डॉ. लाजपतराय मेहरा न्युरोथेरेपी-चिकित्सा विज्ञान

डॉ. लाजपतराय मेहरा की न्युरोथेरेपी नैसर्गिक चिकित्सा की एक नई अनुशासित विधि है। न्युरोथेरेपी एक भारतीय पद्धती है; जिसकी ऐतिहासिक जड़े प्राचीन भारतीय परंपरा से जुड़ी हैं। डॉ. लाजपतराय मेहरा ने भारतीय दर्शन को पश्चिमी शरीर विज्ञान व जैव विज्ञान से मिश्रित किया तथा न्युरोथेरेपी का आधुनिक रूप सामने लेकर आए।

न्युरोथेरेपी एक बेहद ही व्यावहारिक, अनुभव व निष्कर्ष पर आधारित पद्धति है। जिसमें शारीरिक अंगों, धमनियों, शिरोओं, प्रतिक्रियाओं पर आधारित वैज्ञानिक अध्ययन है। इस भारतीय चिकित्सा प्रणाली का उद्देश्य शरीर में संतुलन स्थापित करना है, जिससे शरीर रोगी होने पर स्वयं ही प्राथमिक सुधार लेने योग्य बने। न्युरोथेरेपी का कार्य विशिष्ट अंगों को ज़रुरी रसायन समुचित मात्रा में बनाने के लिए प्रेरित करता है; ताकि वह रसायन रक्त में प्रवाहित होकर शारीरिक ऊर्जा को संतुलित एवं सुरक्षित रखे। न्युरोथेरेपी औषधीरहित शास्त्र व चिकित्सा शास्त्र अध्ययन का एक अनुपम मिश्रण है। इसके द्वारा रोग निदान करने में सभी चिकित्सिय विवरण; एक्स-रे, सोनोग्राफी, ईसीजी, एमआरआई स्कॅन, पॅथालॉजिकल विवरण; आदि शामिल होते हैं। इन सबके विवरण एवं न्युरोथेरेपी के कुछ विशिष्ट निदानों द्वारा रोगी के रोग का शमन किया जाता हैं। न्युरोथेरेपी का मानना है यदि शरीर किसी रोग से ग्रस्त होता है, तो इसकी वजह है शरीर में अ‍ॅसिड, अल्केलिन, हार्मोन्स, एन्जाइम, रोधी व प्रतिरोधी क्षमता आदि का असंतुलित हो जाना अर्थात, रासायनिक संतुलन का बिगड़ना। न्युरोथेरेपी चिकित्सा में डॉ. लाजपतराय मेहरा संत हृदय, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक व विवेकपूर्ण बुद्धि के साथ साथ विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वर्ष 1948 से अविरत कार्यरत विद्यार्थी थे। वह और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शरीर के अव्यवस्थित संतुलन को व्यवस्थित करते हैं। इस थेरेपी में प्रमुखतः पैरों के द्वारा एवं कभी कभी हाथों से एक निश्चित अंतराल के पश्चात (6 सेकंड से 80 सेकंड) एक निश्चित संख्या में (1 से 18 तक) शरीर के विशिष्ट भागों पर दबाव ड़ाला जाता हैं, जिसके द्वारा वह उपयुक्त ग्रंथी या अंग को क्रियाशील या अक्रियाशील करते हैं एवं इस तरह शरीर के जैव रासायनिक क्रिया अनुकूल हो जाती है, तथा वह अंग (जो रोगी था) फिर से संतुलित समुचित कार्य करने योग्य बन जाता है।

न्युरोथेरेपी एक संपूर्ण, दवारहित, दोषरहित, दुषप्रभावरहित नैसर्गिक इलाज का साधन है, जो मानव के संपूर्ण शरीर की क्रिया-अक्रिया पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। यह पुराने और तेजी से बढ़ रहे नये रोग पर भी कारगर है। न्युरोथेरेपी प्रभावी ढंग से सभी रोगों से निजात दिलाती है, जिसमें सर्दी, चोट, दमा, हार्मोन असंतुलन, मासिक धर्म का असंतुलन, मानसिक विकार, हृदय रोग, संधि रोग, बांझपन, चर्मरोग, पाचन तंत्र के रोग आदी कई अन्य तरह के शारीरिक विकार आते हैं। इस चिकित्सा से लाभ नियमित खान-पान एवं रहन-सहन की आदतों पर भी निर्भर हैं और इसमें हम आहार व स्वस्थ जीवनशैली के बारे में राय देते हैं व उसकी महत्ता के बारे में भी बताते हैं।

