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व्यावहारिकता बनी विदेश नीति का मूलमंत्र

व्यावहारिकता बनी विदेश नीति का मूलमंत्र

by सरोज त्रिपाठी
in जून २०१७, सामाजिक
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इसमें कोई संदेह नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह सरकार के दौर की सुस्त पड़ी विदेश नीति को गतिशील बनाने का सराहनीय प्रयास किया है| लेकिन, मोदी जानते हैं कि भारत जब तक वैश्‍विक आर्थिक ताकत नहीं बनता तब तक भारतीय विदेश नीति की धाक नहीं बनेगी| समर्थ शक्तिशाली राष्ट्र बनाना हमारी पहली आवश्यकता है|

विगत २०-२५ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारी बदलाव आए हैं| सोवियत संघ का विघटन, गुटनिरपेक्ष आंदोलन का अप्रासंगिक होना, इस्लामिक स्टेट द्वारा अमेरिका को दी गई चुनौती, बिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला और ट्रंप का अमेरिका का राष्ट्रपति चुना जाना आदि ऐसी महत्वपूर्ण घटनांए हैं जिनका पूरी दुनिया की राजनीति पर असर पड़ा है| इन बदली हुई अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में स्वाभाविक है कि भारत की विदेश नाति में भी भारी बदलाव आए हैं|

भारतीय विदेश नीति की संरचना और रूपरेखा का रेखांकन प्रधानमंत्री द्वारा ही होता है| आजाद भारत की विदेश नीति की नींव रखने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि अंतत: विदेश नीति आर्थिक नीति का परिणाम होती है| इस तरह भारत की विदेश नीति, हमारे देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है| देश में राजीव गांधी सरकार के बाद से ही केंद्र में गठबंधन वाली लगभग सभी सरकारें अपने गठबंधन के सहयोगियों के सामने लाचार और मजबूर बनी रहीं| कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-१ सरकार के मुख्य घटक दल डीएमके का बार-बार तमिल मुद्दे पर श्रीलंका के लिए निर्धारित होने वाली विदेश नीति को प्रभावित करना इसका उपयुक्त उदाहरण है|

नरेद्र मोदी  ने २०१४ में तब सत्ता संभाली जब मनमोहन सिंह की सरकार आर्थिक मोर्चे पर पूरी तरह नाकामयाब, भ्रष्ट और पंगु हो चुकी थी| मनमोहन सिंह सरकार की विदेश नीतियां भी हर मोर्चे पर एकदम असफल हो गई थीं| चूंकि मोदी को सरकार चलाने के लिए किसी प्रकार की बैसाखी की आवश्यकता नहीं है, इसलिए उनकी सरकार की विदेश नीति को लेकर यह बात निश्‍चित तौर पर कही जा सकती है कि वह देशी-विदेशी दबाव से प्रभावित नहीं है|

मनमोहन की नीति में दूरदर्शिता और योजना का अभाव था| शायद इसका एक बड़ा कारण सत्ता के दो केंद्रों का होना भी था| ऐसे कई मौके आए जब डॉ. मनमोहन सिंह की विदेश नीति गठबंधन की मर्यादाओं और मजबूरियों के चलते बेहद कमजोर दिखी|

वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति की सबसे महत्वपूर्ण कसौटी पाकिस्तान है| केंद्र मे मोदी सरकार के सत्तारुढ़ होने के बाद भारत -पाक संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव आए| सीमा पार से आतंकी हमले की घटनाएं भी होती रहीं, लेकिन हाल के दिनों में सरहद पर पाक सैनिकों की दरिंदगी सारी हद पार कर चुकी हैं| जम्मू-कश्मीर के पुंछ जिले में स्थित कृष्णा घाटी सेक्टर में दो भारतीय जवानों के साथ जैसी बर्बरता पाकिस्तान ने दिखाई है, वह किसी भी निंदा भर्त्सना से परे है| शव का विरूपीकरण करने वालों को कोई अतिरिक्त कष्ट भले न पहुंचाता हो, जीवित लोगों के लिए इसमें नफरत और नृशंसता का खुला संदेश मौजूद होता है| ऐसा ही संदेश पाकिस्तानी सेना ने इस घटना के जरिए भारत को दिया है| इस दरिंदगी का जवाब मोदी सरकार कैसे देती है, इसका इंतजार पूरा देश बड़ी बेसब्री से कर रहा है| एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि पिछले कुछ समय से कश्मीर घाटी में अशांति का दौर चल रहा है| हिंसा और पत्थरबाजी से घाटी का जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया है| कई कारणों से हम कश्मीर के युवाओं को देश की मुख्य धारा से जोड़ने को लेकर अभी तक कुछ खास सफलता हासिल नहीं कर पाए हैं| इस समस्या का समुचित समाधान तो भारत सरकार को यथाशीघ्र ढूंढ़ना ही पड़ेगा|

