आदि काल से रानियों-महारानियों तक

फैशन हर समय रहा है, कोई भी काल रहा हो, कोई भी युग रहा हो, उस समय के अनुसार फैशन हुआ करता था। सजने और संवरने की इच्छा मानव सभ्यता का अभिन्न अंग रही है। सदियों से, स्त्री हो या पुरुष, सब स्वयं को सुंदर दिखाना चाहते हैं, यही लालसा फैशन की जन्मदाता रही है।

शन, अर्थात चलन, इसे प्रचलन भी कह सकते हैं। कोई भी कार्य, जैसे घर की सजावट हो या गीत-संगीत और नृत्य, खान-पान हो या रहन-सहन, बोल-चाल का तरीका हो या वेश-भूषा, यदि वह प्रचलन में है तो साधारणतया उसे फैशन का नाम दे दिया जाता है। जैसे आजकल के युवाओं में दाढ़ी रखने का फैशन चल रहा है।

एक समय था जब माता-पिता या अन्य बड़ों को तू या तेरा शब्द से संबोधित नहीं करते थे, तू शब्द को एक प्रकार से सामने वाले का अनादर करना मानते थे, किन्तु आजकल बच्चे माता पिता को तू और तेरा शब्द कहने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते, फैशन हो गया है ये। खान-पान का फैशन परिवर्तित हो गया है, अभी से दस-बारह वर्ष पहले कोई नहीं जानता था कि भोजन में स्टार्टर क्या होता है, लेकिन अब सप्ताहांत में होटल में खाने का फैशन है और खाना शुरू करते हैं स्टार्टर से, फिर अलग-अलग कोर्स आते हैं, फिर भोजन होता है, फिर डेजर्ट, तो ये सब होता है फैशन के नाम पर, आधुनिकता के नाम पर। लेकिन फैशन नाम से सर्वप्रथम जो अर्थ समझ में आता है वो है वेश-भूषा।

सदियों से विभिन्न तरीकों से स्वयं को आकर्षक बनाने के लिए जो क्रिया-कलाप किए जाते रहे हैं उन्हें उस समय के फैशन की संज्ञा दी जा सकती है। जैसे पौराणिक काल में फैशन था कि जो स्त्री और पुरुष चौंसठ कलाओं में पारंगत होगा वह सर्वश्रेष्ठ माना जाएगा। धर्म शास्त्रों और पुराणों में सम्पूर्ण चौंसठ कलाओं की व्याख्यां की गई है। इनमें मात्र वेशभूषा ही नहीं दैनिक क्रिया-कलापों का भी समावेश है। सर्वाधिक प्रचलित चौंसठ कलाओं का उल्लेख मध्य काल में कौटिल्य ऋषि ने किया था- गीतम्, वाद्यम्, नृत्यम्, आलेख्यं से लेकर वैजयिकीनामं, व्यायामकीनामं तक इन कलाओं में गीत-नृत्य, व्यायाम से लेकर सजने संवरने तक समस्त क्रियाओं का ज्ञान छुपा हुआ है। जैसे शेखरकापीड़ योजनं अर्थात शेखर और आपीड़क नामक सर के आभूषण पहनना। जिन्हें आज की भाषा में मांग टीका और विभिन्न प्रकार की लड़ियां आदि अन्य आभूषण कह सकते हैं। नेपथ्यप्रयोगा अर्थात स्वयं को और सखियों को वस्त्र और अलंकारों से सजाना। वस्त्र गोपनानि अर्थात छोटे कपड़े इस प्रकार पहनना कि वे बड़े और आकर्षक लगें तो बड़े कपड़े इस प्रकार पहनना कि वे छोटे वस्त्रों की भांति सौन्दर्य का प्रदर्शन करें। यहां एक महत्वपूर्ण उल्लेख करना आवश्यक है , वह यह कि पौराणिक काल में स्त्रियों के लिए पर्दा प्रथा का फैशन नहीं था, वे पूर्णतया स्वतंत्र होकर अपनी वेशभूषा से लेकर अपने जीवन साथी तक का चुनाव कर सकती थीं। यही कारण है कि प्राचीन मूर्तियों या प्राप्त भित्ति चित्रों आदि में देवियों और अन्य नारियों को कभी घूंघट आदि में नहीं दिखाया गया है, अपितु उनके वस्त्र और अलंकार इस प्रकार बनाए गए हैं कि उनका सौन्दर्य आकर्षक रूप से झलकता हुआ दिखाई देता है। ये चलन सदियों रहा, पर्दा तो तब करना आवश्यक हो गया जब विदेशी आतताइयों ने भारतवर्ष पर आक्रमण करके यहां की स्त्रियों को अपनी हवस का शिकार बनाना आरम्भ किया।

