हिंदी पत्रकारिता के जनक

एक जेब में पिस्तौल, दूसरी में गुप्त पत्र ‘रणभेरी’ और हाथ में ‘आज’ व ‘संसार’ जैसे पत्रों को संवारने, जुझारू तेवर देने वाली लेखनी के धनी पराड़करजी ने  जेल जाने, अखबार की बंदी, अर्थदण्ड जैसे दमन की परवाह किए बगैर पत्रकारिता का वरण किया| सरकार के विरोध में संपादकीय स्थान खाली छोड़ने के १९३० के उनके प्रयोग को १९७५ में आपात्काल के दौरान संपादकों की नई पीढ़ी ने दुहराया|

श्रीबाबूराव विष्णु पराड़कर हिंदी पत्रकारिता के जनक माने जाते हैं| उनकी पत्रकारिता राष्ट्रभक्ति और क्रांतिधर्म से अनुप्राणित है| उन्होंने हिंदी भाषा और पत्रकारिता को संस्कारित और समृद्ध किया| अनेक नए शब्द गढ़े| अंग्रेजी शब्दों के अवांछनीय बोझ से मुक्ति दिलाई| वे आजादी की लड़ाई के समर्थक ही नहीं, स्वयं योद्धा भी थे| मराठी भाषी होते हुए भी हिंदी सेवक के रूप में उनकी जीवन यात्रा अविस्मरणीय है| उनके मामा सखाराम गणेश देउस्कर ने भाषा के बीज उनमें बोये| देउस्कर बांग्ला भाषा के प्रख्यात लेखक रहे हैं| इसी कारण विभिन्न भाषाओं का ज्ञान उन्हें विरासत में मिला है| भाषा-ज्ञान के साथ समीक्षात्मक और चिकित्सात्मक दृष्टि भी उन्हें अपने मामा से ही मिली कहते हैं, जिससे उनका पत्रकारिता का जीवन गढ़ा और हिंदी पत्रकारिता को एक शलाका पुरुष मिल गया|

पराड़कर परिवार मूलतया महाराष्ट्र के कोंकण इलाके के सिंधुदुर्ग जिले की कणकवली तहसील के एक छोटे-से गांव पराड़ का है| वे मूलतया कुलकर्णी थे और पराड़ गांव के मूल निवासी होने से पराड़कर हो गए| उनके पिता विष्णु शास्त्री और माता अन्नपूर्णाबाई उन दिनों विद्या की नगरी काशी (वर्तमान वाराणसी) आकर बस गए| यहीं बाबूराव का जन्म मंगलवार १६ नवम्बर १८८३ में हुआ| संस्कृत की आरंभिक शिक्षा के बाद सन १९०० में उन्होंने भागलपुर से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की|

१९०६ में कोलकाता के ‘हिंदी बंगवासी’ में सहायक सम्पादक के रूप में उन्होंने पत्रकारिता में प्रवेश किया| छह माह बाद ही हिंदी साप्ताहिक ‘हितवार्ता’ के संपादक हुए और चार वर्ष तक वहीं रहे| किंतु वहां आत्मसंतोष न होने के कारण उन्होंने महान क्रांतिकारी अरविंद घोष संचालित बंगाल नेशनल कॉलेज में हिंदी और मराठी पढ़ाना आरंभ किया| सन १९१० में ‘हितवार्ता’ बंद पड़ गया| बाद में अगले वर्ष सन १९११ में ‘भारतमित्र’ के संयुक्त संपादक हुए जो उस समय साप्ताहिक से दैनिक हो गया था|

इसी बीच कोलकाता के एक पुलिस अधिकारी की हत्या हो गई और इस मामले में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया| साढ़े तीन साल वे नजरबंद रहे; लेकिन अंत में सबूतों के अभाव में अंग्रेजों ने उन्हें १९२० में रिहा कर दिया| बाद में वे कोलकाता से वाराणसी लौट आए| उसी वर्ष ५ सितम्बर को ‘आज’ का प्रकाशन आरंभ हुआ| पहले चार वर्ष तक वे संयुक्त संपादक, संपादक रहे और बाद में प्रधान संपादक बने रहे| १९४३ से १९४७ तक वे वाराणसी से निकलने वाले ‘संसार’ के संपादक रहे| कोलकाता की तरह काशी में भी उनका क्रांतिकारियों से निकट सम्पर्क रहा| वे युगांतकारी क्रांतिकारी संगठन के सक्रिय सदस्य भी थे|

