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 संस्कृति रक्षा में गांवों का योगदान

 संस्कृति रक्षा में गांवों का योगदान

by अविनाश गोतमारे
in ग्रामोदय दीपावली विशेषांक २०१६, सामाजिक
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भारत की संस्कृति की रक्षा में तथा उसे जीवित रखने में हमारे गांवों का बहुत बड़ा योगदान है| आज भी हमारी यह सामाजिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारी है कि, देश के हर गांव को जोड़ने में अपना सहयोग दे|

भारतीय संस्कृति विश्व के इतिहास में कई दृष्टियों से विशेष      महत्व रखती है| यह इस संसार की एक प्राचीनतम संस्कृतियों में से है| सर्वांगीणता, विशालता, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा अग्रणी स्थान रखती है| इसकी मुख्यत: तीन विशेषताएं हैं:-

 -भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान संस्कृति है|

 -भारतीय संस्कृति अमर है|

 -भारतीय संस्कृति विश्वगुरू बनने में समर्थ है|

देश चाहे भारत हो या कोई भी, उसके गांंव का जब तक विकास न हो तब तक उस देश का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता| जहां तक भारत के गांंव के विकास की बात आती है तो उसकी आर्थिक विकास के साथ-साथ संस्कृति का विकास भी अधिक महत्वपूर्ण है| हमारे देश का हर गांव आज भी संस्कृति से जुड़ा है| शहर की तुलना में बड़ी मात्रा में गांवों में लोगों ने संस्कृति को पकड़े रखा है| अधिकतर संत और ऋषि की गांवों से ही आए हैं, जिन्होंने हमें जीवन जीने के मूलभूत तत्व सिखाए हैं| जीवन की धारा अपने संशोधनात्मक विचारों से हमें ही नहीं परंतु पूरे विश्व को दी| आज हमारी संस्कृति का अध्ययन करने का अन्य देश प्रयास कर रहे हैं| इसमें हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री का भी भारी मात्रा में योगदान है| संपूर्ण विश्व में अपनी प्राचीन परंपरा रहे योग को ‘योग दिवस’ के रूप में शुरू करवाया, जो कि सारे विश्व में बड़े उत्साह के साथ मनाया गया| उनके हर विदेशी दौरे में हमारे देश की अस्मिता को बढ़ावा दिया जा रहा है| हमें किसी का अनुकरण करने के बजाय हमारी अच्छाई विश्व के सामने कैसे प्रस्तुत की जाए इसका प्रयास सतत हो रहा है| संस्कृति इस शब्द का आशय बहुत व्यापक है| आइये, संस्कृति की रक्षा में अपने गांवों के माध्यम से किस तरह योगदान होता आया है और हो रहा है इसके अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं|

 संयुक्त परिवार

आधुनिकता व प्रगति की स्पर्धा में परिवार बड़े पैमाने पर बिखरते हुए आज हम देख रहे हैं| परंतु गांवां ेमें आज भी संयुक्त परिवार बसते हैं| हर सुख-दु:ख में सब मिल कर साथ में खड़े होते हैं| इसमें एकता का प्रतीक नजर आता है| स्वतंत्र जीवन जीने की लालसा में घर से दूर होकर संकट की घड़ी में पश्चाताप करने वाले कई परिवारों के हमें अक्सर दर्शन होते ही हैं| कुछ हद तक ‘लव मैरेज’ भी इस समस्या का एक कारण है| लेकिन आज भी कई जगह, अधिकतर माता-पिता तथा अन्य सम्माननीय पारिवारिक सदस्यों द्वारा शादी के रिश्तें तय किए जाते हैं| इसमें सामाजिक और पारिवारिक दायित्व का तथा व्यक्तिगत मूल्यों का आधार होता है| अपने परंपरागत शास्त्रों का आधार होने से पवित्रता, चारित्र और स्वाभिमान का अनुभव और अंश भी प्रमाणित होता है|

