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नीलकंठी  

नीलकंठी  

by डॉ. दिनेश पाठक शशि
in फैशन दीपावली विशेषांक - नवम्बर २०१८
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“तुम तो बस..भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति-सी, प्रस्तर शिला की तरह मौन, विषपाई नीलकण्ठ की भांति सारा गरल स्वयं ही पीती रहती हो और उस हलाहल की गर्मी से ही मैं विह्वल और अपराधी मानने लगता हूं अपने आप को।”

टते-लौटते आज फिर रात के ग्यारह बज गए थे। अन्य दिनों की भांति ही पत्नी आज भी दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। उसको आता देखकर वह अंदर चली गई। अंदर पहुंच कर उसने पत्नी की ओर निहारा। पत्नी के मौन, उदास चेहरे को देखकर वह फिर अपराध बोध से भर उठा और फिर कभी भविष्य में इतने विलम्ब से न लौटने की कह कर पत्नी को मनाने का प्रयत्न करने लगा।

पत्नी ने उसकी बात सुनी और एक निरीह, अविश्वासी नज़र से देखने लगी जैसे कह रही हो कि ऐसा तो तुम प्रतिदिन ही कहते हो, पर इस पर अमल कब करोगे?

पत्नी की द़ृष्टि से द़ृष्टि मिला पाना आज उसे मुश्किल लगा। पता नहीं क्या हो जाता है उसे। प्रति दिन ही रात देर से घर लौटने पर वह पत्नी से अगले दिन शीघ्र लौट आने या उधर की तरफ न जाने का ंवादा करता है और फिर सुबह होते-होते, रात की सारी बातें और पत्नी के साथ किए गए सारे वायदे भूल कर फिर-फिर मन शिरीन के जाल में उलझ जाता है। जागते ही शिरीन का चेहरा आंखों के आगे घूमने लगता है। बाथरूम में स्नान करते-करते शिरीन की कविताओं और गीतों की पंक्तियां वह गुनगुनाने लगता है और अपने कार्य पर पहुंच कर भी, वहां से जल्दी से जल्दी लौट कर शिरीन के यहां पहुंच जाने का प्रयास करता रहता है या यूं कहें कि अपने कार्यक्षेत्र से अधिक उसे शिरीन के समीप होने का ध्यान रहने लगा है। वह स्वयं नहीं समझ पाता कि आखिर ऐसा क्यों होता है? क्यों वह अपनी अनुपम सौन्दर्यमयी पत्नी के रहते हुए भी शिरीन के पास जाने को आतुर रहता है?

शायद शिरीन की आकर्षक, मनोहारी बातें? या फिर शिरीन की व्यक्तिगत पीड़ाएं, जिनके लिए वह कुछ-कुछ स्वयं को भी दोषी मानने लगा है अब, उसे शिरीन की निकटता हेतु आकर्षित करती हैं। पर उस निकटता में, कहीं भी मर्यादा से परे या कहें कि स्त्री-पुरुष सम्बंधों जैसी तो कोई बात नहीं होती। फिर…..

इस फिर का उत्तर उसे कभी नहीं मिल पाया। उसके मन और बुद्धि में अंतर्द्वंद्व छिड़ जाता। सारे दिन अन्य कार्यों को करते हुए भी निरंतर शिरीन का ही चिंतन, उससे शीघ्र मिलने की आतुरता और मिलने पर निरंतर शिरीन के वाग्जाल में उलझे-उलझे देर रात को घर पहुंचना। जानते-बूझते हुए भी कि इससे पत्नी के मर्म को कितनी पीड़ा पहुंचती है।

लेकिन क्या है जो उसे मजबूर कर देता है फिर-फिर शिरीन से मिलने को? क्या शिरीन के प्रति दया-भाव या उसका निश्छल व्यवहार जो वह उसके साथ करती हैं।

नदी के किनारे-किनारे पुष्पित-पल्लवित लता वृक्षों के बीच घूमते हुए शिरीन ने अचानक ही उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया था-

“तुम्हें नहीं लगता शुभम् कि हम दोनों किसी जन्म में एक-दूसरे के रहे होंगे और इस जन्म में मेरे किसी पापकर्म के कारण ईश्वर ने तुमसे अलग कर दिया है। मुझे दण्डित करने के लिए।”