फैशन के इसी क्रम में स्त्रियों के लिए अर्वाचीन काल से ही सोलह श्रृंगार करके स्वयं को सुन्दर दिखाने की कला का उल्लेख मिलता है । इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार के वस्त्र और आभूषणों का भी उल्लेख किया गया है। इनमें स्वर्ण और रजत आभूषण ही नहीं पुष्प आदि के आभूषणों का भी वर्णन किया गया है, जैसे शीश श्रृंगार हो तो राज पुरुषों के लिए किरीट अर्थात मुकुट, रानियों के लिए छोटा किरीट, मांग टीका, और पुष्प जूड़ा माल (गजरा) होता था, हाथ के लिए केयूर, जिसे बाजूबंद कहते हैं जो पुरुष और स्त्री दोनों पहनते थे। मुकुट भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते थे जैसे जटा मुकुट, ये बालों की जटाओं से बनता था, भगवान् शंकर और विभिन्न ऋषि-मुनियों के शीश की शोभा होता था यह। करंद मुकुट, जो टोप के आकार का होता था, जिसे कुछ देवियों ने धारण किया, रत्न मुकुट, जिनमें विभिन्न रत्न जड़े होते थे, जो मुख्य रूप से देवताओं और राजाओं के द्वारा धारण किए जाते थे। कानों के लिए कर्ण कुंडल धारण करना, ये भी विभिन्न प्रकार के होते थे जैसे विद्युत् कुंडल, मकर कुंडल, शिव कुंडल। शिव कुंडल अलक्ष्य और निरंजन होते थे, अर्थात उन्हें साधारण दृष्टि से नहीं अपितु दिव्य दृष्टि से देखा जा सकता था, महावीर हनुमान और कर्ण आदि के कुंडल इसी श्रेणी के कुंडल थे। माला भी विभिन्न प्रकार की होती थीं, जैसे मुक्ता माल, अक्षमाला, वनमाला, पद्म माला। पद्म माला कभी ना मुरझाने वाली, मनोकामना पूर्ति करने वाली दिव्य माला थी, जिसे द्वापर युग में तपस्या से प्रसन्न होकर कार्तिकेय ने अम्बा को प्रदान की थी। रुंडमाला का उल्लेख भी पुराणों में मिलता है जिसे शिव और देवी काली ने धारण किया।          सौभाग्यवती स्त्रियों के लिए कुछ विशिष्ट आभूषणों का मुख्य रूप से उल्लेख किया गया है जैसे मांग टीका, नथनी, कर्ण कुंडल, केयूर, कंगन, चूड़ी, हथफूल, अंगूठी, कंठी, कंठ हार, करधनी, पायल और बिछिया। आदि काल की कुछ प्रमुख मणियां भी प्रसिद्ध हैं जैसे कौस्तुभ मणि, ये समुद्र मंथन से प्राप्त रत्न था, जिसे विष्णुदेव ने धारण किया, वैदूर्य मणि देवी लक्ष्मी धारण करती थीं, नागराज वासुकी के मस्तक पर स्थित नाग मणि, मस्तक मणि जो अश्वत्थामा के मस्तक पर थी, चिंतामणि, चंद्रकांता मणि। चंद्रकांता मणि को मून स्टोन के नाम से भी जाना जाता है।

