प्यार की बायोकेमिस्ट्री और प्यार का प्रोटोकॉल…

फ़िल्म शक्ति (1982) में सदी के महानायक नायिका से फरमा रहे थे…

“जाने कैसे कब और कहां इकरार हो गया
हम सोचते ही रह गए और प्यार हो गया”…

ऐसा ही होता है जब किसी के मिलने पर हमारे ब्रेन के ‘प्लेज़र सेंटर्स” एक्टिवेट होते हैं और उनमें से कुछ रसायनों जैसे डोपामाइन, एड्रेनलिन, नोरएपिनेफरीन, फिरामोन्स और सेरोटोनिन का स्राव होने लगता है। हम सोचते ही रह जाते है और हमें प्यार हो जाता है। जब ये केमिकल्स रिलीज होते हैं तो….

“मुझे दर्द रहता है, दिल में दर्द रहता है
मुझे भूख नहीं लगती, मुझे प्यास नहीं लगती
सारा दिन तड़फती हूँ, सारी रात जगती हूँ
जाने क्या हुआ मुझको, कोई दे दवा मुझको”….. (दस नम्बरी, 1976)

यह सब तो गीतों के डॉक्टर डॉ ‘मजरूह सुल्तानपुरी’ जी ने बताया ही। इसके अतिरिक्त गाल गुलाबी हो जाते हैं, उत्तेजना आती है, हथेलियों में पसीना आता है, दिल के धड़कने की रफ़्तार बढ़ जाती है और भी ना जाने क्या-क्या होने लगता है।

साहिर लुधियानवी जी ने बताया था कि…

“चेहरे पे खुशी छा जाती है, आंखों में सुरूर आ जाता है
जब तुम मुझे अपना कहते हो, अपने पे गुरुर आ जाता है”… (वक्त, 1965)

और इसके लिए जिम्मेदार है डोपामाइन। उस विशेष खुशी के लिए जो किसी को देखकर तुरंत आ जाती है।

समीर साहब ने बताया था कि…

“धक धक करने लगा
हो मेरा जीयरा डरने लगा”…(बेटा, 1992)

और इस धक धक के लिए जिम्मेदार है ‘एड्रेनलिन और नोरएपिनेफरीन’।

अंजान साहब ने बताया था कि….

“जिधर देखूँ तेरी तस्वीर नज़र आती है
तेरी सूरत मेरी तकदीर नज़र आती है”…. (महान, 1983)।

और इसके लिए जिम्मेदार हैं ‘सेरोटोनिन’ महाशय। इनके कारण दिल बार-बार बस एक ही चीज मांगता है। पागलों के डॉक्टर बोले तो ‘साइकेट्रिस्ट’ इसी को ‘ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर’ कहते हैं। जिसका वर्णन लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी ने कुछ इस प्रकार किया था….

मैं तेरे प्यार में पागल ऐसे घूमता हूँ
जैसे मैं कोई प्यासा बादल बरखा को ढूंढता हूँ…(प्रेम बंधन, 1979)

यही है प्यारकीबायोकेमिस्ट्री….

आंनद बख्शी साहब ने लिखा था…

“हम तुमसे मिले फिर जुदा हो गए
देखो फिर मिल गए
अब हो के जुदा, फिर मिलें ना मिलें
क्यों ना ऐसा करें
मिल जाएं चलो हम सदा के लिए”….(रॉकी, 1981)

बस कुछ-कुछ यही है ‘प्यार का प्रोटोकॉल’।

कुल तीन अवस्थाएं हैं इसकी:-

1. लस्ट (कामेच्छा)
2. आकर्षण और
3. आसक्ति

सबसे पहले कामेच्छा जाग्रत होती है और इसके लिए जिम्मेदार हैं ‘एस्ट्रोजन’ और ‘टेस्टोस्टिरोन’ हॉर्मोन्स। ये बनते हैं हमारे शरीर में ही। ‘कूल ड्यूड’ और ‘कूल ड्यूडनी’ दोनों में बनते हैं और जब ये रिलीज होते हैं तो इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन के चक्कर लगाने लगता है। और विशेष परिस्थितियों में प्रोटॉन इलेक्ट्रान के।

इसके बाद आता है ‘आकर्षण’। यह लम्हा जिंदगी का सबसे हसीन लम्हा होता है। सारी क़ायनात गुनगुनाती नज़र आती है। गधी भी हूर की परी लगती है बंदे को और व्यक्ति गुनगुनाने लगता है…

“वो हसीन दर्द दे दो जिसे मैं गले लगा लूँ
वो निगाह मुझ पे डालो कि मैं जिंदगी बना लूँ”…(हमसाया, 1968)

आकर्षण के लिए जिम्मेदार हैं….

1. एड्रेनलिन
2. डोपामाइन और
3. सेरोटोनिन

किसी के प्रति आकर्षित होने पर जिंदगी बदल जाती है और बदल जाता है व्यक्तित्व। जब आपका ‘माशूक’ या आपकी ‘माशूका’ सामने आते हैं तो ‘सेंस’ काम करना बंद कर देती है, दिल बेकाबू हो जाता है, हलक सूख जाता है और मुँह से आवाज नहीं निकलती और ऐसा लगता कि जीभ पर कांटे उग आए हों।

इन सबके लिए जिम्मेदार है यही ‘एड्रेनलिन’। भूख कम हो जाती है। आंखों से नींद उड़ जाती है क्योंकि ‘डोपामाइन’ अपना जलवा दिखा रहा होता है।

डोपामाइन एक किस्म का ‘न्यूरोट्रांसमीटर’ है और फिर बारी आती है ‘सेरोटोनिन’ की। सेरोटोनिन आपके माइंड को डाइवर्ट कर देता है। उस समय आपको बस हर जगह आपका प्यार दिखाई देता है और…. आप गुनगुनाने लगते हैं….

“तेरे ख्यालों में हम तेरी ही बाहों में हम
अपने हैं दोनों जहां हो जाएं बेखुद यहां” …(गीत गाया पत्थरों ने, 1964)।

इन दोनों स्टेज के बाद बारी आती है तीसरी स्टेज की…. जिसे कहते हैं ‘आसक्ति’।

इसके लिए भी दो हॉर्मोन्स जिम्मेदार हैं…. ऑक्सीटोसिन और वैसोप्रेसिन।

मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने एक बार आसक्ति का वर्णन इस प्रकार किया था….

“घड़ी मिलन की आई आई तू छुट्टी लेकर आजा
प्यार की बीन बजे ना अकेले तू जरा साथ निभा जा”…(एक बाप छह बेटे, 1968)।

प्यार की बीन एक साथ मिलकर बजाने से रिलीज होता है ‘ऑक्सिटोसिन’। प्यार को गहरा और बहुत गहरा करने के लिए ‘ऑक्सिटोसिन’ बेहद जरूरी है और प्यार को लॉन्ग लास्टिंग बनाने के लिए ‘वैसोप्रेसिन’।

बस यही है प्यार का प्रोटोकॉल…

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