सर्वप्रथम आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। कोरोना की भयानक एवं भ्रमित करने वाली आपदा के बाद सभी बंधनों से मुक्त होकर मुक्त वातावरण में हम सभी दीपावली का प्रकाशमय आनंद महसूस करने जा रहे हैं। हिंदी विवेक मासिक पत्रिका अगले वर्ष अर्थात अप्रैल 2023 में अपने 13 साल पूर्ण करके 14 वें वर्ष में प्रवेश करेगा। ‘सांस्कृतिक भारत दीपावली विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित होने वाला यह विशेषांक हिन्दी विवेक मासिक पत्रिका का 151 वां अंक है। इन तेरह सालों में हिंदी विवेक मासिक पत्रिका का व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के जागरण में कई मायनों में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हिंदी विवेक ने राष्ट्रीय और सामाजिक दृष्टि से पिछले 13 वर्षों में हुई कई राजनीतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, वैश्विक और साथ ही देश भर की प्रमुख घटनाओं और व्यक्तियों की समय-समय पर समीक्षा की है। यह कार्य वर्तमान और भविष्य में समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। देश भर के सुधि पाठक गवाह हैं कि हिन्दी विवेक ने इसी बात को ध्यान में रखकर अपनी राष्ट्र समर्पित पत्रकारिता की है।
हिन्दी विवेक पत्रिका ने विभिन्न विषयों पर सटीक भाष्य करने वाले संग्रहणीय विशेषांक, मौलिक ग्रंथ तथा किताबें प्रकाशित की हैं। हिंदी विवेक मासिक पत्रिका की सफलता का यह मील का पत्थर न केवल प्रकाशन के क्षेत्र में व्यावसायिक सफलता का विषय है, बल्कि राष्ट्रीय, भाषाई और हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक घटना भी है। इस प्रकार साहित्य, पत्रकारिता एवं प्रकाशन क्षेत्र के जानकारों की धारणा है।
हिंदी विवेक मासिक पत्रिका ने अपनी पत्रकारिता में समृद्ध भारतीय उपलब्धियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख करने का निरंतर प्रयास किया हैं। साथ में जो हमसे हासिल नहीं हुआ है या हासिल करना बाकी है, उसका भी समय-समय पर चिंतन किया गया है। इस वर्ष हिंदी मासिक पत्रिका का दीपावली विशेषांक ’सांस्कृतिक भारत’ विषय पर प्रकाशित हो रहा है। सांस्कृतिक भारत दीपावली विशेषांक हमारी भारतीयता की अनंत काल की संस्कृति एवं सांस्कृतिकता की यात्रा का लेखा-जोखा रखने का एक प्रयास है।
सिकंदर जब विश्व विजय पर निकला तो वह अपने गुरु अरस्तु से आशीर्वाद लेने गया। उसने अरस्तु से पूछा कि ‘मैं जब विश्व विजय करके लौटूंगा तो आपके लिए क्या उपहार लेकर आऊं? अरस्तु ने कहा, सिकंदर, तुम अपनी यात्रा में भारत भी जाओगे, भारत की संस्कृति से जुड़ी हुई पांच वस्तुएं ऐसी हैं, जिनकी विश्व में कोई तुलना नहीं है। वे हैं गंगा, गीता, गायत्री, गौ और गुरु। इनमें से एक भी यदि ला सको तो मेरे लिए लेते आना। अरस्तु के इस बयान से यह स्पष्ट हो रहा है कि भारत की संस्कृति और सांस्कृतिकता इतिहास काल में भी विश्व को आकर्षित करने वाली थी। संस्कृति किसी भी समाज या राष्ट्र का आइना होती है।
