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बैंकिंग क्षेत्र की विकास यात्रा-अतीत, वर्तमान एवं भविष्य

बैंकिंग क्षेत्र की विकास यात्रा-अतीत, वर्तमान एवं भविष्य

by सतीश सिंह
in आर्थिक, चेंज विशेषांक - सितम्बर २०१८, तकनीक, सामाजिक
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भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की गौरवशाली परम्परा रही है; लेकिन वर्तमान में वह कठिन दौर से गुजर रहा है। सरकारी बैंकों में फंसे हुए कर्ज की समस्या विकराल है। डिजिटलाइजेशन के साथ धोखाधड़ी की घटनाएं भी बढ़ गई हैं। बैंकों के पास पूंजी की उपलब्धता घट गई है, जिसका अर्थव्यवस्था पर असर हो रहा है। सरकार ने बैंकों को उबारने के लिए इंद्रधनुष नाम से योजना बनाई है, लेकिन संकट कई गुना गहरा है।

अतीत-

बैंक ऑफ हिंदुस्तान को भारत का पहला बैंक माना जाता है, जिसकी स्थापना 1870 में की गई थी। भारतीय स्टेट बैंक देश का सबसे पुराना बैंक है। दूसरे पुराने बैंकों में इलाहाबाद बैंक और पंजाब नेशनल बैंक हैं, जिनकी स्थापना क्रमश: 1865 और 1895 में हुई थी। भारत में विदेशी बैंकों का भी एक लंबा इतिहास रहा है। वर्ष 1860 में कलकत्ता में फ़्रांस का एक बैंक काम कर रहा था। मौजूदा समय का एक प्रमुख विदेशी बैंक एचएसबीसी वर्ष 1869 में अस्तित्व में आ चुका था, जिसका आगाज कलकत्ता में हुआ था।

भारतीय स्टेट बैंक को पहले प्रेसीडेंसी बैंक कहा जाता था, जो तीन बैंकों का संयुक्त नाम था। प्रेसीडेंसी बैंक के तहत बैंक ऑफ कलकत्ता की स्थापना 1806 में कलकत्ता में हुई थी, जो कुछ समय के बाद बैंक ऑफ बंगाल में तब्दील हो गया था। अन्य दो प्रेसीडेंसी बैंक क्रमशः बैंक ऑफ बंबई और बैंक ऑफ मद्रास थे। इन तीनों बैंकों की स्थापना ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के एक चार्टर के तहत की गई थी। 1921 में इन तीनों बैंकों का विलय हो गया और नाम बदलकर इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया कर दिया गया। वर्ष 1955 में फिर से इसका नाम बदलकर भारतीय स्टेट बैंक किया गया। देश के आजाद होने के बाद भी 1959 तक यह निजी हाथों के नियंत्रण में रहा, जबकि 1921 से 1934 तक इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया देश के केन्द्रीय बैंक के रूप में काम करता रहा था। पूर्व में निभाई गई प्रभावशाली भूमिका को ध्यान में रखते हुए 1960 में भारतीय स्टेट बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया।

स्वतंत्रता पूर्व देश की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखने के लिए एक शीर्ष बैंक की जरूरत महसूस की गई और इस परिकल्पना के आधार पर 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई, जिसका राष्ट्रीयकरण 1 जनवरी 1949 में किया गया। कालांतर में सामाजिक समानता की संकल्पना को साकार करने एवं गरीबी पर काबू पाने के मकसद से 1969 में देश के 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। इस आलोक में फिर से 1980 में 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य था देश की आधारभूत संरचना को मजबूत करना, अर्थव्यवस्था को सबल बनाना, तेज विकास दर को सुनिश्चित करना, आम लोगों को बैंकों से जोड़ना आदि। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले देश में छोटे-छोटे अनेक निजी बैंक थे, जो अपने फायदे के लिए काम करते थे।

आम लोगों की पहुंच इन बैंकों तक नहीं थी। वे मूलतः कारोबारियों के लिए काम करते थे, ताकि वे ज्यादा मुनाफा कमा सकें। आम आदमी अपनी वित्तीय जरूरतों को पूरा कर सकें, इसके लिए सहकारी बैंक, भूमि विकास बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक आदि का आगाज किया गया।

