वैश्‍विक वर्चस्व की स्वार्थी लड़ाई

रूस के प्रवासी हवाई जहाज को क्षेपणास्त्र का प्रयोग करके मार गिराया गया। इसमें लगभग २२० यात्री मारे गए। इस भयानक हत्याकांड की जिम्मेदारी इसिस ने ली है। फ्रांस के पेरिस में भी इसिस ने हमला करके लगभग १२५ से अधिक लोगों की नृशंसता से हत्या की है। इस हमले से इसिस ने पूरी दुनिया खौफ का वातावरण निर्माण के दिया है। इसिस के हमलों का स्तर कहां तक पहुंच गया है और वह किस हद तक घातक सिद्ध हो सकता है इसका यह उत्तम उदाहरण है। इराक और सीरिया में इसिस ने आतंक फैला रखा है। इस आतंक पर लगाम कसने के लिए वैश्विक महासत्ता अमेरिका और रूस के बीच राजनीति शुरू हो चुकी है। इसिस जैसे आतंकवादी संगठन के पास इतने अत्याधुनिक शस्त्र होना ही इन दोनों महासत्ताओं के स्वार्थी संघर्ष का मूल कारण है।

रूस ने कुछ दिनों पूर्व ही सीरिया में स्थित इसिस के कुछ अड्डों को ध्वस्त कर दिया था। इसमें इसिस के कई आतंकवादियों का खात्मा हो गया था। परंतु इस हमले को लेकर अमेरिका ने रूस पर तीखी टिप्पणी की और यहीं से दोनों देशों के बीच राजनीति शुरू हो गई। मन में किसी भी तरह का संदेह रखे बिना आतंकवादियों का खात्मा करने का उद्घोष करने वाली अमेरिका एक ओर तो आतंकवादियों के खिलाफ सारी दुनिया को एकजुट होने का आह्वान करता है और दूसरी ओर सीरिया में आतंकवादियों के खिलाफ कोई भी ठोस कार्रवाई न कर उसे खुला मैदान मुहैया करा रहा है। रूस के द्वारा इसिस पर किए गए हमले का भी अमेरिका विरोध कर रहा है। सीरिया में पिछले ४ वर्षों से लगातार संघर्ष जारी है। सीरिया तथा इराक में इसिस ने जो आतंक मचा रखा वह समस्त मानव जाति पर कालिख पोतने वाला है। इस संगठन के द्वारा जो हिंसक संघर्ष उत्पन्न किया गया उसमें लाखों लोग मारे गए हैं। इन आतंकवादियों ने इराकी, सीरियन और विदेशी पत्रकारों की जिस क्रूरता से हत्या की है, वह हैवानियत को भी पीछे छोड़ देती है। सामूहिक हत्याकांडों और कैमरे के सामने गला काटने की घटनाओं के द्वारा इसिस ने पहले ही सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। और अब रूस के प्रवासी हवाई जहाज को गिराकर उसने अपनी घातक क्षमता भी दुनिया के सामने  रखी है।

अब यह प्रश्न निर्माण होना स्वाभाविक है कि इतना बड़ा नरसंहार होने के बाद भी दुनिया से आतंकवाद खत्म करने का ठेका लिए बैठी अमेरिका शांत क्यों है? अमेरिका ने सद्दाम हुसैन के पास रासायनिक शस्त्र होने का अरोप लगाते हुए इराक पर युद्ध थोपा और सद्दाम हुसैन को फांसी दी। गद्दाफी को भी मार डाला। अमेरिका और यूरोप वैश्विक शांति और सांस्कृतिक धरोहरों को बचाने की डींगे हांकते हैं, लेकिन जब इसिस नरसंहार कर रहा होता है तो अमेरिका के पास उस ओर ध्यान देने का समय नहीं होता। या कहीं ऐसा तो नहीं कि इसिस की ताकत और साहस को बढ़ाने में अमेरिका ही मदद कर रहा है।

भले ही इसिस का जन्म अमेरिका के द्वारा इराक पर किए गए हमलों के बाद हुआ हो परंतु उसके प्रसार के लिए काफी हद तक अमेरिका की नीतियां जिम्मेदार हैं। अन्य अरब देशों की तरह ही सीरिया के राष्ट्राध्यक्ष बशर-अल-असद की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए अमेरिका ने इसिस के लड़ाकों की फौज तैयार करने के लिए प्रोत्साहन दिया। अमेरिका ने आव्हान किया था कि बशर-अल-असद सत्ता छोड दें। परंतु असद ने इसे ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप असद के विरोध में शस्त्र उठाने वाले अलगाववादियों को शस्त्र देने की नीति अमेरिका ने अपनाई। अलगाववादियों ने ये शस्त्र इसिस को बेचकर उनके हाथ मजबूत किए। आज यही इसिस सामान्य नागरिकों, पत्रकारों आदि को बड़ी निर्दयता से मार रहा है। हवाई जहाज को मार गिराने जैसा भयानक कृत्य कर रहा है। इतना सब होने के बाद भी अमेरिका जैसी सुपर पावर कोई भी ठोस कृति नहीं कर रही है। इसका कारण अमेरिका की नीति में छुपा है।

