महात्मा गांधी व्यक्ति नहीं, विचार

गांधीजी के विचारों-सिद्धांतों को आधुनिक समय के साथ समन्वय करते हुए देखना होगा। ऐसा होने पर ही व्यक्ति, समाज व राष्ट्र में अनुकूल परिवर्तन की हम अपेक्षा रख सकते हैं। यह बहुत छोटी चीज लगेगी। लेकिन, जैसा कि गांधीजी कहते थे, छोटी-छोटी बातें ही हमें परिपूर्ण बनाती हैं और परिपूर्णता कोई छोटी बात नहीं होती।

पोरबंदर में जन्मेे गांधीजी में ऐसी क्या बात थी कि आज भी केवल भारत में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में आर्थिक और सामाजिक उन्नति के लिए गांधी विचार मार्गदर्शक साबित हो रहे हैं? गांधीजी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत आज भी पुराने नहीं पड़े हैं; बल्कि समय के साथ उनकी उपयोगिता और महत्व निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा क्यों है, इसका उत्तर खोजने का प्रयास करें तो गांधीजी के ये विचार उभर कर सामने आते हैं, “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।” उन दिनों टेलीविजन नहीं था, रेडियो कहीं-कहीं अपना अस्तित्व दिखा रहा था और भारतीय नागरिक उन दिनों शिक्षा से लगभग वंचित ही थे। ऐसे कालखंड में गांधीजी ने देश के नागरिकों के दिलों में अपना अटल स्थान निर्माण किया। वे अलौकिक प्रतिभा के धनी थे। देश के नागरिकों से उनका सहज सम्पर्क था। गांधीजी ने देश में राजनीतिक व सामाजिक परिवर्तनों के लिए अनेक आंदोलनों का नेतृत्व किया। हिंदुस्तान के स्वाधीनता आंदोलन के लिए देश के करोड़ों लोग उनके साथ आ गए। इससे स्वतंत्रता संग्राम को एक अलग ही शक्ति मिली। ब्रिटिश साम्राज्य दहल उठा। गांधीजी की नेतृत्व शैली और उनकी विशेष कार्य शैली देख कर गांधीजी की शक्ति का ब्रिटिशों को अंदाजा आने लगा। ब्रिटिशों को लगने लगा था कि उनका मुकाबला ऐसे व्यक्ति से है जिसकी शुद्ध आत्मिक नीति के चक्रव्यूह में वे फंस गए हैं। वह चक्रव्यूह भेदना इतना आसान नहीं है। घुटने तक धोती पहने, शेष शरीर को खुला रखने वाले, किसी भी तरह के बड़प्पन का दिखावा न करने वाला पोषाक पहने, वक्तृत्व में भी प्रचलित नेताओं जैसी धार न रखने वाले महात्माजी ने स्वतंत्रता के पूर्व चार दशक और उसके बाद आज तक भारतीय व विश्व के जनमन पर राज किया। यह अत्यंत चकित करने वाली बात है। इसका रहस्य जानना हो तो गांधीजी का जीवन और मोहनचंद से महात्मा तक उनकी यात्रा के विभिन्न पहलुओं पर बारीकी से गौर करना आवश्यक है।

मन हमेशा सत्य की खोज में रहा करता था

गांधीजी सत्पुरुष थे यह तो सब मानते हैं लेकिन साथ में नए विचारों के प्रवर्तक भी थे। आमतौर पर धर्म प्रचार और राजनीतिक आंदोलन दोनों पृथक क्षेत्र माने जाते हैं। धर्म का उपदेश आध्यात्मिक लोग हमेशा किया करते हैं। यह भारत की परंपरा रही है। लेकिन वर्तमान की विशिष्ट जरूरत और संतों के आध्यात्मिक उपदेशों का जब संयोग होता है तब राजनीतिक परिवर्तन का समीकरण सफल होता है। महात्मा गांधी ने तत्कालीन समय की जरूरत को पहचान कर उसके साथ धर्म, धार्मिकता व आध्यात्मिक विचारों का बल जोड़ दिया। इस बल के आधार पर स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जरूरी जन सहयोग निर्माण किया। गांधीजी को लोग बापू के नाम से पुकारते थे। अंत में राष्ट्रपिता कहा जाने लगे। लेकिन गांधीजी के जीवन की ओर जब हम खुली आंख से देखते हैं तब उनमें पितृत्व की अपेक्षा मातृत्व का ही दर्शन अधिक होता है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि हजार पिताओं से एक माता श्रेष्ठ होती है। महात्मा गांधी में पितृत्व की अपेक्षा मातृत्व ही अधिक प्रकट होता है। जब हम गांधीजी का स्मरण करते हैं तब उनके अन्य गुणों की अपेक्षा उनकी ममता ही अधिक प्रखर होती है। उनके सम्पूर्ण जीवन में ममता और करुणा ही अधिक महत्व रखती थी।