इसी क्रम में लीड बैंक, स्व-सहायता समूह (एसएचजी), सरकार द्वारा प्रायोजित विभिन्न ऋण योजनाएं, लीड बैंक, जिला व स्टेट लेवल बैंकर्स कमेटी आदि की शुरुआत की गई।

वित्त वर्ष 1993-1994 के दौरान भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया अपने उत्कर्ष पर थी, लिहाजा उस वक्त निजी बैंकों की जरूरत महसूस की गई, जो भारत की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने में मददगार साबित हो सकते थे, क्योंकि उस समय 91 प्रतिशत बैंकिंग बाजार और 85 प्रतिशत कारोबार पर सरकारी बैंकों का कब्जा था। जाहिर है, ऐसे में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाती। इस आलोक में 1993-94 के बीच 10 निजी बैंकों को लाइसेंस दिया गया और पुनः 2003-04 में दो और निजी बैंकों को लाइसेंस दिया गया। बदलते परिवेश में भुगतान बैंकों को लाइसेंस दिया गया है। आने वाले दिनों में बैंकिंग के रंग-रूप में और भी बदलाव आने वाले हैं।

 

वर्तमान-

भुगतान बैंक:- सरकार की मंशा भुगतान बैंकों का विस्तार देश के दूर-दराज इलाकों में करना है, ताकि बैंकिंग सुविधाएं सभी लोगों को उपलब्ध कराई जा सके। उम्मीद यह भी की जा रही है कि यह बैंक सरकार की महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री जनधन योजना को अमलीजामा पहनाने में मददगार साबित होगा। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो भुगतान बैंक का मुख्य कार्य बैंकिंग सुविधाओं से महरूम लोगों को जरूरी बैंकिंग सुविधाएं उपलब्ध कराना है। इसके तहत मुख्य तौर पर चालू एवं बचत खाते में एक लाख रुपये तक की जमाएं स्वीकार की जाएगी।

डिजिटल बैंकिंग:- एक जमाना था जब लोगबाग निश्चित समय के अंदर बैंकिंग से जुड़े काम करने के लिए मजबूर थे। इस वजह से लोग बैंक के बंद रहने या बैंकिंग कार्य की समय-सीमा समाप्त हो जाने पर अमूमन अपना कार्य उधार लेकर करते थे। कभी-कभी पैसों की वजह से लोगों का समय से इलाज नहीं हो पाता था। कभी-कभार लोग उपचार के अभाव में मर भी जाते थे। भला हो डिजिटल बैंकिंग का, जिसने लोगों का जीवन आसान बना दिया। आज बैंक से पैसा निकालने के लिए न तो किसी को बैंक खुलने का इंतजार करना पड़ता है और न ही लंबी कतार में लगने की जरूरत होती है। अब डिजिटल बैंकिंग के कारण बैंकिंग देश-काल की सीमा से परे हो गई है। साथ ही, इसकी उपलब्धता 24 घंटे और 365 दिन हो गई है। उपयोग की सरल प्रक्रिया एवं अकूत फायदों की वजह से डिजिटल बैंकिंग लोगों के बीच बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। धीरे-धीरे लोग इसके उपयोग के आदि होते जा रहे हैं।

बैंकों का एकीकरण:- वर्तमान समय में भारतीय बैंकिंग क्षेत्र एक कठिन दौर से गुजर रहा है। सरकार, सरकारी बैंकों की मदद करना चाहती है, लेकिन उसके पास पूंजी की कमी है और वह चाहते हुए भी बैंकों की वित्तीय जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती है। ऐसे में बैंकों के पास विकल्प बचता है कि वह खुद से पूंजी की उगाही करें, लेकिन इस विकल्प के भी रास्ते बंद हैं। ऐसे में बैंकों के लिए एकीकरण ही एकमात्र विकल्प बचता है।

