दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के अंतर्गत बिना बिजली वाले गांवों में बिजली पहुंचाने का लक्ष्य ९९ प्रतिशत तक प्राप्त किया जा चुका है| इस योजना के अंतर्गत जून २०१६ तक १०८७४२.३१ करोड़ रु. उपलब्ध कराए गए थे, जिसमें से ४२६९२.४० करोड़ रु. अर्थात लगभग ३९ प्रतिशत राशि का उपयोग किया जा चुका है| अगर इसी रफ्तार से यह योजना चलती रही तो वह दिन दूर नहीं जब देश का हर गांव जगमग होगा|
भा रतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में लोककलाओं की जड़ें बहुत गहरी हैं| आधुनिक सांस्कृतिक आयामों को जिन आधारों और अभिप्रायों के माध्यम से प्रेक्षकों और जिज्ञासुओं के बीच अपनी जगह बनाने में सफलता मिली है उसमें आंचलिक संस्कृति के योगदान को नकारा नहीं जा सकता| समय के साथ लोककलाओं से शहरी और बौद्धिक वर्ग की एक बड़ी दूरी स्थापित हो गयी है| लोककलाओं के साथ उनकी तमाम मुश्किलें समय के साथ बढ़ती चली गयी हैं जिनमें खासतौर पर आर्थिक धरातल पर संघर्ष और कठिनाई के साथ हासिल होने वाली उपलब्धियों को भी सराहने वाले नहीं रह गये हैं, ऐसे में धीरे-धीरे इनकी अस्मिता ही संकट में पड़ती जा रही है| हमारे देश के विभिन्न राज्यों में आज भी आंचलिक कलाओं का समृद्ध स्वरूप मौजूद है| नृत्य, नाट्य, संगीत और चित्रकला-शिल्पकला आयामों में आज भी लोक की साधना, तन्मयता और विशेषतौर पर निष्ठा का दूसरा उदाहरण न होगा, उसके बावजूद कलाकार, संवाहक कष्ट में हैं और संकटों से जूझ रहे हैं|
भारत की आंचलिकता बड़ी समृद्ध है| प्रत्येक राज्य और उसके अंचल में कलाओं की जड़ें बहुत गहरी हैं| हम यह कह सकते हैं कि यह थाती आज या बीते कल की नहीं वरन पीढ़ियों की है| यह निधि वो है जो अपने स्थान और परिवेश के कारण सुरक्षित है| उसको जिस तरह की भूमि मिली है, जिस तरह का मैदान या मंच मिला है, जिस तरह की उपलब्धताए ं हैं, जिस तरह के अभाव हैं, जिस तरह के साधन हैं, जिस तरह सीमाएं हैं उनके साथ वे अपने कला बोध को पूरी संवेदना और निष्ठा के साथ निबाहती आ रही हैं| आधुनिकता, बाजारवाद, शहरीकरण और तमाम चमत्कार, आविष्कार और संसाधनों का आक्रमण गांव तक में हो जाना वास्तव में आंचलिकता और लोक परिवेश से उसकी सारी खुशी को छीन लेने की तरह है| अपनी क्षमताओं में, अपने सुखदुख में, अपनी मांगलिकता में, अपने अवसाद और यहां तक कि अनिष्ट में भी ग्रामीणजन अपने पुरुषार्थ की रक्षा करते हैं| वे अपना विश्वास बनाये रखते हैं| उनकी धार्मिकता निरन्तरता से एक पग भी डिग नहीं पाती है| उनके अनुष्ठान और परम्पराएं उनके साथ चला करती हैं और इन्हीं सबके साथ चला करते हैं उनके नृत्य, उनके गीत, उनका चित्रांकन, उनके शिल्प, उनका नाट्य और इसी तरह के आयामों से विस्तारित होता उनका कला संसार|
