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आंतरिक सौंदर्य

आंतरिक सौंदर्य

by प्राची पाठक
in फैशन दीपावली विशेषांक - नवम्बर २०१८
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आंतरिक सौंदर्य का नजराना हमें भगवान से स्वाभाविक रूप से मिला हुआ है। जरूरत है उसे पहचानने की, स्वीकार करने की और उसे और समृद्ध बनाने की। इससे बड़ा सौंदर्य और कोई हो ही नहीं सकता।

मन सुंदर दिखें यह इच्छा अधिकतर सामान्यजनों के मन में स्वाभाविकत: होती है। बचपन में ही स्वत: का प्रतिबिंब आईने में देखकर प्रसन्न होने वाली छोटी- छोटी बच्चियों से लेकर अपना जूड़ा ठीक से बंधा है या नहीं यह आईने में देखकर स्वत: पर मुग्ध होने वाली दादी-नानी तक हर उम्र की व्यक्ति को स्वत: का प्रतिबिम्ब देखना, स्वत: के सौंदर्य की दूसरे तारीफ करें यह नैसर्गिक इच्छा होती है।

प्राचीन काल से शिल्प, चित्र, नृत्याविष्कार इ. यदि हम देखें तो शरीर के अवयवों की प्रमाणबद्धता, शरीर की सुंदर रचना यह सौंदर्य के मापदंड माने जाते थे। परंतु इन सबके साथ चेहरे पर दिखने वाले विविध भावों के तरंग, आंखों से प्रतिबिम्बित होने वाली जीवंतता से इस शिल्प, चित्र या अन्य किसी भी कलाविष्कार का सौंदर्य परिपूर्ण होता है। किसी देवता की बहुत सुंदर मूर्ति भी निष्प्राण लगती हो तो वह मन को संतोष नहीं दे सकती।

चित्र या शिल्प विषयक यह कसौटी व्यक्तियों पर भी लागू होती है। आजकल के प्रजेंटेशन काल या सेल्फी के प्रवाह में बाह्य रूप रंग को अति महत्व दिया जा रहा है। प्रसिद्ध कंपनियों के विविध उत्पादनों का उपयोग वेशभूषा, केशभूषा एवं मेकअप के लिए करके व्यक्ति ज्यादा आकर्षक किस प्रकार हो इसका ध्यान दिया जाता है। परंतु इतना सब करने के बाद भी व्यक्ति यदि शरीर या मन से स्वस्थ नहीं है तो ऐसा लगता है जैसे उसके सौंदर्य का लोप हो गया है।

इसका कारण यह है कि आंखों से दिखने वाला बाह्य शरीर  मनुष्य का समग्र व्यक्तित्व नहीं है। शरीर के सभी अवयवों की संरचना, बुद्धि अंत:करण, भाव-भावनाओं का एकत्रित अस्तित्व व्यक्तित्व कहलाता है। अंतरंग शरीर को दुर्लक्षित कर केवल बाह्य अंगों की ओर ध्यान देना याने मनुष्य के व्यक्तित्व का थोड़ा सा भाग देखने जैसा है, जो कई बार गलत साबित होता है। कई बार बाह्य अंगों के कारण अनाकर्षक दिखने वाली व्यक्ति मन से बहुत शुद्ध व निर्मल होती है। दूसरी ओर बाहर आकर्षक दिखने वाली व्यक्ति कलुषित अंतरंग की होती है। इसलिए महाराष्ट्र के प्रसिध्द संत चोखामेला कहते हैं- काय भुललासी वरलिया रंगा? अर्थात बाह्य रंग रूप से मनुष्य के विषय में अच्छा या बुरा दृष्टिकोण बनाने के पहले उसके अंतरंग को जानना आवश्यक है।