अमेरिका की यही नीति रूस को फायदा पहुंचाने वाली है। सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह में रूस की वायुसेना सीरिया संघर्ष में उतरी। सन १९९१ में रूस का विघटन होने के बाद इन देशों में रूस ने कभी भी हस्तक्षेप नहीं किया। अत: सीरिया में किए गए सैनिकी हस्तक्षेप को रूस का २० साल बाद किया गया पहला हस्तक्षेप कहा जाना चाहिए। रूस सारी दुनिया को यह जताने की कोशिश कर रहा है कि वह इसिस के विरोध में लड़ रहा है। साथ उसकी सोच यह भी है कि अगर किसी देश की सरकार से अमेरिका और यूरोप के मतभेद हों तो उस सरकार को गिराने का हक उन्हें नहीं है। अत: रूस सीरिया के साथ है। सामान्यत: मध्यपूर्व के अरब देशों में अमेरिका की बात को ही सही माना जाता है। परंतु रूस ने प्रत्येक देश के अस्तित्व रक्षण का मुद्दा उपस्थित कर सीरिया का पलड़ा भारी कर दिया है। इसके कारण मध्यपूर्व में अलग तरह का ध्रुवीकरण होने की संभावना है। यह बात अमेरिका को कभी भी मंजूर नहीं होगी।

सोवियत संघ के विघटन के बाद ९० के दशक में कालातीत हो चुका रूस फिर अब अपना सिर उठा रहा है। अमेरिका के लिए यह एक चिंता का विषय है। ९० के दशक में विकलांग हो चुका रूस, राष्ट्रपति पुतिन के काल में आक्रामक रूस में परिवर्तित होता दिख रहा है। आज रूस अमेरिका की तरह समृद्ध नहीं है; परंतु उसके पास महासत्ता होने का इतिहास है। इसलिए रूस समूचे विश्व का कोतवाल होने, तारणहार होने की भावना लेकर अमेरिका के सामने आव्हान प्रस्तुत कर रहा है। मध्यपूर्व की प्राकृतिक संपदा पर जिस तरह अमेरिका अधिकार जता रहा है, उसी तरह रूस भी जता रहा है।

५० के दशक में अधिकांश अमेरिकावासियों को यह लग रहा था कि सोवियत संघ अमेरिका को पछाड़ देगा और दुनिया में सबसे शक्तिशाली बन जाएगा। रूस के पास दुनिया का सबसे बड़ा भूभाग था। जनसंख्या में वह दुनिया में तीसरे क्रमांक पर था। अर्थव्यवस्था में दूसरे क्रमांक पर था। वह सऊदी अरब से बड़े पैमाने पर तेल खरीद रहा था। साथ ही सोवियत संघ के पास दुनिया के अधिकांश परमाणु शस्त्र भी थे। उनके सैनिकों की संख्या भी अमेरिका से अधिक थी। संशोधन और विकास में भी काफी आगे थे। अंतरिक्ष संशोधन में भी अमेरिका की बराबरी रूस ही कर सकता था। इतना शक्तिशाली रूस बीच के कालखंड में गर्त में समा गया था। जानकार लोग रूस को ‘आधुनिक अस्थिर गणराज्य’ के रूप में सम्बोधित कर रहे हैं, जिसके र्हास को रोका नहीं जा सकता। परिणाम चाहे जो भी हो परंतु बची हुई परमाणु शक्ति, कुशल श्रम शक्ति, साइबर तकनीक अदि के कारण रूस को वैश्विक स्तर पर अनदेखा नहीं किया जा सकता। सन १९९१ में सोवियत संघ का पतन हुआ। परंतु राष्ट्रपति पुतिन के काल में रूस का आत्मविश्वास फिर से जागृत होता दिखाई दे रहा है। ऐसे समय में देशवासियों को देश सेवा, राष्ट्रप्रेम जैसे ऊर्जा निर्माण करने वाले घूंट पिलाना सत्ताधारियों के लिए अत्यंत आवश्यक होता है। सीरिया के बहाने पुतीन को यह मौका मिल गया है।

रूस सीरिया में अपने हस्तक्षेप बढ़ने का कारण इसिस को बता रहा है। रूस की ओर से यह बताया जा रहा है कि इसिस का प्रभाव कम करना ही उसका उद्देश्य है। लेकिन अमेरिका को यह स्वीकार नहीं है। अमेरिका की प्रमुख भूमिका बशर को हटाने की है। परंतु रूस के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के कारण बशर की ताकत बढ़ गई है। रूस का कहना है कि वह इसिस पर हमला कर रहा है, जबकि अमेरिका का कहना है कि रूस उस पर हमले कर रहा है। इसके कारण फिर विश्व की दो महासत्ताएं फिर एक बार आमने-सामने आ गईं हैं। इसिस का खतरा सामने मंडराता दिखाई दे रहा है। इसके बावजूद भी यह साफ दिखाई दे रहा है कि अमेरिका और रूस दोनों अपने अपने भूराजकीय हित सम्बंधों को अधिक प्रधानता दे रहे हैं।

