हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
दीक्षा नेकी और पवित्रता की मिसाल

दीक्षा नेकी और पवित्रता की मिसाल

by धर्मेन्द्र पाण्डेय
in साक्षात्कार, हास्य विशेषांक-मई २०१८
0

प्रसिद्ध सेवाभावी संस्था ‘समस्त महाजन’ के गिरीशभाई शाह के भतीजे 24 वर्षीय ‘मोक्षेस’ ने जैन मुनि की हाल में दीक्षा ली। प्रस्तुत है मोक्षेस के सनदी लेखाकार (सीए) से मुनि बनने तक के सफर पर उनसे हुई बातचीत के महत्वपूर्ण अंश-

अपनी पारिवारिक पृष्ठिभूमि पर प्रकाश डालिए।

हमारे परिवार में बच्चों में धर्म एवं सेवा के संस्कार हमेशा से ही सिखाए जाते रहे हैं। कोई भूखा दिखें तो उसको भोजन खिलाना, कोई कुछ मांगें तो उसको खाली हाथ न जाने देना। ये संस्कार हमें हमारे परिवार से मिले हैं। हमारे व्यवसाय में यदि कोई जुड़ना चाहें तो उसे प्रशिक्षित कर एवं आर्थिक सहायता देकर उसकी मदद की जाती है। मेरी पहचान में ऐसे कम से कम 50 लोग हैं जो हमारे दादाजी से सीखकर अपना स्वयं का व्यवसाय संभाल रहे हैं। यह सब हम बचपन से देखते आए हैं। लेकिन परिवार में हमेशा यह भावना रही कि इतिहास में हमारे घर से किसी की दीक्षा नहीं हुई है। हम कई गुरुओं के सान्निध्य में रहते हैं। संतों की संगत हमें प्रेरित करती है; लेकिन हमारे घर से कोई संत न था। हमारे परिवार ने ऐसे संस्कार सब को दिए हैं कि आगे जाकर हम इस पथ पर जाएं और परिवार को नाम रोशन करें।

जैन मुनि बनने की प्रेरणा कहां से मिली?

मैंने एच आर कॉलेज से तीन साल की इंटर्नशिप पूरी की। मैंने सीए (चार्टर्ड अकाउंटेंट) किया पर तब तक मुझ में इस पथ पर जाने की हिम्मत नहीं थी कि मैं दीक्षा ले लूं। यह तो मालूम था कि नेक व पवित्र जीवन वही है, जिसमें चींटी के लिए भी सोचना है। अक्सर गुरुजनों से सुनते थे कि श्रेष्ठ देश रक्षा क्या है। राष्ट्र की रक्षा करनेवाले जवान तो श्रेष्ठ हैं ही; लेकिन किसी को हानि पहुंचाए बिना जीवन जीये तो वह भी अपने- आप में देश सेवा हो सकती है। सीए करने के बाद यह भावना दिन-ब-दिन बढ़ती गई। वैसे सीए करने के बाद मैंने व्यवसाय में भी ध्यान दिया। पिछले छह महीनों से मैं पूरी तरह से अध्यात्म की ओर झुका हुआ हूं।

जैन मुनि बनने से पहले की क्या प्रक्रिया होती है?

हमारे यहां एक साधना होती है जो लगभग हर कोई व्यक्ति करता है। इसमें 47 दिनों तक जैसे गुरू रहते हैं वैसा ही जीवन जीने का मौका मिलता है। उसे उपधान (उप मतलब पास में, धान अर्थात् रहना) कहते हैं। 47 दिन स्नान नहीं कर सकते, गाड़ी का इस्तेमाल नहीं कर सकते, मोबाइल का प्रयोग नहीं कर सकते, पूर्ण रूप से संसार से अलिप्त रहते हैं। यह साधना गृहस्थ जीवन जीनेवालों के लिए होती है। इसे जीवन में एक बार ही कर सकते हैं। मैंने वह साधना सीए के बाद की। यह साधना करने के बाद मुझे पूरी तरह विश्वास हो गया कि मैं यह जीवन अपना सकता हूं। साधना के दौरान खुद के लिए सोचने का समय मिलता है। उस साधना के बाद मुझे प्रेरणा मिली कि मैं भी मुनि बनने की राह पर जा सकता हूं।

मुनि बनने की क्या प्रक्रिया होती है?

