हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
गांवों की समृद्धि हेतु व्यावहारिक सुझाव

गांवों की समृद्धि हेतु व्यावहारिक सुझाव

by नरेशचंद्र सक्सेना
in ग्रामोदय दीपावली विशेषांक २०१६, सामाजिक
0

नीतिगत सुधारों के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति और समर्थन की आवश्यकता होती है, किन्तु सिद्धांतहीन और संरक्षण की राजनीति के चलते अच्छे कार्यक्रम भी भेंट चढ़ जाते हैं| हाल -फिलहाल में कई राज्यों ने प्रशासन में सुधार और समावेशी विकास के माध्यम से ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, जिससे अन्य राज्यों को भी सबक लेना चाहिए| यहां ग्राम विकास की दृष्टि से कुछ व्यावहारिक सुझाव प्रस्तुत हैं|

भा रत में तेजी से आर्थिक प्रगति के चलते निश्‍चित तौर पर   ग्रामीण गरीबों की संख्या कम हुई है| वर्ष १९९३-९४ में ग्रामीण गरीबों की संख्या कुल ग्रामीण जनसंख्या का ५० प्रतिशत थी, जोकि वर्ष २०११-१२ में घट कर २८ प्रतिशत हो गई है| इसके बावजूद हम ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच के फासले को मिटाने में सक्षम नहीं हो सके| वर्ष २०११-१२ में गावों के मात्र १२८१ रुपये मासिक प्रति व्यक्ति खर्च (एमपीसीई) की तुलना में शहरों में २४०२ रुपये मासिक प्रति व्यक्ति खर्च था (दोनों २०११ के मूल्य के आधार पर)| इस प्रकार शहरी मासिक प्रति व्यक्ति खर्च ग्रामीण खपत से ८७ प्रतिशत ज्यादा था|

 कृषि क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव

१९९० के दशक से कृषि के संबंध में नीतिगत दृष्टिकोण बिजली, पानी और उर्वरक जैसे इनपुट पर सब्सिडी के माध्यम से और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के द्वारा, सतही सिंचाई में नई पूंजीगत परिसंपत्तियों का निर्माण करने के स्थान पर वर्षा जल संचयन के द्वारा, किसानों के लिए ऋण व्यवस्था को बेहतर बनाने और नई प्रतिरोधक तकनीकें विकसित करके उत्पादन में वृद्धि करना रहा है| इस दृष्टिकोण की इक्विटी, दक्षता और निरंतरता संदेहास्पद है| पंजाब में धान और अर्धशुष्क इलाकों में गन्ने जैसी पानी की अधिक आवश्यकता वाली फसलों को उगाने की अनुमति और तो और प्रोत्साहित किए जाने के कारण बहुत अधिक मात्रा में भूजल का दोहन करना पड़ा है और देश के ३० प्रतिशत से ज्यादा प्रखंडों में आवश्यकता से अधिक दोहन किया जा चुका है, क्योंकि वहां भूजल उपयोग की मात्रा, भूजल पुनर्भरण की मात्रा से काफी अधिक है|

पिछले कुछ सालों में सरकार की नीतियों ने कृषि को अधिक पूंजी की आवश्यकता वाला बना दिया है, जिसकी वजह से किसान बैंकों और बीमा कंपनियों के लिए आकर्षक नहीं रहे हैं| पानी की किल्लत वाले क्षेत्रों में ट्यूबवेल की खुदाई पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं है| अत: किसान ट्यूबवेल की खुदाई करने के लिए साहूकारों से ऊंची ब्याज दरों पर पैसा उधार ले रहे हैं, लेकिन कई ऐसी बहुत सी बोरिंग नाकाम हो जाती हैं, जिसकी परिणति कर्ज के बोझ और यहां तक कि आत्महत्या में होती है|

हमें सतही और भूमिगत जल के संयुक्त उपयोग के माध्यम से, वर्षा सिंचित क्षेत्रों में कुशल सिंचाई प्रणालियां और जल संरक्षण रणनीतियां बनाने की आवश्यकता है|