महात्मा गांधी को समझने की जरूरत है। वे लगातार परिवर्तित होते रहे। याने क्षण-क्षण में गांधीजी विकसित होते रहे। गांधीजी ने कभी कोई बात कह दी होगी तो उसका आधार लेकर कोई गांधीजी से संवाद करने का प्रयास करें तो उस व्यक्ति की फजीहत होनी ही थी। गांधीजी कभी शब्दों से चिपके नहीं रहे। किसी को इस बात का भरोसा नहीं था कि आज गांधीजी ने जो बात कही है वही बात वे कल भी मानेंगे। उनका मन हमेशा सत्य की खोज में रहा करता था। अपनी बात पर कभी अटके या उलझे नहीं रहते थे। इससे स्पष्ट है कि गांधीजी परिवर्तनशील थे। लोकोत्तर पुरुषों के मन की गहराई कोई सहजता से जान नहीं सकता। इसलिए गांधीजी के शब्दों और कार्यों को किसी चौखट में बांधे रखने की कोशिश हम न करें। फिर भी, ऐसा करें ही तो हम संत रामदास के कथन के अनुसार ‘पढ़त मूर्ख’ (शब्दों में कैद व्यक्ति याने अज्ञानी) कहलाएंगे। यह गांधीजी के व्यक्तित्व प्रति जाने-अनजाने अन्याय ही होगा।

राजनीति नहीं, गरीब जनता के प्रति अपनत्व रखने वाले नेता

गांधीजी के विचारों को हमें बेहतर ढंग से ग्रहण करना चाहिए। शास्त्र कहते हैं कि, महापुरुषों के वचनों का चिंतन करना चाहिए, उनके स्थूल चरित्र का नहीं। गांधीजी के समय में संघर्ष के मुद्दे अलग थे। तत्कालीन समाज का सामाजिक व राजनीतिक स्वरूप अलग था। महात्मा गांधी के बाद आज हमारा समय आ चुका है। हमारे समक्ष नए क्षितिज खड़े हैं। उन क्षितिजों को समझने के लिए वर्तमान परिस्थिति के अनुसार उनके विचारों का हमें चिंतन करना होगा। गांधीजी ने अमुक समय अमुक कहा था इसकी जिद न करते हुए, गांधीजी के उन उद्गारों के पीछे तात्पर्य, उनकी भावना ध्यान में रख कर उसे वर्तमान से जोड़ कर गांधीजी के विचारों को आगे बढ़ाना होगा। रूप याने व्यक्ति और नाम याने विचार। व्यक्ति का नाम उनके विशेष विचारों के कारण बड़ा होता है। उस व्यक्ति के कर्तृत्व की शक्ति उसके विचारों में होती है। इसका हमें कई बार अनुभव आता है। इसलिए तुलसीदास ने कहा है, राम से ज्यादा उनका नाम बड़ा है। इसका अर्थ यह कि एक राम ने अपने जीवन काल में पतितों का उद्धार किया। उनकी संख्या हम गिन सकते हैं। लेकिन राम के निर्वाण के बाद राम नाम ने ही असंख्य लोगों का उद्धार किया है और भविष्य में कितने लोगों का होगा इसकी गिनती नहीं हो सकती। राम ने अयोध्या को स्वर्ग बनाया, लेकिन राम नाम ने असंख्य गांवों को अयोध्या बना दिया। गांधीजी के बारे में भी इसी तरह का अनुभव आता है। एक उदाहरण देना हो तो गांधीजी ने कहा था, ‘देश स्वतंत्र होने के बाद वायसराय भवन का रुग्णालय बनेगा।’ उनके मुख से निकले ये शब्द अहिंसात्मक आंदोलन का सार था। दुनियाभर में हुई क्रांतियों में जो हिंसा दिखाई देती है, वह हिंसा गांधीजी के आंदोलन में कहीं दिखाई नहीं देती। हिंसात्मक क्रांति में विदेश की परतंत्रता से मुक्त होने के बाद विदेशी स्मारकों का तोपों से उड़ा देने के हुक्म जारी हुए हैं। हिंसा के जरिए दमन का राजनीतिक विस्तार हिंसा ही होता है। लेकिन गांधीजी कभी ऐसी राजनीति के पक्षधर नहीं रहे। गांधीजी ने गोलमेज परिषद में कहा था, “मैं नम्रतापूर्वक स्वराज्य की मांग कर रहा हूं। क्योंकि, स्वराज्य के बिना भारत की गरीबी दूर नहीं होगी। हमें स्वतंत्रता मूंछों पर ताव देने के लिए नहीं चाहिए, गरीबी दूर करने के लिए चाहिए।” यह बात उन दिनों विचित्र कही जाती थी। इसलिए कि ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ कहने वाले लोकमान्य तिलक का उस कालखंड पर प्रभाव था। ऐसा होने पर भी स्वतंत्रता की ओर एक अलग ढंग से देखने की दृष्टि गांधीजी के पास थी। गांधीजी की यह भाषा राजनीति करने वाले नेता की नहीं थी, भारतीय गरीब जनता के प्रति अपनत्व और ममत्व रखने वाले नेता की थी।

