यादों के झरोखे में

भारतरत्न पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हमारे बीच नहीं रहे; परंतु उनकी यादें, उनकी दूरदर्शिता, उनका आदर्श, उनकी राष्ट्रभक्ति, अपूर्व संगठन कौशल, उनकी प्रशासनिक क्षमता सदैव हमारे साथ रहेेगी। हम उनके दर्शाए मार्ग पर सदैव चलते रहेंगे।

मैं अपने आपको बहुत सौभाग्यशाली मानता हूं कि अटल जी के साथ कुछ पल बिताने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ। जब उनकी सरकार एक मत से गिर गई थी तद्पुरांत वे मुंबई पधारे थे। मुंबई के हम सब प्रमुख कार्यकर्ता उनके स्वागत के लिए एअरपोर्ट गए थे। उसके बाद उनकी स्वीकृती से उनके सानिध्य में कुछ समय हम सभी को चायपान करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वहां उन्होंने हम सब का परिचय लिया। जब मैंने बताया कि मैं संघ का स्वयंसेवक हूं एवं मूल स्वयंसेवक लखनऊ से हूं, तो उन्होंने मुझ से पूछा- लखनऊ की कौनसी शाखा से हो। मैंने शाखा का नाम बालासाहब देवरस-प्रभात शाखा बताया तो वे मुस्कुराये और कहा कि उस शाखा में तो मेरा बौद्धिक हो चुका है!

मैंने कहा- मुझे ज्ञात है, और इस बात का मुझे गर्व है। अटल जी अति प्रसन्न  हुए। उनके भाव से बहुत अपनापन लगता था। उन्होंने हम सब को संबोधित किया। बहुत ज्ञानार्जन हुआ। उन्होंने हम सब को मूलमंत्र दिया कि, “पद का लोभ कभी मत करना, पद बदलते रहते हैं, पद चले जाते हैं। मैं प्रधानमंत्री था, अब नहीं हूं; पर कार्यकर्ता हूं। यह वह पद है जिसे कोई छीन नहीं सकता।”

हम सब बहुत प्रभावित हुए। बौद्धिक बहुत प्रेरणादापक रहा। जीवन उपयोगी रहा। उसके बाद तीन बार अटल जी से भेंट हुई। भारतीय जनता पार्टी के महाअधिवेशन में महालक्ष्मी रेसकोर्स व दो बार बांद्रा में। प्रत्येक बार मुझ से कुशल मंगल पूछते तो मन प्रफुल्लित हो जाता था। मैं वह पल कभी नहीं भूल सकता जब 6 अप्रैल 1980 को बांद्रा के समता नगर रेक्लिमेशन मैदान में भारतीय जनता पार्टी के गठन के समय अपने प्रथम अध्यक्षीय भाषण में अटलजी ने कहा था, “अंधेरा हटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।” मैं उस सभा में उपस्थित था। वह अक्षरश: सत्य सिद्ध हुआ। अटल जी के जीवन काल में ही समस्त भारत भाजपामय हो गया। अटल जी अनंत हैं, उन पर लिखा जाए तो पूरा ग्रंथ तैयार हो जाएगा। फिर भी उनके कुछ प्रेरक प्रसंग यहां प्रस्तुत कर रहा हूं-

बात 1977  की है। जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी की निरंकुश सरकार को बुरी तरह परास्त कर केंद्र में सरकार बनाई। जनता पार्टी में जनसंघ भी शामिल था। मोराजजी देसाई प्रधानमंत्री और अटल जी विदेश मंत्री बने। विदेश मंत्री बनने के बाद जब पहली बार अटल जी अपने कार्यालय गए तो प्रवेश करते ही स्तब्ध रह गए। उन्हेें कुछ विचित्र सा लगा, समझ गए कि क्या गड़बड़ी हुई है। उन्होंने तत्काल विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से पूछा कि, “यहां सामने की दीवार पर जो खाली जगह दिख रही है, वहां पहले जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर थी, वह अब नहीं है। कहां गई तस्वीर?” (चूंकि अटल जी सन 1957 से ही सांसद थे इसीलिए मंत्रालय के भवनों में अक्सर आना-जाना लगा ही रहता था। उन्हें पता था कि कहां क्या है।) उत्तर में अधिकारियों ने बताया कि आपातकाल लागू होने के उपरांत मंत्रालय के लोगों में भी कांग्रेस के प्रति नफरत है, इसलिए क्षुब्ध होकर किसी ने बड़ी सावधानी वह तस्वीर हटा दी। इतना सुनना था, कि अटल जी बोले, “वह तस्वीर जहां भी हो, उसे फौरन ले आइए और यहां लगाइये। नहीं मिले तो नेहरूजी की कोई दूसरी तस्वीर लगाइये; मगर लगाइये जरूर।” थोड़ा खोजने पर वह तस्वीर मिल गई, उसे वहीं लगा दिया गया।