सरकारी पहल:- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कामकाज में सुधार लाने के लिए सरकार ने इंद्रधनुष नाम से एक सात आयामी योजना शुरू की है, जिसमें नियुक्तियां, बोर्ड ऑफ ब्यूरो, पूंजीकरण, तनावमुक्त माहौल का सृजन, सशक्तिकरण, जवाबदेही के ढांचे का निर्माण एवं सुशासन जैसे सुधारात्मक पहल शामिल हैं। मानव संसाधन से जुड़े मुद्दे और बैंक बोर्ड ब्यूरो के गठन के संदर्भ में सकारात्मक कार्य किए भी गए हैं। बैंकों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सरकार इंद्रधनुष 2.0 योजना के जरिये सार्वजनिक क्षेत्र के उधारदाताओं के लिए एक ऐसी कारगर योजना तैयार करना चाहती है, ताकि बैंक वैश्विक पूंजी पर्याप्तता मानदंडों एवं बासेल तृतीय के मापदण्डों का पूरी तरह से अनुपालन कर सके।

बैंकों में बढ़ती धोखाधड़ी:- पिछले 5 सालों में भारतीय बैंकों में धोखाधड़ी की 23,866 घटित घटनाओं में 1 लाख करोड़ रूपये से अधिक की राशि फंस गई है। वित्त वर्ष 2017-18 में बैंक धोखाधड़ी की 5,152 घटित घटनाओं में 28,459 करोड़ रूपये फंस गए, वहीं वित्त वर्ष 2016-17 में धोखाधड़ी की 5,000 घटित घटनाओं में 23,933 करोड़ रूपये फंस गए।

वित्त वर्ष 2015-16 के दौरान 4,693 मामलों में 18,698 करोड़ रूपये और वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान 4,639 मामलों में 19,455 करोड़ रूपये की धोखाधड़ी हुई, जबकि वित्त वर्ष 2013-14 के दौरान 4,306 मामलों में 10,170 करोड़ रूपये की धोखाधड़ी हुई।

बीते महीने सिंडिकेट बैंक के अध्यक्ष एस.के. जैन को 50 लाख रुपये के रिश्वत मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने गिरफ्तार किया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने नियमों से परे जाकर भूषण स्टील लिमिटेड को ऋण जारी किया था। इसके साथ ही देना बैंक और ओरियंटल बैंक ऑफ कामर्स के अधिकारी भी हेराफेरी में लिप्त पाए गए। सिंडिकेट बैंक रिश्वत मामले की जांच से कई गंभीर मुद्दे उभरे हैं, जिसमें लचर निगरानी तंत्र, भ्रष्टाचार और सरकारी बैंकों में ऋण स्वीकृत कराने में राजनेताओं की भूमिका आदि शामिल है।

हाल में धोखाधड़ी के तौर-तरीकों में बड़े पैमाने पर परिवर्तन आए हैं। बैंकिंग प्रणाली के डिजिटल होने से ऑनलाइन एवं कार्ड्स के जरिए धोखाधड़ी करने की घटनाओं में भारी बढ़ोतरी हुई है। इंटरनेट बैंकिंग की सुविधा लेने वाले खातेदारों के खातों का यूजर नेम एवं पासवर्ड हैक करके हैकर धोखाधड़ी कर रहे हैं। कार्ड्स के मामले में धोखाधड़ी करने वाले फोन करके ग्राहक से पासवर्ड एवं अन्य जरूरी जानकारियां हासिल करके धोखाधड़ी को अंजाम दे रहे हैं। देखा जाए तो तकनीक में बदलाव आने से बैंकिंग परिचालन डिजिटल राह पर तेजी से अग्रसर है। कार्ड्स, एटीएम, रिसाइकलर, आईटीएम, ऑनलाइन लेनदेन आदि से धोखाधड़ी की कार्यविधि में आमूलचुल परिवर्तन आया है।

भविष्य-देखा जाए तो बैंकिंग क्षेत्र का भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है, लेकिन चुनौती भी कम नहीं है। मौजूदा निजी बैंकों का प्रदर्शन भी सरकार एवं जनता की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका है। वर्तमान में बैंकिंग क्षेत्र असंख्य चुनौतियों का सामना कर रहा है।

