ब्लैंक चैक
कहते हैं कि आदमी को कभी बड़े बोल नहीं बोलने चाहिए। ये समय है। इसे परिवर्तनशील कहा जाता है। जाने कब किस करवट बैठ जाय। पर क्या किया जाय, कहावत ये भी है कि जब खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।
कहते हैं कि आदमी को कभी बड़े बोल नहीं बोलने चाहिए। ये समय है। इसे परिवर्तनशील कहा जाता है। जाने कब किस करवट बैठ जाय। पर क्या किया जाय, कहावत ये भी है कि जब खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।
राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत, सम्मानित, राष्ट्रवादी विचारधारा के पोषक, प्रखर चिंतक, मनीषी, गत दो दशकों से अधिक से सक्रिय भूमिका निभाते आ रहे विनोद बब्बर ने अब तक 18 देशों की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक यात्राएं की हैं। इनकी प्रकाशित 37 पुस्तकों में से 8 पुस्तकों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
अस्वस्थता का ध्यान आते ही शरीर में एक लहर-सी दौड़ गई। वह तेज बुखार में तप रहा था। जी चाह रहा था हिले भी न, फिर भी छुट्टी न मिल पाने के कारण फैक्टरी जाना पड़ रहा था। जैसे ही आधे रास्ते पहुंचा कि तेज वर्षा प्रारम्भ हो गई। भींगने के कारण कंपकंपी छूटने लगी। अत: टेस्ट रूम में पहुंचकर उसने हीटर जलाया।
नवीन, कलकत्ता से फोन पर तो बहुत मीठी-मीठी बातें करता पर जब एक-दो हफ्ते के अवकाश पर घर आता तो प्यार की सारी बातें भूल कर बात-बात पर विनीता से झल्ला उठता था, उसे डाँट देता। विनीता उसका मुँह ताकते रह जाती। ये क्या हो गया कलकत्ता जाकर इन्हें? और फिर वह अपने दुर्भाग्य को कोसने लगती। कभी-कभी तो नवीन के साथ इतनी झड़प हो जाती कि वह जीवन से विरल हो उठती। यहाँ तक कि कभी-कभी तो वह आत्महत्या कर लेने तक की सोच बैठती।
‘रास्ते भर ज्योति के सुद़ृढ़, विश्वासपूर्ण वाक्य कानों में टकराते रहे- ‘मैं नारी को छले जाते रहने की परिपाटी को तोड़, इन्हें सबक सिखाकर ही रहूंगी, भाई साहब! ताकि इन्हें पता चले, झूठ बोलने का नतीजा क्या होता है। लेकिन कहानी यहां थोड़े खत्म होती है....”
“तुम तो बस..भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति-सी, प्रस्तर शिला की तरह मौन, विषपाई नीलकण्ठ की भांति सारा गरल स्वयं ही पीती रहती हो और उस हलाहल की गर्मी से ही मैं विह्वल और अपराधी मानने लगता हूं अपने आप को।”
बाबा बाबा बचाओ की चीख सुनकर मैं कम्प्यूटर पर काम करना छोड़कर नीचे दौड़ पड़ा. सीढ़ियां उतरते उतरते मेरे दिल की धड़कन बहुत तेज हो गई थी. नीचे जाकर मैं सक्षम के पास पहुंचा तो मुझे देखते ही वह दौड़कर मुझसे चिपक गया, “बाबा बाबा मुझे बचा लो.” उसकी आंखों में भय मिश्रित निरीहता टपक रही थी और वह थर थर कांपते हुए मुझसे चिपका जा रहा था. सामने रौद्ररूप धारण किए निशा हाथ में पकड़ी डण्डी को लपलपा रही थी. क्या हुआ बेटी इस बच्चे को इस तरह क्यों पीट रही हो? क्या गलती कर दी इसने? मैंने सक्षम की मम्मी निशा की ओर
...और उसके आगे की तमाम हालातों का नक्शा चलचित्र की भांति उसके मस्तिप्क में दौड़ने लगा। आगे बढ़ते उसके कदम जाने कब वहीं के वहीं थम गए और वह वहीं से वापस लौट पड़ा, उस हार की मालकिन को खोजने के उद्देश्य से। कैला मैया के दर्शन करके वह लौट ही रहा था कि अचानक
देश में प्रचलित पर्व-उत्सव-मेले-त्योहार केवल आनंद भोग के लिए ही नहीं हैं, अपितु इनके पीछे का मुख्य मंतव्य जीवन को दिशा देना एवं सामाजिकता के भाव को सुगठित करना है| पर्वोत्सव, मेले, यात्राएं समाज-जीवन को पुष्ट एवं तुष्ट करते आए हैं, करते रहेंगे|
उसे लगा कि थो़डी देर में उसके सारे शरीर का खून खुद-ब-खुद निच्ाु़ड जाएगा और वह हड्डियों का कंकाल मात्र रह जाएगा। कैसे दिखाएगा वह समाज में अब मुंह और क्या बताएगा लोगों को? सब थू-थू नहीं करेंगे क्या? यही सोच-सोचकर उसके चेहरे का रंग पतझ़ड के पत्तों-सा पीला प़डता जा रहा है। वह सोच-सोचकर हैरान है कि समय कितना बदल गया है।
प्रभात का पत्र था, आज मैं असमंजस की स्थिति में फंसा महसूस कर रही हूं। एक ओर पुत्र, पुत्रवधू और पोती को देखने की चाहत से दिल में प्रसन्नता का सैलाब उमड़ा पड़ रहा है; वहीं दूसरी ओर, उनके पहले आगमन की याद, एक कसक बन कर सीने में चुभने लगती है। मन हर आहट पर रोमांच से भर उठता था।
मई का अन्तिम सप्ताह था। गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी। पशु-पक्षी, राहगीर, किसान, सभी गर्मी की भीषणता से त्रस्त, आकुल-व्याकुल थे। ऐसे में, मैं दोपहर का भेजन करने के बाद थोड़ी देर आराम करने के उद्देश्य से कूलर चलाकर बिस्तर पर लेटा ही था कि अचानक कॉलवैल की आवाज सुनकर चौंक उठा।