यह आंतरिक सौंदर्य निश्चित रूप से किस प्रकार का होता है? तो यह सौंदर्य है स्वास्थ, संस्कार, चारित्र्य, शुद्ध-सात्विक आचार विचार इ. का। यदि शरीर निरोगी है तो चेहरे पर अपने-आप तेजस्वी भाव परिलक्षित होते हैं। शुद्ध और निश्चित समय पर सेवन किया हुआ आहार, आवश्यक एवं जितना संभव हो उतने व्यायाम से शरीर स्वस्थ और सुदृढ़ बनाया जा सकता है। शरीर के साथ ही मन:स्वास्थ भी महत्वपूर्ण है। संस्कृत के एक सुभाषित के अनुसार, मन प्रसन्न तो जग प्रसन्न और यदि मन उदास तो जग उदास (चित्ते प्रसन्ने भुवनं प्रसन्नम्, चित्ते विषण्णे भुवनं विषण्णम) इसलिए मन को स्वस्थ रखने का सर्वोपरि प्रयत्न करना चाहिए। सकारात्मक विचार, तनावरहित मन इनके कारण मनस्वास्थ प्रसन्न रखा जा सकता है।

आजकल शरीर को चुस्त -दुरुस्त रखने के लिए आहार पर बहुत अधिक प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। युवा दिखने के लिए विविध मार्गों का अवलंब किया जा रहा है। इतना ही नहीं तो शस्त्रक्रिया के माध्यम से नाक, ओंठ इ. अवयवों का जन्मजात आकार भी बदला जा रहा है। परंतु इन सब प्रयत्नों के कारण शरीर और मन दोनों पर नकारात्मक परिणाम होने की संभावना भी होती है। इसके विपरीत जन्म से प्राप्त शरीर और उसके अवयवों को सुरक्षित रखना अंतर्गत सौंदर्य में बढ़ोत्तरी करने जैसा है। स्वत: के बाह्य रूप को एक बार यदि मनुष्य ने स्वीकार कर लिया हो तो बाहरी मेकअप के बिना भी किसी भी प्रकार की कमी को महसूस न करते हुए मनुष्य समाज का सामना कर सकता है। शारीरिक विशेषताओं के साथ कर्तृत्व की चमक भी मनुष्य के व्यक्तित्व में चार चांद लगाती है।

आंतरिक सौंदर्य को चमकाने वाला एक और घटक याने आध्यात्मिक साधना, जो व्यक्ति नियमित रूप से आध्यात्मिक साधना करता है, चाहे वह सगुण साकार ईश्वर की हो या निर्गुण निराकार विश्वनियंत्रक तत्व की हो, उसके चेहरे पर अलौकिक तेज दिखता है। उनकी इच्छाशक्ति एवं सकारात्मक विचारों का सौंदर्य उनकी भाव भंगिमाओं से सतत प्रतिबिंबित होता है। भारतीय चिंतन में शरीर को मंदिर मानकर आत्मा को उस मंदिर के परमेश्वर के रूप में माना जाता है। (देहो देवालयो देवी जीवो देव: सदाशिव:) इस परिकल्पना के अनुसार केवल मंदिर की सजावट न करते हुए देह के अंदर का परमात्मा प्रसन्न हो ऐसे स्वत: के विचार और आचार रखना आवश्यक है।

शरीर का सौंदर्य बढ़ाने वाले विविध प्रकार के आभूषणों की विपुलता एवं उनके संदर्भ प्राचीन साहित्य में बड़े प्रमाण में उपलब्ध है। परंतु साथ ही आंतरिक सौंदर्य को बढ़ाने के लिए दैवत्त एवं प्रयत्न पूर्वक प्राप्त सद्गुणों के अलंकारों का संस्कृत साहित्य में सुंदर वर्णन मिलता है।-

ऐश्वर्यस्य विभूषण सुजनता, शौर्यस्य वाक्संयम:

ज्ञान सो पशम: कुलस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्यय:।

अक्रोधस्तपस: क्षमा बलवंतां धर्मस्य निर्व्याज्यता

सर्वेजामपि सर्वकारण मिदं शीलं परं भूषणम॥

अर्थात ऐश्वर्य का गहना याने सज्जनता, पराक्रम का अलंकार याने वाचा-संयम (वाणी संयम), ज्ञान का शांति, कुलीनता का आभूषण नम्रता, संपत्ति का गहना याने सत्पात्र में विनियोग, तप का क्रोध पर नियंत्रण, बल का क्षमा, एवं धर्म को शोभनीय गहना ऋतुजा है।