पौराणिक काल में जो फैशन था वह मात्र सुंदरता बढ़ाने के लिए ही नहीं था, अपितु उसके पीछे देह को स्वस्थ रखने का विज्ञान भी छुपा हुआ था। जैसे देह के ऊपरी भाग में स्वर्ण आभूषणों की प्रधानता थी तो देह के निचले भाग में रजत आभूषणों की प्रधानता थी, करधनी से लेकर पायल और बिछिया तक रजत के होते थे। रजत अर्थात चांदी और रज अर्थात धूल, अर्थात पृथ्वी के संपर्क में रहने से चांदी देह में शीतलता और सौम्यता का संचार करती है तो ऊर्ध्व भाग में मुकुट, हार और अंगूठी इत्यादि स्वर्ण निर्मित होने के कारण सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर देह को ऊर्जावान और आभायुक्त बनाते हैं। इसी प्रकार चूड़ियों और कंगन के बार-बार घर्षण से जो सूक्ष्म विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती हैं वे शरीर में रक्त संचार बढ़ाती हैं। साथ ही चूड़ियों की ध्वनि अमंगलकारी शक्तियों को नष्ट करती है। सिन्दूर मात्र वैवाहिक सौभाग्य की निशानी ही नहीं है अपितु मांग में स्थित ब्रह्मरन्ध्र ग्रंथि इससे सक्रिय बनी रहती है जिससे देह और मस्तिष्क ऊर्जावान बने रहते हैं। सौभाग्य बिंदी दोनों भौहों के मध्य स्थित आग्नेय चक्र के ऊपर लगाने से एकाग्रता बनी रहती है और देह की ऊर्जा बाहर नहीं आती। दिव्य तृतीय नेत्र भी इसी स्थान पर मानते हैं। इसीलिए बिंदी लगाते ही स्त्री के चेहरे पर दिव्य आभा चमक उठती है। बिछिया चांदी की होने के कारण पृथ्वी के संपर्क में आते ही क्रियाशील हो उठती है, और देह में ऊर्जा का संचार करती है, यही नहीं पांव की दूसरी उंगली से जो नस जुड़ी रहती है उस पर बिछिया का दबाव पड़ने से उत्पादकता में वृद्धि होती है अर्थात संतानोत्पत्ति में सहायक होती है। मंगल सूत्र के काले मोती बुरी शक्तियों को सोख लेते हैं तो स्वर्णिम मोती ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। करधनी पेट को बांधे रखती है, चांदी की होने के कारण शीतलता का संचार करती है। कर्ण कुंडल एक्यूपंक्चर का कार्य करते हैं, अनेक रोगों से बचाव करते हैं। नथुनी जो कि नाक के बायीं ओर छेद करके पहनी जाती है, इससे स्त्री को माहवारी की पीड़ा में राहत मिलती है साथ ही संतानोत्पत्ति में भी सहायक होती है। हाथों की उंगली के पोरों में विभिन्न शक्ति केंद्र स्थित होते हैं, अतः अंगूठियां एक्यूप्रेशर का कार्य तो करती ही हैं, साथ ही विभिन्न ग्रह नक्षत्रों से जुड़े रत्नों की अंगूठियां धारण करने से ये भाग्य को भी प्रभावित करती हैं। कंठहार विशुद्ध चक्र और अनहत चक्र तक पहुंच कर उन्हें जागृत करने में सहायक होता है जिससे शक्ति में वृद्ध होती है। इस प्रकार अनेक कल्याणकारी योजनाओं को सौन्दर्य वृद्धि के नाम पर फैशन और परम्पराओं से जोड़ कर प्रचलित किया गया था, जो कम या अधिक रूप में आज भी प्रचलित हैं।

आभूषणों के साथ ही वस्त्र भी फैशन का एक प्रमुख अंग हैं, वस्त्र का चलन कहां से आरम्भ हुआ, या तन को ढंकने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि मन निश्छल, निर्मल और पाप रहित हो तो तन ढंकने की आवश्यकता ही ना हो। पाश्चात्य संस्कृति में बताया गया है कि आदम और हव्वा को हेवन से निर्वस्त्र ही निकाला गया था, किन्तु जब उन्होंने फल खाया तो उनके मन में विकार उत्पन्न हो गया और उन्हें तन को ढंकने की आवश्यकता का आभास हुआ, अतः पहले उन्होंने पत्तों से तन ढंका, फिर पशुओं की खाल से और अंततः वस्त्र का निर्माण किया।

आंध्र प्रदेश में प्रचलित एक लोक कथा के अनुसार सर्वप्रथम विष्णुदेव की नाभि से धागे की उत्पत्ति हुई जिसे उन्होंने विश्वकर्मा को वस्त्र बनाने के लिए दिया। फिर वस्त्रों को सुंदर और आकर्षक रंग और रूप दिया जाने लगा, विभिन्न प्रकार के लोगों के लिए भिन्न – भिन्न वस्त्रों का प्रचलन हुआ, जैसे साधु-सन्यासियों के लिए वल्कल वस्त्र, भगवा और श्वेत रंग के वस्त्र, तो राजा-रानियों के लिए चमकीले रंग-बिरंगे वस्त्र। आज के समय में जो आम्रपाली ड्रेस का फैशन है वह अजातशत्रु की प्रेमिका आम्रपाली के नाम पर अवश्य है किन्तु ये ड्रेस अर्वाचीन है, अनेक देवियों की वेशभूषा में ये ड्रेस देखी जा सकती है। खजुराहो के मंदिरों में जो मूर्तियां स्थित हैं उनमें इस प्रकार के वस्त्र दिखाई देते हैं।