वर्षा सिंचित क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने संबंधी कार्यक्रमों का मुख्य बल पूर्ण सुगठित सूक्ष्म-जलसंभरण के आधार पर वर्षा जल संचयन, मृदा संरक्षण, भूमि को आकार देने, चरागाह विकास, वानस्पतिक मेड़बंदी और जल संसाधनों के संरक्षण से संबधित गतिविधियों पर होना चाहिए, जिसमें खेती वाली भूमि और बिना खेती वाली दोनों शामिल होनी चाहिए| अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में खेती को पारंपारिक फसलों पर केंद्रित खेती के स्थान पर कृषि-चरागाही-खेत वानिकी (फलों के पेड़ों, झाड़ियों, बारहमासी घास और जुगाली करने वाले छोटे पशुओंं के उपयोगी) प्रणालियों का रुख करना होगा|

यदि जनता की भागीदारी से वर्षा के जल का संचय कर लिया जाए, तो अधिक से अधिक दस साल के भीतर भारत से सूखे को मिटाया जा सकता है|

 कृषि क्षेत्र में मूल्य श्रृंखला को बढ़ावा दिया जाए

फल और सब्जियां, अन्य फसलों की तुलना में ४ से १० गुना अधिक मुनाफा देती हैं, इसलिए भारत को फल और सब्जियां उगाने वाले किसानों और बड़े खरीदारों के बीच संचार व्यवस्था और सीधा संपर्क बढ़ाने के लिए बेहतर व्यवस्थाओं की आवश्यकता है| लेन-देन की लागत में कमी लाने, अधिक कुशल खरीद मंडियां, गुणवत्तामानक और इलेक्ट्रॉनिक आदान-प्रदान की व्यवस्थाएं तथा अनिवार्य डिलीवरी इस जरूरत को पूरा कर सकती है| इसके अलावा सरकार को फल और सब्जियों को मंडी समिति अधिनियमों से बाहर करना चाहिए और उनकी बिक्री और खरीद को पूर्णतया मुक्त बनाना चाहिए| इससे निजी क्षेत्र भी अनुबंध खेती के लिए प्रोत्साहित होंगे और प्रसंस्करण के लिए उपयुक्त सामग्री की आपूर्ति के प्रति आश्‍वस्त होंगे|

निर्माता कंपनियां, कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) और स्वयंसहायता समूह (एसएचजी) संग्रहकर्ता के रूप में कार्य कर सकते हैं जो पैकेजिंग सामग्री की आपूर्ति में वजन, माल का लदान करने और उतारने, अधिकृत गोदामों में माल जमा करने और किसानों को उनकी उपज का दाम जैसे कार्यों में शामिल किए जा सकते हैं| किसान इस प्रकार के कार्य नहीं कर सकते हैं, इसलिए इन संग्रहकतार्र्ओं और निजी कंपनियों के लिए यह एक महान अवसर है कि वे इन कार्यों को करते हुए एक अच्छा व्यापार मॉडल विकसित करें, और इस प्रकार फल और सब्जियों के लिए आपूर्ति और मांग के बीच के अंतर को पाटने का कार्य करें|

 मनरेगा की रूपरेखा में बदलाव जरूरी

मनरेगा का अधिदेश है कि ८० प्रतिशत कार्य स्थानीय जल संरक्षण और सूखे की रोकथाम से संबंधित होना चाहिए, इस तथ्य के बावजूद सृजित की गई परिसंपत्तियों की निरंतरता और उत्पादकता की कभी भी निगरानी नहीं की गई जिसके परिणामस्वरुप यह कार्यक्रम एक लघुकालिक अनुत्पादक रोजगार बन कर रह गया है, जिसमें परिसंपत्ति निर्माण या मिट्टी और जल संरक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है| और तो और कृषि मंत्रालय के कथन के अनुसार कृषि पर इसका प्रभाव नकारात्मक भी हो सकता है|

इसके अलावा, बेहतर शासित राज्यों में गरीबी के मामले कमतर होने के बावजूद वे ज्यादातर धन मुट्ठी में कर लेते हैं| उदाहरण के लिए ,वर्ष २०१५-१६ में जहां बिहार में मनरेगा पर व्यय १,०२५ करोड़ रुपये था, वही तमिलनाडु में यह चार गुना अधिक ४६३३ करोड़ रुपये था, जबकि बिहार में ग्रामीण गरीबों की संख्या तमिलनाडु में ग्रामीण गरीबों की संख्या से छह गुना अधिक है| इससे एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई, जब वर्ष २०१५-१६ में सरकार ने मनरेगा के तहत केरल में प्रत्येक ग्रामीण गरीब पर ९०४५ रुपये खर्च किए, जहां गरीबी बहुत कम है, जबकि इसके विपरित बिहार में मात्र ३२० रुपये खर्च किए गए! सौभाग्य से अप्रैल २०१६ के बाद से भारत सरकार ने अनौपचारिक रुप से आवंटन नियमों में बदलाव कर दिया है, ताकि गरीब राज्यों में अधिक धनराशि खर्च की जा सके|