सब से महत्वपूर्ण है कि आप किसके सान्निध्य में रहेंगे। बहुत सारे गुरु भगवान होते हैं; लेकिन उनमें से आपको एक गुरु चुनना पड़ता है। बाद में उनका आदेश लेते हैं कि आप मुझे पढ़ाएंगे? क्या आप मुझे अपने साथ रखेंगे? क्या मुझे आगे बढ़ाएंगे? जब उनकी सम्मति मिल जाती है तो फिर प्रशिक्षण शुरू होता है। अपनी निष्ठा पर निर्भर करता है कि कितना समय लगता है। मेरी दीक्षा शायद छह महीने के बाद होती; लेकिन मेरे परिवार के सहयोग और गुरु महाराज की मदद से मेरा प्रशिक्षण जल्दी हो गया। मेरे दादाजी 80 साल के हैं। इसलिए उनके हाथों से हो जाए, यही हम सब की इच्छा थी। साथ ही गुरु महाराज भी बड़ौदा आ रहे थे। उनका अगला चातुर्मास बड़ौदा में था; लेकिन अहमदाबाद में अच्छी तरह से कार्यक्रम हो जाए इसलिए छह महीने पहले ही दीक्षा ले ली। छह महीने का प्रशिक्षण भी रहा जिसमें ज्ञान-अभ्यास वगैरह हुआ। बहुत सारी चीजें होती हैं। परीक्षा भी लेते हैं लेकिन पता भी नहीं चलता कि परीक्षा ली गई है।

प्रशिक्षण के छह महीनों के दौरान किस तरह की दिनचर्या का पालन करना पड़ा?

उस समय पूरा प्रयत्न होता है कि जिन-जिन सांसारिक पदार्थों से जुड़े हुए हों उनसे अलग होने तथा जिम्मेदारियों को कम करने का प्रयास करें। मेरा बाकी का जो समय बचता था उसे स्वाध्याय में लगाता था। मेरे गुरुजी ने 25 अलग-अलग धर्मों का अध्ययन किया है। वैदिक धर्म, कुरान समेत तमाम धर्मों के सर्वांगीण ज्ञान का एक यज्ञ दिन-रात चलता रहता है। समय का पूरा फोकस पढ़ने, गुरू की सेवा करने, भक्ति करने में पर होता है। इन छह महीनों में, सब से महत्वपूर्ण जो सीख लेनी होती है वह है, गुरु जो बोलते हैैं उसको कितने अच्छे ढंग से स्वीकार कर पाते हैं। सामने नहीं बोलना, जोर से नहीं बोलना, अपने अहं को नीचे लाना, ये सब चीजें हैं जिन्हें इन छह महीनों में सीख सकते हैं।

आप किस जैन मुनि से प्रभावित रहे हैं?

मेरे गुरु जिन प्रेम विजय महाराज की उम्र 37 साल की है। उन्होंने 19 साल की उम्र में दीक्षा ली थी। दीक्षा लेकर उन्हें 18 साल हो गए हैं। उनसे मैं बहुत प्रभावित रहा हूं। पिछले तीन सालों से मैं लगातार उनके सम्पर्क में रहा हूं। उनके सान्निध्य में आने पर मुझे लगा कि मैं उनके साथ रहूंगा तो मेरे सारे दोष, अंहकार इत्यादि समाप्त हो जाएंगे। मेरी प्रगति का मार्ग सुगम हो जाएगा।

मैंने उन्हें अपनी इच्छाएं बताईं। साथ ही मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पास समय बहुत कम है क्योंकि परिवार में मैं सब से बड़ा हूं। उस समय तो मैं 22 साल का ही था। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि आप मुझे एक मौका दीजिए, मैं आपको अप्रसन्न नहीं करूंगा। अगर किसी भी समय आपको लगे कि मैं गलत जा रहा हूं तो मुझे फटकार दीजिएगा। पर आप मुझे अपने पास ही रखिए। आखिर उन्होंने अपनी सहमति दे दी।

जैन मुनियों के लिए ‘निर्ग्रंथ‘ शब्द का प्रयोग होता है। इसका क्या अर्थ है?

