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सांस्कृतिक समन्वय की भूमि

by विशेष प्रतिनिधि
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*** हेमराज मीणा**

 
        पूर्वोत्तर भारत को सांस्कृतिक संगम भूमि माना जाता है। सांस्कृतिक वैविध्य और भाषाई वैविध्य इस धरती के निवासियों की अमूल्य धरोहर है। यहां का लोक सांस्कृतिक स्वरुप अदभुत है। पूर्वोत्तर भारत का जो चित्र प्रचार तंत्रो द्वारा प्रस्तुत किया गया है वह आधा-अधूरा और कोहरे में लिपटा हुआ है। अनेकों आपदाओं को झेलते हुए भी यहां के लोक मानस ने अपनी बोलियों,भाषाओं,वाचिक परंपराके साहित्य तथा संस्कृति को बचाने के लिए अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया है। लगभग १५० जनजातीय बोलियों और भाषाओं का इस अंचल में प्रयोग होता है। संवैधानिक दृष्टि से पूर्वोत्तर भारत में पांच भाषाओं का प्रयोग होता है-असम में असमिया, नेपाली तथा जनजातीय भाषा बोडो का। असम के बराकघाटी क्षेत्र और त्रिपुरा में बांग्ला का। मणिपुर में मणिपुरी अर्थात मैतै का। संपर्क भाषा के रुप में हिंदी का प्रयोग होता है। 
लिपि के स्तर पर यहां असमिया, देवनागरी, बांग्ला, मैतैमयेक तथा रोमन का प्रयोग होता है। काकबरक (त्रिपुरा) के लिए लिपि प्रयोग पर प्रयास हो रहा है। 
       मणिपूर में मणिपूरी तथा हिंदी मिजोरम में मिजोड और हिंदी,त्रिपुरा में बांग्ला तथा हिंदी,मेघालय में खासी,गारो,जयन्तिया तथा हिंदी,नागालैंड में नागामीज तथा हिंदी, मुख्य संपर्क भाषा (लिंक लैग्वेज) है। पूर्वोत्तर भारत ने हिंदी भाषा को पूरी आत्मीयता तथा सम्मान के साथ संपर्क भाषा के रुप में अपनाया है। पूर्वोत्तर भारत का भाषा प्रेम और भाषाई अनुराग अनुकरणीय है। यह भाषानुराग पूर्वोत्तर की आंतीरक सांस्कृतिक समृध्दि का द्योतक है।  समूचे पूर्वोत्तर में हिंदी पत्रकारिता की एक समृध्द परंपरा हमें दिखाई पडती है। इसीलिए आज गुवाहाटी और असम के अन्य नगरों लखीमपुर, तिनसुकिया जोरहाट आदि से ‘पूर्वांचल प्रहरी’, ‘दैनिक पूर्वोदय’‘प्रात खबर‘,‘सेंटिलन‘ जैसे हिंदी दैनिक और ‘युमशकैश‘, लटचम‘,‘कुन्दोपरेड‘,‘महिप‘,’चयोलपाऊ‘(इंफाल मणिपुर),‘मेघालय दर्पण’,‘समन्वय पूर्वोत्तर‘,(शिलांग),‘गुंजन,‘’पूर्वोत्तर भारती दर्पण’(कोहिमा नागालैंड) ’राष्ट्रसेवक ‘’उलुपी ‘,’मंच भारती‘ युवा दर्पण,‘देशदिसावर’,उषा ज्योति‘संघम’(असम)तथा ’अरुण प्रभा’(ईटानगर) जैसी साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिकाएँ पूर्वोत्तर की संवेदना से हमें जोडती है। यहां का सामाजिक,धार्मिक, सांस्कृतिक अौर साहित्यिक जीवन श्रीमंत शंकर देव,श्रीमंत माधव देव भारतरत्न गोपीनाथ बरदलै,साहित्य शिल्पी ज्योतिब्रसाद अगरवाल,कलागुरु विष्णुराभा,डां भूपेन हजारिका,पद्म भूषण रानी गाइडलु कवि डां लमाबम कमल,श्री लक्ष्मीनाथ बैजवह्या,डां वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य तथा डां मामोनीरायसम इंदिरा गोस्वामी महाराजकुमारी विनोदिनी देवी संगीतकार आर.डी.बर्मन आदि से कई रुपों में प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करता रहा है। पूर्वोत्तर भारत के बौद्ध समाज को गौतम बुध्द और उनका दर्शन भी यहां की बौध्द संस्कृति के संरक्षण को प्रोत्साहन देता रहा है। तवांग का गुंफा तथा गांतोक के बौध्द मठ इसके उदाहरण है। 