‘पता नहीं शिरीन, ये तो मैं नहीं कह सकता पर इतना जरूर है कि एक परम शक्ति है जो सारे जगत का संचालन करती है। उसके यहां हर चीज का लेखा-जोखा है, एक-एक पल का। कर्मानुसार वह प्रत्येक प्राणी के जीवन का निर्धारण करती है।’

“हां, यही तो मैं भी कह रही हूं शुभम्। तभी तो देर से ही सही उस परम शक्ति ने आखिर मुझे मिला ही दिया तुमसे। मेेरे दु:खों में न्यूनता लाने के लिए।”

“हां, ठीक कह रही हो शिरीन। हो सकता है, मुझे इसका श्रेय देने के लिए ऐसा किया हो परम सत्ता ने, पर मूल उद्देश्य है तुम्हारे दु:खों का निवारण और इसीलिए मैं बार-बार तुमसे कहता हूं कि अपने आप में सुख खोजने का प्रयास करो। जो नहीं मिला या जो बीत गया उसके लिए आजीवन रोते रहने से अच्छा है कि वर्तमान में जो तुम्हारे पास है इसी में प्रसन्नता का श्रोत खोजो। हमारे कार्यों से कहीं हमारा आज भी नष्ट न हो जाय। अपने घर, पुत्र और अपने पति के सान्निध्य में जिस दिन तुम्हें अच्छा लगने लगेगा, समझो वहीं परम सुख का दिन है। मृगतृष्णा में भटकने से कुछ हासिल नहीं होता शिरीन।”

मेरी बात सुन, शिरीन ने मेरे चेहरे की ओर देखा। मौन द़ृगों की कोरें भीग उठीं थीं-

“फिर वही गीता-सा उपदेश! शुभम्, तुम मेरी पीड़ा को कब समझोगे? मैं जब भी कोई बात करती हूं तुम उसका रुख एक ही ओर मोड़ देते हो। शुभम्, तुम जिसे मेरा सुख सिद्ध करना चाहते हो वह सुख नहीं है। मैं सुखी नहीं मान सकती अपने आप को और न मैं वह सब कर सकती हूं जिसका कि तुम मुझे उपदेश देने लगते हो। नहीं शुभम् नहीं। गत वर्षों में मैं वही सब तो करके देखती रही हूं जो तुम मुझसे करवाना चाहते हो। तुम मेरे पति में देवत्व की तलाश मत करो शुभम्। वह पतित है। उसका सान्निध्य मुझे सुख प्रदान नहीं कर सकता, नहीं कर सकता।”

“नहीं शिरीन, प्रेम से आदमी बड़े-बड़े असम्भव कार्य सम्भव कर लेता है। वे तो तुम्हारे पति हैं, तुम्हारी बात नहीं मानेंगे? बस एक बार, जैसे मैं कहता हूं, करके तो देखो शिरीन।”

“ठीक है, तुम्हें मेरी सारी तकलीफें जानते हुए भी वही सब कराने में सुख मिलता है तो मैं करूंगी। तुम्हारे कहने पर…….।” कहते हुए शिरीन का गला रुंध गया।

“मेरी अच्छी शिरीन……” शिरीन का दाहिना हाथ अपने बांये हाथ के ऊपर रख कर अपने दाहिने हाथ से थप-थपा दिया तो उसकी इस भोली हरकत पर शिरीन के नेत्र उसके नेत्रों से मिलते हुए, होठ तिर्यक हो मंद-मुस्कान में बदल गए।

कभी नदी के किनारे का भ्रमण तो कभी बन चेतना केन्द्रों का भ्रमण तो कभी यूं ही निरुद्देश्य इधर-उधर टहलने का कार्यक्रम तो फिर कभी अपने देश की अक्षुण्ण धरोहर के रूप में खड़े प्राचीन मंदिरों के फर्श पर बैठे-बैठे इधर-उधर की बातें और बातों के बीच अवचेतन में शिरीन के सुखमय दाम्पत्य का निरंतर चिंतन। यही क्रम लगभग प्रति दिन ही देर से घर पहुंचने का कारण बन बैठता।