संस्कृति की व्याख्या इतनी विस्तृत है कि उसे एक वाक्य में पारिभाषित करना सम्भव नहीं है। तथापि, यह कहा जा सकता है कि मानव जीवन के दिन-प्रतिदिन के आचार-विचार, जीवन शैली, कार्य-व्यवहार, धार्मिक, दार्शनिक, कलात्मक, नीतिगत क्रिया-कलापों, परम्परागत प्रथाओं, खान-पान, संस्कार इत्यादि के समन्वय को संस्कृति कहा जाता है। अनेक विद्वानों ने संस्कार के परिवर्तित रूप को ही संस्कृति के रूप में स्वीकार किया है। भारतीय संस्कृति के प्रेरणादाई बिन्दुओं पर विचार करें तो पाएंगे कि यह उदार, गुणग्राही व समन्वयशील रही है; संवेदना, आचरण, नैतिकता, उदारता व आत्मीयता के तत्व से जुड़ी हुई हैं।
हम भारतीय इस देश को भारत माता मानते हैं। यहां के पर्वत हमारे लिए मिट्टी पत्थरों के ढेर नहीं होते, वहां देवताओं का वास होता है। यहां की नदियां हमारे लिए केवल पानी का प्रवाह नहीं होती, हम उन नदियों में भारतीयों को श्री विष्णु के पदकमलों से उत्पन्न हुई और भगवान शंकर के द्वारा मस्तक पर धारण की हुई गंगा माता के रूप में महसूस करता है। इस भूमि की धूल का कण-कण प्रभु रामचंद्र के पद स्पर्श से पावन हुआ है, यह हम भारतीयों की धारणा है। भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं को हम अपने जीवन का मार्गदर्शक मानते हैं। यह भूमि भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, गुरु नानक देव, श्री शंकराचार्य, श्री बसवेश्वर आदि जैसे कई पावन पुरुषों के पावन वास्तव्य में से पुनीत हुई है। यह हमारे संस्कृति के संदर्भ में हम भारतीयों की धारणा है।
सांस्कृतिक तत्वज्ञान भारत की बहुत प्राचीन निर्मिती है। आज भी हमारे धार्मिक कार्य में उत्तर की गंगा से लेकर दक्षिण की कावेरी तक और पूरब की महानदी से लेकर पश्चिम की नर्मदा नदी तट का जल अत्यंत श्रद्धा भाव से हम सभी प्रांतों के भारतीयों के धार्मिक कार्य में उपयोग में लाया जाता है। हम सभी क्षेत्र के भारतीय मरने से पहले गंगाजल की बूंदे अपने मुख में लेने हेतु लालायित होते हैं। दक्षिण में जो शिव भक्त है उनका शंकर भगवान उत्तर के हिमालय में निवास करता है और उत्तर के राम, कृष्ण जिसके अवतार हैं वह नारायण भगवान हिंद महासागर में विराजमान हैै। हर लोक व्यवहार, लोक-संस्कृति के प्रकटीकरण हैं और हर क्षेत्र की लोक-संस्कृति भारतीय संस्कृति के मूलतत्त्व को आत्मसात् करके चलती है। लोक-संस्कृति में ही राष्ट्रीय एकत्व भाव के बीजारोपण भी होते हैं। इसलिए हम अपनी भारतीय संस्कृति का जितना भी यशोगान करें, वह लोक-संस्कृति का ही गुणगान है।
भारतीय चिंतन के दो ध्येय हैं- संपूर्ण विश्व का कल्याण और व्यक्तित्व का उदारीकरण। चिंतन के इसी ध्येय के कारण भारतीय तत्वज्ञान आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि पहले था। इतिहास ने कई करवटें लीं, भारतीय संस्कृति पर अनेक आक्रामक प्रहार हुए, किंतु हमारी संस्कृति आज भी जीवित है, अनुकरणीय है। वह आज भी चुनौतियों से लड़ने का सामर्थ्य रखती है। कौन से कारण हैं कि भारतीय संस्कृति न तो टूटी, न ध्वस्त हुई?
