श्री दत्त दैवत- अवतार विशेष

बहुत अवतार हुए हैं, और समयानुसार समाप्त भी हुए हैं। परंतु दत्तात्रेय अवतार कभी न समाप्त होने वाला है।
भारतीयों को विशेषत: महाराष्ट्रीयन समाज में श्री दत्त उपासना का बड़ा महत्व है। प्राय: सभी घरों में श्री दत्तात्रेय भगवान का भजन-पूजन हर गुरुवार को होता है। ‘तीन सिर तथा छ: हाथ वाले’ श्री दत्तात्रेय की मूर्ति घरों में दिखाई देती है। उनके ग्रंथ श्री गुरु चरित्र, श्री दत्त प्रबोध आदि का पारायण घरों में होता है। अवतार तथा शिष्य परंम्परा में श्री गोरखनाथ, श्रीपाद यती, श्री नृसिंह सरस्वती, श्री वासुदेवानंद सरस्वती, अक्कलकोट के श्रीस्वामी समर्थ, शिरडी के साईनाथ महाराज आदि नाम प्रमुख रूप से हैं। स्थानों में नृसिंहवाडी, औदुंबर, गाणगापुर, माहुर, कारंजा आदि तीर्थस्थानों के रूप में जाने जाते हैं। ‘दिगंबरा दिंगबरा’, ‘जय दत्ता, जय गुरु दत्ता’ आदि भजनों के स्वर घरों में सुनाई देते हैं। ऐसे श्री दत्तात्रेय अवतार की बड़ी विशेषताएं हैं जिसका विवेचन-अध्ययन करने का प्रयास करेंगे।

सबसे पहली बात यह है कि थी दत्तावतार दूसरे अवतारों जैसे दुष्टों का नाश करके समाप्त होने वाला नहीं है। यह अवतार अपने उपदेश से संसार का उद्वार करते हुए चिरंजीव रहने वाला अवतार है। और एक विशेष बात यह है कि इस दैवत में ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन देवताओं का तथा उनके परम्पराओं की एकता है। जगत की रचना, पालन पोषण तथा संहार के लिए प्रसिद्ध देवताओं का एक रूप याने श्री दत्तावतार। श्री दत्त का अवतार ब्रह्मकुल में अत्रि ऋषि के आश्रम में हुआ था। सती अनुसया के पतिव्रत्य के कारण इस अवतार का विशेष महत्व है। श्रीराम, श्री कृष्ण, बुद्ध अवतार गृहस्थाश्रमी थे लेकिन श्री दत्तात्रेय भगवान अवधूत अवस्था में सर्वत्र संचार करने वाले वैराग्य का अनोखा उदाहरण है। श्री दत्तात्रेय भगवान ने किसी एक जाति या वर्ण का पुरस्कार नहीं किया बल्कि उनकी उपासना सभी धर्म व जाति के लोग जैसे किरात, मातंग, म्लेच्छ, शबरसुत आदि श्रद्धा से करते हैं। मलंग और फकीर के वेश में श्री दत्तात्रेय भगवान ने अपने भक्तों को दर्शन दिए हैं। श्री दत्तावतारी परम्परा में मुसलमान भक्तों की भी कमी नहीं है। अनेक पंथों जैसे वारकरी पंथ, नाथ पंथ, महानुभाव पंथ, रामदासी पंथ आदि श्री दत्त उपासना से जुड़े हुए हैं।

श्री दत्तात्रेय की मुख्य बात याने उनके समीप श्वान, गाय का होना तथा उनका औदुंबर में निवास। त्रिमुखी तथा एक मुखी श्री दत्तात्रेय भगवान की पूजा-उपासना के साथ उनके चरण-पादुकाओं की पूजा का महत्व है। गुरुवार श्री दत्त का वार माना जाता है। मार्गशीर्ष के पूर्णिमा को श्री दत्तात्रेय की जयंती मनाई जाती है।

ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि श्री विष्णु ही दत्तात्रेय के रूप में अवरित हुए हैं। यह अवतार दया तथा क्षमा से परिपूर्ण वेंदों की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला है। इन्होंने यज्ञ जीवन को जागृत किया, चतुर्वर्णों की उदासीनता को दूर किया और अधर्म तथा असत्य का नाश कर लोगों में शक्ति का संचार किया।
दत्त दैवत सनातन तथा अति प्राचीन है। करीब चौदहवीं सदी में श्रीपाद वल्लभ नाम से एक दत्त विभूति हुई थी। उन्हीं का एक अवतार याने श्री नरसिंह सरस्वती अवतार। इन दोनों ने महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में श्री दत्त उपासना का खूब प्रचार किया। उसके पूर्व भी याने ग्यारहवीं सदी में श्री दत्त परम्परा अर्थात महानुभाव पंथ की परंपरा कार्यरत थी। इस पंथ के आदि गुरु श्री दत्तात्रेय ही थे। इसके भी कई पूर्व नाथपंथियों ने श्री दत्त को आदि दैवत माना है। कहते हैं कि गोरखनाथ को श्री दत्तात्रेय का उपदेश प्राप्त था। याने मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि नाथपंथी श्री दत्तात्रेय से सम्बंधित हैं। श्री दत्त दैवत बहुत ही प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। अनेक पुरणों में भी इसका उल्लेख पाया जाता है।

श्री दत्त भगवान ने मंगल के रूप में दर्शन दिए थे, ऐसी एक कथा भी है। संत एकनाथ के गुरु श्री जनार्दन स्वामी देवगिरी किले के प्रमुख थे, जब कि उस समय मुगलों का राज्य था। अपने गुरु की सेवा करने के लिए संत एकनाथ भी अपने गुरु के साथ उस किले में रहते थे। एक बार उन्हें ध्यान आया कि उनके गुरु श्री जनार्दन स्वामी रात्रि के दो-ढाई बजे किले का दरवाजा खोल कर बाहर जाते हैं और सुबह होने के पूर्व वापस आ जाते हैं। संत एकनाथ को यह जानने की उत्सुकता थी कि गुरुजी रोज इतनी रात्रि को क्यों बाहर जाते हैं। इसलिए वे जिद करके गुरु के साथ बाहर गए। उन्होंने देखा बाहर एक मुस्लिम फकीर आता है और उनके गुरु उस फकीर से बातचीत करते हैं। उस फकीर के कपड़े फटे हुए मैले, बढ़ी हुई दाढ़ी, दुबला पतला शरीर तथा शरीर पर घाव तथा फोड़े। उसके हाथ में एक टूटा-फूटा बर्तन था। यह सब देख कर संत एकनाथ महाराज को घृणा हुई। लेकिन एकनाथ महाराज गुरु से संकोचवंश कुछ बोल न सके। एक दिन एकनाथ महाराज ने देखा कि वह फकीर उस टूटे-फूटे बर्तन में भिक्षा में मिला अन्न लेकर आया और जनार्दन स्वामी को खाने को दिया। जनार्दन स्वामी ने तो खाया ही, उन्होंने एकनाथ को भी खाने को कहा। एकनाथ को बहुत को्रध आया लेकिन वे गुरु को कुछ बोल न सके। उसी समय उन्होंने देखा कि फकीर के स्थान पर श्री दत्तात्रेय ने उन्हें दर्शन दिए। इस प्रकार श्री दत्तात्रेय भगवान का मलंग भी एक प्रकार का अवतार माना जाता है।

हम देखते हैं कि श्री दत्त के अवतारों की विशेषता यह कि उनमें कोई भेदभाव नहीं था, सभी जाति-धर्म के लोगों को उन्होंने समाहित किया था। मानव जाति के गुण दोषों को देखते हुए मार्गदर्शन किया था। याने हम कह सकते हैं कि श्री दत्तावतार सर्व धर्म समभाव को पुरस्कृत करने वाला है।

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