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, मनरेगा के धन से बनाई गई समान और नई संरचनाओं के प्रबंधन के लिए सामूहिक जिम्मेदारी की आवश्यकता है| दुर्भाग्य से लोगों को शामिल करने और सामाजिक पूंजी का निर्माण करने में कई एजेंसियों की विफलता की वजह से अधिकांश परियोजनाएं निरंतरता बरकरार रख पाने में विफल रही हैं|

 ग्रामीण बुनियादी ढांचा सुधारा जाए

मनरेगा में स्थायी परिसंंपत्तियों के अभाव के विपरीत प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना में हर मौसम के अनुकूल सड़कों के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जो संपर्क, परिवहन, सरकारी सेवाओं, आजीविका, वाणिज्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि मूल्य, बुनियादी ढांचे, सामाजिक संपर्कों में सुधार लाने और महिलाओं के सशक्तिकरण में योगदान देती है| सड़कें, ग्रामीण समुदाय के लिए जीवन रेखा हैं, जो उन्हें बाजार, शिक्षा, स्वाथ्य और अन्य सुविधाओं से जोड़ती हैं|

फल और सब्जियों जैसी जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं को तेजी से बाजार तक पहुंचाने के लिए सड़क की आवश्यकता होती है और अच्छी सड़क व्यवस्था की बदौलत ऐसी फसलों को दूसरे स्थान पर पहुंचाने से उत्पादकता और रोजगार में व्यापक वृद्धि होती है, क्योंकि इन फसलों में अनाज की तुलना में अधिक श्रम लगता है| कई मामलों में यह देखा गया कि सड़क निर्माण ने लोगों को टैम्पो, दुकानों और अचल संपत्ति में निवेश के प्रति आकर्षित किया| इस प्रकार महज ग्रामीण सड़कों के कारण आय के कई नए अवसरों और लघु उद्यमों का विकास हुआ| सड़कों ने श्रमिकों को आसपास के अर्ध शहरी क्षेत्रों में बेहतर पारिश्रमिक वाली नौकरियों तक जाने में भी सहायता प्रदान की| प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत सड़कें स्वास्थ्य कर्मियों, शिक्षकों सहित सरकारी कर्मचारियों और खेती से जुड़े श्रमिकों को बस्तियों तक आसान पहुंच उपलब्ध कराती हैं, ताकि वे ग्रामीण समुदायों को सेवाएं और जानकारी प्रदान कर सकें| इन परिवर्तनों के कारण अंतत: मनरेगा से अधिक समिृद्ध और स्थायी रोजगार सृजित हो सकते हैं|

इसी तरह ग्रामीण भारत में बिजली की निरंतर और सुव्यवस्थित आपूर्ति से त्वरित औद्योगीकरण और मौजूदा एमएसएमई की क्षमता के बेहतर उपयोग का मार्ग प्रशस्त होगा| वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार बिहार में केवल दस प्रतिशत ग्रामीण घरों में बिजली पहुंच सकी| इस प्रकार अधिकांश घर और स्कूल जाने वाले बच्चे पूरी तरह अंधेरे में हैं| हालांकि पिछले दो सालों में आंकड़ें तेजी से बदले हैं और १० हजार से अधिक गांवों तक बिजली पहुंची है|