आपातकाल के उपरांत इंदिराजी के प्रति नफरत स्वाभाविक थी। क्या देवालय और क्या मंत्रालय- कड़वाहट प्रत्येक स्थान पर थी। चूंकि नेहरू सीधे इंदिरा जी से जुड़े थे इसलिए कांग्रेस के कुशासन का बदला किसी ने उस तस्वीर को हटाकर ले लिया। लेकिन अटल जी ने इसे अनुचित समझा। अटलजी तो अपातकाल के दौरान महीनों कारावास में रहे, लेकिन थे तो धर्मराज के समान। उनको उचित अनुचित के बीच की बहुत बारीक रेखा की भी बड़ी समझ थी। नेहरूजी के आलोचक होने बावजूद वे कई मसलों पर उनका बहुत सम्मान करते थे। अटल जी स्वत: कहते थे कि संसद का वातावरण तभी बनता था, जब नेहरू जी उपस्थित रहते थे।

1977 में जब संपूर्ण देश कांग्रेस की सत्ता-मृत्यु पर उत्सव बना रहा था तो उस उत्सव के समय भी अटल जी के पैर जमीन पर बने रहे, अपने सिद्धांतों पर अड़िग रहे। परंतु जब इन्हीं अटल जी ने अपने प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल (1999-2004) में संसद के सेंट्रल हॉल में अपनी प्रतिबद्धता के चलते स्वातंत्र्यवीर सावरकर की प्रतिमा लगाई तो विपक्ष (कांग्रेस) ने हंगामा खड़ा कर दिया। काश विपक्ष सन 1977  ही घटना से सबक ले पाता। विपक्ष को समझना चाहिए था कि जिस व्यक्ति ने कांग्रेस की मरणावस्था में भी विरोधी होते हुए कांग्रेस का सम्मान बनाए रखा, वह भला कैसे वीर सावरकर का चित्र लगाने को लेकर कोई अनुचित काम कर सकता है।

इंदिराजी की बोलती बंद

धर्मनिरपेक्षता को लेकर अटल जी ने लोकसभा में इंदिराजी की बोलती बंद कर दी। यह बहस 31 मार्च 1971 की है। बांग्लादेश अपने निर्माण की लड़ाई लड़ रहा था, और पाकिस्तान उस आंदोलन को बड़ी नृशंशता से कुचल रहा था। बहस के दौरान अटल जी ने कहा, “जब शांति को खतरा होगा, स्वतंत्र देशों की स्वाधीनता नष्ट होगी और उपनिवेशवाद को पुराने या नए रूप में लाने की कोशिश की जाएगी तब तब हमारी आवाज उठेगी। पूर्वी पाकिस्तान की जनता और वहां के लोकप्रिय नेता शेख मुजीबुर्रहमान को हमारा समर्थन है और अगर पूर्वी बंगाल की सरकार को मान्यता देने की मांग भारत के पास आती है तो उसे मान्यता देने में हमे संकोच नहीं करना चाहिए। हम शेख मुजीबुर्रहमान का अभिनंदन करना चाहते हैं। मजहब के आधार पर राष्ट्रीयता नहीं चलेगी यह पूर्वी बंगाल का सबसे पहला पाठ है।” तभी इंदिराजीं ने उन्हें टोक दिया। इंदिरा जी ने कहा, “आपको और आपकी पार्टी को इससे सीखना चाहिए।”

उत्तर में अटलजी ने बेमिसाल जवाब दिया, “जब देश का बंटवारा हुआ उस वक्त हमारी पार्टी भी नहीं थी। यदि हम इतने शक्तिशाली थे कि अपने जन्म से पहले ही हमने देश का बंटवारा कर दिया, तो इस अपराध को स्वीकार करने के लिए मैं तैयार हूं। मगर हमारे जन्म से पहले ही बंटवारा हुआ और जो बंटवारे के लिए जिम्मेदार हैं; मैं उनकी तरफ उंगली नहीं उठाना चाहता। धर्म के आधार पर जिनके सामने देश बंट गया, वे हमें किसी भी तरह की सीख नहीं दे सकते।”

