भ्रष्टाचार के सात दशक… सुशासन है समाधान

स्वाधीनता के बाद देश के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार बेहद हावी हो गया है। अनगिनत घोटाले हुए हैं। इसके मूल में कहीं हमारे दृष्टिकोण में चूक तो नहीं? भ्रष्टाचार को कैंसर की तरह नहीं देखना चाहिए, जो फिर फिर लौटेगा। इसकी बजाय भ्रष्टाचार को मोटापे की तरह देखा जाना चाहिए। इसके विरुद्ध संघर्ष कठिन और धीमा होगा, किंतु लगातार प्रयास से यह मोटापा घट सकता है। यही भ्रष्टाचार से मुक्ति का मंत्र है।

ड़ा ही बुनियादी प्रश्न है कि किसी भी राष्ट्र को महान कौन से गुण, कौन सी चीज /वजह बनाती है? शायद उसका किरदार। किसी भी राष्ट्र का किरदार होते हैं वहां के नागरिक। जो चुनते हैं अपनी सरकार। वह सरकार, जो बनाती है राष्ट्र के विकास का पथ, जो बुनती है नीतियों को मूर्त रूप प्रदान करने की संरचना, जो देती है, आने वाली नस्ल को गर्व करने की वजह। अर्थात नागरिक चरित्र ही बुनियाद है राष्ट्र के परम वैभवशाली होने की।

किंतु कभी-कभी, किसी-किसी कालखण्ड में कुछ शख्सियतें ऐसी भी हुई हैं जिनका अनुसरण पूरे राष्ट्र ने किया है जैसे महात्मा गांधी और स्वाधीनता के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू। शायद 15 अगस्त 1947 के बाद देश को महान बनाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी पं. नेहरू की ही थी। और यही ख्वाब उन्होंने मध्य रात्रि को लाल किले से अपने पहले संबोधन में पूरे मुल्क की आंखों में भी सजाए थे। हैरत है सुहाने ख्वाबों में डूबे देश की अभी खुमारी भी नहीं उतरी थी कि महान भारत अपने प्रथम राष्ट्रीय घोटाले से रूबरू हो गया।

जी हां, बात हो रही उस जीप घोटाले की, जिसकी सबसे बड़ी चोट सैन्य सशक्तिकरण की पहली कोशिश पर पड़ी। दरअसल 1948 में पाकिस्तानी सेना द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ शुरू हो गई और उसको रोकने के लिए भारतीय सैनिक जी-जान से जुट गए। उस वक्त भारतीय सेना को जीपों की आवश्यकता महसूस हुई तो जीपें खरीदने का भार वी.के. कृष्ण मेनन को, जो कि उस समय लंदन में भारत के हाई कमिश्नर के पद पर थे, सौंपा गया। जीप खरीदी के लिए मेनन ने ब्रिटेन की कतिपय विवादास्पद कंपनियों से समझौते किए और वांछित औपचारिकताएं पूरी किए बगैर ही उन्हें 1 लाख 72 हजार पाउण्ड की भारी धनराशि अग्रिम भुगतान के रूप में दे दी। उन कम्पनियों को 2000 जीपों के लिए क्रय आदेश दिया गया था किन्तु ब्रिटेन से भारत में 155 जीपों, जो कि चलने की स्थिति में भी नहीं थीं, की मात्र एक ही खेप पहुंची।

तत्कालीन विपक्ष ने वी.के. कृष्ण मेनन पर सन 1949 में जीप घोटाले का गंभीर आरोप लगाया था। उन दिनों कांग्रेस की तूती बोलती थी और वह पूर्ण बहुमत में थी, विपक्ष में नाममात्र की ही संख्या के सदस्य थे। विपक्ष के द्वारा प्रकरण की न्यायिक जांच के अनुरोध को रद्द करके अनंत शयनम अयंगर के नेतृत्व में एक जांच कमेटी बिठा दी गई। बाद में 30 सितम्बर 1955 को सरकार ने जांच प्रकरण को समाप्त कर दिया। केंद्रीय मंत्री जी.बी. पंत ने घोषित किया कि ’सरकार इस मामले को समाप्त करने का निश्चय कर चुकी है। यदि विपक्षी संतुष्ट नहीं हैं तो इसे चुनाव का विवाद बना सकते हैं।’