 

न्युरोथेरेपी की विशिष्टताएँ एवं लक्षण

न्युरोथेरेपी एक नैसर्गिक चिकित्सा प्रणाली है। ये पहले ही कहा जा चुका है। भगवान द्वारा बनाये गये पाँच तत्वों के शरीर में सभी प्रकार के रसायन, हारमोंस इत्यादि. पहले से ही उपलब्ध हैं और आवश्यकता अनुसार बनते हैं। यदि शरीर का कोई अंग या ग्रंथि ठीक से कार्यरत न हो तथा आवश्यक जैविक रसायन पर्याप्त मात्रा में न बन रहे हों तो शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। न्युरोथेरेपी का विश्वसनीय मत है कि जरुरी रसायन एवं हार्मोन्स को रोगी के शरीर में विभिन्न अंगों/ग्रंथियों को क्रियाशील करके उत्पन्न किया जा सकता है। रोगी के शरीर के कुछ निश्चित केन्द्रों पर दबाव देकर ये चिकित्सा दी जाती है। न्युरोथेरेपी के कुछ विशिष्ट लक्षण निम्नलिखित है।

अ) यदि कोई व्यक्ति मोतियाबिंदू से पीड़ित है, तो न्युरोथेरेपी में पेन्क्रियास ग्रंथि को उत्प्रेरित किया जाता है जिससे मोतियाबिंदू में फायदा होता हैं। अध्ययन में डॉ. लाजपतराय मेहरा ने पाया कि पेन्क्रियास ग्रंथि को उत्तेजित करके निम्न रोगों में फायदा पहुंचाया जा सकता हैं –

1) आँखों के रोग 2) पेट की बिमारियाँ

3) ड्रॉप फीट     4) लकवा

5) थेलेसीमीया   6) नसों से संबंधित रोग

7) कॅन्सर  8) मानसिक असंतुलन

9) हृदय विकार   10) टी.बी.

11) रतौंधी 12) पार्किसंस रोग

13) डायबेटिस    14) मायस्थेनिया ग्रोविस

इत्यादि

आ) थायरोइड ग्रंथि कुछ हार्मोन्स का स्रवण करती है। जब हार्मोन्स एक निश्चित मात्रा में रक्त में पहुँच जाता हैं, तब पिट्यूटरी व हाइपोथालामस ग्रंथि उस उत्सर्जित हार्मोन्स का स्रवण रोक देती है। इसे ’निगेटीव फीडबेक मेकेनिज्म’ के नाम से जाना जाता है।

न्युरोथेरेपी द्वारा हम पिट्यूटरी ग्रंथि को क्रियाशील करते है। ये ग्रंथि थायमस, पेराथायराइड एवं एड्रिनल ग्रंथि के मेडुला हिस्से के अलावा बाकी सभी एंडोक्राइन ग्रंथियों को नियंत्रित करती है। पिट्युटरी; थायराइड (केल्सिटोनिन के स्रवण के अलावा), एड्रीनल ग्रंथि के दोनों भाग ओवरीज़ व टेस्टीज़ को नियंत्रित करती है । यदि शरीर में कहीं हार्मोन्स की कमी है, तो न्युरोथेरेपी द्वारा पिट्यूटरी को उत्तेजित कर ज़रुरी हार्मोन्स को बनवाया जाता है तथा कमी को खत्म कर देते है।

इ) ईश्वर की कृपा से, हमारे शरीर में प्रत्येक रसायन दो या अधिक जगहों पर तैयार होता है, इसलिए किसी एक अंग के खराब हो जाने पर जरुरी रसायन की कमी से होनेवाली मृत्यु का भय नहीं रहता। क्योंकि वह रसायन कम मात्रा में दूसरा अंग भी बना सकता है। उदाहरण के लिए-85% इरिथ्रोपोयटीन गुर्दे द्वारा उत्पन्न किया जाता है। यदि कभी रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा कम पहुँच रही हो, तो ये रसायन बोन मॅरो तक पहुँचता है और रक्त बनना प्रारंभ हो जाता है। यदि दोनों गुर्दे ठीक तरह से कार्य नहीं कर रहे हो तो ये रसायन लिवर द्वारा भी रक्त बनवा सकता है। गुर्दे के 14 काउंट के बदले लिवर 8 काउंट हीमोग्लोबीन उत्पन्न करने में सक्षम है। न्युरोथेरेपी इन आवश्यक बिंदुओं को भी महत्त्व देता है।

