अटलजी से संवाद के दुर्लभ क्षण

“जब स्कूल में था तब मैंने अटलजी का ‘सपनों के भारत’ पर बौद्धिक सुना था। बाद में एक फौजी अधिकारी के रूप में विभिन्न अवसरों पर उनसे संवाद करने या उन्हें सुनने के दुर्लभ अवसर प्राप्त हुए। इस अंतराल में मैंने उनमें एक राष्ट्रपुरुष के दर्शन किए।”

जब मैं ग्यारहवीं कक्षा का विद्यार्थी था, तब सर्वप्रथम श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का भाषण प्रत्यक्ष सुनने का मौका मुझे मिला। 1957 में वाजपेयी जी चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे। उस सभा में उन्होंने मुद्दा उठाया था, ‘मेरे सपनों का भारत।’ मेरे सपनों का भारत जिसका मुकुट हिमालय है, हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएं जिसके मजबूत कंधे हैं, सतपुड़ा और विंध्याचल की पर्वत श्रृंखलाएं उसके मजबूत हाथ हैं, गंगा यमुना का पठार उसका वक्षस्थल है, खार घाट, बोरघाट, पश्चिमी घाट की श्रृंखलाएं उसकी जंघाएं हैं और जिस भारत को रोज हिंद महासागर अपने पानी से प्रणाम करता है, ऐसे भारत को हमें पुन: जागृत करना है, जीवित करना है। यह उनके सपनों का भारत है।

1999 में जब मैं लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर पहुंचा तब वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे। उनकी अध्यक्षता में पूरा मंत्रिमंडल शिलांग आया था। इसका उद्देश्य था- “आपकी सरकार आपके द्वार”। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने यह काम किया था। यह दुबारा कभी नहीं हुआ। उनके साथ उपप्रधान मंत्री तथा गृहमंत्री आडवाणी जी थे, वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा थे, रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस थे और पूर्वोत्तर भारत के सातों राज्यों के राज्यपाल और मुख्यमंत्री वहां आए थे। चूंकि लेफ्टिनेंट जनरल के रूप में मेरी पोस्टिंग पूर्वोत्तर भारत में थी, अत: मुझे भी बैठक में बुलाया गया था। बैठक के बाद खाना खाते समय मैंने उनसे कहा कि मैंने 1957 में आपका भाषण सुना था। तब अटलजी ने कहा, “अच्छा! जो मैंने कहा था क्या आपको अभी तक याद है?” मैंने कहा, “हां बिलकुल याद है। आपने मेरे सपनों का भारत विषय पर भाषण दिया था।” उन्होंने अत्यंत खिन्न मन से जवाब दिया, “पता है अब वहां की क्या हालत हो गई है। उस  मुकुट (हिमालय) पर शत्रु चीन का कब्जा हो गया है। गंगा-यमुना का  पानी आप पी नहीं सकते। वहां का वातावरण खराब हो गया है। विंध्याचल, सतपुड़ा की पर्वत श्रृंखलाओं पर नक्सलवादी उधम कर रहे हैं। और जो हिंद महासागर भारत के रोज चरण धोता था, उसी हिंद महासागर से आकर हमारे पड़ोसी देश के लोगों ने हमारे ही प्रधानमंत्री (राजीव गांधी) की हत्या कर दी।’‘ उन्होंने मुझसे पूछा, “मैं अब किस सपनों के भारत की बात करूं? क्या यही भारत मैंने सोचा था?” उनके शब्दों से उनकी मानसिकता, उनकी भावना का साफ पता चल रहा था किवे कितने व्याकुल थे। यह दर्शाता है एक महान व्यक्ति का अपने राष्ट्र के प्रति दृष्टिकोण तथा अपनत्व।

जब वे विदेश मंत्री थे उन्होंने पहली बार राष्ट्रसंघ में हिंदी में भाषण किया। उस समय वहां तुरंत अनुवाद करने वाले लोगों की व्यवस्था नहीं थी। तब वाजपेयी जी ने कहा, “मैं तो हिंदी में भाषण करूंगा। आप व्यवस्था कराइये।‘’ यह दर्शाता है कि यदि अपने राष्ट्र की ख्याति विदेश में करानी है तो राष्ट्रभाषा पर प्रभुत्व होना चाहिए। राष्ट्रभाषा ही हमें राष्ट्रीय मानसिकता के पास ले जातीहै। अपने राष्ट्र की बात जब हम अपनी राष्ट्रीय भाषा में करते हैं, तो उसका एक अलग महत्व होता है।