अपने अनुभवों की बात करता हूं| मध्यप्रदेश का निवासी हूं जिसने पन्द्रह वर्ष पहले अपने राज्य से छत्तीसगढ़ को अलग होते हुए देखा है| अविभाजित मध्यप्रदेश की बात करूं तो लोक और आदिवासी कला परम्पराओं से भरापूरा, हराभरा और समृद्ध यह राज्य अपने आपमें जिन सन्निधियों को समेटे सांस्कृतिक सम्पदा से भरापूरा अपार वैभव के साथ देश में अपनी साख स्थापित करता था, उसमें आधा विभाजित हो जाने से एक बड़ा अभाव देखने में आने लगा है| मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ का अलग हो जाना, भाई का पड़ोसी हो जाना ही तो कहा जायेगा जिसमें वर्तमान मध्यप्रदेश से एक वृहद आदिवासी अंचल पृथक हो गया| दुर्ग से लेकर बस्तर तक पण्डवानी, पंथी, नाचा, चंदैनी, लोरिकचंदा जैसी आख्यान और नृत्यपरक शैलियां मध्यप्रदेश से अलग हो गयीं वहीं प्रस्तुति में कहीं बड़े गहरे भाव के साथ जीवन को दर्शन से जोड़ने वाले, भीतर से भावनात्मक रूप से झकझोरने वाले परम्परागत नृत्यों का बड़ा संसार मध्यप्रदेश से विलग हो गया|
कुछ समय पहले एक अवसर आया था जिसको पाठकों के साथ विषय के सान्निध्य में चर्चा में लाना चाहता हूं| राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा प्रतिवर्ष नई दिल्ली में भारत रंग महोत्सव का आयोजन किया जाता है| राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साल में एक बार नाटकोंं का एक तरह से महाकुम्भ करने वाले इस महोत्सव का एक आयाम देश के विभिन्न राज्यों में पारम्परिक रूप से स्थापित लोकमंच से नाट्य प्रस्तुतियों को भी निमंत्रित किए जाने की परम्परा है| ऐसे ही एक समारोह का साक्षी होने का अवसर आया तो मैंने अपने से हठपूर्वक पारम्परिक मंच की प्रस्तुतियों को देखने का निश्चय किया| तब मैं अनेक राज्यों की आंचलिकता, उसके रंगकर्म और अनुशासन के प्रति और अधिक जिज्ञासु होता चला गया| एक अलग मंच ऐसी लोक प्रस्तुतियों के लिए वहां सुनिश्चित कर दिया गया था जिनके साथ गहरी परम्परा जुड़ी हुई है, वे सीमाओं और संसाधनों के बावजूद अपने वजूद को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और एक और सबसे विशिष्ट बात यह कि आधुनिकता का आकर्षण उन्हें उस तरह से छू नहीं गया है कि वे अपनी विरासत को ही विस्मृत करने लगें| निश्चित रूप से इस बात का श्रेय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक और देश के शीर्ष रंगकर्मी वामन केन्द्रे को जाता है जो कलात्मक अभिप्रायों में लोक परम्परा की क्षमताओं और शक्ति-सामर्थ्य पर अटूट विश्वास रखते हैं| समय के साथ बदलाव और नवाचार तथा प्रयोगों के नाम पर हो सकता है, कुछ अतिक्रमणों से वे अपने आपको न बचा पाये हों लेकिन निराशा और हताशा के बीच भी वे इस सदी में अपने-अपने काम पर हैं| उनका यह समर्पण प्रभावित करता है और इस पूरे मर्म के कद्रदानों के लिए आकर्षण भी रखता है|
ऐसे ही वातावरण में पंजाब से पंजाबी भाषा में कलेहरी आर्ट एण्ड कल्चर अकादमी मनसा की ओर से भोला कलेहरी के निर्देशन में नकल का मंचन देखने का अवसर मिला| अवध आदर्श रामलीला मण्डली अयोध्या की ओर से महन्त जयराम दास के मार्गदर्शन में रामलीला का मंचन हुआ| द परफार्मर्स उदयपुर की ओर से राजस्थानी शैली में लईक हुसैन के निर्देशन में गवरी की प्रस्तुति हुई| छत्तीसगढ़ी पण्डवानी की शीर्ष तीजन बाई की ओर से लोकगायन प्रस्तुत किया गया| आविष्कार अहमदाबाद की ओर से कल्पेश दलाल के निर्देशन में मदलिया की प्रस्तुति हुई| यक्षगान केन्द्र उडुपी की ओर से गुरु