रंगोली के रंग

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यह थी प्रणव के जीवन की सबसे चमचमाती-झिलमिलाती दिवाली -आज फिर उसके घर आँगन में अदिति रंगोली बना रही थी और वह नटखट बच्चों की तरह उनमें रंग भर रहा था -पूरा घर प्रणव-अदिति की हंसी ठिठोली से गूँज रहा था...लग रहा था मानो एक नया इंद्रधनुष सा छा गया हो - आज की रंगोली के रंग ही इतने सुन्दर थे ।

सभ्यपणाचे संस्कारपुराय दर्शन (सभ्यता का संस्कारपूर्ण दर्शन)

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गोवा, जिसे दूसरी काशी कहा जाता है, आज रंगरेलियां मनाने के ठीहे के तौर पर दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसलिए भगवान परशुराम की तपस्थली पुण्यभूमि गोमंतक की वास्तविक पहचान पीछे रह गई परंतु अब वहां के लोगों के मन की छटपटाहट बाहर आ रही है कि गोवा की पहचान उसकी सनातन संस्कृति के आधार पर हो, और इस दिशा में सार्थक प्रयत्न भी किया जा रहा है।

हिम हाई सिद्धि संस्कृति (हिम सी सात्विक संस्कृति)

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प्रलय के उपरांत जिस स्थान पर स्वयं भगवान ने मनु को भेजा हो, वहां की संस्कृति की प्राचीनता की क्या उपमा दी जाए? शुद्धता जहां के वातावरण और लोगों की पहचान हो वहां की संस्कृति को क्या कहा जाए? हिमाचल जो गया वहां के प्रेम में न डूबा यह तो हो ही नहीं सकता। सादगी और शुद्धता ही जहां की सुंदरता हो वहां की संस्कृति को क्या कहा जाए?

हब्बा हरिदिनगळल्ली बदुकु नेलेसिदे (उत्सवों में बसी है जान)

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संस्कृति की नींव हमारे उत्सव-त्यौहार हैं और कर्नाटक की तो जान ही उत्सवों में बसती है। कर्नाटक के राजा-महाराजों के समय से चली आ रही उत्सव प्रथाओं को यहां की जनता आज भी पूरे विश्वास और उसी उत्साह के साथ आगे बढ़ा रही है। मैसूर का दशहरा हो या नागमण्डला का लोकनृत्य जनता की सहभागिता हर उत्सव में रहती है। विशेष बात यह है कि यहां उत्सवों को सामूहिक रूप से मनाने का ही प्रचलन अधिक है।

संस्कृति संजोने हेतु संकल्पित सरकार – वी. सुनील कुमार

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भारत में संस्कृति के विभिन्न आयामों जैसे भाषा, साहित्य, लोकगीत-लोकनृत्य आदि को राजाश्रय हमेशा ही मिलता रहा है। आज लोकतांत्रिक राजव्यवस्था होने के बाद भी प्रत्येक राज्य सरकार अपनी संस्कृति के संवर्धन हेतु विशेष प्रयत्न करती है। कर्नाटक भारत का वह राज्य है जिसे संस्कृति के रक्षक के रूप में जाना जाता है। आइए जानते हैं कर्नाटक के कन्नड़ और संस्कृति विभाग तथा ऊर्जा मंत्री मा. वी. सुनील कुमार जी से कि वे कर्नाटक में संस्कृति रक्षा के लिए क्या प्रयत्न कर रहे हैं।

अपनी दहलीज

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दो दिन बाद अम्मा गांव घर की औरतों से घिरी बेटा बहू ने कितने आराम से रखा ओर पोते कितने शैतान थे सुनाती जा रही थीं और बाऊ बेटे ने शहर में क्या-क्या दिखाया, वे कितने खुश थे, बताते जा  रहे थे। उन्हें लग रहा था कितने दिन बाद परदेश में मेहमान रहकर अपने घर लौट आए हो। ताला खोलते उन्हें लग रहा था कि जहां उनका सब कुछ है वहीं लौट आए हैं।