        पूर्वोत्तर भारत के आठों राज्यों की संस्कृति के निर्माण में यहां की प्राकृतिक संपदा और मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य की बडी भूमिका है। नदी, झरने,पर्वत जंगल,विविध प्रकार के पेड-पौधे और फूल पूर्वोत्तर निवासियों की आत्मा में निवास करते हैं। पूर्वोत्तर भारत को यहां की खूबसूरत प्रकृति और सहज शांत वातावरण ने उपहार में नृत्य,संगीत, कला और सौंदर्यानुभूति की दृष्टि दी है। उत्सवप्रिय यहां का समाज गंधर्वजाति का प्रतिनिधित्व करता है। 
        प्रत्येक समुदाय के पास अपनी भाषा-बोली है लोकनृत्य है,वाद्य यंत्र है,लोक संगीत है और अपने -अपने लोकोत्सव हैं। इन्ही लोकोत्सवों के कारण यहां का समाज वैसे आधुनिक जीवन शैली यहां के जीवन में विद्यान रस को शुष्कता से भरने लगी है। अरुणाचल और असम की धरती पर ब्रह्मपुत्र नद तथा सुवनश्री जैसी नदियां है। मणिपुर की धरती पर इंफाल नदी, लोक्ताक झील तथा वराक नदी है। यही वराक नदी असम प्रांत कघ्डार, करीमगंज को नया जीवन देती है। मिजोरम, मेघालय,त्रिपुरा,नागालैंड,अरुणाचल प्रदेश तथा सिक्किम राज्य की धरती पर सैकडों छोटी -बडी नदियां और झरने हैं। सभी जनजातीय समुदायों के अपने अपने पारंपारिक वस्त्र और आभूषण है। ये आभूषण भी इन्हें पेडों पर्वतों,नदियों और पशुओं से मिले हैं। पूर्वोत्तर भारत जैसा पुष्प प्रेम आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। पूर्वोत्तर जैसा नृत्य वैविध्य भी अन्य राज्यों में दुर्लभ है। असम के गुवाहटी नगर में कामारव्या धाम,वसिष्ठ आश्रम,जयदौल मंदिर,उमानंद मंदिर तथा श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र है। मणिपुर में गोविंददेव मंदिर तथा अरुणाचल में परशूराम कुंड है। त्रिपुरा में त्रिपुरेश्वरी मंदिर तथा सिक्किम में नामची जिला मुख्यालय में चार धाम है। 
       इतिहास प्रसिध्द शिवसागर में शिवमंदिर तथा अहोम राजाओं के महल हैं। तेजपुर (शोणितपुर)उषा-अनिरुद्ध स्थल,दीमापुर में भीम द्वारा प्रयुक्त प्रस्तर गदाएँ है। रामायण की रामकथा के आधार पर कार्बी जनजातीय भाषा में ‘साबिन-आलुन’(कार्बी रामायन)तथा रवामती जनजातीय भाषा में ‘लिकचाड-लामाड’(रवामती रामायण) की रचना भी असम और पूर्वोत्तर की देन है। लोक त्यौहार या लोक उत्सवों की दृष्टि से मेघालय में नंक्रेम,रंगचुगाला,वागाला और सद्-सुक-खलाम प्रसिद्ध है।  मिजोरम में पलकूट, मीमकूट और चापचार कूट मनाते हैं मणिपुरी और लोकउत्सवों के नाम हैं-लाइ-हराओबा, रासलीला,झूलन -यात्रा,तथा चैराओबा। 
         नागालैंड में सांगतम,फोम,कोन्याक,आओ,अंगामी, सेमा,लोथा,चाखेसाड रेंगमा और कुकी समुदाय के मध्य मोत्सु, सुक्रेमंग, सीक्रेनी, नगोवी, थेकरानी तुलुनी आदि पर्व आयोजित होते हैं। इसी प्रकार त्रिपूरा ऊनकोटिमेला और अरुणाचल में न्योकुम,सोलुंग,मोपीन आदि अनेकों पर्व है। असम का बिहूपर्व और बिहूनृत्य विश्वविख्यात है। रंगाली बिहू(बहाग बिदू) सर्वाधिक लोकप्रिय है। पूर्वोत्तर के सभी नृत्यसाकूहिक तथा कृषिसंस्कृति (श्रम संस्कृति)पर आधारित है। पूर्वोत्तर भारत में मुख्य और लोकप्रिय धर्म प्रकृति पूजा रहा है। हिन्दू समुदाय के लोग हिन्दू पर्व,ईसाइ समुदाय अपने धार्मिक पर्वो को भी मनाते हैं। धर्म आस्था,विश्वास बदला है लेकिन पारंपरिक पर्व, उत्सव, नृतयि, संगीत, खेलकूद अभी जीवित है। सभी समुदायों में एक चेतना पैदा हो रही है और वे अपने मूल्यों, आस्थाओं वाचिक लोक साहित्य अपनी अपनी मातृबोलियों को संरक्षित रखना चाहते है। यहां का परिधान वैविध्य पूर्वोत्तर भारत को एक सांस्कृतिक पहचान देता है। लोक संस्कृति, लोक साहित्य और लोक संगीत की ओर आस्था बढ रही है। अत: पूर्वोत्तर भारत लोकसंस्कृति का संवाहक केंन्द्र है। 