गैर-कृषि उद्यमों को बढ़ावा देने

 कानूनों और प्रक्रियाओं को सरल बनाएं

सरकार के साथ व्यवहार करते समय आम नागरिक को जिस कानून, संगठनों और पद्धतियों की भूलभुलैया का सामना करना पड़ता है, उससे भ्रष्टाचार और उत्पीड़न को प्रोत्साहन मिलता है| नियंत्रण-मुक्त करने का ग्रामीण भारत में लगभग कोई प्रभाव नहीं पड़ा है| भारत में आज बिना किसी लाइसेंस के अरबों रुपये का उद्योग तो लगाया जा सकता है, लेकिन कोई किसान न तो ईंट भट्टा इकाई लगा सकता है, और न ही चावल शैलिंग संयंत्र स्थापित कर सकता है, और तो और अपनी निजी जमीन पर उगे पेड़ को भी नहीं काट सकता| तमिलनाडु में प्रोसोपिस (यह ज्यादातर बंजर भूमि पर होने वाली जंगली झाड़ी है, जिसे जितना काटते हैं, वह उतना ही बढ़ती है) को लकड़ी के कोयले या चारकोल में परिवर्तित करने की सरल-सी प्रक्रिया है, जिससे हजारों लोगों को रोजगार मिल सकता है, उसे करने के लिए भी वन विभाग से अनुमति की आवश्यकता है! ओडिशा में १९९५ में घरों में झाडू रखने के लिए महिलाओं के खिलाफ कार्रवाई की गई! यह हमारे कानूनों पर एक दु:खद टिप्पणी है कि अधिकतम रोजगार प्रदान करने वाले अनौपचारिक क्षेत्र को ज्यादातर अवैध घोषित किया गया है और उसे कानून लागू करने वाली एजेंसियों की सनक का सामना करना पड़ता है|

विनियमित मंडियों से दक्षता में सुधार की अपेक्षा थी, लेकिन उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में कई सरकारी मंडी समितियों ने किसानों द्वारा अपनी उपज वैकल्पिक चैनलों (अर्थात मिलों को सीधे बिक्री) के माध्यम से बेचने को अवैध बना दिया है| इस प्रकार ये मंडियां, किसानों को बेहतर कीमत पाने में सहायता प्रदान करने की बजाय कर लगाने के तंत्र के रूप में उभरी हैं|

गेहूं और धान दोनों से दाने निकालने की वर्तमान दरें अंतरराष्ट्रीय मानकों से १० से ३० प्रतिशत कम हैं, जिसका कारण यह है कि अकुशल प्रौद्योगिकियों का उपयोग करने वाले लघु क्षेत्र से कृषि प्रसंस्करण इकाइयां परहेज करती हैं| इसलिए रोलर प्लोर मिलों और अन्य खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों- विशेष रूप से रेपसीड और मूंगफली प्रसंस्करण इकाइयों को एसएसआई सूची से डी-रिजर्व करना चाहिए| कुल मिला कर कानूनों और नियंत्रणों ने निजी खाद्यान्न विपणन की लंबे समय तक खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की क्षमताओं को कमजोर करते हुए उनका दमन किया है|

भूमि का प्रति इकाई रोजगार सृजन, कृषि की तुलना में गैर कृषि उद्योगों में अधिक है, इसलिए औद्योगिक उद्देश्यों में उपयोग में लाने के लिए भूमि का रूपांतरण सभी प्रकार के नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए| पंजाब, हरियाणा, असम, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु को छोड़ कर लगभग सभी राज्यों में ऐसे काश्तकारी कानून हैं, जो भूमि को पट्टे पर देने की अनुमति नहीं देते| महाराष्ट्र एक कदम और आगे बढ़ते हुए गैर-कृषक को कृषि भूमि बेचे जाने पर भी रोक लगाता है| दूसरा, लगभग सभी राज्यों में तब तक कृषि भूमि को औद्योगिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किए जाने का प्रावधान है, जब तक नामित प्राधिकारी से इसकी लिखित अनुमति न ली गई हो| इसमें काफी समय खर्च होता है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है| इसलिए ग्रामीण भारत में औद्योगीकरण सुगम बनाने के लिए भूमि कानूनों में बदलाव किया जाना चाहिए| यह महत्वपूर्ण है कि अनावश्यक नियंत्रण समाप्त मिए जाएं, सरकार के अधिकार और शक्तियां कम की जाएं साथ ही हर स्तर पर पारदर्शिता बढाई जाएं|