पिछले दो दशकों में चीन-भारत रिश्तों में बहुत बदलाव हुआ है| आज, चीन भारत का एक प्रमुख कारोबारी सहयोगी भी है| चीन को एक वैश्‍विक शक्ति उसके आर्थिक ताकत के कारण माना जाता है| चीन, रूस और पाकिस्तान की एक नई धुरी का उभरना भारत के लिए चिंता का सबब है|

अब रूस भी चीन का प्रमुख शस्त्र आपूर्तिकर्ता देश है और रूस की ऊर्जा से चीन के कल-कारखाने चल रहे हैं| दोनों देशों के बीच तीन वर्षीय गैस आपूर्ति समझौता हुआ है जो अरबों डॉलर का है| इस तरह रूस चीन का महत्वपूर्ण सहयोगी बन चुका है| चीन के दबाव में पाक भारत को तंग करने के लिए नित नई चालें चल रहे है| पाकिस्तान इन दिनों चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को विवाद से बचाने के लिए जम्मू-कश्मीर राज्य के अभिन्न अंग गिलगित- बाल्टिस्तान की संवैधानिक स्थिति को बदलने और उसे अपना पांचवा सुबा बनाने के फिराक में है| पाकिस्तान की कोशिश एशिया में बन रही ईरान, रूस और चीन की अमेरिका विरोधी गोलबंदी का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की है| चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी तथा चीन की धमकियों की तनिक भी परवाह न करते हुए भारत ने दलाई लामा को अरुणाचल प्रदेश का दौरा करने दिया| भारत जानता है कि चीन की मौजूदा आर्थिक-रणनीतिक समझदारी में तिब्बत का मुकाम बहुत ऊंचा हो गया है| चीन की ज्यादातर फौजी और आर्थिक ताकत उसके पूर्वी -दक्षिणी समुद्रतटीय इलाकों में केंद्रित हो गई है| इसकी सुरक्षा के लिए उसने प्रशांत महासागर के नजदिकी इलाकों में फौजी अड्डे बनाने शुरू किए हैं| इसमें उसे बाकी दुनिया की तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा है|

दरअसल चीन तिब्बत को लेकर इतना डरा हुआ है तो उसकी कुछ ठोस वजहें हैं| आर्थिक नजरिये से निकट भविष्य से जुड़ी गतिविधियों और नेपाल के साथ व्यापारिक सामारिक रिश्तों की सफलता का चीन के लिए कोई अर्थ तभी बन पाएगा, जब तिब्बत में शांति- सौहार्द सुनिश्‍चित किया जा सके| उसकी तेल -गैस पाइपलाइन भी इसी क्षेत्र से गुजर रही है| चेंगड जैसे बड़े सैनिक अड्डे का दक्षिण पश्‍चिम एशिया पर प्रभाव भी तिब्बत के जरिये ही सुनिश्‍चित किया जा सकता है| यही कारण है कि चीन दलाई लामा की छोटी से छोटी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखता है और उनका साथ देने वाले देशों को भी निशाने पर लेने से नहीं झिझकता| भारत चीन की इस कमजोर नस को बखूबी जान चुका है| भारत को घेरने की कोशिश में चीन बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव, श्रीलंका आदि में अपने आर्थिक जाल फैला रहा है|