संजीव सुवर्ण के निर्देशन में यक्षगान शैली में कन्नड़ भाषा में जटायु मोक्ष की प्रस्तुति की गयी| आनंदमोयी समिति बीरभूम पश्चिम बंगाल की ओर से बंगला भाषा में स्वपन कुमार साहा के निर्देशन में जात्रा शैली में कोलिर कर्णा कांदछे का मंचन किया गया| मध्यप्रदेश के विख्यात माचकार पण्डित ओमप्रकाश शर्मा के निर्देशन में मालवी लोकभाषा में राजा रिसालु का मंचन हुआ| इसी मंच पर सत्रिय सांस्कृतिक गोष्ठी नगांव की ओर से असमी भाषा में अंकिया नाट शैली में हीरो प्रसाद महंता के निर्देशन में श्रीराम विजय का मंचन किया गया| नविद मुकिद ईनामदार के निर्देशन में मराठी भाषा में ऐस्थेटिक वर्ल्ड लातूर महाराष्ट्र की ओर से भारुड की प्रस्तुति भी अहम आकर्षण थी|
इन प्रस्तुतियों को देखते हुए एक सम्यक बात यह उभरकर आयी कि अलग-अलग शैलियों में अपनी आंचलिकता के सभी स्वाभाविक आग्रहों के साथ कला के साथ निर्वाह कर रहे कलाकारों में प्रेरणा के स्रोत हमारे पुराण और इतिहास प्रमुखता से हैं| अवध आदर्श रामलीला मण्डली अयोध्या की सबसे पुरानी रामलीला मण्डली है जिसकी परम्परा सदियों पुरानी है| कहा जाता है कि चार सौ साल पुरानी रामलीला मण्डली है यह| वर्तमान में बाबा जयराम दास पचास से भी ज्यादा वर्षों के अनुभवों से इस मण्डली का रक्षण कर रहे हैं, वे अपनी प्रस्तुति में पुरातन नाट्य शैली, पारसी शैली के मूल तत्वों को सतत परिवर्तित समय में भी बनाये रखकर हमें पुरानी स्मृतियों में ले जाते हैं| दिव्य स्वरूपों की झांकी, राम, लक्ष्मण और सीता के पात्रों का मनभावन श्रृंगार, विनम्र संवाद शैली और भावनात्मकता का पालन दिखायी देता है| यह ऐसा आकर्षण है कि दर्शक प्रस्तुति देखते हुए उस धरातल पर भी समरस होना चाहता है| पारम्परिकता का ऐसा ही प्रयोग असम की अंकिया नाट शैली की रामलीला प्रस्तुति श्रीराम विजय में भी दिखायी देता है| यहां कला में आज भी श्रृंगार की पारम्परिक वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है| कलाकारों के स्वरूप, मानस पटल पर अंकित छबि के अनुरूप प्रतीत होते हैं| मंच पर चलते हुए, बैठते हुए, युद्ध करते हुए और विभिन्न सकारात्मक-नकारात्मक चरित्रों के बीच की संवाद शैली हमें उसी सादगी के साथ बांध लिया करती है| इस शैली में नाटकीय तत्व प्रभावित करते हैं और पात्र चयन की सूझ भी| इसी प्रकार यक्षगान शैली में जटायु मोक्ष का प्रस्तुतिकरण कलात्मक रूप से और ज्यादा समृद्ध और सम्मोहक लगता है| बावजूद इसके कि संवाद की भाषा कन्नड़ है, हम जटायु के संवादों में जिस तरह नीति और जीवन मूल्यों की बातों का दृष्टान्त सुनते हैं, वह अनूठा लगता है| बेहद कलात्मक और रंग-बिरंगी वेशभूषा, रूपसज्जा और मुखौटों के साथ प्रस्तुति के लिए तैयार होते हुए दिन भर के सृजनात्मक परिश्रम के नेपथ्य का साक्षी होकर लगता है कि वास्तव में कलात्मक अभिव्यक्ति में निष्ठा की जगह का क्या अर्थ होता है! इस प्रस्तुति के निर्देशक गुरु बनान्जे संजीवा सुवर्णा एक यक्षगान गुरु, नर्तक, निर्देशक, नृत्य संरचनाकार के रूप में ख्यात हैं| वे नृत्य नाटिका और यक्षगान के पारम्परिक रूपों में पारंगत हैं साथ ही लोकसंगीत और ताल वाद्य के ज्ञाता भी| अच्छे प्रशिक्षण और गहन पूर्वाभ्यास की आश्वस्ति इस प्रस्तुति में दिखायी देती है|