वित्तीय समावेशन की संकल्पना को साकार करना ऐसी ही एक चुनौती है। नए बैंकों के लिए 25 प्रतिशत शाखाएं ग्रामीण क्षेत्र में खोलना आसान नहीं होगा। फिलहाल निजी बैंक ग्रामीण क्षेत्र में काम करने से बचते रहे हैं। इस क्रम में नए बैंकों के लिए बासेल-3 के प्रावधानों को पूरा करना भी आसान नहीं होगा, क्योंकि इसके लिए भारी पूंजी की जरूरत होगी, साथ ही साथ बैंकिंग क्षेत्र में व्याप्त जोखिम को कम करना होगा। भ्रष्टाचार ने बैंकों के काम-काज को बुरी तरह से प्रभावित किया है। कोबरा बेब पोर्टल ने बैंकों की जो तस्वीर दिखाई है, वह भयावह है। सूचना का अधिकार कानून, 2005 के बलबूते सरकारी बैंकों के काम-काज में कुछ हद तक पारदर्शिता जरूर आई है, लेकिन निजी बैंकों में अपारदर्शी तरीके से काम हो रहा है।

यह जरूरी है कि देश में चल रही भुगतान प्रणालियां अच्छी, एवं सुरक्षित हों। केंद्रीय बैंक धोखाधड़ी की घटनाओं को रोकने के लिए लगातार कोशिश कर रहा है। बावजूद इसके कार्ड्स एवं ऑनलाइन लेनदेन में धोखाधड़ी की घटनाओं में मुसलसल बढ़ोतरी हो रही है। बहरहाल, डिजिटल माध्यमों को सुरक्षित करने के लिए क्रेडिट, डेबिट, प्रीपेड कार्ड पर उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर सभी ऑनलाइन, आईवीआर, आवर्ती लेनदेनों के लिए बैंकों द्वारा अतिरिक्त प्रमाणीकरण करना अनिवार्य किया गया है। एटीएम से नकद आहरण के लिए भी पिन सत्यापन को आवश्यक बनाया गया है। कार्ड आधारित लेनदेन के लिए ईएमवी चिप एवं पिन प्रौद्योगिकी पर पूर्ण अंतरण से यह और भी सुरक्षित हो जाएगा। आधार-आधारित बॉयोमीट्रिक प्रमाणीकरण से भी स्थिति बेहतर हो सकती है। बढ़ते साइबर अपराध के माहौल में बैंक की आंतरिक प्रणाली को और भी मजबूत करने की जरूरत है, जिसमें कर्मचारी धोखाधड़ी का अंदेशा होने पर मामले को तुरंत सही प्लेटफॉर्म पर रख सके, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसे कर्मचारियों को पुरस्कृत करने से भी स्थिति में सुधार आ सकता है।

बढ़ते एनपीए ने बैंकिंग अर्थव्यवस्था का मटियामेट कर दिया है। एनपीए की आग से देश की अर्थव्यवस्था झुलस रही है। आज एनपीए और पुनर्गठित कर्ज की राशि 10 लाख करोड़ से भी अधिक हो चुकी है और बासेल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने के लिए भी बैंकों को अलग से अरबों-खरबों रूपये की जरूरत है। स्पष्ट है इतनी बड़ी राशि की व्यवस्था न तो सरकार करने में समर्थ है और न ही बैंक।

विकास दर में तेजी को कायम रखने के लिए विनिर्माण के क्षेत्र में गतिशीलता, औद्योगिक क्षेत्र में वृद्धि, विविध उत्पादों की बिक्री में तेजी, रोजगार निर्माण में बढ़ोतरी आदि की जरूरत है, लेकिन कर्ज नहीं मिलने के कारण कल-कारखाने बंद होने के कगार पर पहुंच गए हैं। दरअसल, पूंजीं की कमी की वजह से बैंक ऋण वितरण करने से परहेज कर रहे हैं। परिणाम स्वरूप मेक इन इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया आदि संकल्पनाओं को लागू करने की गति बहुत ही धीमी है।

 

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