 भाषा का स्वाभिमान

शहरीकरण की इस भागदौड़ में लोग शहर में आकर अपनी भाषा का प्रयोग करना भी बंद कर देते हैं| परंतु आज भी गांवों में सभी लोग अपनी भाषा का स्वाभिमान बचाए हुए हैं| अपने देश में मोटी तौर पर कोई ४१५ भाषाएं बोली जाती हैं| गांव की भाषा में अपने मिट्टी की एक अलग ही महक होती है| भाषा यह संवाद और संभाषण के लिए अत्यंत उपयुक्त साधन है| स्थानीय भाषा में विचारों की अभिव्यक्ति सहज होती है| आज भी जब हम छुट्टियों में अपने गांव जाते हैं, पुराने सभी मित्रों के साथ जब गांव की देशी भाषा में बात करते हैं तो हम एक अद्भुत आनंद की अनुभुति महसूस करते हैं, और उसकी पुनरावृत्ति की हर वक्त अपेक्षा करते हैं| यही तो है अपनी भाषा की सुंदरता और विविधता में एकता!

 सहयोग और सहज भाव

स्वभाव में अगर सहज भाव होगा तो ही सहयोग के भाव प्रकट हो सकते हैं| शहर की तुलना में यह चीज गांवों में अधिक मात्रा मे दिखाई देती है| मिलजुल कर रहने से लोगों में यह भाव पनपता है और वास्तविकता में उसका प्रकटीकरण भी होता है| सहयोग मानवता की एक अच्छी मिसाल बनते आई है| इससे अहंकार लुप्त होने में भी काफी मदद होती है| मैत्रीपूर्ण व्यवहार निर्माण कर मानव कल्याण के कार्य में अग्रसर साबित हो सकते हैं| सब का साथ, सब का विकास यह नारा भी इसी भाव की उपज है| सहयोग से एकता बढ़ती है और विकास की प्रगति अधिक प्रभावी होती है|

 शारीरिक बल और खेल ़विश्व (खेल संस्कृति)

अपने देश का नाम रोशन करने में खेल एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है| विश्व पटल पर अभी भी बहुत गुंजाइश बाकी है परंतु गांवां ेके ही कई सारे खिलाड़ियों ने अपना योगदान देकर अपने देश का नाम रोशन किया| उदाहरण के लिए एथलीट पी टी उषा -पाय्योली गाव, (कोझीकोड जिला, केरल) अर्जुन अवार्ड और पद्मश्री १९८४, बॉडी बिल्डर प्रेमचंद डेग्रा -नांगल गाव, (गुरुदासपुर जिला, पंजाब) पद्मश्री १९९०, बैडमिंटन खिलाड़ी गोपीचंद – नागंदला गाव (प्रकासम जिला, आंध्र प्रदेश) अर्जुन अवार्ड १९९९, पद्मभूषण २०१४ से लेकर तो वर्तमान में साक्षी मलिक-मोखरा गाव (रोहतक जिला, हरियाणा) जिन्होंने हाल ही में रजत पदक जीत कर चौथी महिला ओलिंपिक पदक विजेता बनीं| इनके जैसे कई अन्य भी हैं|

केवल गांव के संदर्भ में इनका जिक्र करना अनिवार्य था| अर्थात, गांव की मिट्टी में खेलकूद करने वाले शारीरिक बल में अधिक शक्तिशाली होते हैं| अगर इस पर प्रशासन का लक्ष केंद्रित हो तो, इसमें अधिक निखार लाकर अच्छे परिणाम लाए जा सकते हैं|

 संत और ऋषियों की भूमि 

मानव कल्याण का कार्य कर जीवन की दिशा दिखाने वाले महान संत भी इस देश मे गांवों में ही जनमे और आज विश्वभर में अधिकतम लोग उनके दिए हुए जीवन के मूलमंत्र पर चलने का प्रयास करते हैं| संत कबीर, गुरु नानकजी, गौतम बुद्ध, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत नामदेव, संत रामदास, महावीरजी, मीराबाई, रामकृष्ण परमहंस, शंकराचार्य, योगी अरविंद से लेकर स्वामी विवेकानंद और कई अन्य जैसे कि, महर्षी वाल्मीकि, कवि तुलसीदास, सूरदास इनका अपने भारत की संस्कृति में और धर्म की रक्षा में अद्वितीय योगदान रहा है, यह हमें नहीं भूलना चाहिए| हर अच्छे कार्य में अध्यात्म का आधार हो तो आपका यश भी स्थायी स्वरुप का होता है|