इधर हम प्रख्यात पण्डवानी गायिका तीजनबाई को देखते हैं जो छत्तीसगढ़ी लोकभाषा में महाभारत की गाथा से अंशों का गायन एवं प्रस्तुतिकरण पण्डवानी शैली में करती हैं| छल-कपट, धूर्तता, प्रेम-त्याग, वैराग्य, वीरता, कायरता आदि अनेक मानवीय गुणों-दुगुर्णों के बीच रची महाभारत की गाथा के अपने अलग आकर्षण हैं जिनको मंच पर देखना और सुनना प्राय: दुर्लभ होता है| बड़ी छोटी सी उम्र से अनेक प्रताड़नाओं और मुश्किलों के साथ अपनी जिद और जुझारूपन से यह मुकाम बनाने वाली यह अहम गायिका आज भले लगभग सत्तर की उम्र की होंगी मगर उनके स्वर में, उनकी करुणा में और प्रसंगानुकूल वीरता के प्रदर्शन में पैर पटकते हुए भीम जैसे बलिष्ठ चरित्र का प्रभाव प्रस्तुत कर देना उसी कौशल के साथ देखा जा सकता है| तीजनबाई ने दु:श्शासन वध प्रस्तुत करते हुए एक बार फिर साबित कर दिया कि वे पण्डवानी का पर्याय हैं, रहेंगी| इधर जात्रा शैली में कालिर कर्ण कांदछे देखना जरा निराशाजनक रहा क्योंकि मंच पर उसका प्रभाव न जाने क्यों दूसरे दर्जे की फिल्म से ऊपर नहीं उठ सका| निर्देशक स्वप्न कुमार साहा ने आधुनिक कुन्ती की कहानी को बड़े साधारण ढंग से प्रस्तुत किया जबकि महाराष्ट्र से नविद मुकिद ईमनामदार की प्रस्तुति भारूड़, गुजरात से कल्पेश दलाल के निर्देशन में मदलिया ने गुजरात की लोक संस्कृति और लईक हुसैन के निर्देशन में राजस्थान से गवरी तीन अलग अनुभव थे| लोकप्रस्तुतियों में किस तरह विद्रूपताओं से लड़ने का साहस है, वह समाज के दकियानूसीपन पर चोट करती हैं, वे सामाजिक बुराइयों को बड़े तीखे अन्दाज में आलोच्य ढंग से उजागर करती हैं| दिलचस्प यह है कि बातें रोचक ढंग से कही गयी हैं, आपको हंसाती हैं, आपका मनोरंजन करती हैं| वाकई यह समृद्ध तत्व न हों तो आप किस तरह उसके आकर्षण में बंधे रहेंगे! चटख रंगों वाले परिधान, चटख रंगों का श्रृंगार और अपने आप में बिल्कुल डूबकर अभिव्यक्त होने की निष्ठाभरी कला को वाकई सलाम है|
पण्डित ओमप्रकाश शर्मा की माच प्रस्तुति को देखते हुए वाकई ऐसी महत्वपूर्ण लोकनाट्य परम्परा के विस्मृत होते जाने की चिन्ता होती है| राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्राध्यापक एवं इस पूरे लोक-प्रकल्प के सूत्रधार लोकेन्द्र त्रिवेदी ने बताया कि उज्जैन मालवा की यह लोकनाट्य परम्परा के, पण्डित ओमप्रकाश शर्मा अकेले साधक-साक्ष्य बचे हैं जो उम्रदराज हैं मगर उनकी लगन, समर्पण और ज्ञान में पूर्वजों की प्रेरणा और स्वयं की ईमानदार साधना आज भी उसी रूप में है| वे माच कथाओं को सहेजे हैं, माच संगीत उनकी शिराओं में बहता है, कल इन सबका क्या होगा? वाकई ऐसे प्रश्न केवल माच या पण्डित ओमप्रकाश शर्मा के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय लोक परम्परा के लिए चिन्तित करते हैं| हमारे पास संसाधन हैं पर संज्ञान और बोध के स्तर पर अवहेलनाएं व्याप्त हैं| अगर हम अपने अभिलेखागारों को समृद्ध और संरक्षित नहीं करेंगे, यदि हम दुर्लभता के संग्रह और उसके महत्व को नहीं समझेंगे तो आने वाले समय में निश्चित ही समृद्ध विरासत के नाम पर हमारे पास बताने या जताने के लिए हमारी आंचलिकता और लोक से कुछ भी नहीं रहेगा, कुछ भी नहीं|