ई) हमारे मस्तिष्क में 86 बिलियन न्यूरॉन है, स्पाईनल कार्ड में 100 मिलियन एवं इंटेस्टाइन में 100 मिलियन न्यूरॉन है। ये सभी न्यूरॉन 12 तरह के हारमोंस बनाते हैं। सबसे अधिक हारमोंस मस्तिष्क द्वारा बनाए जाते हैं। उदा. यदि दिमागी न्यूरॉन की गड़बड़ी की वजह से डोपामाइन नामक हारमोंस नहीं बनता है तो पार्किन्सन रोग हो जाता है। न्युरोथेरेपी इंटेस्टिाइन को क्रियाशील करता है, तथा इस रोग की तीव्रता व लक्षण को कम अथवा दूर करता है। यह रोग केंद्रीय तंत्रिका तंत्र द्वारा रसायन नहीं बनाने से हो रहा था। जिसे शरीर में उपलब्ध वैकल्पिक व्यवस्थासे नियंत्रित करने का प्रयास किया और काफी हद तक सफलता मिलती है।

उ) अच्छे स्वास्थ्य के लिए शरीर में एसिड व बेस का संतुलन बने रहना अत्यावश्यक है। एसिड एक ऐसा पदार्थ है जो पानी में घुलने पर हाइड्रोजन आयन (क+) बनाता है तथा बेस (अल्कली) पानी में घुलने पर हाइड्रोक्सिल आयन (जक-) बनाता है। रक्त का सामान्य झह संतुलन 7.36 से 7.44 के मध्य होता है। यदि पाचन प्रक्रिया बराबर चलती है, तो एसिड-बेस संतुलन बना रहता है। न्युरोथेरेपी के अनुसार, कई स्थितियों में रोग का कारण एसिड-बेस का संतुलन बिगड़ना है। ये संतुलन ठीक करने से भी कई रोगों में फायदा होता है।

न्युरोथेरेपी ये मानता है कि असेंडिंग कोलन का एक भाग अल्केलिन होता है। जो भाग असेंडिंग कोलन के अंत से ट्रांसवर्स कोलन के बीच का होता है, पूरा डिसेंडिंग कोलन एसिडिक होता है। न्युरोथेरेपी की यह मान्यता भी है कि दायां गुर्दा 80% अल्केलिन व 20% एसिड को शुद्ध करता है और बाया गुर्दा 20% अल्केलिन एवं 80% एसिड को और दायीं ओवरी प्रोजेस्ट्रान व बायीं ओवरी एस्ट्रोजन भी इसी अनुपात में उत्पन्न करती है।

ऊ) जब थायमस ग्रंथि की टी-मेमोरी कोशिका समुचित कार्य नहीं करती, तब वह शरीर के ही प्रोटीन/कोशिका के विरुद्ध एंटी बॉडी उत्पन्न करती है। उदाहरण के लिए घुटने के जोड़ की सिनेविअल झिल्ली का प्रोटीन रक्त में प्रविष्ट होता है, तब थायमस इस प्रोटीन के विरुद्ध एंटीबाडी का निर्माण करता है। यह एंटीबाडी घुटने की संधि या शरीर के किसी भी संधिस्थल को प्रभावित करती है और व्यक्ति आर्थराइटिस से पीडित हो जाता है, इस प्रक्रिया को ऑटोइम्युनिटी कहते है। इसके लिए ऐलोपॅथी में जो दवाईया दी जाती है, उसमें स्टेरायड होता है। जिसकी अधिक खुराक शरीर पर प्रतिकुल प्रभाव डालती है। न्युरोथेरेपी में इसके इलाज के लिए एड्रीनल कार्टेक्स को प्रेरित किया जाता है, जो स्वयं ही जरुरी स्टेरायड सही मात्रा में उत्पन्न कर देता है। और इसका दुष्प्रभाव भी शरीर पर नहीं होता।

