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सहकारी बैंकों को कुरेदता एनपीए

सहकारी बैंकों को कुरेदता एनपीए

by अरविंद खळदकर
in अगस्त २०१९
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व्यावसायिकता का अभाव, कर्ज के ऐवज में बंधक रखी गई सम्पत्ति का अनाप-शनाप मूल्यांकन, ॠण मंजूर करने के आंतरिक दबाव, बाजार का सही अनुमान न लगा पाना, प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव आदि भी नागरिक सहकारी बैंकों में एनपीए होने के कारण हो सकते हैं। इनसे पार पाने की चुनौती इन बैंकों के समक्ष है।

एनपीए शब्द अब आम लोगों की समझ में भी आने लगा है, भले ही उसकी संकल्पना या उसके विषय में विस्तृत जानकारी उन्हें न हो। एनपीए (डूबत कर्ज) शब्द बैंकिंग व्यवसाय में ज्ञात नहीं था ऐसा नहीं है; परंतु कोई कर्ज खाता डूबत कर्ज में चला गया है या नहीं इसे निश्चित करने का अधिकार बैंकों के पास था। किस बैंक का कितना एनपीए है इसकी जानकारी सामान्य जनता को प्राप्त होने का कोई स्रोत उपलब्ध नहीं था। यह बैंक प्रबंधन का विशेषाधिकार था। परंतु हर्षद मेहता कांड के बाद सब बदल गया। रिजर्व बैंक ने नरसिंह समिति गठित की एवं उस समिति की सिफारिशों के आधार पर एक नियामवली तैयार कर उसे सभी बैंकों, चाहे फिर वे सरकारी हों, निजी क्षेत्र में हो या सहकारी क्षेत्र में हो, के लिए लागू कर दिया। कर्ज खाता कब एनपीए घोषित हो और उस पर बैंक अपने लाभ में से कितने रुपयों का प्रावधान करें, यह भी निर्धारित किया गया। इसके अलावा डूबत कर्ज खाते का ब्याज जब तक वसूल नहीं होता तब तक उसे बैंक की आय में जोड़ने पर प्रतिबंध लगाया गया।

वर्तमान में सभी बैंकों के कुछ लाख करोड़ रुपये डूबत कर्जों के रूप में वर्गीकृत हैं, जिन्हें वसूलने के खूब प्रयत्न किए जा रहे हैं। इस विषय में वर्तमान कानून अप्रासंगिक होते जा रहे थे। इसलिए वर्तमान सरकार ने इसके लिए नए कानून का प्रावधान किया। अब इनके माध्यम से एनपीए की वसूली की जा रही है।

कर्ज की राशि डूब न जाए इसकी सावधानी कर्ज मंजूर करते समय ही रखी जानी चाहिए। यह तो आदर्श स्थिति है, परंतु प्रत्यक्ष में ऐसा होता नहीं है। अधिकतर कर्जदार चाहते हैं कि वे किश्त की रकम बराबर जमा करें परंतु कई कारणों से ऐसा नहीं हो पाता। जैसे कर्ज देते समय बैंक जोखिम उठाते हैं वैसे ही व्यवसाय करते समय भी जोखिम उठानी पड़ती है। अर्थव्यवस्था, उस उद्योग की अवस्था, सरकारी नीतियां और दैनंदिन उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर मात करनी होती हैं। सरकारी प्रतिष्ठानों एवं बड़े उद्योगों के साथ व्यवहार करते समय यह आश्वस्ति नहीं होती कि पैसा समय पर वापस आएगा या नहीं।

कुल एनपीए में से 50% राशि बुनियादी उद्यमों में फंसी है। वस्त्रोद्योग जैसे उद्योगों का इसमें बड़ा हिस्सा है।

यदि हम सामान्य गैर-निष्पादित कर्ज खातों की ओर देखे तो पता चलेगा कि सामान्य कर्जों के डूबत होने की वजहें कुछ अलग हैं। इनमें अपेक्षित आर्थिक अनुशासन में कमी देखी जा रही है।

अब हम सहकारी बैंकों के अनुत्पादक कर्जों की बात करते हैं। सहकारी बैंकों में जिला सहकारी बैंक एवं नागरिक सहकारी बैंक शामिल हैं। इनमें जिला सहकारी बैंकों की ओर मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र के लिए कर्ज देने का काम है तथा नागरिक सहकारी बैंक नियमित  बैंकिग व्यवसाय करते हैं।

नागरिक सहकारी बैंक गत 100 वर्षों से भी अधिक काल से अस्तित्व में हैं। जनसामान्य की छोटी-छोटी आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु लोगों ने एकत्रित होकर इनकी स्थापना की है। इनकी पूंजी एवं काम करने का क्षेत्र भी छोटा होता है। कुछ नागरिक सहकारी बैंकों की अपनी विश्वसनीयता के बल पर अच्छी प्रगति हुई है एवं वे सार्वजनिक क्षेत्र के व्यावसायिक बैंकों से प्रतियोगिता करने लगे हैं।