 भूमि के स्वामित्व और रोजगार के माध्यम से

 महिलाओं को सशक्त बनाना

ग्रामीण भारत के सभी वंचित लोगों में से महिलाओं के हित, यहां तक कि सिविल सोसायटी द्वारा भी सब से कम व्यक्त किए गए हैं| हमारे पुरुष प्रधान समाज में भूमि का स्वामित्व ज्यादातर पुरुषों के हाथों में केंद्रित है| ऐसी भूमि दो प्रतिशित से ज्यादा नहीं है, जो विशेष रूप से महिलाओं के नाम हो| हालांकि वर्ष २००५ में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन करते हुए विरासत में महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं, इसके बावजूद अभी तक किसी भी राज्य सरकार ने इस नए कानून को गंभीरता से नहीं लिया है| न तो भारत सरकार के भूमि संसाधन विभाग और न ही महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने एक परिपत्र जारी कर राज्यों से इस कानून को लागू करने के बारे में कहा है| इसके परिणामस्वरुप राज्यों में महिला विरोधी कानून और पद्धतियां बड़े मजे से जारी हैं|

ग्रामीण विकास मंत्रालय में भूमि संसाधन विभाग को राजस्व अभिलेखों में सुधार के लिए अभियान शुरू करना चाहिए और यह सुनिश्‍चित करना चाहिए कि महिलाओं की जमीन के स्वामित्व के अधिकार राज्यों द्वारा ठीक से दर्ज किए गए हैं और महिलाओं को इसकी सूचना दी गई है| कानून का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्‍चित करने के लिए जिला कलेक्टरों के लिए निगरानी लक्ष्य निर्धारित किए जाने चाहिए| इसके अलावा, सिविल सोसायटी को पर्चे तैयार करके सांसदों को बंटवाने चाहिए ताकि उन्हें भूमि और संपत्ति पर महिलाओं के अधिकारों के बारे में चिंताएं संसद में उठाने में सक्षम बनाया जा सके|

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के अनुसार १५-५९ आयु वर्ग वाली ग्रामीण महिलाओं की काम में भागीदारी की दर वर्ष १९८३ में ३४ प्रतिशत से कम होकर वर्ष २०११-१२ में केवल २६ प्रतिशत रह गई| बढ़ते मशीनीकरण के कारण ग्रामीण महिलाओं का काम छिन रहा है| किसान मशीनी ट्रांसप्लांटर्स का रुख कर रहे हैं| और तो और बिहार में भी कम्बाइन हार्वेस्टर्स का प्रसार हो रहा है| इसके अलावा वन नीति के अब लकड़ी अभिमुख होने की वजह से वे लघु वन उत्पाद, जिन्हें महिलाएं एकत्र किया करती थीं, गायब हो रहे हैं| और इतना ही नहीं निर्माण खुदरा व्यापार और आतिथ्य क्षेत्र जैसे गैर कृषि रोजगार के अवसर काफी हद तक पुरुषोन्मुख हैं| ये सभी गांव से कुछ दूरी पर हैं, जहां पुरुष बाइक पर जा सकते हैं, लेकिन ज्यादातर ग्रामीण महिलाओं को साइकिल चलाना नहीं आता| इस प्रकार भारत में समृद्धि ने महिलाओं को अधिकारविहीन और पुरुषों पर निर्भर बना दिया है| इसलिए महिलाओं को उत्पादक रोजगार की दिशा में लाने के लिए विशेष प्रयास किए जाने की आवश्यकता है|

प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभ गलत हाथों में पड़ने में कमी लाना

सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में दोहरी मूल्य निर्धारण प्रणाली खत्म कर देनी चाहिए और उचित मूल्य की दुकान के दुकानदार को बाजार मूल्य पर स्टॉक बेचना चाहिए, जैसे गेहूं के लिए २० रुपये| उपभोक्ता को एक किलो गेहूं खरीदने के लिए पहले की तरह ही केवल दो रुपये नकद और अपना आधार कार्ड लेकर उसके पास जाना होगा, लेकिन बाकी १८ रुपये कार्ड के माध्यम से दुकानदार को हस्तांतरित हो जाएंगे| इससे इस प्रणाली के लाभ गलत हाथों में पड़ने में काफी हद तक कमी आएगी| साथ ही उपभोक्ता के प्रति डीलर के व्यवहार में भी सुधार होगा| अब तक दुकानदार उपभोक्ताओं को नजरंदाज करते थे, क्योंकि उनकी मुख्य दिलचस्पी खुले बाजार में अनाज बेचने में होती थी| जब उन्हें बाजार मूल्य पर अनाज मिलेगा, तो वह कार्डधारक का स्वागत करने और उसे जल्द से जल्द अपनी दुकान में आने को राजी करने के लिए बाध्य हो जाएंगे, ताकि सब्सिडी का हस्तांतरण हो सके|

