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति यदहं ग्राममाविशे॥

 ये ग्राममाविशत इदमुग्रंसहो मम|

 पिशाचास्तस्मान्तश्यन्ति| न पापमुप जानते॥

 ‘‘शुचा विध्य हृदयं परेषां हित्वा ग्रामान प्रच्युता यन्तु शत्रवः|’’

ग्रामों की रक्षा हेतु अथर्ववेद में कहा गया है कि हे सवितृ देव! ग्रामों के लिए चारों दिशाओं में बल, ऐश्वर्य और कल्याण करें-

‘‘अस्मै ग्रामाय प्रदिशश्चतस्रः अर्जं सुभूतं स्वस्ति, सविता नः कृणोतु॥

वैदिक ग्रामों में घरों का निर्माण मिट्टी, बांस, घास (तृण) तथा लकड़ी के द्वारा किया जाता था| ये सारी सामग्रियां ग्रामों में ही प्राप्त हो जाती थीं| ग्रामों में भोजन भी शुद्ध तथा सात्विक था और विभिन्न प्रकार के अन्नों से स्वादिष्ट भोजन जन-सामान्य में प्रचलित था|

वैदिक ग्रामों में जीवन को सुंदर बनाने तथा पुरुषार्थ को प्राप्त करने के साधनों की न्यूनता नहीं थी| यहां तक कि ग्रामीण संगीत विद्या में भी निष्णात थे, सामवेद इस बात का प्रमाण है| कृषि, व्यापार तथा पशुपालन से ग्राम अत्यंत समृद्ध थे| दधि, दूध, धृत तथा मधु की कुल्याएं ग्रामों में ही प्रवाहित होती थीं| ग्राम का मुखिया (ग्रामणी) सभी ग्रामीणों की रक्षा करता था| ग्रामों में जाति अथवा वर्ग का भेदभाव नहीं था| सभी वर्ण समाज की एक व्यवस्था से जुड़े हुए थे| वैदिक ग्राम प्रशासनिक दृष्टि से भी उत्तम थे| चोरों, डाकुओं तथा अन्य आततायियों का सभी एकजुट होकर मुकाबला करते थे| इस प्रकार वैदिक ग्राम बहुत विकसित अवस्था में थे| वैदिक ग्राम्य जीवन अपनी आवश्यक सामग्रियों के लिए किसी अन्य पर आश्रित न होकर पूर्णरूपेण स्वावलम्बी था|

 

डॉ. बृजेश कुमार शुक्ल

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