शिरीन की बातों का अर्थ वह न समझ पाता हो या उसके संकेत मात्र की भाषा वह न पढ़ पाता हो, ऐसी बात नहीं। पर वह अपने को मन से पूर्णतया निर्लिप्त रखते हुए भी इस तरह संलिप्त था कि शिरीन को इसका आभास तक न हो। शिरीन की बातों का अर्थ समझते हुए भी वह ऐसा प्रकट करता जैसे कुछ समझा ही न हो और शिरीन के गलत दिशा की ओर बढ़ते हर कदम पर बातों ही बातों में बात का रुख इस तरह मोड़ता कि सहज ही शिरीन की उत्तेजना, माघ मास की शीत लहरी में, शीतल जल की फुहार पड़े अंग-सी शिथिल हो जाती।

सफेद, संगमरमरी पत्थर से बने उस मंदिर की छठी मंजिल की सीढ़ियों पर खड़े-खड़े शिरीन ने पश्चिम दिशा की ओर देखा और उत्साहित, प्रफुल्लित मुद्रा में कहा- “देखो, जरा इधर आकर तो देखो शुभम्। कितना सुंदर द़ृश्य है। जाने क्यों, मुझे यह द़ृश्य निरंतर अपनी ओर आकर्षित करता है शुभम्।”

सीढ़ियों के बीच बने एक झरोखे से झांक कर देखा- सूर्यदेव, अपने चारों ओर वृत्ताकर रूप में नारंगी आभा बिखेरते हुए दिन से विदा ले रहे थे।

“देखो शुभम् देखो।” – शिरीन ने अपनी मध्यमा उंगली सूर्य की ओर दिखाई,- “देखो, अब कितने छोटे रूप में परिवर्तित हो गए सूर्य देव! बिल्कुल मेरी इस मध्यमा उंगली की पोर सद़ृश। ये ऽ ऽ हां।”

और सूर्य देव की ओर की हुई अपनी उंगली को शिरीन ने अपने माथे पर टांक लिया, ठीक बिंदी की जगह। जैसे आसमान से अपनी उंगली पर उठाकर सूर्यदेव को ही उसने माथे पर लगा लिया हो।

“मेरी एक बात मानोगी शिरीन?” -मंदिर की सीढ़ियां उतरते हुए मैंने कहा तो वह मेरे चेहरे को घूरने लगी- “क्या?”

“तुम ये अस्त होते सूर्य का देखना बंद कर दो।”

“क्यों?”- मेरे चेहरे पर अपनी नज़र गड़ा दी उसने।

“बस यूं ही।”

“फिर भी, इसमें भी कोई रहस्य हो तो वो भी बता दो।”- मेरी ओर मुस्कराते हुए वह बोली।

“हां, हमारे शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि अस्त होते सूर्य को देखने से मनुष्य की कांति एवं सुख क्षीण होते हैं।”

“क्या-क्या बंद कराओगे मेरे सुखों की खातिर तुम?” – गहरी निश्वास लेते हुए शिरीन ने कहा-

“अब तो बस एक ही इच्छा है मेरी, इस जन्म में तो तुम्हें मैंने खो दिया पर अगले जन्म में तुम मेरे ही बनना शुभम्। मैंने तुम्हें बहुत गम्भीरता से परखा है। तुम्हें देखकर ही मुझे लगता है कि मैंने जरूर ही पिछले जन्म में तुम्हारे साथ कोई असंगत व्यवहार किया था जो मुझे दण्ड देेने के लिए ईश्वर ने इस जन्म में ऐसा पति दे दिया और तुम्हें इस जन्म में भी देवी स्वरूपा दीदी जैसी पत्नी।” – कहते-कहते शिरीन के नैनों से दो मोती ढुलके और कपोलों पर दो समांतर रेखाएं बनाते हुए ढुलक गए जिन्हें देख मैं स्वयं अपराध बोध सा महसूस करने लगता।

रुड़की इंजीनियरिंग कालेज का अंतिम वर्ष था जब शिरीन भी वहीं आ गई थी किसी अन्य कॉलेज से अपना स्थानांतरण लेकर।

कक्षा के सभी छात्र-छात्राओं में शिरीन का व्यक्तित्व कुछ अलग ही किस्म का था। सबसे अधिक लम्बाई। पतला छरहरा बदन। चेहरे पर सुतवां नासिका और गोरा रंग। व्यवहार एकदम दबंग सा, लड़की होते हुए भी बिंदास स्वभाव।