‘नि‘ का अर्थ हुआ ‘नहीं‘, जबकि ‘ग्रंथि‘ का ‘गांठ‘। इस प्रकार निर्ग्रंथ का शाब्दिक अर्थ हो जाता है- ‘किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं बंधना। घर का बंधन, नाम का बंधन, परिवार का बंधन। आपको परिवार से विमुख होना है। हर बंधन से मुक्त व्यक्ति मतलब निर्ग्रंथी। साधना के लिए जो बहुत सारी जरूरी बातें हैं। उनके लिए निर्ग्रंथ शब्द बहुत मायने रखता है; क्योंकि यहां आपको बंधन से मुक्त होना है।

मुनि बनने के पश्चात् परिवार से किस प्रकार का संबंध रह जाता है?

जहां हम होते हैं परिवार वाले वहां आने की भावना रखते हैं, मिलते भी हैं। लेकिन हमारी एक मर्यादा होती है मिलने की। बहुत समय तक नहीं मिल सकते। उनकी प्रसन्नता के लिए कुछ कहें, उन्हें कोई सलाह दें वहां तक तो ठीक है, पर आप किसी महिला का स्पर्श नहीं कर सकते। यहां तक कि मां का भी स्पर्श नहीं। भोजन लेने के लिए जिस तरह बाकी गृहस्थों के यहां जाते हैं, उसी तरह उस घर पर भी जा सकते हैं; लेकिन घर पर रुक नहीं सकते। भोजन भी घर पर नहीं खा सकते, बाहर जाकर ही खाना पड़ता है।

मुनि बनने के दौरान कौन-कौन सी विधियां की जाती हैं?

तीन दिनों का कार्यक्रम होता है। जिस प्रकार शादियों में मेंहदी की रस्म होती है उसी प्रकार इसमें भी पहले दिन मेहंदी लगाई जाती है। फिर कपड़े रंगने का कार्य होता है। शुभ भाव से कुंकुम द्वारा कपड़े रंगे जाते हैं। प्रवचन होता है और दीक्षा के अगले दिन अंतिम कुछ बातें होती हैं जैसे कि माता पिता के कुछ उद्गार, कुछ आशीर्वाद उनके बच्चे के लिए; क्योंकि उसके बाद वह उनका पुत्र नहीं रह जाता। वह समाज का पुत्र हो जाता है।

दीक्षा वाले दिन केशलोचन होता है। उसके बाद वेश परिवर्तन होता है। अंतिम स्नान होता है। उसके बाद स्नान नहीं कर सकते। लेकिन यह महसूस नहीं होता। मेरे बड़े गुरु को दीक्षा लिए 66 साल हो गए हैं फिर भी उनके बगल में बैठने पर उनके बदन से गंध नहीं, सुगंध आती है। यह पूर्णतया अध्यात्म का तेज है। उस दिन जीवन भर के लिए प्रतिज्ञा ली जाती है कि मैं किसी जीव को नहीं मारूंगा, कभी झूठ नहीं बोलूंगा, कभी चोरी नहीं करूंगा, ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा।

एक युवा विद्यार्थी एवं व्यवसायी से सीधे मुनि बनने से आप स्वयं में किस तरह के मानसिक परिवर्तन महसूस कर रहे हैं?
मैं स्वयं में बहुत परिवर्तन एवं आत्मिक शांति महसूस करता हूं। आज मेरी मनःस्थिति ऐसी हो गई है कि मैं किसी भी परिस्थिति को स्वीकार कर पा रहा हूं। परिस्थितियों को स्वीकार कर पाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। दुनिया उलट-पलट हो सकती है। कहीं पर कुछ भी कभी भी हो सकता है, लेकिन उस समय भी मन को स्वस्थ रखना ही मनुष्य का सर्वप्रथम कर्म है। अपना ही कुछ पूर्व का किया हुआ कर्म है जिससे अब ऐसा हो रहा है, यह बात मन में धीरे-धीरे स्थापित करनी है। यह सब मानसिक स्तर का खेल है कि आप किसी परिस्थिति को किस नजर से देख पाते हैं।

भविष्य में समाज के लिए किस प्रकार के कार्य करने की इच्छा है?