जो नागरिक सहकारी बैंक छोटे हैं और जिन्होंने अपनी क्षमता के अनुसार छोटे कर्ज दिए हैं उनके लिए वसूली बहुत गंभीर मुद्दा नहीं है। यह मुद्दा बड़े बैंकों के लिए गंभीर है।

नागरिक सहकारी बैंक छोटे-छोटे कर्ज देने हेतु स्थापित हुए थे एवं उसी के बल पर वे बड़े भी हुए। कालांतर में बैंकिग क्षेत्र का ध्यान इन छोटे कर्जों (ठशींरळश्र श्रेरप) की ओर गया तथा व्यावसायिक बैंकों ने भी इस क्षेत्र में घुसपैठ की। इसके कारण भी रिटेल लोन्स का एक बड़ा भाग उनकी ओर चला गया। सहकारी बैंकों की समस्या यह है कि वे अन्य बैंकों से अधिक ब्याज पर जमा राशियां स्वीकार करते हैं। इससे उनकी जमाओं में तीव्र से वृद्धि होती है; परंतु ऋण देने के लिए उनका क्षेत्र सीमित होने के कारण बैंक की लाभप्रदता पर उसका प्रभाव पड़ता है। इसलिए इन नागरिक सहकारी बैंकों को भी बड़े-बड़े व्यावसायिक कर्जों की ओर मुड़ना पड़ा।

कुछ नागरिक सहकारी बैंकों की वृद्धि जितने पैमाने पर हुई है, उसी गति से उनकी क्षमताओं में वृद्धि नहीं हुई। नागरिक सहकारी बैंकों का नियंत्रण भी रिजर्व बैंक के पास चला गया। इसके कारण उनकी निगरानी भी कड़ाई से होने लगी। हर्षद मेहता कांड में यद्यपि नागरिक सहकारी बैंक नहीं फंसे परंतु उसके कारण रिजर्व बैंक द्वारा लागू कानूनों के दायरे में वे भी आ गए। इसके कारण कुछ नागरी सहकारी बैंक अड़चन में आए।

नागरिक सहकारी बैंकों की वृद्धि की गति तीव्र थी, अपने आप चल कर आने वाले ग्राहकों का वह जमाना था, प्रतियोगिता भी उतनी ज्यादा नहीं थी, इन कारणों से बैंक यह नहीं जान पाए कि उनमें क्या कमियां हैं। वे सुयोग्य पद्धति से बैंकिग क्षेत्र के बदलावों को समझ नहीं सके। प्रशिक्षित मानव संसाधन का महत्वपूर्ण मुद्दा (ढीरळपव र्कीारप ठर्शीेीीलश) बैंक प्रबंधन के आगे खड़ा हो गया।

जमाओं में बढ़ोतरी के साथ ही बैंक द्वारा उनका योग्य विनिवेश आवश्यक है। जमा की बढ़ोतरी के साथ ही बैंक कर्ज में उसका निवेश करते हैं। परंतु कर्ज़ में निवेश करते समय बंधक ली जाने वाली अचल संपत्ति क्या है इस ओर सहकारी बैंकों का ध्यान ज्यादा रहता है। इसमें गलत कुछ भी नहीं है। परंतु दिए गए कर्ज़ों की किश्त कैसे वसूल होगी यह नहीं देखा जाता। इसके लिए बंधक संपत्ति  का कुछ भी उपयोग नहीं होता है। वास्तव में ॠण प्रस्ताव की जांच एवं मूल्यांकन सही तरीके से नहीं किया जाता। यह नहीं देखा कि किस व्यवसाय के लिए कर्ज देना है, बाजार में उस व्यवसाय की वर्तमान में स्थिति क्या है, प्रतिस्पर्धा कितनी है, क्या बहुत ज्यादा उत्पादक है, खपत कैसी है, क्या इतनी आमदनी होगी जिससे उत्पादन एवं बाजार तक ले जाने के सारे खर्चे घटाने के बाद बैंक ऋण वापस करने के लिए पैसा  बचेगा इ.। केवल बंधक रखी जाने वाली अचल संपत्ति का बाजार मूल्य देख कर अधिकांश कर्जे स्वीकृत किए जाते हैं। कर्ज लेने वाले की बाजार में स्थिति क्या है, किस पद्धति से व्यापार कर रहा है यह देखना भी आवश्यक है। नागरिक सहकारी बैंक सुलभता से कर्ज दे देते हैं, यह शायद उनकी व्यवसाय वृद्धि का एक कारण हो सकता  है।

व्यावसायिकता का अभाव, नागरिक सहकारी बैंकों के एनपीए बढ़ने का एक कारण हो सकता है। बहुत से ॠण प्रस्ताव बैंक के निदेशकों के माध्यम से आते हैं। उनकी स्वीकृती का अत्यधिक आग्रह भी उनका होता है। इससे ॠण मंजूर करने वाले अधिकारी बेबस हो जाते हैं एवं ऐसे कर्ज बाद में एनपीए हो जाते हैं। उन्हें वसूल करने में भी कठिनाई होती है।