कक्षा के कई छात्र उससे सम्पर्क बढ़ाना चाहते थे किन्तु वह थी कि बस किसी को भी लिफ्ट नहीं देती। पर मुझ में उसे जाने क्या दिखा कि धीरे-धीरे कर वह मेरे निकट से निकटतर होती गई। अपनी हर बात वह नि:संकोच मुझे बताने लगी, घर की परिवार की और सभी की।

समय, पर लगाकर फुर्र से उड़ गया और हमारी वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गई। विद्यार्थी जीवन की  मधुर-स्मृतियों को संजोये सब अपने-अपने घरों को चल दिए। शिरीन ने अपने घर का पता थमाते हुए भीेगे नयनों से मेरी ओर देखा था- “शुभम्, तुम मिलोगे न फिर कभी?”

शिरीन के इस भावुक प्रश्न का क्या जबाव देता मैं? मैं और वह अपने-अपने पारिवारिक बंधनों में बंधे, मां-बाप के अच्छे बच्चों की तरह अपने-अपने घरों को चले आए। लड़की की जात, मां-बाप जहां भी ब्याह देंगे, वहीं बंधी शिरीन, अपनी घर-गृहस्थी में रम जाएगी। हो सकता है कि ऐसी ससुराल मिल जाय जहां इस उच्च शिक्षा का कुछ औचित्य ही न रहे और शिरीन वहीं नून-तेल, लकड़ी और चूल्हे-चौके की परिक्रमा में ही होम कर दे अपना जीवन, सोचते हुए मैं शिरीन को लगभग भूल ही चुका था।

परीक्षाफल आते ही मेरी नियुक्ति फरीदाबाद की एक प्रतिष्ठित फर्म में हो गई और मैं व्यस्त से व्यस्ततम स्थिति की ओर बढ़ता गया। इसी दौरान घर वालों ने मेरा विवाह भी करा दिया। आकर्षक व्यक्तित्व एवं सौम्य स्वभावी पत्नी ने अपने व्यवहार से ऐसा बांधा कि फर्म और घर दो के ही बीच बंधकर रह गया मैं। मेरे विचार से, विदुषी, मधुरभाषी एवं सौम्या पत्नी का मिलना पुरुष के लिए ईश्वर के अद्भुत उपहार मिलने से कम नहींं होता।

सब कुछ ठीक-ठीक चल रहा था कि अचानक ही एक दिन शिरीन से मुलाकात हो गई। बुझा-बुझा सा निस्तेज चेहरा और शरीरिक द़ृष्टि से अस्वस्थ सी लग रही शिरीन को देखकर वह एकबारगी तो पहचान ही न सका किन्तु जब शिरीन ने ही अपने चिर-परिचित अंदाज में उसे पुकारा तो वह अवाक् रह गया।

“पहचान नहीं पाए न शुभम्? कैसे पहचान पाते? पहचानना ही होता तो ऐसे थोड़े ही भुला देते मुझे कि एक भी पत्र का उत्तर तक नहीं दिया।”

“क्या ऽ! क्या कह रही हो शिरीन? तुम्हारा तो एक भी पत्र मुझे नहीं मिला।” – मैंने आश्चर्यचकित होते हुए शिरीन की ओर देखा।

“क्यों झूठ बोलते हो शुभम्? तुम से ये उम्मीद न थी मुझे कि तुम इस तरह पलायन कर जाओगे मुझसे।”

शिरीन शायद वर्षों से ढूंढ रही थी उसे तभी तो शिकायतों की गठरी को बिना देर किए उसके सामने खोल देना चाहती थी। शायद विद्यार्थी-जीवन में वह कुछ अधिक ही उम्मीदें लगा बैठी थी उससे या फिर मन ही मन उसका वरण भी…….।

शिरीन ने बताया कि परीक्षाफल आते ही वह उच्च शिक्षा के लिए विदेश चली गई थी। किन्तु वहां भी एक पल को भी वह शुभम् को नहीं भुला पाई थी। विदेश से लौटने के बाद वह चाहती थी कि अपना बहुत बड़ा बिजनेस सेन्टर स्थापित करे किन्तु घर वाले अब उसे जल्दी से जल्दी विवाह सूत्र में बांधकर अपने दायित्व से मुक्त होना चाहते थे।