3 फरवरी 1956 के बाद शीघ्र ही कृष्ण मेनन को नेहरू केबिनेट में बिना विभाग का मंत्री नियुक्त कर दिया गया। ’समरथ को नहिं दोस गुसाईं’- इन घोटालों के कर्ता-धर्ताओं को कभी कोई सजा भी नहीं मिली। यदि उस समय ही 80 लाख रूपयों के जीप घोटाले के लिए उचित कार्रवाई हुई होती तो शायद देश में घोटालों के कभी न खत्म होने वाले दौर की शुरूआत ही नहीं होती।

खैर, अब जीप के बाद साइकिल घोटाले की बारी थी, जो साइकिल आयात घोटाले के रूप में सामने आया। 1951 में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के सचिव एस.ए. वेंकटरमण थे। गलत तरीके से एक कंपनी को साइकिल आयात करने का कोटा जारी करने का आरोप लगा। इसके बाद उन्होंने रिश्वत भी ली। इस मामले में उन्हें जेल भी भेजा गया लेकिन ऐसा भी नहीं था कि हर मामले में आरोपी को जेल भेजा ही गया। उसके बाद जो क्रम शुरू हुआ तो थमा नहीं।

1955 में बीएचयू फण्ड घोटाला, 1957 का हरिश्चंद्र मूंध्रा काण्ड, वर्ष 1960 का तेजा लोन घोटाला, आजाद भारत में पहली बार मुख्यमंत्री पद के दुरूपयोग के कारण 1963 में हुआ कैरो घोटाला, 1971 का नागरवाला काण्ड, 9 करोड़ रूपये से भी ज्यादा की हेराफेरी के आरोप वाली कुओ ऑयल डील, 1982 में अंतुले ट्रस्ट घोटाला, चुरहट लॉटरी काण्ड, 1987 का बोफोर्स घोटाला, जिसने राजीव गांधी से उनकी सत्ता ही छीन ली, 1991 में जैन हवाला डायरी काण्ड, वर्ष 1992 में शेयर बाजार में घोटाले का तहलका मचाने वाले शेयर दलाल हर्षद मेहता का बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज घोटाला, सुखराम काण्ड (1996) – एकमात्र मामला जिसमें हाई प्रोफाइल आरोपी को सजा हुई। चारा घोटाला, जिसमें लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद पशुपालन विभाग में हुए 950 करोड़ रूपये से अधिक के घोटाले की जांच 1996 में शुरू हुई।

खैर, तब तक देश 21वीं सदी में पहुंच चुका था। अब घोटाले कैमरे पर भी होने लगे थे और सीधे दुनिया ने इसे होते हुए देखा। इसका एक उदाहरण 2001 में संपन्न तहलका काण्ड है। एक मीडिया हाउस तहलका के स्टिंग ऑपरेशन ने यह खुलासा किया कि कैसे कुछ वरिष्ठ नेता रक्षा समझौते में गड़बड़ी करते हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण को रिश्वत लेते हुए लोगों ने टेलीविजन और अखबारों में देखा। इस घोटाले में तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज और भारतीय नौ-सेना के पूर्व एडमिरल सुशील कुमार का नाम भी सामने आया। बाद में जॉर्ज ने इस्तीफा दे दिया। वर्ष 2003 में 30 हजार करोड़ रूपये का स्टाम्प पेपर घोटाला सामने आया। इसके पीछे अब्दुल करीम तेलगी को मास्टर माइंड बताया गया। इस मामले में उच्च पुलिस अधिकारी से लेकर राजनेता तक शामिल थे। तेलगी की गिरफ्तारी तो जरूर हुई, लेकिन इस घोटाले के कुछ और अहम खिलाड़ी साफ बच निकलने में अब तक कामयाब हैं।

इसी कड़ी में दलित अस्मिता के संघर्ष का दम भरने वाली और उ.प्र. की मुख्यमंत्री मायावती का नाम 2003 में 175 करोड़ रूपये के ताज कॉरिडॉर घोटाले में आया, मामला इतना बड़ा था कि लोगों ने उन्हें दलित की बेटी की जगह दौलत की बेटी पुकारना शुरू कर दिया।