नई दिल्ली चाहती है कि चीन के पूर्वी हिस्से में उसका एक मजबूत साथी हो और वह इस भूमिका के लिए जापान को सभी तरह से उचित पाता है| अपनी आर्थिक और तकनीकी ताकत के चलते जापान समुचित भी है; क्योंकि तोक्यो और नई दिल्ली चीन की एक बड़ी सुरक्षा समस्या है| भारत और जापान ने पिछले साल नवंबर में ऐतिहासिक असैन्य परमाणु समझौता करके अपने रिश्तों को नई गर्माहट दी है| दोनों देशों के बीच परमाणु करार की बातचीत तो कई वर्षों से जारी थी, लेकिन फुकशिका परमाणु ऊर्जा संजय में २०११ में हुई दुर्धटना के बाद से जापान में राजनीतिक स्तर पर इसका विरोध हो रहा था| बहरहाल, जापान ने इस समझौते के लिए अपनी रजामंदी देकर जाहिर कर दिया है कि वह भारत को कितनी अहमियत देता है| यूं तो जापान से हमारी दोस्ती बहुत पुरानी रही है पर नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक चौखटों से आगे बढ़कर इसमें विश्‍वास और स्नेह की गर्माहट पैदा की है| एशिया में चीन के बढ़ते वर्चस्व कोे संतुलित करने के लिए भारत जापान समीकरण वक्त की जरूरत है|

भारत को यह बात अच्छी तरह मालूम है कि उसे वैश्‍विक ताकत का दर्जा तब तक हासिल नहीं हो सकेगा जब तक वह आर्थिक मोर्चे पा अपनी मजबूती नहीं दर्शाता है| संभवत: इसी कारण भारत ने गुटनिरपेक्षता के मामले पर व्यावहारिक रवैया अपनाया है| भारत चाहता है कि उसकी विदेश नीति प्रमुख रूप से आर्थिक हितों पर आधारित हो और यह आर्थिक हित उसे पश्‍चिमी देशों के साथ जाने के बजाय पूर्व की ओर देखने की नीति का समर्थन करते हैं| इस बात को अमेरिका और यूरोपीय देश भी मानते हैं कि वैश्‍विक अर्थव्यवस्था का भावी स्वरूप रशिया और प्रशांत महासागर के देश होंगे| अमेरिका भी एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपनी मौजूदगी को मजबूत बनाने के लिए बैचैन है क्योंकि वह हाल में यूक्रेन में रूसी दखलंदाजी रोकने में सफल नहीं हुआ है|

मध्यपूर्व एशिया की स्थिति अशांत बनी हुई है| इस इलाके में अमेरिका तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहता है क्योंकि वह इराक, लीबिया और सीरिया में बुरी तरह फंसा हुआ है|

भारत की परंपरागत समर्थक नीति के बावजूद भारत को अरब जगत में बहुत कम सद्भावना मिली है| अरब देश महत्वपूर्ण अवसरों पर भारत के खिलाफ राजनीतिक माहौल में शरीक होते हैं| इसकी काट के रूप में भारत इस्राईल से करीबी रिश्ता बनाने के लिए प्रयासरत है| प्रधानमंत्री मोदी संभवत: जुलाई में इस्राईल की यात्रा करेंगे| यह पहली बार होगा जबकि कोई भारतीय प्रधानमंत्री इस्राईल की यात्रा पर जाएगा| खास बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी इस यात्रा के दौरान फिलिस्तीन नहीं जाएंगे जैसा कि इसमें पहले जाने वाले भारतीय नेता करते रहे थे| आज इस्राईल तीसरा देश है जो भारत को सबसे ज्यादा हथियार आपूर्ति करता है| कुल मिलाकर आज इस्राईल के लिए भारत के रूप में रक्षा प्रौद्योगिकी का एक बहुत बड़ा बाजार उपलब्ध है और भारत के लिए इस्राईल के रूप में एक भरोसेमंद हथियार विक्रेता|

अफ्रीकी देशों पर चीन की धाक जमी हुई है| लेकिन भारत ने यहां पर अपना प्रभाव दिखाने की शुरुआत कर दी है| दिल्ली में हुई अफ्रीका शिखर परिषद को अपूर्व सफलता मिली थी| भारत के कई नेताओं (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री) तथा आला अफसरों ने अफ्रीकी देशों का सफल दौरा किया है| इसमें आगामी वर्षों में भारत तथा अफ्रीकी देशों मेंसंबध और प्रगाढ़ होने की संभावना है|

