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भारतीय संविधान भारतीय संस्कृति का दर्पण

भारतीय संविधान भारतीय संस्कृति का दर्पण

by हिंदी विवेक
in अवांतर
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“शासन-प्रशासन के किसी निर्णय पर या समाज में घटने वाली अच्छी बुरी घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते समय अथवा अपना विरोध जताते समय, हम लोगों की कृति, राष्ट्रीय एकात्मता का ध्यान व सम्मान रखकर, समाज में विद्यमान सभी पंथ, प्रांत, जाति, भाषा आदि विविधताओं का सम्मान रखते हुए व संविधान कानून की मर्यादा के अंदर ही अभिव्यक्त हो यह आवश्यक है। दुर्भाग्य से अपने देश में इन बातों पर प्रामाणिक निष्ठा न रखने वाले अथवा इन मूल्यों का विरोध करने वाले लोग भी, अपने आप को प्रजातंत्र, संविधान, कानून, पंथनिरपेक्षता आदि मूल्यों के सबसे बड़े रखवाले बताकर, समाज को भ्रमित करने का कार्य करते चले आ रहे हैं। 25 नवम्बर, 1949 के संविधान सभा में दिये अपने भाषण में श्रद्धेय डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने उनके ऐसे तरीकों को अराजकता का व्याकरण कहा था। ऐसे छद्मवेषी उपद्रव करने वालों को पहचानना व उनके षड्यंत्रों को नाकाम करना तथा भ्रमवश उनका साथ देने से बचना समाज को सीखना पड़ेगा।” (श्री मोहन भागवत, विजयादशमी उत्सव, नागपुर, 25 अक्तूबर 2020)

आज जब भारत अपनी स्वतंत्रता के अमृत काल में वैश्विक पटल पर ‘विश्वगुरु’ की पहचान दोबारा बना रहा है, भारत के प्राण, उसके संविधान के अपनाये जाने के दिन, २६ नवम्बर पर हमें याद करना चाहिए कि इस संविधान में भारत के, भारतीय संस्कृति के, भारतीयता के मूल्य निहित हैं। इन मूल्यों की रक्षा करना ही संविधान दिवस का सच्चा सम्मान है।

भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ व 2 परिशिष्ट हैं तथा इसे 22 खण्डों में विभाजित किया गया है। डॉ. जैनिंग्स ने वर्णित किया, “भारतीय संविधान विश्व का सर्वाधिक व्यापक संविधान है।” तो वहीं एच. वी. कामथ ने इसकी विशालता के सम्बन्ध में कहा था, “हमें इस बात का गर्व है कि हमारा संविधान विश्व का सबसे विशालकाय संविधान है।” भारत गणराज्‍य अपने संविधान के अनुसार शासित है जिसे संविधान सभा द्वारा 26 नवम्‍बर 1949 को ग्रहण किया गया तथा जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। पूरे विश्व में सबसे बड़े लिखित संविधान माने जाने वाले भारतीय संविधान की आत्मा भारतीय संस्कृति के दर्शन ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से स्पष्टयः प्रेरित है। भारतीय संविधान अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को भी सुनिश्चित करता है तो कर्तव्यों को भी स्पष्ट करता है। अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा विश्व-शान्ति के आदर्शों को मान्यता देता है। भारतीय संविधान राज्य का यह कर्तव्य निश्चित करता है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, शान्ति और सुरक्षा के लिए प्रयत्न करे तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श पर काम करे।

भारतीय संविधान भारतीय संस्कृति का दर्पण है। भारतीय मूल्यों को केंद्र में रखते हुए यह ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के दर्शन पर सबके लिए, बिना किसी भेदभाव समान अधिकार प्रदान करता है तो वहीं राष्ट्र की अखंडता तथा एकता को सर्वोपरि मानता है। भारतीय संविधान भारतीय संस्कृति से प्रेरित एक आदर्श संविधान के रूप में हमारे सामने है किन्तु विगत सत्तर वर्षों में भारतीय संविधान को चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा है।