सत्यम घोटाला (2008), खाद्यान्न घोटाला (2010), हाउसिंग लोन स्कैम (2010), एस बैंड घोटाला (2010), आदर्श घोटाला (2010), 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला आदि ऐसे दर्जनों छोटे-बड़े घोटाले हैं जो भारत की कार्यपालिका और विधायिका के अनैतिक और भ्रष्ट चरित्र को प्रकट करते हैं। यही नहीं बिहार का टापर घोटाला और मध्यप्रदेश का व्यापम घोटाला यह बताने के लिए काफी हैं कि किस प्रकार डिग्रियां खरीदी और बेची जा रही हैं। यूपी का एनएचआरएम घोटाला यह बताने के लिए पर्याप्त है कि स्वास्थ्य विभाग को भ्रष्टाचार के वायरस ने किस हद तक संक्रमित कर दिया है। शायद तभी ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल अपनी रेटिंग में भारत का शुमार भ्रष्टतम देशों में करता है।

अब बात करते हैं सामान्य जन-जीवन की। जिसमें एक आम आदमी भ्रष्टाचार से पीड़ित होने से लेकर सहभागी बनने तक की भूमिका निर्वाहित करता है। यह कटु सत्य है कि किसी भी शहर के नगर निगम में रिश्वत दिए बगैर मकान बनाने की अनुमति तक नहीं मिलती है। एक जन्म प्रमाण पत्र बनवाना हो अथवा ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना हो, कोई लोन पास कराना हो अथवा किसी भी सरकारी विभाग में कोई भी काम करवाना हो, बगैर लेन-देन कोई राह नहीं निकलती है। पटवारी से लेकर कलेक्टर के कार्यालय तक पूर्णत: लिप्त हैं भ्रष्टाचार नामक सुव्यवस्थित, दुर्व्यवस्था में।

’ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल़’ केअनुसार रिश्वतखोरी के मामले में भारत एशिया भर में अव्वल है तथा गत वर्ष दो-तिहाई लोगों ने माना कि उन्हें सरकारी शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस, पहचानपत्र और अन्य जन उपयोगी आधारभूत सेवाओं के लिए भी सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देनी पड़ी। अंतरराष्ट्रीय ’फोर्ब्स’़ पत्रिका के अनुसार भी एशिया महाद्वीप के शीर्ष 5 भ्रष्ट देशों में भारत का स्थान सबसे ऊपर है व रिश्वत मांगने के मामले में पुलिस विभाग सबसे आगे है।

दरअसल ’भ्रष्टाचाऱ’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है ’भ्रष्ट + आचाऱ’ अर्थात ऐसा व्यवहार जो भ्रष्ट हो, जो समाज के लिए हानिप्रद हो। भ्रष्टाचार के मूल में मानव की स्वार्थ तथा लोभ वृति है। अब देखिए न, ज्यादा से ज्यादा धन जोड़ने की लालसा में अनेक चतुर सुजान, स्त्री के शरीर के प्रति पुरुष की आदिम भूख का इस्तेमाल करते पाए गए हैं। अनेक स्त्रियों ने भी प्रकृति द्वारा प्रदत्त सौंदर्य की शक्ति का उपयोग अपना या अपने आकाओं का उल्लू सीधा करने के लिए किया है। यह महज दुर्योग नहीं है कि बाबाओं से लेकर जिम्मेदार अफसरों और राजनीतिकों तक के कार्यव्यवहार पर इस जादुई डंडे के असर के ढेरों किस्से हैं।

बदलते वक्त में बैंक और घोटाला एक दूसरे के पर्याय बनते नजर आ रहे हैं। लगातार उजागर होते बैंक घोटालों की लंबी फेहरिस्त यह बयान कर रही है कि देश की बैंकिंग व्यवस्था में नीतिगत और क्रियान्वयन स्तर पर बड़ी खामियां व्याप्त हैं। पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) और रोटोमैक के बाद देश की सबसे बड़ी चीनी मिलों में से एक हापुड़ की सिम्भाऔली शुगर्स लिमिटेड और उसके अधिकारियों के खिलाफ करीब 110 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज होने के बाद, यह सवाल और सरबुलंद हो गया है।