1998 में जब परमाणु परीक्षण करने वाले थे, तब मैं दिल्ली में था। मेजर जनरल के पद पर का काम रहा था। मा. अटल जी प्रधानमंत्री थे और डॉ. अब्दुल कलाम हमारे वैज्ञानिक सलाहकार थे। मुझे डॉ. कलाम साहब से महीने में दो बार मिलना पड़ता था और सेना के लिए जो युद्ध सामग्री चाहिए, मिसाइलें चाहिए या जो टेक्नॉलाजी चाहिए, उन तमाम चीजों के बारे में हम लोग बात करते थे। जब परमाणु बम का हमने परीक्षण किया तब वे स्वयं वहां पर मौजूद थे। उस समय डॉ. कलाम साहब ने संभवत: प्रधानमंत्री वाजपेयी जी से बात की होगी। वाजपेयी जी ने जो कहा वह मुझे अब भी याद है। उन्होंने कहा था, “यह हम बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है। अगर थोड़ी सी भी गड़बड़ी होती है तो उसके परिणाम अत्यंत भयंकर हो सकते हैं।” इन तमाम बातों का वे नीतिगत अध्ययन करते थे, क्योंकि 1994 में भी इस तरह की बात हुई थी, जब नरसिंह राव जी प्रधानमंत्री थे। तब भारत को परमाणु परीक्षण रद्द करना पड़ा था क्योंकि अमेरिका ने धमकी दी थी कि यदि परीक्षण किया गया तो वे हम पर आर्थिक प्रतिबंध लगा देंगे। अटल जी ने इसी बात का जिक्र किया कि अगर कोई गलती हुई तो परिणाम बुरे हो सकते हैं। अत: इस बार इतनी सावधानी बरती गई कि जब तक परमाणु परीक्षण नहीं हुआ तब तक अमेरिका को इस बात की भनक भी नहीं लगी। इसका मतलब यह है कि अगर भारत जैसे राष्ट्र को उचित नेतृत्व प्राप्त हो तो भारत जैसा राष्ट्र कुछ भी कर सकता है। परमाणु परीक्षण का पता जैसे ही अमेरिका को लगा, अमेरिका के राष्ट्रपति ने अपनी खुफिया एजेंसी सीआईए के बड़े-बड़े अधिकारियों को निकाल दिया। इसके बाद पूरे विश्व का भारत की ओर देखने का दृष्टिकोण बदल गया।

जब कारगिल का युद्ध हुआ तब भी अटल जी प्रधानमंत्री थे। और उस समय मैं लेफ्टिनेंट जनरल के रूप में चीन की सीमा पर कार्यरत था। उस समय रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस वहां आए थे। वे दो दिन मेरे साथ ही ठहरे थे। उस समय टेलिफोन पर रक्षा मंत्री जी की और वाजपेयी जी की बात हुई। तब उन्होंने कहा था कि, “भविष्य में भारत और पाकिस्तान के बीच अगर कुछ होता है तो चीन चुप नहीं बैठेगा। चीन जरूर पाकिस्तान की मदद करेगा।” मैंने उनसे कहा कि, “हम पूरी तरह तैयार हैं।” यह घटना बताने का उद्देश्य यह है कि राष्ट्र का नेतृत्व अगर भविष्य की चिंता नहीं करता तो राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता।

कारगिल युद्ध के समय वाजपेयी जी ने कहा था कि हम सीमाओं का उल्लंघन नहीं करेंगे। तब उन पर बहुत टीका-टिप्पणी हुई थी।  लोगों ने उनका मजाक उड़ाया। लेकिन उल्लंघन न करने के बहुत ठोस कारण थे जिनका वर्णन करना आज भी उचित नहीं होगा।  परंतु जब उन्होंने इस प्रकार का निर्णय लिया तो उसके पहले उन्होंने रक्षा मंत्री, गृह मंत्री आदि सभी से बात की और लेखाजोखा तैयार करके ही काम किया।