आरक्षण का मुद्दा

आरक्षण जैसे बेहद संवेदनशील मुद्दे पर अटल जी के विचार सोचने के लिए बाध्य करते हैं। प्रसंग था जनता दल की वि.प्र.सिंह सरकार द्वारा अन्य पिछड़े वर्गों को 27% आरक्षण देने की घोषणा का। इस पर अटलजी की राय थी, “आरक्षण का कार्य सरकार ने इतनी जल्दबाजी और फूहड़ता से किया कि सरकार ने न  तो अपने समर्थक दलों को विश्वास में लिया और न ही देश में, नौजवानों में अनुकूल राय बनाने का प्रयत्न किया। इसके बावजूद यदि पहले दिन यह घोषणा कर दी जाती कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के साथ आर्थिक पिछड़ेपन को भी वह दिया जाएगा और सामाजिक दृष्टि से अग्रणी समझे जाने वाले वर्गों के नौजवानों को भी उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार नौकरियों में कुछ सुरक्षित स्थान दिए जाएंगे, तो आरक्षण विरोधी स्वर मुखर न होते। नौजवानों को संदेह हुआ कि अन्य पिछड़े वर्गों को 27% आरक्षण देने की घोषणा किसी सामाजिक न्याय की भावना से नहीं, बल्कि सत्ता कायम रखने की भावना से प्रेरित है।”

अटल जी ने कहा कि, “आरक्षण का मुद्दा इतना संवेदनशील है कि उसे बेहद संभलकर हाथ लगाने की आवश्यकता है। रोजगार के घटते हुए अवसरों और नौजवानों की बढ़ती अपेक्षाओं में संतुलन कायम रखना ऊंचे दर्जे की नीतिमत्ता की मांग करता है। यह कार्य न जाति द्वेष को हवा देकर पूरा किया जा सकता है और न ही इसे वोट की राजनीति से जोड़कर हल निकाला जा सकता है। इस प्रश्न पर जब तक एक राष्ट्रीय आम सहमति न हो तब तक इस चिंगारी से खेलना खतरनाक है।”

वाक्पटुता के जौहर

लोकसभा ने अटल जी की वाक्पटुता के जौहर देखे हैं। पूरी लोकसभा पंडित नेहरू को सुनती थी; पर वे अटल जी को सुनते थे। पंडित नेहरू और अटल जी के बीच एक अलग सियासी रिश्ता था। ये अटल जी ही थे जिन्होंने नेहरू जी को संसद में हिंदी में उत्तर देने के लिए विवश किया।

राष्ट्रसेवा करने वालों की पार्टी

कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अटल जी कहते थे, “भारतीय जनता पार्टी चुनाव में कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाली पार्टी नहीं है। यह 365 दिन चलने वाली पार्टी है, 365 दिन!

हमारी पृष्ठभूमि खुद को तपाकर राष्ट्रसेवा करने वालों की रही है, मानव सेवा करने वालो की रही है। सेवा में लोभ और सत्ता  मीलों पीछे है।

न टायर्ड, न रिटायर्ड

और एक वाकया है। मुंबई के शिवाजी मैदान में उस विराट सभा में उपस्थित अटल जी ने जब घोषणा की कि मैं अब राजनीति से संन्यास लेना चाहता हूं। अब आगे का काम दूसरी पीढ़ी संभालेगी। पूरी सभा में सन्नाटा छा गया। सभी स्तब्ध रह गए। प्रमोद महाजन उन्हें समझाने लगे। प्रमोद जी व अडवाणी जी का प्रयास सफल रहा।

कुछ समय उपरांत षण्मुखानंद हाल में अटल जी ने कहा “न मैं टायर्ड हूं, न रिटायर्ड हूं।”

मेरे जीवन में अटल जी को सुनने का यह अंतिम अवसर था। उसके बाद मैं अटल जी का भाषण प्रत्यक्ष न सुन सका। अब वे हमारे बीच में नहीं हैं। पर उनकी यादें हमारे साथ जीवनपर्यंत रहेंगी।

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