इन सारे के सारे रंग प्रहसनों को देखते हुए बहुत सी बातों की तरफ ध्यान गया| ग्रामीण नाट्य और उसकी ठेठ आंचलिकता को कई तरह से संरक्षित किए जाने की जरूरत है| सबसे पहली बात तो यही है कि वे कैसे जीवित रहें, कैसे उनकी निरन्तरता बरकरार रहे, कैसे शहरी सभ्यता में सांस्कृतिक अभिरुचियों के साथ ही लोकमंच और उसकी अस्मिता को लेकर एक प्रकार की चिन्ता और समर्थन काम करे| मध्यप्रदेश के वर्तमान में लोकनाट्य कह लें या ग्रामीण नाट्य कह लें, प्रमुखत: माच जिसका उल्लेख अभी पण्डित ओमप्रकाश शर्मा के अवदान के साथ हुआ और दूसरा बुन्देलखण्ड में प्रचलित स्वांग ही सुनने में आते हैं| दिलचस्प यह है कि मध्यप्रदेश में ही कला के जिज्ञासुओं के लिए माच या स्वांग की जानकारी पूरी पूरी नहीं है| वह इसलिए भी नहीं है क्योंकि इसके प्रदर्शन के अवसर नहीं हैं| छठे-चौमासे यदि ये प्रस्तुतियां किसी समारोह का छोटा सा हिस्सा बनती भी हैं तो वे आती और चली जाती हैं| इनकी कोई स्थायी छाप बनी रह जाये, ऐसा समझ में नहीं आता| ग्रामीण नाट्य की ये धरोहरें तब ही अपनी जगह पर जमी रह पायेंगी जब इनमें निरन्तर पीढ़ियां रुचि लेंगी|
छत्तीसगढ़ की लोकनाट्य विधा में नाचा अग्रणी है| इधर दुर्ग, राजनांदगांव तथा उससे आगे की बड़ी आंचलिकता में नाचा की धरोहर बसती है| किसी जमाने में नाचा की गांव-गांव में अनेक मण्डलियां हुआ करती थीं| रात-रात भर गांवों में लालटेन की रोशनी
में होने वाले नाचा का आनंद उठाने के लिए आसपास के अनेक गांवों के लोग निमंत्रित होते थे अथवा अपने आप भी आते थे| हजारों दर्शकों की उपस्थिति में होने वाला नाचा, प्रत्युत्पन्नमति के साथ समकालीन घटनाक्रमों, सामाजिक बुराइयों, कुप्रथाओं और विद्रूपताओं पर तंजपूर्वक इस तरह नाटकीय प्रस्तुति का स्रोत होता था कि आमजन सुधबुध खोकर उसको देखा करते थे| हास्य प्रसंगों पर हंस-हंसकर लोटपोट हो जाया करते थे वहीं कारुणिक प्रसंगों पर आंसू भी बहाते थे| नाचा का लोकधर्मी स्वरूप और कलाकारों का अनूठा अभिनय इस तरह का होता था कि लोग अचरज से भर जाते थे या कहें कि ठगे से रह जाते थे| प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर की पूरी रंगयात्रा नाचा शैली के ऐसे ही प्रतिभाशाली और गुणी कलाकारों के साथ ही भारत से होते हुए सात समुन्दर पार दुनिया के अनेक देशों तक चली गयी| देखने में अति सादे-साधारण से दीखने वाले ये कलाकार मंच पर आते तो जैसे जाग्रत हो जाया करते थे| इस तरह नाचा छत्तीसगढ़ की वह लोकनाट्य विधा रही है जिसने अपनी जमीन और शैली को विश्वस्तरीय यश दिलवाया|