इससे सिर्फ सही व्यक्ति को ही राशन मिलना सुनिश्‍चित नहीं होगा, बल्कि पात्रताधारक किसी भी एफपीएस से अपना राशन खरीदने के लिए भी मुक्त होंगे और उन्हें किसी एक विक्रेता से बंधे नहीं रहना होगा| दूसरे शब्दों में यह पात्रता सुग्राह्यता या पोर्टेबिलिटी है, जो पात्रताधारकों को देश में कहीं भी किसी भी डीलर के पास जाने की अनुमति देगी है तथा इससे गरीब प्रवासी मजदूरों को बहुत सहायता मिलेगी, जो अब तक अपने अधिकार का उपयोग करने में नाकाम रहे हैं| यह व्यवस्था पात्रताधारकों को वास्तविक विकल्प प्रदान करते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव लाएगी| इससे भ्रष्टाचार में भी काफी कमी आएगी|

 शासन प्रणाली में सुधार जरूरी

क्लर्कोें, अर्दलियों और चालकों जैसे कई सरकारी कर्मी हैं, जो सहायक की स्थिति में आते हैं, जिनकी इस उन्नत प्रौद्योगिकी के युग में आवश्यता नहीं है और अध्यापकों, नर्सों और पुलिस कर्मियों जैसे कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो जिम्मेदार स्थिति में हैं और सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करते हैं| प्रमुख सार्वजनिक सेवाएं- शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस और न्यायपालिका, नियमित कर्मचारियों की संख्या आवश्यकता से अधिक है| कम्प्यूटरीकरण और सूचना प्रबंधन की बदलती तकनीक के मद्देनजर ज्यादातर की अब जरूरत नहीं रह गई हैं| इसलिए अतिरिक्त कर्मियों की पहचान के लिए प्रयास किए जाने चाहिए और कर्मचारिकों को फिर से तैनात किए जाने की योजना तैयार की जानी चाहिए और बाहर करने की प्रणाली उदार होनी चाहिए| क्लर्कों और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को शिक्षक और कांस्टेबल बनने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए|

 अनुपस्थिति पर नियंत्रण जरुरी

सभी मंत्रालयों/ विभागों को सेवा प्रदाताओं और सेवा प्राप्त करने वाले (कक्षाओं में छात्र या सरकारी अस्पतालों में प्रसव वाली महिलाएं) दोनों की अनुपस्थिति पर मात्रात्मक आंकड़ें एकत्र करने चाहिए क्योंकि इससे सेवा की गुणवत्ता का पता चलता है| सावधानी से तैयार की गई और तकनीक द्वारा समर्थित कार्यप्रणाली के माध्यम से पुलिस स्टेशनों, स्वास्थ्य और आंगनबाडी केंद्रों, पचायतों आदि जैसी समस्त सेवा प्रदाता एजेंसियों के प्रदर्शन को आंका जा सकता है, यानी वे कितनी उत्तरदायी, कुशल और सहभागी हैं|

विश्‍व बैंक के एक अध्ययन से पता चला है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में होने वाले व्यय का बड़ा हिस्सा शिक्षकों और स्वास्थ्य कर्मियों के वेतन पर खर्च हो जाता है| इसके बावजूद बड़े पैमाने पर अनुपस्थिति और इन सेवा प्रदाताओं की कामचोरी का आशय यह है कि बहुत से मामलों में कोई भी सेवा प्रभावी ढंग से प्रदान नहीं की जाती| इसका आशय यह कि सरकार इन संसाधनों का उपयोग (लक्षित करने) उच्च गुणवत्ता वाली सेवाएं प्रदान करने के बजाय (कम लक्षित करने योग्य) नौकरियों पर करती है| सेवा प्रदाताओं के लिए तो व्यवस्था मौजूद है, लेकिन सेवा के प्रावधान के लिए नहीं हैं| विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों सहित भारतीय राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यावहारिक स्तर पर अन्वेषण करने से पता चला कि शिक्षकों की अनुपस्थिति सामान्य बात है, सैम्पल स्कूलों में जांचकर्ताओं के अघोषित दौरों के समय पाया गया कि लगभग दो तिहाई शिक्षक या तो अनुपस्थित थे या उस दौरान पढ़ा नहीं रहे थे| एक अध्ययन में पाया गया है कि उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की उपस्थिति की औसत दर ६५ प्रतिशत थी, लेकिन उत्तर प्रदेश में शिक्षण संबंधी गतिविधियों (अर्थात शिक्षण से संबंधित गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी) की औसत दर केवल २७ प्रतिशत थी|

