गंगा का आर्थिक योगदान

मां गंगा का महात्म्य सिर्फ इस तथ्य से जाना जा सकता है कि ‘हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है’, वैश्विक स्तर पर यह बताने मात्र से लोगों को यह ज्ञात हो जाता है कि अमुक व्यक्ति भारतीय है। कवि पंडित हरेराम द्विवेदी जी ने अपनी काव्य पंक्तियों में व्यक्त किया है-मर्यादा है इस देश की पहचान हैं गंगा; पूजा, है धरम, दीन है, ईमान है गंगा।
गंगा मात्र एक नदी नहीं वरन हमारे देश की जीवनधारा हैं, वह करोड़ों लोगों की आजीविका का सहारा भी हैं। गंगा किनारे के निवासी चाहे किसी भी धर्म को मानने वाले हों गंगा को नदी नहीं बल्कि मां के रूप में पूजते हैं। क्योंकि सदियों से गंगा मैया ने उनको कभी भी जल की कमी नहीं होने दी। पृथ्वी पर सब को तारने एवं सब के पाप धोने आई मां गंगा ने अपने औषधि स्वरुप जल, समृद्ध जलीय जीव विरासत, उपजाऊ भूमि, खनिज भण्डार, रेत, बजरी, यातायात की सुगम व्यवस्था एवं विशाल जल राशि से सबका पोषण भी किया है। गंगा का मैदानी क्षेत्र विश्व का सर्वाधिक उपजाऊ तथा घनी आबादी वाला क्षेत्र है। यह दस लाख वर्ग कि.मी. तक फैला है। गंगा में संगम करने वाली प्रमुख सहायक नदियां यमुना, सोन, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, कोसी और सैकड़ों छोटी बड़ी उपसहायक नदियों का नेटवर्क, उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग को समृद्ध कृषि/आजीविका का अवसर प्रदान करता है।
गंगा देवभूमि उत्तराखंड के गंगोत्री से निकल कर २५२५ कि.मी. की यात्रा में पांच राज्यों- उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से गुजरती हैं। भारत का करीब सैंतालीस प्रतिशत उपजाऊ क्षेत्र गंगा बेसीन में है। करीब चालीस करोड़ लोग आजीविका के लिए किसी न किसी रूप में गंगा पर निर्भर रहते हैं, विशेषकर सिंचाई, उद्योगों के लिए पानी की उपलब्धता, मछली व्यापार, गंगा आरती, नौकायन, रिवर राफ्टिंग, टूरिस्ट गाइड, पर्यटन, नियंत्रित रेत खनन, मूर्ति एवं कुम्हार व्यवसाय हेतु चिकनी बलुई मिट्टी, स्नान पर्व, कुम्भ-अर्धकुम्भ आयोजन, प्रयाग में प्रति वर्ष माघ माह में कल्पवास, काशी में देव दीपावली महोत्सव, गंगा महोत्सव, घाटों की साफ़ सफाई, दर्शन-पूजा-पाठ, पुरोहित, अंतिम संस्कार आदि के लिए। अब इसी कड़ी में गंगा प्रदूषण निवारण तकनीकी उद्योग तथा गंगा जलमार्ग भी जुड़ गया है।
कुछ लोग बिजली उत्पादन को गंगा आधारित प्रमुख उद्योग के रूप में निरूपित करते हैं। परंतु इस हेतु बनाए जाने वाले बांध से पर्यावरणीय दृष्टिकोण से अविरल प्रवाह रूक जाता है, वनों, औषधियों, पशु-पक्षियों, मछलियों के निवासों एवं प्रवासों का नाश होता है, गाद जमती है, जल की गुणवत्ता समाप्त हो जाती है, भूस्खलन एवं भूमि क्षरण होता है। मक्खियों-मच्छरों के कारण महामारी फैलती है।