 सदाचार और संस्कार

संतों के विचार और आचार से आज भी गांवों में भजन कीर्तन का सत्संग किसी न किसी अवसर या त्योंहारों पर अक्सर होते रहता है| मानसिकता विकसित होने के लिए केवल एक बार का ज्ञान काफी नहीं होता; बल्कि संशोधनात्मक विचारों का निरंतर आदान-प्रदान होना आवश्यक होता है| भजन और कीर्तन के माध्यम से यह आज तक संभव हो पाया है| देश की अमूल्य संस्कृति को बचा कर रखने में हम कामयाब हुए हैं|

 गुरु शिष्य परंपरा

प्राचीन काल से ही अपने देश मे गुरुकुल के माध्यम से यह प्रथा रही है| शिक्षा का स्तर तथा गुरु के प्रति शिष्य की कृतज्ञता के भाव आज भी हम सब के लिए अनुकरणीय है| गुरु पूर्णिमा के दिन उत्सव के जरिए यह संस्कारमय परंपरा जीवित रखने का प्रयास किया जा रहा है| विशेषत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसमें अग्रणी है|

 आदर और अपनापन

सदाचार और संस्कार के माध्यम से मानव समाज में एक आदर और अपनेपन का भाव जागृत होता है| शहरों में ‘गुड मॉर्निंग’ से आदर व्यक्त होता है तो गांव में आज भी ‘नमस्ते’ तथा ‘नमस्कार’ बोल कर आदर का भाव व्यक्त होता है| कई लोग तो राम-राम, जय श्रीकृष्ण, जय जिनेंद्र या जयभीम से भी यह भाव व्यक्त करते हैं| इस अभिव्यक्ति में एक सामाजिक समरसता का भाव भी प्रकट होता है| देश का सर्वांगीण विकास करना हो तो देश संगठित होना जरुरी है| जहां अपनापन और आदर हो वहां संगठन भी शक्तिशाली होता है| शहरों में व्यक्तिगत विकास की दौड़ में यह भावना खोती हुई नजर आ रही है| अपवाद के नाते कुछ मानवता को जोड़ने वाले संगठन निःस्वार्थ भाव से अपना कार्य कर समाज को जोड़ने का निरंतर प्रयत्न कर रहे हैं|

 कला और साहित्य संस्कृति

संगीत, नृत्य, नाटक और रंगमंच, चित्रकारी, मूर्तिकला, काव्य, महाकाव्य जैसे कई आयामों में हमारा देश अनेक तरह से कला में हमेशा से ही अग्रणी रहा है| मुख्यत: नृत्य कला, वी भी लोक नृत्य, बहुत ही मशहूर हैे जैसे कि कत्थक, भरत नाट्यम्, भांगडा, घुमर, मणिपुरी और नागा नृत्य इत्यादि विभिन्न शैलियां विकसित कर केवल देश में ही नहीं किंतु विदेशियों को भी आकर्षित किया है और अपना एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है| खजुराहो और अजंता -एलोरा की मूर्तियां हमारी भारतीय कला की साक्ष है|

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भारतीय कला चाहे नृत्य, चित्रकला, मूर्तिकला आदि जीवन की कोई भी कला हो, सब की सब अनुपम और अद्भुत है| इसके परिणामस्वरूप वह विश्व को आकर्षित करती रही है|

हमारे भारत की संस्कृति की रक्षा में तथा उसे जीवित रखने में हमारे गांवों का बहुत बड़ा योगदान है| आज भी हमारी यह सामाजिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारी है कि, देश के हर गांव को जोड़ने में अपना सहयोग दे| राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हमेशा कहते थे कि, देश सही मायने मे गांवों मे बसता है| अपने भूतपूर्व प्रधान मंत्री आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यकाल में नदियों के माध्यम से देश जोड़ने का अथक प्रयास किया| वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी  भी देश की २ लाख ५८ हजार ग्राम सभाओं द्वारा पंचायती राज और ग्रामीण विकास पर अधिक जोर दे रहे हैं|

 

अविनाश गोतमारे

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