जीवनशैली सांस्कृतिर दापोन (जीवनशैली ही संस्कृति का दर्पण)

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पूर्वोत्तर के आठों राज्य लगभग समान संस्कृति साझा करते हैं। उन्होंने आधुनिकता के प्रवाह के बावजूद अपनी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत बनाए रखा है। धीरे-धीरे देश और दुनिया के अन्य भागों के लोगों तक उनकी सांस्कृतिक विशेषताएं पहुंचने लगी हैं। स्वतंत्रता के पश्चात लगभग सात दशकों तक हाशिए पर रख दिए जाने के बाद पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में भी विकास की गंगा प्रवाहमान होने लगी है।

24 x 7 काम ही काम

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कोरोना आपदा ने हमारे जीवन में काफी कुछ बदल दिया है। पहले जो लोग जिंदगी को बेफिक्र अंदाज में जीते थे, बगैर किसी की परवाह किए, अब वे भी हर छोटी-छोटी सी बात की परवाह करने लगे हैं। कोरोना ने न सिर्फ जीवन के प्रति हमारा नजरिया बदल दिया है, बल्कि हमारे रहन-सहन का ढंग, खान-पान की आदतें, हमारे जीवन में रिश्तों की अहमियत तथा हमारे कामकाज का ढंग आदि बहुत कुछ भी प्रभावित हो गया है।

पर्यटन का बदलता स्वरूप

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भारत में हमेशा से ही पर्यटन का तात्पर्य धार्मिक पर्यटन रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात् सरकारों का सारा ध्यान मुगलों द्वारा बनवाई गई इमारतों पर रहा, जबकि हमारी सांस्कृतिक विरासत अछूत हो गई। परंतु पिछले 8 सालों में केंद्र सरकार का पूरा ध्यान इस पर है कि पूरा विश्व भारत की संस्कृति को पहचाने और उससे प्रेरणा ले।

सेवा परमो धर्मः

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कोरोना काल के दौरान देश भर के धार्मिक संस्थानों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं ने तन-मन-धन से राष्ट्रवासियों की सेवा की। शायद यही कारण था कि भारत में कोरोना का प्रभाव पश्चिमी राष्ट्रों की अपेक्षा कम पड़ा। इस आपदा काल में भारतीय संस्कृति में निहित मानवीय संवेदना का भाव सरकार से लेकर आम आदमी तक प्रवाहित हुआ।

केवल उद्योग नहीं सेवा भी

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कोरोना काल ने मानवीय कमजोरियों को उजागर करने के साथ ही साथ लोगों के आपसी सौहार्द्र को भी अभिलेखित किया। देश के उद्योगपति घराने भी जन सेवा में पीछे नहीं थे। सभी बड़े औद्योगिक घरानों ने तन-मन-धन से समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने का प्रयत्न किया। साथ ही, देशभर के संस्थाओं ने भी समाज सेवा के कार्य का सफलतापूर्वक निर्वहन किया।

सुरों की यात्रा में संतुष्ट हूं – पद्मश्री पं. उल्हास कशालकर

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अपने गायन में ग्वालियर, आगरा, जयपुर तीनों परिवारों की परम्परा को आगे बढ़ाया और संगीत को एक अलग ऊंचाई पर ले गए। यदि कोई  गायन सुनकर संगीत की समृद्धि का अनुभव करना चाहता है, तो उसे पंडीत उल्हास कशालकर के गायन को अवश्य सुनना चाहिए। पं. उल्हास कशालकर की इस संगीतमय पृष्ठभूमि पर उन्हें मिले पदम्श्री पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एक बहुत बड़ा और सार्थक सम्मान हैं। आप अपने सुमधुर शास्त्रीय गायन के माध्यम से भारतीय शास्त्रीय गायन परम्परा में अपना विशिष्ट स्थान बना चुके है।

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