गांधीजी की अखंड साधना लोकनीति की थी। गांधीजी जैसे संत पुरुष अपने जीवन काल में जितने शक्तिवान होते हैं, उससे अधिक तो चले जाने के बाद होते हैं। गांधीजी ने जो विचार प्रकट किए थे वे उनके निधन के बाद भी खत्म नहीं हुए। गांधीजी के विचारों का प्रकाश अधिक साफ अनुभव होने लगा है। उनके जीवन काल में उनके द्वारा निर्मित कार्य की अपेक्षा कई गुना अधिक काम तो उनके जाने के बाद उनके विचारों ने किया है। गांधीजी की देह मुक्त हुई तब उनके विचार खुशबू की तरह चारों ओर फैल गए। उनके निधन के बाद उनका नाम, उनके शब्द, उनके विचार भारत के साथ सम्पूर्ण विश्व को प्रेरणा देने वाले साबित हुए, यह एक सत्य है।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को मानव सेवा का रुप दिया

गांधीजी दूर की बात सोचते थे। वे अगली पीढ़ी का विचार करते थे। भारतीय संस्कृति में अध्यात्म, सेवा, परोपकार, मानवता से सम्बंधित जो सद्गुण हैं, उनमें एक तरह की आंतरिक शक्ति है। महात्मा गांधी ने उस आंतरिक शक्ति का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बहाने दैनंदिन व्यवहार में उपयोग किया इसके कई प्रसंग मौजूद हैं। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को महात्मा गांधी ने मानव सेवा का रूप दिया। राजनीति में धर्म और अध्यात्म का प्रभाव संवर्धित किया। इसलिए भारत का स्वतंत्रता आंदोलन केवल राजनीतिक आंदोलन न रह कर वह समाज के सभी प्रवृत्तियों के लोगों का आंदोलन बन गया। इसीलिए जिन्हें राजनीति में रुचि नहीं थी ऐसे असंख्य लोगों ने स्वतंत्रता के आंदोलन में स्वयं को झोंक दिया। गांधीजी भी स्वभाव से राजनीतिक नहीं थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में सोचने पर लगता है कि महात्मा गांधी ने जीवन के अंतिम समय तक ब्रिटिशों को देश से बाहर करने के लिए संघर्ष किया ऐसा माना जाता है, लेकिन गांधीजी के लिए वह संघर्ष कभी राजनीति नहीं था। गांधीजी के विचार में वह उनकी व्यापक साधना और सत्य के प्रयोगों का अंग था। महात्मा गांधीजी को राजनीति में सफलता मिली इसका कारण भी यही है कि उनकी राजनीति सत्य पर अधिष्ठित थी। गांधीजी के जमाने में भी उनके तुल्यबल देश में कई नेता थे। लेकिन इन नेताओं के बारे में लोगों को यह भरोसा नहीं था कि वे जैसा बोलते हैं वैसा ही उनके मन में है। गांधीजी अन्य नेताओं से अधिक कुशल थे ऐसा भी नहीं है। लेकिन गांधीजी के पास सत्य था। गांधीजी के सच्चे बर्ताव के कारण ही उन्होंने राजनीति को उदात्त बना दिया। इसी तरह राजनीति को अध्यात्म से भी जोड़ दिया। अर्थात, गांधीजी ने राजनीति को धर्ममय और नीतिमय बनाने की कल्पना को अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से भारतीय जनता के समक्ष रखा। एक उदाहरण दिया जाता है। गांधीजी तब लंदन में गोलमेज परिषद के लिए गए थे। उस समय गांधीजी आलिशान सरकारी अतिथि गृह में रुकने के बजाय लंदन की अत्यंत गरीब बस्ती में रहे। इस बस्ती से गोलमेज परिषद के स्थान पर जाने के लिए कोई डेढ़ घंटा लगता था। ऐसा होने पर भी वे उस गरीब बस्ती में जाकर रुके। इस तरह गांधीजी सामान्य जनता से एकरूप होने वाले एक अलग किस्म के राजनीतिज्ञ थे।