सन १९३१ में हिंदी साहित्य सम्मेलन शिमला के अध्यक्ष चुने गए| सम्मेलन ने उन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से अलंकृत किया| गीता की हिंदी टीका और बांग्ला पुस्तक ‘देशेर कथा’ का हिंदी अनुवाद किया| सहज, सरल, सटीक छोटे-छोटे वाक्यों से विषय समृद्ध करना उनकी विशेषता थी| उन्होंने हिंदी को कई नए शब्द दिए| यह एक स्वतंत्र विषय है| केवल एक मिसाल प्रस्तुत है- अंग्रेजी शब्द ‘प्रेसीडेंट’ के लिए हिंदी प्रतिशब्द की| इसके लिए राष्ट्रप्रधान से लेकर राष्ट्रप्रमुख तक कई शब्द सुझाए गए| लेकिन पराड़करजी द्वारा सुझाया गया ‘राष्ट्रपति’ प्रतिशब्द तत्कालीन प्रधान मंत्री पं. नेहरू को भा गया और उसे मंजूरी मिल गई| यही शब्द आज प्रचलित है|

पराड़करजी के लोकप्रिय अग्रलेखों में हैं- चरखे का संदेशा, महात्मा गांधी की पुकार, क्रांतिकारियों की फांसी आदि| ‘चरखे का संदेशा’ में उन्होंने चरखा, एकता और अछूतोद्धार का संदेश घर-घर पहुंचाने का आग्रह किया है| ‘महात्मा गांधी की पुकार’ में उन्होंने गांधीजी के भाषणों को भारत की जिंदादिली का परिचायक कहा है| ‘क्रांतिकारियों की फांसी’ में उन्होंने सहज शैली में यथार्थ को प्रस्तुत किया है| निरंकुश अंग्रेजी साम्राज्य को निर्भीकता से चुनौती देने का सामर्थ्य उनके लेखों में हैं| १९ अक्टूबर १९३० से लेकर ८ मार्च १९३१ तक सरकारी नीति के विरोध में सम्पादकीय स्थान खाली रख कर वहां केवल यह वाक्य लिखा होता था- ‘‘देश की दरिद्रता, विदेश जाने वाली लक्ष्मी, सिर पर बरसने वाली लाठियां, देशभक्तों से भरने वाले कारागृह- इन सब को देख कर प्रत्येक देशभक्त के हृदय में जो अहिंसामूलक विचार उत्पन्न हों, वही संपादकीय विचार हैं|’’

सनद रहे कि पराड़करजी ने जो मिसाल कायम की थी, उसका देश के अखबारों ने आपात्काल के दौरान इस्तेमाल किया और कई दिनों तक अपने संपादकीय स्थान खाली छोड़े| बाद में इंदिरा गांधी की सख्ती के कारण संपादकीय छापने पड़े, लेकिन संपादकों ने किसी मंत्री-संत्री का नाम लिखना ही बंद कर दिया, केवल पद लिख कर संकेत कर दिया जाता था| इस तरह सम्पादकाचार्य पराड़करजी के सत्ता के प्रति विरोध के इस तरीके का इस्तेमाल ४५ साल बाद १९७५ में संपादकों की नई पीढ़ी ने किया| अंग्रेजों के जमाने में प्रेस पर पाबंदी के विरोध में जिस तरह पराड़करजी ‘रणभेरी’ नामक पत्र सायक्लोस्टाइल पर निकाल कर घर-घर बांटते रहे, उसी तरह का प्रयोग आपात्काल के दौरान भी सफलतापूर्वक दुहराया गया|

यह पराडकरजी की प्रतिष्ठा और सर्वमान्यता का प्रमाण है कि उन्हें हिंदी संपादक सम्मेलन का पहला अध्यक्ष चुना गया| समय की नब्ज पर उनका हाथ था और कल की आहट वे सुन लेते थे| इसका साक्ष्य १९२५ के वृंदावन हिंदी संपादक सम्मेलन के उनके अध्यक्षीय भाषण के उद्बोधन से पता चलता है| उन्होंने कहा था, ‘‘पत्र निकाल कर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनिकों तथा सुसंगठित कम्पनियों के लिए ही संभव होगा| पत्र सर्वांग-सुंदर होंगे, आकार में बड़ेे होंगे, छपाई अच्छी होगी,  मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्ज्तित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कलात्मकता होगी, गवेषणा होगी, मनोहारिणी शक्ति भी होगी| ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी| यह सब कुछ होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे| पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त और मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी| इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क माने जाएंगे|’’