ए) भोजन को पचाने हेतू लिवर 85% कोलेस्ट्रोल को खर्च कर बाइल साल्ट का निर्माण करता है। 15% कोलेस्ट्रोल एड्रीनल कार्टेक्स ओवरी एवं टेस्टीज द्वारा व्यय किए जाते है, जिससे कार्टिकाइड, ऐस्ट्रोजन प्रोजेस्ट्रान और टेस्टोस्टेरान तैयार होते है। बाकी सभी हार्मोन्स प्राकृतिक रुप में ग्लायकोप्रोटीन या साधारण प्रोटीन होते हैं। छोटी आंत भोजन पचाने के दौरान टायरोसिन नामक अमीनो एसिड उत्पन्न करती है। टायरोसिन थायराइड ग्रंथि के ढ3 एवं ढ4 तथा एडरनल मेडुला के एपिनेफ्रिन एवं नॉरएपिनेफ्रिन बनाने के काम आता है। यदि एक रोगी समुचित मात्रा में पर्याप्त आहार नहीं लेता है, तो वह इन ज़रुरी हार्मोन्स को उत्पन्न नहीं कर पायेगा। न्युरोथेरेपी पेट की नाभि पर आधारित है, जिसका सामान्य बने रहना भोजन के समुचित पचन पर निर्भर रहता हैं। यदि शरीर की पाचन क्षमता एवं ग्राह्य क्षमता उपयुक्त है तो सभी जरुरी अमीनो अम्ल, मिनरल्स एवं विटामिन्स की कमी नहीं होगी।

ऐ) यदि शरीर के कुछ हिस्सों का ज्ञान तंतुओं से संपर्क टूट गया हो और यदि केवल क्रियात्मक प्रभाव ही पड़ा हो और केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र इससे अछूता हो (करीब 2 साल से) तो इसे डी-नरवेशन कहते हैं। इस स्थिती में न्युरोथेरेपी द्वारा उसे पुर्नजीवित किया जा सकता है। जैसा कि नैसर्गिक आपदा के बाद बच गया पेड का एक नन्हासा तना भी उपयुक्त खुराक, हवा, पानी व तापमान मिलने पर पेड को फिर से हरा भरा कर देता है।

न्युरोथेरेपी द्वारा सभी बिमारियों में लाभ होता है। उनमें से कुछ निम्लिखित है। संधिवात (आर्थरायटिस), कमर के दर्द, गर्दन के दर्द, घुटने के दर्द, फ्रोज़न शोल्डर, टेनिस एल्बो, पारकिन्सन, डायबिटिस, ब्लड प्रेशर, पेट की सभी बिमारियां, किडनी स्टोन, गॉल ब्लैडर स्टोन, सर्दी जुकाम, खांसी, अस्थमा, मोटर न्युरॉन, मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी, मल्टीपल स्कलेरोसीस, पाईल्स, महिलाओं से संबंधित बिमारियां इत्यादि। ऐसी बहुत सारी बिमारियों में न्युरोथेरेपी बिना दवाई के एक आशा की किरण साबित हुई है।

इस चिकित्सा का प्राथमिक प्रशिक्षण देश के सभी 10000 से अधिक जनसंख्या वाले गांवो में आसानी से दिया जा सकता है। जिससे वहाँ के लोग न्यूनतम शुल्क में प्रभावी, नैसर्गिक व दुष्पपरिणाम रहीत चिकिस्ता पा सकेंगे। प्रशिक्षण योजना के द्वारा हम बड़ी संख्या में रोजगार उत्पन्न कर पायेंगे। हम बेरोजगारी निर्मुलन स्वस्थ, समृद्ध व आत्मनिर्भर भारत बनाने में योगदान दे पायेंगे।

श्रीमती कमलेश वि. चव्हाण

मोबाइल : 9820466715

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श्रीमती बलबीर भंगल : 8779867079,

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चिकित्सा व प्रशिक्षण केंद्र ः-

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एस बी.पी.नगर, चार बंगला के पास,

टेलिफोन एक्सेंज के पास, अंधेरी (प.),

मुंबई – 400 061

 

वरली नाका :- 3अ, रावते कंपाऊंड,

मनिष ज्वेलर्स के सामने, ग.क.मार्ग,

वरली नाका, मुंबई – 400 018

मोबाईल : 93222 54430

nysinghania@gmail.com

 

सूचना :- मुंबई व देश विदेश में अन्य न्युरोथेरेपी चिकिस्तकों के लिए संपर्क करें।

 

 

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