सच कहें तो ‘दरिद्र नारायण’ शब्द तो विवेकानंद ने दिया है। अद्वैत को दरिद्र नारायण की सेवा से जोड़ने की प्रक्रिया मूलतया विवेकानंद की है। यह दरिद्र नारायण शब्द लोकमान्य तिलक को बहुत प्रिय था। देशबंधु चित्तरंजन दास ने भी इस शब्द का अपने व्यवहार में बहुत उपयोग किया। लेकिन इस शब्द को घर-घर पहुंचाने और उसके अनुसार रचनात्मक कार्य खड़े करने का काम गांधीजी ने किया। उन्होंने अपने जीवन में दरिद्र नारायण की उपासना का एक बेहतर उदाहरण पेश किया। इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि हमारी रोज की बातचीत में दरिद्र शब्द न रहे। केवल नारायण रहे। दुनिया में कोई दरिद्र न रहे। भविष्य में वे सभी अमृत के पुत्र हो। अमृत पुत्रों में विषमता का प्रश्न ही नहीं होता। ये लोग कंधे से कंधा मिला कर देश की सेवा करें।

कांग्रेस विसर्जन की सलाह

गांधीजी के अंतिम दिनों का चित्र रेखांकित करते हुए ‘द लास्ट फेज’ ग्रंथ के लेखक कहते हैं, अंतिम दिनों में गांधीजी कहा करते थे कि, मैंने जिन मूल्यों के लिए संघर्ष किया, वे सारे मूल्य अब नष्ट हो रहे हैं। प्रश्न यह है कि गांधीजी के समय में राजनीति को अध्यात्म का रूप प्राप्त होने का केवल आभास उत्पन्न हुआ था या वह महज सत्ता पाने के पूर्व का माहौल था? ब्रिटिशों से मुक्ति पाकर देश स्वतंत्र होने का समय करीब आते ही राजनीति की आध्यात्मिकता एकदम दफा हो गई। कई लोगों का कहना है कि गांधीजी की राजनीति पक्षपाती थी। कुछ लोग भले यह सोचते हो लेकिन गांधीजी के जीवन के अंतिम कालखंड पर गौर करें तो अनुभव होता है कि जिस तरह पाकिस्तान स्वतंत्र होने के बाद जिन्ना ने सत्ता के सभी सूत्र अपने हाथ में रखें और वहां सत्ता पर काबिज हुए, वैसे ही गांधीजी यदि सोचते तो गांधीजी के स्वाधीनता संग्राम में योगदान को देखते हुए उन्हें कौन रोकने वाला था? लेकिन गांधीजी ने विभाजन के बाद देश में हुए दंगों को शांत करने के लिए पदयात्रा आरंभ की।