हिंदी पत्रकारिता के भीष्म-पितामह पंडित बाबूराव विष्णु पराडकर भारत, भारती और भारतीयता के समर्पित साधक थे|… क्रांतिकारी के रूप में जीवन आरंभ कर उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में नवयुग का प्रवर्तन किया| खादी का सादा कुर्ता-पाजामा पहने, चश्मा लगाए, हाथ में छड़ी लिए और टोपी पहने शांत मुद्रा वाले हिंदी पत्रकार कला के आचार्य पंडित पराडकरजी के स्निग्ध व्यक्तित्व में प्रखरता, देशभक्ति ईमानदारी गहराई तक पैठ रखती थी| हिंदी के इस मूर्धन्य शीर्ष पत्रकार का १२ जनवरी १९५५ को वाराणसी में निधन हो गया| वे जीवन भर स्वच्छ पत्रकारिता के लक्ष्य को सामने रख कर जीते रहे| वे कहा करते थे-

 शब्दों में सामर्थ्य का भरें नया अंदाज|

 बहरे कानों को हुए अब अपनी आवाज॥

जबकि बाबूराव विष्णु पराड़कर को हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह, अर्थात हिंदी पत्रकारिता को दिशा देनेवाले व्यक्ति के रूप में जाना जाता है| पराड़कर का जिक्र आता है, तो उनके द्वारा संपादित समाचारपत्रों आज, संसार, हिंदीबंगवासी, भारतमित्र आदि का भी जिक्र आता है| उन्होंने जिस नगर में जीवन के अधिकांश वर्ष गुजारे, उस काशी का भी जिक्र आता है| लेकिन उनके पैतृक गांव का जिक्र कहीं नहीं आता| १९११ में राष्ट्रीय दूरदर्शन द्वारा उनपर बनाए गए एक वृत्तचित्र के फिल्मांकन में भी नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के पराड़कर निवास, पराड़कर स्मृति भवन, आज सहित कई और स्थानों का उल्लेख किया गया है| लेकिन उनके पैतृक गांव पराड का कोई चित्र इस वृत्तचित्र में भी नहीं दिखता| जबकि इस वृत्तचित्र का शोधकार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर के पौत्र एवं वरिष्ठ पत्रकार आलोक पराड़कर ने ही किया था| वास्तव में ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि पराड़कर की तीसरी या चौथी पीढ़ी में से कोई भी संभवतः पराड़ कभी गया ही नहीं है|

इसे संयोग ही कहेंगे कि पिछले वर्ष काशी के वरिष्ठ पत्रकार एवं काशी विद्यापीठ में पत्रकारिता विभाग के निदेशक रहे प्रोफेसर राममोहन पाठक जब किसी व्याख्यान के सिलसिले में महाराष्ट्र के जलगांव स्थित उत्तर महाराष्ट्र विद्यापीठ गए तो उनकी मुलाकात मराठी अखबार सकाल में लंबे समय तक संपादक रहे ८३ वर्षीय एस.के.कुलकर्णी से हो गई| इस मुलाकात में जब महाराष्ट्र के कोकण का जिक्र आया तो प्रोफेसर पाठक ने कुलकर्णी से पराड़कर के गांव के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की| कुलकर्णी ने उस समय तो पराड गांव की भौगोलिक जानकारी से अनभिज्ञता जताई, लेकिन यह आश्वासन जरूर दिया कि वह इस बारे में जानकारी हासिल कर सूचित करेंगे| कुछ दिनों में एस.के.कुलकर्णी ने यह जानकारी हासिल भी कर ली| इसी वर्ष मार्च में प्रोफेसर पाठक पुनः एक व्याख्यान के लिए ही कोल्हापुर गए| वहां एस.के.कुलकर्णी भी आए थे| दोनों विद्वानों ने कोल्हापुर से ही पराड जाने की योजना बनाई और करीब-करीब १२५ किलोमीटर दूर पराड पहुंच भी गए| उन्हें इस कार्य में दैनिक पुढारी के प्रधान संपादक पद्मश्री प्रताप सिंह जाधव का भी सहयोग मिला| उन्होंने अपने कणकवली कार्यालय के जरिए प्रोफेसर पाठक एवं एस.के.कुलकर्णी को पराड तक पहुंचाने में मदद करवाई| पराडवासियों ने दोनों महानुभावों का बड़े उत्साह से स्वागत किया| वहां जाकर प्रोफेसर पाठक को पता चला कि अब गांव में पराड़कर के परिवार का कोई सदस्य नहीं रहता| यहां तक कि उनके घर का भी कोई नामनिशान नहीं है| हां, गांव के लोगों ने एक स्थान इंगित करते हुए यह जरूर बताया कि यहीं पराड़कर का पैतृक निवास हुआ करता था| गांव में कुछ वर्ष पहले तक पराड़कर के नाम पर एक प्राथमिक विद्यालय भी था| अब वह भी नहीं है| उसके स्थान पर जिला परिषद का एक स्कूल चल रहा है|