लिहाजा आज आम आदमी यह सवाल पूछ रहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से बड़े-बड़े कारोबारियों को महज दो-तीन दिन में 280 करोड़ का लोन कैसे मिल जाता है? हालत यह है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण के सुझाव अनेक वित्त विशेषज्ञों द्वारा दिए जा रहे हैं। आखिर क्या कारण है कि आरबीआई, वित्त मंत्रालय, सीवीसी और अन्य लोग घोटाला होने के बाद ही क्यों जागते हैं? हम सिस्टम की विफलता का विश्लेषण क्यों नहीं कर रहे हैं? सरकार और इसकी नीतियों की भूमिका क्या है जो सिस्टम विफलताओं और घोटालों का कारण बनती है? हर्षद मेहता घोटाला, केतन पारेख घोटाला और इस प्रणाली में दुरुपयोग और कमियां होने के कारण एनपीए घोटाले हुए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार एनपीए में बड़े उद्योगों का हिस्सा करीब 70 फीसदी है। उद्योगों को दिए 100 रुपए के कर्जे में 19 रुपए डूब रहे हैं तो आम आदमी के महज 2 रुपए वह भी बाद में वसूल हो जाते हैं। उद्योगपति कर्जे लेकर आराम से विदेश भाग रहे हैं लेकिन बैंक से लेकर सरकार तक कुछ नहीं कर पा रही है। क्यों नहीं सरकार बैंक ऋण बकाएदारों के नामों को प्रकाशित करे और बैंकों को इन कंपनियों के निदेशकों के पासपोर्ट में वैसा जिक्र करने के लिए गृह मंत्री को लिखने का निर्देश दे ताकि वे देश से भाग न सकें। सवाल उठता है कि ये मामले आडिटर की पकड़ में क्यों नहीं आते या उसने इसे नजरअंदाज किया? दोनों स्थितियों में उसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए, क्योंकि उसकी आडिट पर ही सब कुछ निर्भर है। जिस दिन आडिटर की जवाबदेही तय हो जाएगी, और उन पर आपराधिक मुकदमें दर्ज होने लगेंगे, इस देश में घोटाले बंद हो जाएंगे। बोर्ड में आरबीआई व सरकार के प्रतिनिधि भी जाते हैं, इसलिए इस मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। क्या बैंकों में हस्तांतरण नियमों का कड़ाई से पालन किया जा रहा है?

कमोबेश कुछ ऐसे ही हालात रक्षा सौदों में भी हैं। हमारे रक्षा सौदों में निरंतर भ्रष्टाचार बढ़ रहा है और ये हमारे काले धन का बहुत बड़ा स्रोत बन गया है। गोपनीयता के आवरण में सैनिक अधिकारियों से कनिष्ठ छावनी कर्मचारियों तक सब जगह पैसे के आधार पर सौदे होते हैं, चाहे वे विमानों के हों, तोपों के या छावनियों में राशन-पानी पहुंचाने के। इसमें बड़े सैनिक अफसरों के साथ बड़े पैमाने पर नौकरशाही और राजनीतिक नेता भी शामिल हैं।

उपरोक्त वर्णित तथ्यों और आंकड़ों को देखने पर सहसा ही मन में यह सवाल कौंधता है कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार है या भ्रष्टाचार के लिए ही व्यवस्था का निर्माण किया गया था। क्या भ्रष्टाचार आधुनिक परिवेश की देन है या पूर्व में भी भारत की धरा पर इसका वजूद था? क्या भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं मिल सकती है? कौटिल्य के ’अर्थशास्त्ऱ’ में राजकीय कर्मचारियों (भृतकों) के भ्रष्टाचार पर विशद चर्चा की गई है तो यही जाहिर होता है कि सदियों पहले भी भ्रष्टाचार नीति नियामकों के लिए एक बड़ा सिरदर्द था। रही बात भ्रष्टाचार के समाप्त होने की, प्रारम्भ में कहा गया है कि नागरिक चरित्र से ही राष्ट्र के चरित्र का निर्धारण होता है। जो देश भ्रष्टाचार की सूची में निचले पायदान पर हैं वहां के नागरिकों के व्यवहार में दायित्वबोध की भावना भारतीय नागरिकों की तुलना में बेहतर होगी।

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