महात्मा गांधी गौमाता जैसे ममतामयी थे

विनोबा भावे अपने सामाजिक व आध्यात्मिक जीवन के बारे में कहते हुए बताते हैं कि, बचपन से ही उन्हें बंगाल व हिमालय का आकर्षण था। बंगाल का वंदेमातरम् और हिमालय का ज्ञानयोग उन्हें बुलाता था। आयु के बीसवें वर्ष में विनोबाजी के कदम गांधीजी के आश्रम की ओर मुड़े। गांधीजी के सम्पर्क में आने पर उन्हें लगने लगा कि गांधीजी के सानिध्य में आने पर बंगाल का वंदेमातरम् और हिमालय का ज्ञानयोग उन्हें एक ही स्थान पर मिल गया। गांधीजी के पास मुझे हिमालय की शांति और बंगाल की क्रांति के एकसाथ दर्शन हुए। गांधीजी के सानिध्य से मुझे शांति और क्रांति का अपूर्व संगम प्राप्त हुआ। इस समय शंकराचार्य का एक वाक्य याद आता है। शंकराचार्य ने कहा है कि मनुष्य के तीन भाग्य हैं। पहला भाग्य मनुष्य जन्म, दूसरा भाग्य मुक्ति का अभियान और तीसरा भाग्य किसी महापुरुष का सानिध्य। ऐसे एक महापुरुष के साथ काम करने और उनके साथ जीवन जीने का भाग्य अनेक तत्कालीन महानुभावों को मिला। अनेक लोग कहते हैं कि बड़े लोगों की छाया में रहने वाले का पर्याप्त विकास नहीं होता। इसके लिए बड़े वृक्ष के नीचे पनपे छोटे पौधों का उदाहरण दिया जाता है। उन्हें बड़े वृक्ष के कारण पर्याप्त पोषण नहीं मिलता और उनकी वृद्धि रुक जाती है। बड़ा पेड़ ही उनका पोषण हजम कर जाता है। लेकिन यह बात महात्मा गांधी के बारे में लागू नहीं होती। महात्मा गांधी गौमाता जैसे ममतामयी थे। गाय स्वयं चारा खाकर अपने बछड़ों को मधुर दूध पिलाती है। उस गाय के सानिध्य में बछड़ों का स्वस्थ पोषण होता है, वे बढ़ते हैं और हृष्टपुष्ट होते हैं। महात्मा गांधी के बारे में भी इसी तरह विश्लेषण करना उचित होगा। महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए, उनके सानिध्य में रहे हर व्यक्ति का अनुभव है कि वे स्वभाव से कितने भी बुरे हो, दुष्ट हो फिर भी गांधीजी के साथ आते ही अच्छी प्रवृत्ति के बन जाते हैं। कर्तृत्व से कम पड़ते हो तो उनमें आत्मबल निर्माण हो जाता है। डरपोक हो तो निर्भय बन जाता है। उनकी साया में लाखों लोग बड़े हो चुके हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत का नेतृत्व करने वाली एक समर्थ पंक्ति उन्होंने निर्माण की है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। कहते हैं गांधीजी अपने कार्यकर्ताओं से कहा करते थे कि, ‘मेरे रहते आप बहुत चमक नहीं पाए तब भी चिंता न करना। मैं जब नहीं रहूंगा तब आपके तेज और वीरता से भारत दमक उठेगा। उनकी भविष्यवाणी सच ही साबित हुई। उनके चले जाने के बाद वल्लभभाई पटेल, विनोबा भावे जैसे अनेक नेता देश के कोने-कोने में विभिन्न क्षेत्रों में पूरी शक्ति के साथ कार्यरत रहे।

 

महात्मा गांधी ने अपने निधन के पूर्व देश को सलाह दी थी कि, ‘कांग्रेस का स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य पूरा हुआ है, अतः उसे अब देश की जनता की सेवा में जुट जाना चाहिए और कांग्रेस का लोकसेवक संघ में विलय किया जाना चाहिए।’ कांग्रेस के बारे में गांधीजी का यह इच्छा-पत्र ही था। इसमें उन्होंने कहा था कि, कांग्रेस ने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की है। लेकिन देश की सामान्य जनता के लिए आर्थिक, सामाजिक व नैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का कार्य अब भी बाकी है। गांधीजी चाहते थे कि इसके लिए लोकसेवक संघ की स्थापना की जाए और कांग्रेस का उसमें पूरी तरह विलय कर दिया जाए। देश के सभी धर्मियों की सेवा के लिए राजनीति से मुक्त संस्था होनी चाहिए और वह देश के ग्रामीण व देहाती इलाकों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कटिबद्ध हो। महात्मा गांधी की यह सलाह तत्कालीन राजनीतिक नेताओं को विचित्र लगी। इन राजनीतिक लोगों का कहना था कि यदि कांग्रेस का लोकसेवक संघ बन गया तो देश में आपात स्थिति उत्पन्न होगी। गांधीजी ने कांग्रेस को लोकसेवक संघ बनने की सलाह दी थी। इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि लोकसेवक संघ बना तो राजनीति पर लोकसेवक संघ का प्रभाव रहेगा और राजनीति का स्थान दूसरे नम्बर पर होगा।

सच कहें तो गांधीजी की यह सलाह कांग्रेस के लिए एक तरह से आशीर्वाद ही थी। इस आशीर्वाद के बल पर कांग्रेस अमरत्व की ओर मार्गक्रमण करती। लेकिन महात्मा गांधी की इस विशाल कल्पना को पचाने का उस समय के किसी भी कांग्रेस नेता में माद्दा नहीं था। देश को स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद गांधीजी की सलाह न मानने से कांग्रेस एक राजनीतिक दल बन कर रह गई। स्वतंत्रता के पूर्व प्रचंड क्षमता रखने वाली कांग्रेस स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक ‘पार्टी’ बन गई। ‘पार्टी’ शब्द ‘पार्ट’ से बना है और पार्ट का मतलब है टुकड़े। आज कांग्रेस की स्थिति की ओर देखें तो मन में प्रश्न उभरता है कि कांग्रेस क्या पार्टी के रूप में भी बची रहेगी?