जब हम अपने राष्ट्रीय नेतृत्व की बुद्धिमत्ता को चुनौती देते हैं, तो हमें इस बात का विचार करना चाहिए कि ये करने के पीछे उनके  कुछ कारण हो सकते हैं जो हमें पता नहीं होते और वे कारण उजागर नहीं कर सकते। अगर उजागर किए गए तो उसके दुष्परिणाम अत्यधिक गंभीर हो सकते हैं। यही कारण था कि उन्होंने भारतीय सेनाध्यक्ष को आदेश दिया कि हमारा पहला लक्ष्य होना चाहिए पाकिस्तानी घुसपैठियों को निकाल फेंकना। इसीलिए इस मिशन को उन्होंने नाम दिया- ’ऑपरेशन विजय’।

अटल जी ऐसे एकमात्र प्रधानमंत्री थे जो बस से पाकिस्तान गए  और नवाज शरीफ ने उनका स्वागत किया। परंतु पाकिस्तान के तीनों सेनाध्यक्ष वहां नहीं आए। लेकिन उन्होंने इस बात का कोई बुरा नहीं माना। वरना औपचारिकता के नाते, शिष्टाचार के नाते वहां तीनों सेनाध्यक्षों का होना जरूरी था। अपने यहां जब कोई विदेशी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति आते हैं तो उनके स्वागत के लिए तीनों सेनाध्यक्ष वहां होते हैं। लेकिन अटल जी ने कोई आश्चर्य प्रकट नहीं किया। परंतु इस बात का जिक्र उन्होंने विदेश मंत्री से जरूर किया कि, ‘कहीं दाल में कुछ काला तो नहीं‘। वे कभी बोले नहीं, परंतु वे चौकन्ने तो थे ही।

कुछ ही समय के बाद मुशर्रफ ने शासन अपने हाथ में लिया। अटल जी ने मुशर्रफ को आगरा की शिखर बैठक के लिए आने का निमंत्रण दिया। इस बातचीत में मुशर्रफ ने जो प्रस्ताव रखे थे, उन्हें अटल जी ने नहीं माना। लोग बोलते हैं कि वार्ता विफल हुई लेकिन वार्ता विफल नहीं हुई। क्योंकि वार्ता समाप्ति के बाद जब मुशर्रफ पाकिस्तान वापस जा रहे थे तो उन्होंने पत्रकार परिषद को संबोधित किया। उन्होंने कहा, “भारत पाकिस्तान का मसला तो कल खत्म हो जाएगा, लेकिन जो आप चाहते हैं वह हम नहीं कर सकते हैं, और जो हम चाहते हैं वह आप होने नहीं देंगे।” इसका अर्थ यह हुआ कि अवश्य ही अटल जी ने उन्हें कड़े शब्दों में बताया होगा कि ‘आपकी मनमर्जी हम नहीं चलने देंगे।’ कुशल नेतृत्व का जब अभाव होता है तब उस अभाव के परिणाम उस राष्ट्र को भोगने पडते हैं।

9/11 का उदाहरण हमने अमेरिका में देखा। इतना बड़ा राष्ट्र है, उसे महाशक्ति कहते हैं और उनके कानों में भनक भी नहीं लगी कि उनके ऊपर हमला होने वाला है। वह हमला पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान से हुआ। उसी ओसामा बिन लादेन ने किया जिसे  अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से खड़ा किया। एक सामान्य इंजीनियर को इतना बड़ा दानव बना दिया। वे यह कैसे भूल गए कि यह दानव कभी उनकी तरफ भी देख सकता है। इसी बात पर अटल जी की कविता याद आती है-

हम पडाव को समझे मंजिल

लक्ष्य हुआ आखों से ओझिल

वर्तमान की मोहमाया में

आने वाला कल न भुलाएं

आओ फिर से दिया जलाएं

भारत को भी उससे सीखलेनी चाहिए। भारत जैसे राष्ट्र को मंजिल तक पहुंचने के लिए कम से कम बीस वर्षों की आवश्यकता है। उसके लिए हमें सार्थक नेतृत्व की आवश्यकता पड़ेगी। वैसा ही नेतृत्व जैसा अटलजी का था। अटलजी के नेतृत्व का जिन्होंने अनुसरण किया है, वह नेतृत्व हमें आज मिल रहा है। अटलजी ने जिस नेतृत्व को तैयार किया है उसी नेतृत्व के हाथों को हमें मजबूत बनाना है। तभी वे अटल जी के सपनों का भारत बना पाएंगे।

 

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