हांलाकि ऐसा नहीं है कि सीरिया के राष्ट्रपति असद के लिए पुतिन के मन में कुछ विशेष प्रेम है। दो वर्षों तक पुतिन की यह भूमिका थी कि ‘असद के रहने या न रहने से कोई फर्क नहीं पडता।‘ असद की यूरोप के नेताओं से बढ़ती दोस्ती पुतिन को पसंद नहीं थी। कुछ ही महीनों में यह चित्र बदला हुआ दिखाई देने लगा है। इसका अर्थ यह हुआ कि रूस को मध्यपूर्व में अपने हितसम्बंधों की रक्षा के लिए सीरिया में असद की सत्ता रहने देना आवश्यक है। एक अर्थ यह भी है कि इससे मध्यपूर्व में रूस के अस्तित्व का संदेश पहुंचता है, तथा सीरियन फौजों की सहायता के लिए रूस की वायुसेना के जाने का भी यही अर्थ है।

पूरी दुनिया को संकट में डालने की क्षमता रखने वाले इसिस नामक भयानक आतंकवादी संगठन के बारे में अब वैश्विक स्तर पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। इसिस के आतंकवादी दुनिया भर में आतंकवादी गतिधियां कर रहे हैं। दुनिया के प्रमुख शहरों में इसिस के काले झंडे फहरना खतरे की ओर इशारा करते हैं। अल्पावधि में ही इसिस दुनिया के सभी मुसलमान संगठनों का मुखिया बन बैठा है। तथाकथित इस्लामी राज की स्थापना के लिए, इसिस में भर्ती होने के लिए तथा समय आने पर अपनी जान की बाजी लगाने के लिए दुनियाभर के मुस्लिम युवक बड़ी संख्या में आ रहे हैं। इन सभी के आधार पर इसिस ‘शरियत’ पर आधारित इस्लामी राज्य स्थापन करने के लिए प्रयत्नशील है। इसिस ने उन पर हमला करने वाले रूस के २०० यात्रियों वाले हवाई जहाज को मार कर तथा पेरिस में जगह-जगह नियोजनबद्ध तरीके से हमला कर अपनी घातक क्षमता का परिचय दिया है।

इसिस के द्वारा हाल ही में की गई यह घोषणा कि ‘आज हमारे पास सभी अत्याधुनिक शस्त्र हैं। हमारा अगला लक्ष्य आण्विक शस्त्रों को प्राप्त करना है तथा हम इसे पाकिस्तान से लेकर रहेंगे’ दुनिया की चिंता और भी बढ़ाने वाली है। इसिस की इन बातों को खोखला कहना उचित नहीं होगा, क्योंकि २००४ में सामने आए पाकिस्तान के ए.क्यू. खान मामले के बाद यह कहा जा सकता है कि पाकिस्तान किसी को भी पैसे के लिए आण्विक अस्त्र की तकनीक बेच सकता है। दुनिया को विनाश की खाई में धकेलने वाले इसिस के हाथ यदि आण्विक शस्त्र लग जाते हैं तो पूरी दुनिया पर शैतान का राज फैलने में देर नहीं लगेगी। अत: वैश्विक स्तर पर इसिस के विरोध में मुहीम तेज करना अत्यंत आवश्यक है।

इसिस को खत्म कर अगर वास्तव में मध्यपूर्व में शांति और स्थिरता लानी है तो अमेरिका और रूस के एकत्रित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। परंतु फिलहाल तो दोनों की ओर से इसिस के विरोध में मोर्चे खोल कर राजनीतिक रोटियां सेंकने का काम चल रहा है। दोनों देश अपने-अपने स्वार्थ के लिए एक दूसरे के सामने आ गए हैं। भविष्य में ये दोनों देश एक दूसरे पर भी हमला कर सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो इसके दुष्परिणाम सीरिया के साथ सारी दुनिया को भी झेलने होंगे। इसिस और सीरिया की समस्या एक ओर रह जाएगी और रूस तथा अमेरिका के बीच वैश्विक वर्चस्व को लेकर लड़ाई शुरू हो जाएगी। यह नहीं समझना चाहिए कि इस स्वार्थी राजनीति से वैश्विक स्तर पर  आतंकवादी संगठन खत्म हो जाएंगे। बल्कि आज तक के इतिहास में यही देखा गया है कि अमेरिकी सैनिकी गतिविधियों के कारण दुनिया की समस्याएं कम नहीं हुईं; बल्कि बढ़ी हैं। अमेरिका के स्वार्थी दृष्टिकोण के कारण कल तक अल-कायदा था, आज इसिस है, कल कोई और आतंकवादी संगठन भीषण रूप लिए सामने होगा।

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