हिन्दू धर्मावलम्बियों में सदियों से चली आ रही मान्यता, गंगा किनारे अंतिम संस्कार एवं राख गंगा में प्रवाहित करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, के कारण अंतिम संस्कार ने एक प्रमुख आजीविका के स्रोत के रूप में स्थान ले लिया है। हर साल गंगा किनारे के शहरों के विभिन्न घाटों पर सालाना लगभग दो लाख शवों के अंतिम संस्कार का अनुमान है। महाशमशान के रूप में प्रसिद्ध होने के कारण लगभग तैंतीस हजार शवों का अंतिम संस्कार हर साल काशी में होता है और यहां लगभग १६ हज़ार टन लकड़ी शवों को जलाने में लगती है। इस प्रकार अंतिम संस्कार, राख प्रवाह, पिंडदान इत्यादि कार्यों से जुड़े लोगों के लिए गंगा आजीविका का प्रमुख सहारा हैं। इसी प्रकार विद्युत् शवदाह गृहों की स्थापना भी लोगों की आजीविका का साधन है।
आज भी ऐसे परिवारों की बड़ी संख्या है जो अपने धार्मिक संस्कार मुंडन, कर्ण छेदन, उपनयन, विवाहोपरांत गंगा पुजैया आदि गंगा किनारे करते हैं जिससे घाटों के किनारे पूजन सामग्री बेचने वालों, पुजारियों, नाविकों आदि को आजीविका प्राप्त होती है।
कुंभपर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष इस पर्व का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। मकर संक्रांति से महाशिवरात्रि तक कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।
पद्म पुराण के अनुसार प्रयाग में माघ मास में तीन बार गंगा स्नान करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। प्रति वर्ष कल्पवास प्रवास, ६ वर्षों में अर्धकुम्भ एवं १२ वर्ष में कुम्भ मेले के दौरान प्रयाग में गंगा किनारे बसाए जाने वाले तंबुओं के अस्थायी शहर स्वयं में लघु भारत को प्रतिबिंबित करता है। इस पर्व में होने वाली श्रद्धालुओं की भारी भीड़ से आजीविका के बेहतर अवसर प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार लोग देश विदेश से गंगा आरती एवं देव दीपावली महोत्सव देखने आते हैं। कहा जाता है कि काशी में अक्टूबर-नवम्बर माह में आयोजित होने वाले देव दीपावली एवं गंगा महोत्सव देखने के लिए होटल की बुकिंग जून माह में ही हो जाती है। सारी नावें पहले से ही बुक हो जाती हैं। इस प्रकार के धार्मिक सांस्कृतिक आयोजन से लोगों को भरपूर आजीविका प्राप्त होती है। वाराणसी के गंगा घाट एवं गंगा आरती विश्वप्रसिद्ध हैं एवं देश-विदेश के पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। जिससे घाटों पर पूजा पाठ से इतर विभिन्न आजीविका के अवसर जैसे, नौकायन, घोड़े वाले, खाद्य सामग्री बिक्री, योगा, मालिश वाले, टूरिस्ट-गाइड व्यवसाय आदि बढ़ रहे हैं।
मांझी समाज के लोग नौकायन एवं मछली पकड़ कर गंगा के माध्यम से अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं। गंगा को रिवर सिस्टम कहा जाता है जो कि भारत की सब से बड़ी रिवर सिस्टम है। गंगा रिवर सिस्टम में लगभग ३७५ मत्स्य प्रजातियां उपलब्ध हैं। उत्तर प्रदेश एवं बिहार में १११ मत्स्य प्रजातियां पाई जाती हैं। मछली के शौकिनों का मानना है की समुद्र से गंगा में आने वाली हिल्सा मछली का स्वाद कहीं भी और पकड़े जाने वाली हिल्सा मछली से ज्यादा अच्छा होता है। गंगा की धारा के विपरीत दिशा में तैरने वाली हिल्सा मछली अब अतीत की बात हो गई है। इसका प्रमुख कारण गंगा में गाद, कम गहराई एवं प्रदूषण की समस्या में वृद्धि होना बताया जाता है जिससे हिल्सा का पलायन बंगाल की खाड़ी की तरफ हो रहा है।