ऐसी ही एक बड़ी लोकनाट्य विधा उत्तरप्रदेश और बुन्देलखण्ड की आंचलिकता में सदियों से व्याप्त नौटंकी भी है जो हाथरस, मथुरा, कानपुर आदि क्षेत्रों के रूप उनकी लोकसंस्कृति से जुड़कर उन्हीं शहरों के नाम से प्रचलित शैलियों के रूप में जानी जाती है| नौटंकी नत्थाराम से लेकर पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी के योगदान तक विस्तीर्ण है| इस धारा में कितने ही कर्मठ, गुणी, धुनी और निष्ठावान कलाकारों का आना हुआ और उन्होंने अपने अवदान से इस विरासत को यथासम्भव संरक्षित करने का काम किया| उनका संघर्ष, उनकी व्यथाएं और कठिनाइयां उनको ऐसे उत्कर्ष पर ले जाकर ठहराती है जहां वे हमारे लिए प्रेरणा बन जाते हैं| नौटंकी के कलाकारों में गुलाब बाई, कृष्णा बाई जैसी शीर्षस्थ कलाकारों के योगदान का स्मरण करना वास्तव में इस थाती के प्रेरणाव्यक्तित्वों का नमन करना है| नौटंकी की धारा राजस्थान तक गयी और वहां भी साधकों ने इसे अपनी शैली, अपनी परम्परा और अपनी आंचलिकता से समृद्ध किया| ऐसे महान कलाकारों में गिर्राज प्रसाद का नाम भी बड़े आदर से लिया जाता है| इसी प्रकार जिस तरह बुन्देलखण्ड में स्वांग की परम्परा है वैसे ही हरियाणा और राजस्थान में भी यह प्रचलित रहा है| वास्तव में गाथा नाट्य को लेकर एक पूरी की पूरी परम्परा जो देश ने अपनी आंचलिकता में लगभग उसी प्रवहमयता के साथ विस्तारित की है उसका ही परिणाम है कि लोकनाट्य या ग्रामीण नाट्य को लेकर अपनी आंचलिकता में इसको जीवित बनाये रखने के लिए धरोहर का काम किया है| हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड में ये लोक परम्पराएं अपने अलग ही खूबसूरत स्वरूप में विद्यमान हैं| दक्षिण में यक्षगान, कथकली, चण्डूभागवतम की प्रथा उसी गाथा नाट्य का समानान्तर पर्याय है जहां कलाकार पौराणिक आख्यानों को आधार बनाकर कठिन साधना के साथ प्रस्तुति को मंच पर लाते हैं| उनका उपलब्ध और सीमित संसाधनों के साथ अपने चरित्र का विन्यास करना, श्रृंगार और रूपांकन करना जिसमें लगभग पूरा दिन ही व्यतीत हो जाता है और उसके बाद रात भर प्रदर्शन, ये परम्परा इतनी दुरूह, समर्पण से भरी और आनुष्ठानिक है कि कलाकार लोग श्रृंगार शुरू करने से लेकर प्रस्तुति होने तक कठिन व्रत तक रखते हैं| वे चरित्र की शुचिता और आध्यात्मसम्मत संस्कारों को इस तरह जीते हैं कि एक मंचन उनके लिए अनुष्ठान बन जाता है| यह सारा का सारा समर्पण इतना भावनात्मक होता है कि प्रस्तुति देखते हुए आदरपूर्वक नमन किए बिना रहा नहीं जाता|
भारत का लोकव्यापी रंगमंच, आधुनिक शहरी रंगमंच से पृथक ग्रामीण परिवेश में, उसकी सम्पूर्ण आंचलिकता में जो पहचान बनाता है, वह स्तुत्य है| हालांकि ऐसा संयोग बड़ी मुश्किल से उपस्थित होता है लेकिन भारत रंग महोत्सव जैसा संयोग, जिसमें बावजूद इसके कि सभी लोकनाट्य शैलियों या आंचलिक नाट्य परम्परा की भागीदारी हो पाना सम्भव नहीं होता, जितनी ग्रामीण, विभिन्न राज्यों से जुड़ी रंगप्रस्तुतियों की आमद होती है, हम अपने ही देश के लोकरंग वैभव से परिचित होते हैं| अनेकानेक राज्यों में लोकनाट्य परम्परा की एक जैसी स्थिति है| सभी के पास संसाधन सीमित हैं| सभी के पास आर्थिक कठिनाइयां हैं जो उनके जीवन के संघर्षों के साथ जुड़ी हैं लेकिन इसके बावजूद यदि ये समूह, ये कलाकार, ये लोकरंगकर्मी अपनी चेतना को, अपने लोक की रंगचेतना को जाग्रत किए रहते हैं तो इनका यह प्रयत्न, इनका यह कर्म, इनका यह पुरुषार्थ स्तुत्य है|