पूर्वोत्तर भारत में असम को छोडकर शेष राज्यों में झूम खेती होती है। सभी प्रकार के फल सब्जियों का यहां उत्पादन होता है। असम राज्य के किसान चावल,सुपारी,नारियल की खेती करते हैं। असम में मूगा,रेशम की भी खेती होती है। मेधालय राज्य कि गारो हिल्स संतरे की खेती के लिए प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं अनन्नास का उत्पादन भी खूब होता है। गारो हिल्स के कुछ किसान पाट मूगा,रेशम,कपास की खेती करते हैं। मेघालय राज्य की खासी जनजाति सब्जी की खेती बडी दक्षता से करती है। पत्ता गोभी,फूल गोभी,हरे रंग का फूलगोभीगांठगोभी,लाइपत्ता,मटर,मिर्च, टमाटर,गाजर,मूली आदि की यँहा जैविक खेति होती है। आलू भी खूब होता है। सभी प्रकार की पहाडी क्षेत्र में उत्पन्न सब्जियों में विशेष स्वाद है। यहां से कुछ सब्जियां असम के बडे नगरों में भी भेजी जाती हैं। असम,मेघालय,मणिपूर,त्रिपुरा तथा नागालैड में बांस और बेंत की टोकरिया और फर्नीचर बनता है। समूचा पूर्वोत्तर लकडी के फर्नीचर निर्माण के कार्य में अत्यन्त कुशल है। त्रिपूरा बांस की विभिन्न प्रकार की कलात्मक वस्तुएँ बनाने में पूर्वोत्तर में सर्वाधिक लोकप्रिय है।  मिजोररम लडकी की जडों से सौन्दर्य पूर्ण कलात्मक सजावट की सामग्री बनाने में दक्ष हो चूका है। पूर्वोत्तर के घर-घर में हथकरघा चलाया जाता है। पारंपारिक वस्त्रों का निर्माण हर समुदाय अपनी प्राचीन परंपरा तथा प्रतीक विधान की शैली में करता है। अधिकांश जनजातीय समुदाय की महिलाएँ अपने हाथ से बुने वस्त्र पहनती हैं। असमिय महिलाएँ तातशाल पर कपडे बुनती हैं। पूजा के अवसर पर सफेद वस्त्र पहनने की परंपरा है। असम में महिलाएँ असमिया संस्कृति के अनुसार मेखला -चादर पहनती हैं। पुरुष वर्ग धोती -गमछा धारण करते हैं। मेहमान और रिस्तेदारों को गमछा भेंट किया जाता है। अतिथि को शराई में ताम्बूल-पान रखकर सत्कार किया जाता है। बिहू उत्सव में महिलाएँ,नृत्य करने वाली लडकिया मूगा से बने कलात्मक वस्त्र पहनती है। असमिया महिलाओं को लाल रंग विशेष प्रिय है। 
         समय समय पर साडी भी पहनी जाती है। बोडो महिलाएँ दखाना पहनती है। सिक्किम का लिम्बू समाज भी पारंपरिक वस्त्र धारण करता है। मणिपुरी महिलाएँ सूतीथिा रेशम से निर्मित फनिक और चादर (आधी साडी) पहनती है। पूजा, कृषि,उत्सक के अवसर पर अलग अलग रंग के वस्त्र पहने जाते है। मणिपूरी पुुष सफेद-धोती तथा सफेद पगडी धारण करते हैं। मणिपूरी समाज में दुल्हन को राधा की तरह सजाया जाता है। पूर्वोत्तर भारत में वस्त्र पहनने की कला में असमिया,बोडो,खासी, मिसिड्, मणिपूरी आदि  सौंदर्यात्मक ढंग से बहुत दक्ष है। पूर्वोत्तर भारत का सांस्कृतिक पक्ष अत्यत गहन और व्यापक है। संगीत -नृत्य और उत्सवप्रियता यहां की विशिष्ट पहचान है। 

 

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