बंगाल से आए मूर्तिकार बिना गंगा की मिट्टी के दुर्गा प्रतिमा का निर्माण नहीं करते और यह परंपरा भी है कि माता की प्रतिमा में गंगा की मिट्टी का ही उपयोग किया जाए। इसके लिए वे बंगाल से गंगा की मिट्टी ट्रकों से मंगाते हैं। यहां गंगा नदी की मिट्टी काफी चिकनी और हल्की चमकीली होने की वजह से प्रतिमा में अलग ही चमक आती है। कुम्हार गंगा की बलुई मिट्टी से सुराही, घड़े, कुल्लड़ आदि बर्तनों का निर्माण करते हैं जो आज भी पर्यावरण एवं स्वास्थ की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है गंगा किस प्रकार से जनमानस के जीवन की गहराइयों से जुड़ी हैं। इसलिए तो गंगा को भारत वर्ष की आत्मा भी कहा जाता है। यदि गंगा विलुप्त हुईं तो इस धरा से सभ्यता का विनाश भी निश्चित है। अब हम गंगा जल परिवहन परियोजना के लाभ एवं हानि की समीक्षा करेंगे।
गंगा नदी से गुजरने वाले १६२० किलोमीटर लंबे इलाहाबाद-हल्दिया जलमार्ग को भारत में राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-१ का दर्जा दिया गया है। राष्ट्रीय जलमार्ग-१ राष्ट्रीय महत्व का जलमार्ग है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से होकर गुजरता है, गंगा से सटे क्षेत्रों की औद्योगिक ज़रूरतों को पूरा करने में योगदान देगा। इस जलमार्ग पर स्थित प्रमुख शहर इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, साहिबगंज, फरक्का, कोलकाता तथा हल्दिया है। परियोजना के अंतर्गत, वाराणसी (उत्तर प्रदेश), साहिबगंज (झारखंड) और हल्दिया (पश्चिम बंगाल) में तीन टर्मिनल स्थापित किए जाएंगे। वाराणसी, पटना, भागलपुर, मुंगेर, कोलकाता और हल्दिया में नौका सेवा का विकास, और पोत मरम्मत और रख-रखाव की सुविधाएं विकसित की जाएंगी। वाराणसी एवं साहिबगंज में काम शुरू किया जा चुका है। परियोजना से १,५०० से २,००० टन क्षमता के वाणिज्यिक जहाजों का परिवहन सुगम होने की संभावना है। इसे विश्व बैंक की तकनीकी और वित्तीय सहायता से आगे बढ़ाया जा रहा है। इससे आर्थिक विकास को गति मिलेगी और रोजगार सृजित होंगे। केवल उत्तर प्रदेश में इससे ५० हजार नए रोजगार सृजित होने का अनुमान है।
परन्तु इस सम्बन्ध में जहाजरानी मंत्रालय द्वारा जो प्रस्ताव दिया गया है उसके अनुसार यह लगता है कि इस परियोजना से गंगा के अस्तित्व पर ही भयावह संकट उत्पन्न होगा। प्रस्ताव के अनुसार, इलाहाबाद से हल्दिया तक १६२० कि.मी. के जलमार्ग को ६ वर्ष की अवधि में विकसित करने की योजना है। इसके लिए ४२०० करोड़ रुपये व्यय किए जाएंगे। १५०० टन वजनी मालवाहक एवं यात्री जहाज चलाने लायक क्षमता प्राप्त करने के लिए गंगा को तीन मीटर गहरा करने, इसकी चौड़ाई ४५ मीटर करने एवं गंगा में जलस्तर को बनाए रखने के लिए प्रत्येक १०० कि.मी. पर बैराज के निर्माण का प्रस्ताव है। दो बैराज के बीच मछली पालन किए जाने का प्रस्ताव है जिससे मांझी समाज एवं अन्य लोगों को रोजगार प्राप्त होगा। गंगा तटों पर लाईट एवं साउण्ड शो के माध्यम से पर्यटन को बढ़ावा दिया जाएगा।
विशेष आपत्ति यह है कि जहाजरानी मंत्रालय प्रत्येक १०० कि.मी. पर बैराज बना कर गंगा को तालाबों की शृंखला में परिवर्तित करना चाहता है। जहाजरानी मंत्रालय वस्तुत: इस सिद्धांत पर कार्य कर रहा है कि जल परिवहन, सड़क परिवहन की तुलना में सस्ता पड़ेगा। परंतु यदि हम बैराज के निर्माण एवं गंगा को गहरा करने की योजना के दुष्प्रभावों का सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय आकलन करें तो यह परियोजना कहीं अधिक मंहगी पड़ेगी।