इसी तरह ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में ज्यादातर राज्यों में डॉक्टरों/स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की अनुपस्थिति, अपर्याप्त पर्यवेक्षण/ निगरानी और कठोर व्यवहार पाया गया| वर्ष २००९ में योजना आयोग के एक अध्ययन में पाया गया कि बिहार और राजस्थान में उप-जिला या ब्लॉक -स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में डॉक्टरों की उपलब्धता वस्तुत: ३० प्रतिशत से कम थी| तकनीक का उपयोग न केवल उपस्थिति, बल्कि कर्मचारियों के प्रदर्शन पर नजर रखने में भी किया जाना चाहिए|

 धन के प्रवाह में सुधार लाया जाए

बहुत -सी राज्य सरकारें, विशेषकर गरीब राज्यों की सरकारें, न तो भारत सरकार की ओर से जारी धनराशि प्राप्त कर पाती हैं, जिसकी वे हकदार हैं और न ही उस राशि को समय पर जिलों/ गांवों में जारी करने में सक्षम हो पाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप भारत सरकार को बिना दावेदारी वाली यह धनराशि बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्यों को देने के लिए बाध्य होना पड़ता है| बिहार, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और असम द्वारा खराब प्रदर्शन का कारण अमूमन, सभी स्तरों पर कर्मचारियों के कार्यान्वयन और निगरानी पर पड़ता है| केंद्रीय धन का उपयोग करने के मामले में इन राज्यों में से बिहार का रिकॉर्ड बहुत खराब है| १९९४-२००५ के दौरान अकेले त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम में ही बिहार ने लगभग ५४० करोड़ रुपये की केन्द्रीय सहायता गंवा दी थी| बिहार में कुछ साल पहले तक वेतन का भुगतान तक समय पर नहीं होता था| यूनिसेफ द्वारा २००७ में बिहार में आईसीडीएस के मूल्यांकन से पता चला कि १० प्रतिशत से भी कम आंगनवाडी कार्यकर्ताओं को नियमित रूप से मानदेय प्राप्त होता था, इनमें से अधिकांश को हर महीने की जगह साल में केवल दो बार मानदेय प्राप्त होता था| यूनिसेफ द्वारा कराए गए एक अन्य अध्ययन से पता चला कि झारखंड में जमीनी स्तर पर काम करने वाले केवल १८% अधिकारियों को ही समय पर वेतन मिलता था|

धन के उपयोग में सुधार लाने, कर्मचारियों के वेतन का समय पर भुगतान करने और उपयोगिता रिपोर्ट बिना किसी देरी के भारत सरकार को भेजने के लिए वित्तीय प्रक्रियाओं में किस प्रकार का बदलाव लाने की आवश्यकता है, इस बारे में सुझाव देने के लिए अनुभवजन्य अध्ययनों की जरूरत है| भारत सराकार के स्वयं के अध्ययन बताते हैं कि यहां इलेक्ट्रॉनिक हस्तांतरण तक होने में महीनों लग जाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप मध्याह्न भोजन कार्यक्रम के रसोइयों और सहायकों जैसे निचले स्तर के कर्मचारियों को महीनों तक वेतन नहीं मिलता| एफसीआई अनाज की आपूर्ति रोक लेता है, और कुछ राज्यों में मध्याह्न भोजन केवल ६०-७० प्रतिशत कार्यदिवसों में ही उपलब्ध हो पाता है| सर्व शिक्षा अभियान में पाठ्य पुस्तकों की आपूर्ति विशेषकर दूरदराज और जनजातीय क्षेत्रों में रिक्तियां भरने पूंजीगत कार्य रखरखाव के लिए धन आदि में भी इसी तरह की देरी होती है|

वित्तीय प्रक्रियाओं में सुधार लाना अब और भी अधिक आवश्यक है, क्योंकि मार्च २०१४ के बाद से भारत सरकार द्वारा जारी की जाने वाली धनराशि के स्वरूप में बदलाव आया है| पहले की तरह अब केन्द्रीय धन  राज्य समितियों और एजेंसियों को नहीं जारी किया जाता|