मैंने समाज के लिए एक लक्ष्य बनाया है। आज से 200 साल पूर्व हमारे भारतवर्ष में बहुत ज्यादा संख्या में गुरुकुल थे। पर वर्तमान समय में बहुत बदलाव आ गया है। वर्तमान शिक्षा पद्धति विद्यालयों के रूप में आ गई है जहां काफी सारे बदलाव आने चाहिए, ऐसा मुझे लगता है। मैंने सीए की पढ़ाई की है। इससे पहले लगभग 20 साल मैंने विद्यालयीन पढ़ाई में लगाए। इन 20 सालों में शैक्षणिक विकास के स्तर पर बहुत कुछ हो सकता था, बशर्ते शिक्षा व्यवस्था अच्छी होती। उसमें से 80% ऐसा था, जो मुझे इस पूरे जीवन में कभी काम आने वाला नहीं है। समूचे पाठ्यक्रम में अध्यात्म, पुण्य, आत्मा जैसे शब्द मिले ही नहीं। अध्यात्म को पूरी शिक्षा व्यवस्था छूती तक नहीं है। अगर भगवान ने मुझे सामर्थ्य दिया तो मैं शिक्षा क्षेत्र में अपना योगदान दूंगा और जितना भी हो सके भारत की शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाने की कोशिश करूंगा। शिक्षा सिर्फ परीक्षा के लिए पढ़ने की चीज नहीं है। व्यक्ति को जीवन पर्यंत काम आ सके इस तरह की शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है। मैं कुछ ऐसे ही बदलाव लाने की कोशिश करूंगा।

मुनि के तौर पर आपके लिए क्या नियमावली होगी?

पहली बात तो यह कि मुनि बन जाने पर अगले दिन के खाने की चिंता नहीं करनी है। कोई साधन सामग्री पास नहीं रखनी है। पैदल ही जाना है। गाड़ी का उपयोग वर्जित रहेगा। मात्र दो जोड़ी कपड़े, भोजन के लिए पात्र रखने हैं, पढ़ने की किताबें रखनी हैं, पानी के लिए कमंडल और सोने के लिए बिछौना। ये सब खुद उठाना है, किसी और को नहीं कह सकते उठाने के लिए। हां, जो बहुत बुजुर्ग हैं, वे अपना सामान किसी और से उठवा सकते हैं।

आप 21वीं सदी के युवा हैं। आपके अनुसार, क्या वर्तमान युग की कुछ सामग्रियों का भी मुनियों के जीवन में प्रवेश होना चाहिए?

मेरे हिसाब से संन्यासी के लिए इन सब चीजों का कोई महत्व नहीं है। ये सब गृहस्थ के लिए आवश्यक हो सकता है, पर संन्यासी के लिए नहीं। मैं और आप, दोनों युवा हैं। हम दोनों बखूबी समझ सकते हैं कि मोबाइल फोन किसी संन्यासी के लिए कितना खतरनाक होता है। ऐसा भी नहीं है कि ये संन्यासी पूरी तरह समाज से कट जाते हैं। यदि कोई संन्यासी गंभीर रूप से बीमार पड़ जाता है तो उसे वाहन द्वारा अस्पताल पहुंचाया जा सकता है। पर सामान्य स्थितियों में वह किसी वाहन का प्रयोग नहीं कर सकता। बीमार जन का बाकायदा इलाज भी हो सकता है। अगर व्यक्ति बीमार है, उसका समुचित इलाज नहीं हो पाता है तो उसका मन अपने स्वास्थ्य में ही अटका रहेगा और वह समाधि में मन नहीं रमा पाएगा।

संथारा पद्धति क्या है?

इस पद्धति का उपयोग करने वाला संन्यासी तब तक अन्न का त्याग करता है जब तक कि उसके शरीर से आत्मा साथ न छोड़ दे। एक तरह से यह इच्छामृत्यु है। शरीर को त्यागकर खुद ही मृत्यु की राह देखना ही संथारा पद्धति है। पर अब संथारा केवल दिगंबर सम्प्रदाय में ही किया जाता है। श्वेतांबर सम्प्रदाय में अब संथारा नहीं किया जाता।

अंतिम प्रश्न, भगवान महावीर के अलावा अन्य किस तीर्थंकर से आप बहुत प्रभावित रहे हैं?

भगवान महावीर तो हैं ही। परंतु उनके पश्चात् मैं 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथजी से काफी प्रभावित रहा हूं। उनका जीवन, उनके कार्य सिर्फ जैन धर्मावलम्बी ही नहीं बल्कि मनुष्य मात्र के लिए आदर्श हैं। उन्होंने ही चतुर्विध संघ की स्थापना की थी जिसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका होते हैं। वर्तमान जैन समाज इसी स्वरूप में है।

धर्मेन्द्र पाण्डेय

Next Post
अंडों पर एक्सपाइरी डेट की स्टैम्पिंग

अंडों पर एक्सपाइरी डेट की स्टैम्पिंग

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0