गांधी व्यक्ति नहीं, विचार है।

अपने देश में विभूति पूजा का जोर होता है। हमें कर्तृत्वशील लोगों में देवत्व देखने की आदत लग चुकी है और फलस्वरूप किसी व्यक्ति का जनता पर प्रभाव होने लगा कि हम उस व्यक्ति को देवत्व प्रदान कर देते हैं। यह उचित नहीं है। भारत को स्वाधीनता दिलाने के लिए गांधीजी के रूप में ईश्वर ने अवतार लिया इस तरह की उनकी छवि यदि हम बनाने लगेंगे तो हास्यास्पद ही होगा। उनके प्रति आदर भाव जरूर रखें, परंतु उन्हें देवता न बनाए। वे भी एक मनुष्य थे और उन्हें मनुष्य ही रहने दें। इसीमें ही भारत के साथ हम सबका हित है। गांधीजी को हमने यदि अवतार बना दिया तो हम मानवता का एक आदर्श खो देंगे। एक सामान्य व्यक्ति ने अपने असामान्य कर्तृत्व से देश व समाज के लिए शुद्ध और समर्पित पद्धति से अपना जीवन व्यतीत किया है। यह दृष्टांत हमें गांधीजी के रूप में प्राप्त हुआ है। उनके जीवन को समझ कर उसका कुछ अंश हम अपने में जीवन में कैसे उतारें, इसका विचार किया जाना चाहिए। हमारे लिए यह खुशी की बात है कि गांधीजी जैसा व्यक्तित्व हमारे देश में पैदा हुआ। वे सामान्य व्यक्ति के रूप में जन्मे और इसी जन्म में उन्होंने जो कुछ पाया वह अपनी साधना और सत्यनिष्ठा से पाया। उनका जीवन हमारे लिए अनुकरणीय है। एक बार विनोबा भावे से एक व्यक्ति ने पूछा, उन्हें ‘गांधी’ कहें या ‘गांधीजी?’ विनोबाजी ने जवाब दिया कि, “यदि आप उन्हें एक पूज्य व्यक्ति मानते हों तो ‘गांधीजी’ कहें। लेकिन उन्हें एक ‘विचार’ के रूप में मानते हों तो ‘गांधी’ कहें। गांधीजी मेरे लिए एक व्यक्ति नहीं, एक ‘विचार’ है।

व्यक्ति,समाज व राष्ट्र जीवन के सभी अंगों को स्पर्श करनेवाले गुण महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में थे

गांधीजी में जो भी विशेषताएं थीं उन्हें प्राकृतिक मानें तब भी वर्तमान समय में हमें राजनीति-समाज नीति में अथवा व्यक्तिगत तौर पर सफल होना हो तो गांधीजी के विचारों से हम बहुत बड़ी प्रेरणा पा सकते हैं। क्योंकि, गांधीजी के सम्पूर्ण जीवन की ओर देखें तो व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के रूप में जीवन के सभी अंगों को स्पर्श करने वाले गुण महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में थे। इसलिए महात्मा गांधी से मिलने पर प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था, भविष्य में आने वाली पीढ़ी इस बात पर विश्वास नहीं करेगी कि गांधी जैसा हाड़-मांस का व्यक्ति इस धरातल पर पैदा हुआ था। स्वयं महात्मा गांधी ने कहा है कि, “छोटी-छोटी बातों में भी हमारे जीवन सिद्धांतों की परीक्षा होती है।” हम व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के रूप में विभिन्न स्तरों पर परिवर्तन लाने की अपेक्षा कर रहे हों तो हमें गांधीजी के विचारों-सिद्धांतों की ओर वर्तमान समय के अनुरूप देखना आरंभ करना चाहिए। हमें लगेगा यह बहुत छोटी चीज है। लेकिन, जैसा कि महात्मा गांधी ने ही कहा है, “छोटी-छोटी बातें हमें परिपूर्ण बनाती हैं और परिपूर्णता कोई छोटी बात नहीं होती।”

 

 

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