आखिर शिरीन ने शुभम् को कई पत्र लिखे किन्तु एक का भी जवाब नहीं मिला तो उसने पिता को शुभम् के घर भेजा। वहा से पता चला कि शुभम् का विवाह तो हो चुका है, सुनकर वह अंदर ही अंदर टूट गई। शिरीन ने विवाह न करने का निर्णय लिया। उसकी जिद के कारण बात इधर- उधर भी फैली जिसका परिणाम हुआ कि अब कोई भी अच्छा घराना उसे अपने घर की बहू बनाने को तैयार नहीं था।

अंतत: शिरीन का हाथ जिसने थामा वह शिरीन को कभी आत्मिक रूप से संतुष्ट न कर सका। शिरीन पल-पल कर घुटने लगी अंदर ही अंदर और दाम्पत्य जीवन का निर्वाह करने का प्रयास करती रही। एक उच्च शिक्षित, होनहार युवती कोल्हू के बैल की तरह घर-गृहस्थी के कुचक्र में फंसकर रह गई। उसके सारे सपने, सारी आकांक्षाएं दफन हो गईं। इसी बीच शिरीन ने एक पुत्र को जन्म दिया किन्तु मानसिक धरातल पर वह अपने पति के साथ ताल-मेल बैठा पाने में पूर्णरूपेण असफल रही।

शिरीन से सारी वार्ता सुनने के बाद और उसके विगत जीवन का अध्ययन करने पर शुभम् को ऐसा ही लगा और अपनी मित्र के दाम्पत्य जीवन को सुखद बनाने हेतु कुछ मनोवैज्ञानिक तरीकों को अपनाने की सोचने लगा और बस यही सब सबब बनता घर पर देर से पहुंचने का। एक अजीब सा मोड़ उसके जीवन में आ गया था। एक ओर वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी किसी भी तरह त्रसित हो या उसका स्वयं का दाम्पत्य जीवन प्रभावित, विखण्डित हो,किन्तु अपनी मित्र के जीवन को भी वह सुखी देखना चाहता था। ऐसी परिस्थितियों में वह क्या करे?

उसने पत्नी की ओर अपराधी भाव से देखा। पत्नी अब भी मौन थी। बस आंखों में एक निरीहता का भाव लिए वह उसे देखे जा रही थीं, एकटक। पत्नी का यह मौन बोलने से भी कहीं अधिक मारक होता है। वह अंदर तक घायल हो उठता है। उसका जी करता है कि पत्नी को दोनों बाहों से पकड़ कर झिझोंड़ दे और पूछे कि क्या तुम प्रस्तर की बनी हो या फिर तुम्हारे अंदर संवेदनाएं ही नहीं हैं जो कभी मुझसे लड़ती तक नहीं? आम पत्नियों की तरह तुम भी जोर-जोर से चीखो, चिल्लाओ, मुझे उलाहने दो और पर-स्त्री के पास जाने की बात कहकर मेरी बदनामी करो तो कम से कम अपराध-बोध से मैं अकेला तो न घिरा पाऊं अपने को। पर नहीं, तुम तो बस..भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति-सी, प्रस्तर शिला की तरह मौन, विषपाई नीलकण्ठ की भांति सारा गरल स्वयं ही पीती रहती हो और उस हलाहल की गर्मी से ही मैं विह्वल और अपराधी मानने लगता हूं अपने आप को।

मन मेंं उठ रहे बवण्डर को तथा पत्नी की मौन आंखों की बेचारगी को वह झेल नहीं पा रहा था। अचानक उसके दोनों हाथ पत्नी की ओर माफी मांगने की मुद्रा में जुड़ गए।

“मुझे माफ कर दो मधु, कल से ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। बिल्कुल भी नहीं।”

मेरे हाथों को अपने दोनों हाथों के बीच लेते हुए मधु ने धीरे से कहा- “ठीक है, कल शिरीन को यहां ले कर आना। हो सकता है एक स्त्री होने के नाते मैं दाम्पत्य सुख का रहस्य उसे, तुमसे बेहतर समझा सकूं।”

सुनकर मैं अवाक् रह गया। तो क्या पत्नी को सब पता था, देर से घर आने का कारण। फिर भी यह सुनकर मेरी नजरों में पत्नी का व्यक्तित्व और विशाल हो उठा, अपरिमित।

 

 

डॉ. दिनेश पाठक शशि

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