पराड गांव का दौरा प्रोफेसर पाठक के लिए जहां उत्साह जगानेवाला था, वहीं क्षुब्ध करनेवाला भी| उत्साह इसलिए कि उन्होंने हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह का पैतृक गांव ढूंढ लिया था| क्षोभ इस बात का कि उस गांव में पराड़कर जी की स्मृति का कोई चिह्न मौजूद नहीं है| जबकि हिंदी पत्रकारिता से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन तक पराड़कर जी का योगदान कम नहीं रहा| संभवतः इसी क्षोभ के वशीभूत होकर उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से पराड गांव में पराड़कर जी की स्मृति में कोई स्मारक बनाने का प्रयास किए जाने की चर्चा की| प्रोफेसर पाठक इस कार्य की अगुवाई मुंबई प्रेसक्लब को सौंपना चाहते थे| ताकि पराड में कुछ सार्थक काम हो सके| इसके लिए वह एक बार मुंबई प्रेसक्लब आकर उसके सचिव धर्मेंद्र जोरे से भी मिलकर गए| प्रेसक्लब इसके लिए सहर्ष राजी भी हो गया| प्रोफेसर पाठक ने इस पुण्य कार्य में काशी पत्रकार संघ को भी शामिल कर लिया| काशी पत्रकार संघ का कार्यालय ही पराड़कर भवन के नाम से जाना जाता है| स्वयं प्रोफेसर पाठक करीब ३४ वर्ष पहले इस संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं| उन्होंने उसी समाचारपत्र आज के साहित्य संपादक की भी जिम्मेदारी निभाई है, जिसके संपादक रहकर पराड़कर जी ने हिंदी पत्रकारिता को दिशा देने का काम किया|

पराड पहुँचने के लिए मुंबई से गोवा की तरफ जानेवाले ट्रेन से कणकवली रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है| सुपरफास्ट ट्रेनों के लिए यह गोवा के मडगांव से ठीक पहले का स्टेशन है| यहां से मुंबई करीब ४०० किलोमीटर पड़ता है, और गोवा सिर्फ १०० किलोमीटर| पराड पहुंचने के लिए कणकवली से भी नजदीक सिंधुदुर्ग रेलवे स्टेशन सिर्फ १५ किलोमीटर दूर है| लेकिन वहां सुपरफास्ट ट्रेनें नहीं रुकतीं|   कणकवली महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके नारायण राणे का गांव भी है| तरुण भारत के स्थानीय संस्करण के संपादक विजय शेट्टी के सहयोग से कणकवली शासकीय विश्रामगृह में स्नान-ध्यान एवं पराड तक जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था हो गई थी|

ग्रामसभा कार्यालय से करीब एक किलोमीटर दूर है वह स्थान, जहां कभी पराड़कर जी का घर हुआ करता था| आज वहां कुछ भी नहीं है| इस स्थान पर जाकर पता चला कि पराड़कर जी वास्तव में महाराष्ट्रियन कुलकर्णी ब्राह्मण थे| पराड गांव का होने के कारण उनको पराड़कर कहा जाने लगा| उनके खानदान के कुछ लोगों के घर आसपास बने हुए हैं| पराड के ही जिला परिषद संचालित प्राथमिक विद्यालय में ९९ वर्षीय वासुदेव देउजबले से मुलाकात हुई्| वासुदेव जी अपने साथ ढेर सारे कागज लेकर आए थे, जिनसे ये साबित होता था कि पराड़कर जी इसी गांव के मूल निवासी थी| कभी विदेश डाक सेवा में रहे देउजबले जी भी २० वर्ष से गांव में पराड़कर की स्मृति को पुनरुज्जीवन देने का प्रयास करते आ रहे हैं्| लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज भला कौन सुनता है| इसी उद्देश्य के लिए वहां हम लोगों को आया देख उनका चेहरा आज खिला हआ था|

करीब दो घंटे पराड में गुजारकर लौट रहे हम सभी के चेहरे भी खिले हुए थे| क्योंकि आज का हिंदी दिवस सार्थक रहा था| इस सार्थकता पर मुहर लगी १५ सितंबर को| जब हमारा यही शिष्टमंडल मुंबई प्रेसक्लब के सचिव धर्मेंद्र जोरे के नेतृत्व में मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस से मिलने पहुंचा| फड़नवीस को इस पुण्य कार्य का महत्त्व समझते तनिक देर नहीं लगी| उन्होंने आश्वस्त किया कि पराड़कर जी के गांव पराड में राज्य सरकार एक भव्य स्मारक अवश्य बनवाएगी| उन्होंने  स्मारक का स्वरूप निर्धारित करने की जिम्मेदारी हमारे शिष्टमंडल पर छोड़ते हुए हमें विदा किया|

 

 

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