प्राचीन काल से यह मान्यता रही है कि वस्त्र को काटना अपशकुन होता है, इसीलिए स्त्रियां पूरी साड़ी पहनती रही हैं, पुरुष भी कमर से पूरी धोती बांधते थे। ऊपरी भाग के लिए स्त्रियों में कंचुकी और चुनरी का फैशन था, कंचुकी भी बिना सिली हुई होती थी। पुरुष उत्तरीय पहनते थे जो दुपट्टे की भांति होता था। आज भी धार्मिक अनुष्ठानों में बिना कटी या सिली हुई धोती को ही धारण किया जाता है। ये चलन युगों तक रहा, बाद में जब मध्य काल में विदेशियों के आक्रमण भारत पर हुए तब उनके साथ ही वस्त्रों को काट कर और सिल कर पहनने का चलन भारत में आया। उन दिनों तक रानियों महारानियों में विभिन्न देवियों की भांति वस्त्र-आभूषण आदि धारण करने का फैशन था, विशेष रूप से राजपूताना की रानियां श्रृंगार को अधिक प्रधानता देती थीं, बाद में वस्त्र भी अनेक प्रकार के बनने लगे तो रानियों की रूचि भी बदलने लगी। रेशम का स्थान सिल्क और सिफोन ने ले लिया। विदेशी वस्त्रों की ओर रुझान बढ़ गया, जैसे कूच बिहार की महारानी इंदिरा देवी फ़्रांस में बनी हुई छः गज की साड़ी पहनती थीं। सिल्क सिफोन को राजघरानों ने अपनाया। रानी गायत्री देवी ने भी इसे अपनाया, किन्तु उनके वस्त्रों के हलके रंग और मैचिंग पहनावे ने उन्हें फैशन के शिखर पर पहुंचा दिया।

यदि आप सोचते हैं कि बॉलीवुड की अभिनेत्रियां ही फैशन आईकॉन रही हैं तो यह गलत है। हमारे देश की रानी महारानियां फैशन में सदैव अग्रणी रही हैं। राजस्थान से लेकर पटियाला, रामपुर, त्रिपुरा तक की रानियों ने विभिन्न फैशन अपनाए और प्रेरणा स्रोत बनीं। उनके फैशन में मांग टीका और उनमें जड़ी हुई कई लड़ियों वाली मुक्ता माला, जो कुंडल तक पहुंचती थीं, बड़े कर्ण फूल, बड़ी नथनी रही है तो पूरे गले को ढंकने वाला कई लड़ों का जड़ाऊ हार रहा है और साथ ही बड़ा कंठहार भी जो सीने से नीचे तक आता था। जड़ाऊ लहंगा, गोटेदार चोली, और उस पर जरी काम वाली चुनरी, कंगन और चूड़ियों के अद्भुत संगम से भरे पूरे हाथ, उन्हें अलग ही आभा से भर देते थे।

पंजाब प्रान्त की रानियां नथ के स्थान पर नाक की कील पहनना अधिक पसंद करती थीं। गुजरात और राजस्थान में मोटे-मोटे पैजना और बड़े बिछुए पहनने का फैशन रहा है। कपूरथला की रानी सीता देवी सिल्क की साड़ी पहनती थीं, 1936 में जब वह 19 वर्ष की थीं, तब फैशन की प्रमुख पत्रिका ‘वोग’ ने उन्हें लेटेस्ट सेक्युलर गॉडेस घोषित किया था। तीन वर्ष बाद ही उन्हें संसार की पांच बेस्ट ड्रेस्ड वीमेन में शामिल किया गया था। कुछ प्रमुख रानियां जिन्होंने अपने समय में फैशन की दुनियां में अपना सिक्का जमाया वे थीं – जयपुर की गायत्री देवी, वड़ोदरा की इंदिरा राजे, वड़ोदरा की ही सीता देवी, कपूरथला की सीता देवी, इन्हें फर का कोट भी बहुत पसंद था, हैदराबाद की शहजादी नीलोफ़र, इन्हें अधिकांशतः पश्चिमी पहनावे अधिक पसंद थे।

यूं तो फैशन और आधुनिकता एक दूसरे के समानार्थी हैं, अर्थात आधुनिक काल में प्रचलित वेशभूषा। किन्तु फैशन हर समय रहा है, कोई भी काल रहा हो, कोई भी युग रहा हो, उस समय के अनुसार फैशन हुआ करता था। सजने और संवरने की इच्छा मानव सभ्यता का अभिन्न अंग रही है। सदियों से, स्त्री हो या पुरुष, सब स्वयं को सुंदर दिखाना चाहते हैं, यही लालसा फैशन की जन्मदाता रही है।

 

 

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