शिशुपाल वध इस सुप्रसिध्द संस्कृत महाकाव्य में माधव कवि द्वारा प्रस्तुत सौंदर्य की व्याख्या, सौंदर्य की संकल्पना की ओर देखने का नया दृष्टिकोण पाठकों को देती है। माधव की उक्तिनुसार, ’‘क्षणे क्षणे यन्नवतामु पैति तदैव रूपं रमणीयताया:।अर्थात जो प्रतिक्षण नवीनता का अनुभव देता है वह सच्चा सौंदर्य। पानी यह एक ही वस्तु है परंतु गड़्ढों या नालियों में जमा काई युक्त पानी देखने की भी इच्छा नहीं होती। वही झरनों का गिरता पानी, जो आगे जाकर उबड़-खाबड रास्ते से बहने वाली नदी में परिवर्तित होता है, को देखना बहुत आनंद देता है। इसका कारण ग- ों में पानी जमा रहता है परंतु नदी का प्रवाह प्रतिक्षण नवीनता देता है। मनुष्य का भी वैसा ही है। जीवन में आशा -निराशा के दौर का सामना करते हुए, भूतकाल के नकारात्मक अनुभवों को भूलते हुए, स्वतः को वर्तमान काल से जोड़े रखने में, जिसे आज के युग की परिभाषा के अनुसार विचारों एवं ज्ञान से स्वत: को अपडेट एवं अपग्रेड करते रहना कहते हैं, सौंदर्य छिपा है। जो परिस्थिति सामने आती है उसे स्वीकार करना भविष्य की कठिनाइयों का सामना करने की तैयारी व साहस, प्रत्येक अनुभव से सकारात्मक संदेश ग्रहण करने की आदत यदि ये गुण स्वत: में समाहित किए  तो मन:शांति एवं समाधान का सौंदर्य हमेशा बना रहेगा।

इस संदर्भ में मारिया नामक स्त्री की कहानी है। वह हमेशा उदास तनावभरी जिंदगी के कारण निस्तेज रहनेवाली स्त्री थी। स्वाभाविकत: उसके चारों ओर के लोगों से व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक जीवन में उसे नकारात्मक एवं दु:खों को बढ़ाने वाले अनुभव मिलते रहते थे। उसकी दिनचर्या में कभी कोई बदलाव नहीं होता था। दैवयोग से एक दिन वह किसी दुकान में रखी एक टोपी की ओर आकृष्ट हुई। जब उसने वह हैट पहनी तो दुकान में उपस्थित दुकानदार एवं वहां उपस्थित अन्य दो ग्राहकों ने कहा कि उस पर वह हैट बहुत जंच रही है। मारिया खुश होती है एवं हैट निकालकर, काउंटर पर उसके पैसे चुकाकर काम पर जाने हेतु निकलती है। परंतु आश्चर्य! रास्ते से आने जाने वाले उसकी ओर आश्चर्य और कौतुहल से देख रहे हैं, ऐसा उसे प्रतीत होता है। इतना ही नहीं तो उसे ऑफिस में रोज मिलने वाले भी उसके साथ आदर और प्रेम के साथ बात करते हैं। एक हैट के कारण अपने जीवन में आनंददायक बदलाव आया है इसी खुशी में मारिया शाम को घर पहुंचती है। दरवाजा खुलते ही मां के चेहरे पर वह वैसा ही आश्चर्य महसूस करती है। मां भी मारिया में आया हुआ आश्चर्यजनक बदलाव ताड़ लेती है और उसका कारण पूछती है। हैट यह उत्तर देकर हैट दिखाने के लिए वह जैसे ही हाथ सिर की ओर ले जाती है तो उसे ध्यान आता है कि उसके सिर पर हैट तो है ही नहीं। तब  उसे याद आता है कि सुबह दुकान में काउंटर पर हैट के पैसे चुकाने के बाद हैट लेना तो भूल ही गई थी। पर फिर भी मारिया को रोज देखने वाले लोगों का उसके प्रति दृष्टिकोण कैसे बदल गया? इसका उत्तर यह है कि हैट सिर पर है एवं उसके कारण वह सुंदर दिख रही है यह आत्मविश्वास उसमें जागृत हो गया था। लोगों के उसके प्रति व्यवहार में बदलाव भी उसने अपने स्वयं के आंतरिक सौंदर्य को स्वयं में से व्यक्त होने दिया इसका परिणाम था।

आंतरिक सौंदर्य का नजराना हमें भगवान से स्वाभाविक रूप से मिला हुआ है। जरूरत है उसे पहचानने की, स्वीकार करने की और उसे और समृद्ध बनाने की।

प्राची पाठक

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