बंधक संपत्ति का मूल्यांकन करना एक बड़ा प्रश्न कर्ज स्वीकृत करते समय आता है। ज्यादा कर्ज़ मिले इसके लिए अचल संपत्ति  का मूल्य निर्धारण बढ़ी हुई दरों पर किया जाता है। खाली भूखंड़ों का मूल्यांकन तो 10 गुना अधिक करने के भी उदाहरण सामने आए हैं। बंधक दी जाने वाली संपत्ति कहां स्थित है, भविष्य में वह बिक सकती है या नहीं इन प्रश्नों की ओर गहराई से ध्यान नहीं दिया जाता है। वकील द्वारा दी गई सर्च रिपोर्ट पढ़ कर भी उस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। शेष माल और बिक्री की उधारी (ळर्पींशपीेीूं रपव वशलीेीीं) के विरुद्ध भी कर्ज दिया जाता है परंतु इस पर बैंक का कोई नियंत्रण नहीं रहता। शेष माल की जांच कर वह बराबर है या नहीं इसकी जांच भी नहीं की जाती।

कर्ज़ प्रस्ताव पर विचार करते समय वर्तमान तुलन-पत्र एवं पिछला अंकेक्षित तुलन-पत्र लिया जाता है। इन दोनों के आंकड़ों में बहुत अंतर होने पर भी उस पर प्रश्न उपस्थित नहीं किए जाते हैं, न  ही बही-खातों की जांच की जाती है। इसका परिणाम भी स्वीकृती की गुणवत्ता पर पड़ता है। कर्ज के प्रस्ताव की जांच-पड़ताल एवं मूल्यांकन हेतु कर्ज़ विभाग एवं सीईओ को काफी समय लगता है परंतु निदेशक मंडल एवं अधिकारियों को भी निर्धारित लक्ष्य पूर्ण करने की जल्दी होती है। कई बार कर्ज लेने वाला भी अपने पक्ष में दबाव लाता है। इन सब का क्या प्रभाव होगा यह स्पष्ट ही है।

नए व्यवसाय/उद्योग के लिए ॠण प्रस्ताव के साथ दी गई  प्रोजेक्ट रिपोर्ट का ठीक तरह से अध्ययन न करना, कर्ज पर अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दरें, खाता अनियमित होने पर भी वसूली के प्रयत्नों में कमी, कर्ज़ जिस काम के लिए लिया जा रहा है उस काम में उसका उपयोग न कर अन्यत्र निवेश, प्रस्ताव के साथ गलत जानकारी देना एवं फर्जी दस्तावेज देना इत्यादि कई अन्य कारण हैं, जो कर्ज़ को  एनपीए बनाने में सहायक होते हैं।

वसूली के लिए सरकार ने जो कानून बनाए उससे वसूली अदालतों में फंस कर रह गई। सरफेसी कानून के अनुसार बंधक संपत्ति का कब्जा जिलाधिकारी द्वारा बैंकों को देने की बात कही गई है परंतु कई जगह जिलाधिकारी उसको अपने पास रख कर स्वयं ही केस चला रहे हैं। उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप एवं वर्तमान में शासन  द्वारा जारी आदेशों के बाद स्थिति में सुधार होगा ऐसा लगता है।

2 वर्ष पूर्व सरकार ने इंसॉल्वेंसी एवं बेंकरप्ट्सी कोड (दिवालिया होने का कानून) लागू किया। इसके अनुसार यदि कोई कर्ज एनपीए हुआ और कर्जदार यदि लिमिटेड कंपनी है तो नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल के पास दावा दाखिल कर वसूली हेतु कदम उठाए जा सकते हैं। इसमें 180 दिनों से 260 दिनों के भीतर पूरी प्रक्रिया प्रारंभ करने का वायदा किया गया है एवं दावा दायर करने के बाद कंपनी के निदेशकों को अलग कर कंपनी का काम तीसरे पक्ष को दे दिया जाता है। इसमें भी कोर्टबाजी शुरू है फिर भी इसमें बैंकों का पलड़ा भारी जान पड़ता है। सहकारी बैंकों ने इस कानून का कितना सहारा लिया यह  अभी ज्ञात नहीं है।

नागरिक सहकारी बैंक अभी तक अनेक चुनौतियों का सामना कर अस्तित्व बनाए हैं। इन बैंकों के प्रबंधन में व्यावसायिक दृष्टिकोण की वृद्धि होना आवश्यक है, जिसके लिए रिजर्व बैंक द्वारा सतत प्रयत्न किए जा रहे हैं। इनमें सफलता भी मिल रही है। भविष्य में भी नागरिक सहकारी बैंक आज की चुनौतियों का सामना करते हुए सफलता के साथ आगे बढ़ते रहेंगे ऐसा पूर्ण विश्वास है।

 

 

अरविंद खळदकर

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