विशेषज्ञों के अनुसार जहाजरानी मंत्रालय ने तो फरक्का बांध के अनुभव से भी सीख नहीं ली है, जिसके कारण वह सम्पूर्ण क्षेत्र वर्ष भर बाढ़, कटान एवं मछलियों की विभिन्न प्रजातियों पर संकट से ग्रसित रहता है। समुद्री मछलियां अब गंगा बेसिन के मैदानी क्षेत्र में नहीं आ पाती हैं। प्रत्येक १०० कि.मी. पर कृत्रिम बैराज बनाए जाने के कारण गंगा का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होगा। बैराज में प्रदूषक जमा होकर गंगाजल तथा आसपास के क्षेत्रों में भू-जल की अशुद्धता भी बढ़ाएंगे। प्रवाह रुकने, मच्छरों के पनपने से मलेरिया जैसी बीमारियां भी बढ़ेंगी।
नदी तल को गहरा करना पूरी तरह से अवैज्ञानिक व विध्वंसक कार्य होगा। नदी को गहरा करने से वह परत समाप्त हो जाएगी जो गंगाजल को उन दिनों के लिए रोक कर रखती है जब हमें जल की सर्वाधिक आवश्यकता होती है (अप्रैल से जून माह में)। नदी विशेषज्ञों के अनुसार नदी की ड्रेजिंग करने से नदी की गहराई तो बढ़ जाती है परंतु चौड़ाई कम हो जाती है साथ ही जल की मात्रा में कोई वृद्धि नहीं होती। गंगा को कितनी बार गहरा किया जाएगा? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। गंगा में बीचोबीच एक बार गहरा किए जाने के कुछ समय बाद गंगा स्वयं उन स्थानों को भर देंगीं जहां गहरा किया गया था। यदि किनारे पर गहराई बढ़ाई गई तो इससे व्यापक रुप से मृदा क्षरण होगा। यदि सरकार बार-बार ड्रेजिंग कराएगी तो यह अनवरत रूप से खर्चीला कार्य भी होगा। साथ ही जलीय जंतुओं पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। गंगा में जलयान चलाये जाने से प्रदूषक भार में अत्यधिक वृद्धि होगी जिसका प्रभाव जलीय जीवों पर क्या होगा? विशेषत: भागलपुर जिले में सुल्तानगंज एवं कहलगांव के बीच स्थित ५० कि.मी. लम्बाई में विस्तृत ‘विक्रमशिला गंगा डाल्फिन सेंचुरी’ पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसका भी आकलन किया जाना आवश्यक है। अत: स्पष्ट है कि गंगा में बैराज बनाकर जलयान चलाए जाने की परियोजना की सफलता के आसार वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत खर्चीला है, साथ ही इसके व्यापक दुष्परिणाम होंगे।
फिर भी इन सभी चिंताओं को दरकिनार करके यदि सरकार गंगा में जलयान चलाना ही चाहती है तो इसके लिए गंगा में प्राकृतिक रुप से जलस्तर बढ़ाए जाने की आवश्यकता है, तभी यह परियोजना सफल हो सकती है। इस हेतु भीमगौड़ा बैराज, हरिद्वार, नरोरा बैराज आदि से गंगा जल के अत्यधिक दोहन पर नियंत्रण लगाकर गंगा में जलस्तर को बढ़ाने के प्रयास किए जाने चाहिए न कि बैराजों की श्रृंखला बना कर। अत: गंगा को बचाने के लिए निर्मलता (प्रदूषण मुक्त करने) एवं विशेषत: अविरलता (पर्यावरणीय प्रवाह में वृद्धि) पर ध्यान दिया जाना प्राथमिक आवश्यकता है। गंगा बची रहेगी तभी हमारी संस्कृति, सभ्यता, अर्थव्यवस्था और हमारा समाज चिरस्थायी रह कर उन्नति कर सकता है।

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