मोदी के समक्ष अमेरिका और रूस के साथ रिश्तों को मजबूत बनाने और दोनों को एकसाथ साधने की गंभीर चुनौती है| नई दिल्ली और मास्को के बीच सहयोग का एक लंबा इतिहास रहा है जो कि शीत युद्ध के शुरुआती वर्षों से हुआ था| इसमें मित्रता मजबूत करने के लिए भारत सरकार सतत प्रयत्नशील है| पिछले साल रूस के सहयोग से कुंडनकुलता की परमाणु भट्टी शुरू हुई| एशिया की समस्या पर तथा इस्लामी आतंकवाद के मसले पर भारत और रूस में मित्रता है| इन सबके बावजूद एशिया में पाकिस्तान, चीन, रूस और ईरान की अमेरिका विरोधी गोलबंदी की छाया भारत-रूस के संबंधों पर पड़ने की आशंका है|

डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अमेरिकी विदेश नीति को लेकर पूरी दुनिया में संभ्रम का माहौल है| अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने कहा था, ‘यदि मैं राष्ट्रपति चुना जाता हूं तो भारतीय और हिंदू समुदाय व्हाइट हाऊस में एक मित्र पाएंगे| इस बात की मैं आपको गारंटी देता हूं|’ लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने ‘बाय अमेरिका, हायर अमेरिकन’ की नीति को बढ़ावा देते हुए एच१बी वीजा जारी करने की प्रक्रिया के सख्त बनाने वाले आदेश पर दस्तखत किया है| औद्योगिक संगठन एसोचम के मुताबिक अमेरिका की सॉप्टवेयर इंडस्ट्री से जो एच१बी वीजा करीब ८६ प्रतिशत भारतीयों के लिए जारी होता है, अब वह घटकर करीब ६० फीसदी रह जाएगा| ऐसी स्थिति में भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों को न केवल बढ़ते खर्चों को करना पडेगा बल्कि उन्हें कई कर्मचारियों को नौकरी से निकालना पड़ेगा| न केवल अमेरिका और आस्ट्रेलिया बल्कि सिंगापुर, ब्रिटेन और न्यूजीलैंड समेत दुनिया के कई देशों में संरक्षणवादी कदमों के तहत वीजा पर सख्ती के फैसलों से जहां एक ओर इन देशों मे काम कर रहे भारतीय आईटी प्रोफेशनल की दिक्कतें लगातार बढ़ती जा रही हैं, वहीं भारतीय युवाओं के इन देशों में जाकर कैरियर बनाने के सपनों को भी ग्रहण लग गया है|

प्रधानमंत्री मोदी को नए सिरे से ग्लोबल डिप्लोमेसी में सबसे बड़ी चुनौती अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप से वैसी ही केमिस्ट्री कायम करने की है जैसी उन्होंने ओबामा के साथ बनाई थी| ट्रंप की एच१बी वीजा की नीति को लेकर भारत की चिंता से मोदी ट्रंप को किस तरह राजी करते हैं और अमेरिका की नई सरकार की प्रतिक्रिया किस तरह की होती है, इसी से भारत अमेरिका संबंधों का अगला अध्याय लिखा जाएगा|

पश्‍चिमी यूरोप के फ्रांस और जर्मनी जैसे देश भारत के करीब आए हैं| फ्रांस और जर्मनी अमेरिका की हां में हां मिलाने को तैयार नहीं हैं| ये दोनों देश भारत के प्रति मित्रता बढ़ाने को उत्सुक है| भारत और ब्रिटेन के रिश्तों में ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे की पिछले साल नवम्बर में संपन्न यात्रा से थोड़ी और मिठास घुल गई है| दोनों देशों ने मेक इन इंडिया, तकनीक हस्ताक्षर और नई संभावनाओं पर संयुक्त रूप से शोध करने के जरिए आपसी रक्षा सहयोग बढ़ाने का फैसला किया है| दोनों ऑनलाइन आतंक से निपटने के लिए एक सायबर सिक्योरिटी फ्रेमवर्क बनाएंगे|

इसमें कोई संदेह नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह सरकार के दौर की सुस्त पड़ी विदेश नीति को गतिशील बनाने का सराहनीय प्रयास किया है| लेकिन, विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी से और भी बड़े परिवर्तनों की इच्छा रखने वालों को निराशा हाथ लगेगी| प्रधानमंत्री मोदी जानते हैं कि आर्थिक मोर्चे पर अपनी मजबूती साबित किए बिना भारत एक वैश्‍विक ताकत का दर्जा हासिल नहीं कर सकता| अतः यदि मोदी कोई बड़े परिवर्तन करते हैं तो वे देश के घरेलू मोर्चे पर करने होंगे, विदेशी मोर्चे पर नहीं|

 

सरोज त्रिपाठी

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