 प्रमुख कार्यक्रमों का मूल्यांकन जरूरी

कुछ मंत्रालयों द्वारा समवर्ती मूल्याकंन कराए जाने और प्रभाव का अध्ययन करने के लिए व्यावसायिक संगठनों को साथ जोड़े जाने के बावजूद ऐसी रिपोर्टों को शायद ही कभी नीति निर्माताओं द्वारा पढ़ा जाता है, और रिपोर्ट में किए गए परीक्षण के आधार पर कोई सुधारात्मक कार्रवाई भी नहीं की जाती| अंतत: प्रभाव के अध्ययन के लिए किसी व्यवसायी को काम पर रखने की प्रक्रिया को संरक्षण देने की एक और जघन्य गतिविधि का रूप ले लेती है, जहां पसंदीदा लोगों का चयन किया जाता है और रिपोर्ट की गुणवत्ता ज्यादा महत्व नहीं रखती| जनजातीय मामले खाद्य और सार्वजनिक वितरण तथा महिला एवं बाल विकास जैसे कुछ मंत्रालय, धन, खाद्यान्न जारी करने भर से संतुष्ट हो जाते हैं और उन्हें इसकी ज्यादा जानकारी नहीं होती, कि रकम को कैसे खर्च किया जा रहा है| इतना ही नहीं, जब महत्वपूर्ण रिपोर्ट तैयार हो जाती हैं, तो उन्हें दबाने तक के प्रयास होते हैं| ग्रामीण लोगों के लिए तैयार किए गए कई कार्यक्रमों की रूपरेखा दोषपूर्ण है| महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे कई राज्यों में आईसीडीएस में संविदाकारों द्वारा पूरक पोषाहार की आपूर्ति में बड़े पैमाने पर अनियमितताएं पाई गई हैं| राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा हाल में गोरखपुर में कराए गए एक अध्ययन में पता चला कि पका हुआ गर्म भोजन उपलब्ध कराने के उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद सभी केन्द्रों ने ५०० कैलोरी उपलब्ध कराने के नियम के विपरीत केवल १०० कैलोरी युक्त ‘पैकेटबंद रेडी टू ईट’ भोजन की आपूर्ति की गई और ६३ फीसदी भोजन और धन का अनुचित उपयोग किया गया| अरुचिकर होने के कारण इसमें से आधे भोजन की परिणति पशु चारे के रूप में हुई|

केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के विभागों द्वारा समय-समय पर व्यावसायिक और शैक्षणिक संगठनों का उपयोग कर प्रभाव के लिए अध्ययन कराना ही पर्याप्त नहीं है| उनके निष्कर्षों को हर हाल में प्रचारित किया जाना चाहिए और उन पर प्रमुख हितधारकों के साथ चर्चा होनी चाहिए, ताकि रूपरेखा और वितरण के क्षेत्र में जल्द से जल्द सुधार लाया जा सके| सरकारों को प्रभाव के अध्ययन के निष्कर्षों को अपनी वेबसाइट पर डालना चाहिए और अपने द्वारा आयोजित की जाने वाली कार्यशालाओं में इन्हें वितरित करना चाहिए| परिणामों का प्रसार भी बहुत महत्वपूर्ण है|

अन्त में हालांकि ऊपर वर्णित नीतिगत सुधारों के लिए मजबूत राजनीतिक समर्थन की आवश्यकता होती है| कुछ सिद्धांतहीन राज्यों में संरक्षण के वितरण के लिए राजनीतिक दबाव इतना प्रचंड होता है कि मंत्रियों और नौकरशाहों के पास वैचारिक चिंतन, अच्छे कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने, खराब प्रदर्शन करने वालों को हटाने तथा प्रदत्त सेवाओं की दक्षता में सुधार लाने की दृष्टि से कार्यक्रमों की निगरानी करने के लिए समय या इच्छा ही नहीं रहती| आशा है कि ये राज्य अन्य राज्यों के सकारात्मक उदाहरण से सबक सीखेंगे, जहां प्रशासन में सुधार और समावेशी विकास के माध्यम से सत्ता विरोधी लहर को प्ररास्त कर दिया है|

 

नरेशचंद्र सक्सेना

Next Post
 पित्रे फाउंडेशन की ग्राम सेवा

 पित्रे फाउंडेशन की ग्राम सेवा

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0