भारत के संविधान पर एक बड़ा प्रहार १०७५ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के द्वारा घोषित आपातकाल था। 25-26 जून १९७५ की रात को देश में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में आपातकाल की घोषणा सुनी। यह दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में काले तथा कलंकित दिन के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। आपातकाल के दौरान संविधान के प्रमुख मूल्यों की धज्जियां उड़ते साफ़ देखी गयीं।  १९७७ तक चले आपातकाल के दौरान, सभी तरह के लोकतान्त्रिक चुनावों को निलंबित कर दिया गया तथा इंदिरा गाँधी के अधिकतर विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और भारतीय मीडिया तथा प्रेस को पूरी तरह से सेंसर कर दिया गया तथा भारतीय नागरिकों से उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी छीन लिया गया।

यद्यपि आपातकाल भारतीय संविधान द्वारा ही प्रदत्त ऐसा प्रावधान है, जिसका प्रयोग देश को किसी बाह्य, आतंरिक अथवा आर्थिक खतरे से बचने की स्थिति में किया जा सकता है, किन्तु इसका दुरूपयोग करते हुए श्रीमती गांधी ने भारतीय लोकतंत्र और संविधान का अपमान ही किया और एक बड़ी चुनौती संविधान के लिए खड़ी की। इस आपातकाल को लगाने के लिए श्रीमती गाँधी ने ‘आतंरिक अशांति’ का हवाला दिया किन्तु सभी इसके पीछे के वास्तविक कारण को हम सभी जानते ही हैं।

दरअसल इसका कारण १९७१ में हुआ लोकसभा चुनाव का था, जिसमें श्रीमती गांधी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंदी राजनारायण को पराजित कर दिया था लेकिन चार साल बाद राजनारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी, जिसके परिणामस्वरूप ११२ जून १९७५ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने १९७१ चुनाव निरस्त कर श्रीमती गांधी पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया। न्यायालय ने इस आरोप को भी सही माना कि श्रीमती गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया और चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया।  इसके बावजूद श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। इधर गुजरात में कांग्रेस के विरोधी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इसके बाद श्रीमती गांधी ने अदालत के इस निर्णय को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और २६जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी।

इसी आपातकाल के दौरान मीसा-डीआईआर के तहत लाखों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। इस काले दौर में नेताओं, पत्रकारों और श्रीमती गाँधी के खिलाफ बोलने वालों को जेल में यातनाएं भी दी गयीं। इधर श्रीमती गाँधी के बेटे संजय गांधी सरकार चला रहे थे। संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया, जिन्होंने मीडिया के लिखने-बोलने पर ही पाबंदी लगा दी। यही वह समय था जब संजय गाँधी के कहने पर लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। आपातकाल के दौरान देश भर में करीब ८० लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई।

आखिरकार जनवरी १९७७ में इंदिरा गाँधी ने फिर से चुनाव की घोषणा की। इन चुनावों में इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी दोनों चुनाव हार गए। कांग्रेस को इस चुनाव में सिर्फ १५३ सीटें ही प्राप्त हुईं, और जनता पार्टी ने २९८ सीटें प्राप्त कर सरकार बनाई तथा भारतीय संविधान के मूल्यों को पुनर्जीवित करने का काम किया।

भारतीय संविधान में निहित मूल भारतीय मूल्यों की रक्षा का कर्त्तव्य यहां के लोग निभाते हैं, किन्तु कुछ राजनीतिक दल और विचारधारा वर्षों से भारत राष्ट्र को तोड़ने के अजेंडे पर काम कर रहे हैं, ये लोग हमारे बीच न सिर्फ अलगाववाद पनपाते हैं, हमारे सामजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को भी छिन्न भिन्न करते हैं। इस संविधान दिवस पर ऐसे ही तत्वों को पहचान कर इनसे सावधान रहते हुए इस प्रतिज्ञा की आवश्यकता है कि हम सब भारतवासी हज़ारों वर्षों से चली आ रही अपनी लोकतांत्रिक संस्कृति और इसके दर्पण अपने संविधान को सुरक्षित रखेंगें।

– अंशु जोशी

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