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा।
अक्सर उपस्थित होने वाले इस शायराना सवाल का जवाब भारतीय संस्कृति के प्रेरणादाई बिंदुओं पर विचार करेंगे तो हम पा जाएंगे। भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन साहचर्य और सहअस्तित्व में विश्वास रखते हैं। किसी से लड़ते नहीं हैं। अपने विचारों को किसी पर शक्ति का प्रयोग करके थोपते नहीं हैं। हम किसी पर आक्रमण नहीं करते। हम केवल अपनी गुणवत्ता और अपने गुणधर्म पर जीवित रहते हैं। जब भी कोई चिंतन बाहर से आये, उसमें यदि कुछ अच्छा है, स्वीकार्य है तो भारतीय चिंतन ने उसे अपनाकर अपने में समाहित कर लिया है। भारतीय चिंतन में लचीलापन है। वह अपने आधारभूत लक्षणों का त्याग नहीं करता, किंतु समय के साथ बदलने की और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेने की अद्भुत क्षमता रखता है और इस प्रकार निरंतर समृद्ध एवं सशक्त होता चला जाता है। इसलिए भारतीय चिंतन समयातीत है। जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति के जीवन से जुड़े सभी आयामों के साथ अनवरत प्रकाशमान यात्रा का सशक्त संदेश भारतीय चिंतन में है ।
भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण पहलुओं को झुठलाने का कोई कितना भी प्रयास करे पर प्रयास करने वाला व्यक्ति भारतीय संस्कृति से कहीं ना कहीं जुड़ा हुआ ही पाता है। स्वर्गीय साम्यवादी नेता सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा में एक चर्चा में बहस करते हुए भारत की सांस्कृतिक एकात्मकता विषय पर नकारात्मक टिप्पणियां करके प्रश्न उपस्थित किया था। उस समय भारतीय जनता पार्टी की दिग्गज नेता स्वर्गीय सुषमा स्वराज ने सोमनाथ चटर्जी को प्रति प्रश्न किया था। वह प्रति प्रश्न उन दोनों की भूमिका का अंतर स्पष्ट करता है, सुषमा स्वराज ने उन्हें जो प्रश्न किया कि भारत के पूर्व भाग में समुंदर के किनारे रहने वाला एक बंगाली अपने बच्चे का नाम पश्चिम के समुद्र किनारे पर मौजूद भगवान सोमनाथ के नाम पर कैसे रखता है? और वही बच्चा सोमनाथ चटर्जी आज दिल्ली में खड़ा होकर पूछ रहा है, यह भारत देश एक कैसे है?
भारतीय होने का अर्थ है-भारत से जुड़े होना। भारत का वंशज होने की पहचान, भारत मां की संतान होने का अभिमान, भारतभूमि की मिट्टी से इस शरीर की रचना हुई है, इसका अहसास, भारतवर्ष की सीमाओं की रक्षा करने का उत्तरदायित्व और भारत का होने के नाते इसके सम्पन्न साहित्य, उदात्त दर्शन और गहन चिंतन से लगाव। यह भारतीयता ही है। भारतीय चिंतन चिर प्रासंगिक है, सनातन है। वह पुरातन भी है, अत्याधुनिक भी। देश से विश्व तक, व्यक्ति से समाज तक और एकाकी से बहुआयामी तक, सभी शंकाओं और समस्याओं का समाधान भारतीय चिंतन में है। इसलिए उसकी उपयोगिता कालजयी है।
हिन्दी विवेक ने आधुनिक भारत के वैचारिक निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिंदी विवेक पत्रिका अपने पाठकों को विचारों से समृद्ध करती है। ’सांस्कृतिक भारत’ दीपावली विशेषांक का प्रयोजन भी अपने तत्वों से जुड़ा तेजोमय विषय अपने देशभर के पाठकों तक पहुंचाना ही है।
सांस्कृतिक भारत दीपावली विशेषांक के लिए सभी सम्मानीय लेखकों ने समय सीमा को ध्यान में रखते हुए लेख उपलब्ध कराने में हमारा सहयोग किया है। साथ ही देश भर के हिन्दी विवेक से जुड़े अनेक विज्ञापनदाताओं, शुभचिंतकों और लेखकों के सहयोग से ही यह दीपावली विशेषांक का कार्य सफल हो सका। देशभर के विज्ञापनदाताओं, शुभचिंतकों और लेखकों सभी के सहयोग को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते है। आप सभी के सहयोग के कारण ‘सांस्कृतिक भारत दीपावली विशेषांक’ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। हम उन सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। साथ ही हिंदी विवेक मासिक पत्रिका के ’सांस्कृतिक भारत’ दीपावली विशेषांक के साहित्यिक प्रयास के संदर्भ में आपकी सटीक प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा रहेगी। पुन: आप सभी पाठकों, हितचिंतकों, विज्ञापनदाताओं, लेखकों आदि को दीपावली एवं नूतन वर्ष की पुनः शुभकामनाएं। धन्यवाद।