हमें माफ मत कीजिएगा राजेन्द्र बाबू! हम सब आपको भुलाने के अपराधी हैं। हम इसलिए आपको ध्यान नहीं रखते – क्योंकि आपने किसी जाति या समुदाय का वोटबैंक अपने पीछे नहीं छोड़ा है। आपने तो संविधान सभा के अध्यक्ष होने के महान दायित्व के नाते – इस राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ संविधान सौंपा है। अतएव आपको भूल जाना हम कृतघ्नों का प्रथम कर्त्तव्य हो चुका है।
लेकिन भला इतिहास के पन्ने आपको कैसे भूलने दे सकते हैं? इतिहास साक्षी है कि -आपके नेतृत्व में संविधान सभा में – राष्ट्र की गति प्रगति के लिए विस्तृत बहसें हुईं। और उन संवैधानिक बहसों के फलस्वरूप ही – भारतीय संस्कृति के महान आदर्शों से सुसज्जित संविधान की थाती हमें मिली। और आपने प्रथम राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्रपति के पद की गरिमा और राष्ट्र की गति- प्रगति के लिए अनमोल जीवनादर्श दिए हैं। समूचा राष्ट्र आपका ऋणी है। आप विमर्श के कागजी पन्नों एवं राजनैतिक प्रतिस्पर्धाओं की प्राथमिकता में भले ही नहीं रहें हैं। लेकिन आधुनिक भारत के इतिहास में आपकी आभा सदैव चमत्कृत करती रहेगी। आपका विराट व्यक्तित्व सर्वदा अपनी दीप्ति से प्रकाश पुञ्ज बिखेरता रहेगा।
भले ही वोटबैंक की राजनीति ने सही मायने में ‘संविधान निर्माता’ के रूप में आपको याद किए जाने का प्रथम कर्तव्य भुला दिया है। और भले ही सर्वश्रेष्ठ होने के दम्भ में प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने – संविधान की मूल प्रति में आपके प्रथम हस्ताक्षर करने के अधिकार को भी आपसे छीन लिया था। और उन्होंने सबसे पहले हस्ताक्षर कर दिए थे। लेकिन आपने तब भी अपना बड़प्पन एवं व्यक्तित्व की गरिमा दिखलाई थी। और आपने संविधान सभा के अध्यक्ष होने के नाते संविधान की मूल प्रति में प्रथम क्रम में ही ‘तिरछा’ हस्ताक्षर कर संविधान सभा के अध्यक्ष की गरिमा को स्थापित किया था।
भारत के इतिहास को वह दिन भी याद हैं जब सेक्यूलरिज्म और तुष्टिकरण में डूबे प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने 1951 में भारतीय संस्कृति के आस्था केन्द्र ,द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक – गुजरात के सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के पश्चात आपको उद्धाटन समारोह में जाने से रोकने का प्रयास किया। पं. नेहरू ने तो आपको खत लिखकर कहा था कि – “भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है. राष्ट्रपति के किसी मंदिर के कार्यक्रम में जाने से गलत संदेश जाएगा और इसके कई निहितार्थ लगाए जा सकते हैं।”
लेकिन आपने अपने स्वत्वबोध – भारतीयता के बोध एवं राष्ट्र संस्कृति की ध्वजा को हाथों में थामा। और 11 मई सन् 1951 को राजेन्द्र बाबू आपने विधिवत पूजन अर्चन किया । और सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में राष्ट्र परम्परा के अनन्य सेवक के रूप में स्वाभिमान का मेरूदण्ड सीधा रखा। तब उस दिन आपने कहा भी था कि – “सोमनाथ मंदिर इस बात का परिचायक है कि पुनर्निर्माण की ताकत हमेशा तबाही की ताकत से ज़्यादा होती है।”
राजेन्द्र बाबू आपने अपने उस निर्णय से एक लम्बी लकीर खींच दी थी। आपने बतला दिया था कि – राष्ट्र की संस्कृति क्या है? और आपने उस दिन अपने अडिग- अविचल निर्णय से बतला दिया था कि – भारतीय समाज का नया दिशाबोध क्या होगा? और आपने अपने उस निर्णय से हिन्दू चेतना के मानस को नई ऊर्जा दी थी। आपने उस दिन ही सेक्यूलरिज्म के राष्ट्रविरोधी मुखौटे को निकालकर फेंक दिया था। और आपने ही तो बताया था कि – यह सरदार वल्लभ भाई पटेल, के.एम. मुंशी और समूचे भारतीय जनमानस की ह्रदय के उद्गार थे। और फिर जो दायित्व राष्ट्र ने आपको सौंपे थे, उन्हें आपने बिना किसी भय या दबाव के निभाया था। आपने पं. नेहरू को यह भी बतला दिया था कि – संविधान की मर्यादा क्या है?और संविधान में ‘राष्ट्रपति’ के पद की गरिमा और राष्ट्र प्रमुख होने की शक्ति क्या होती है! राजेन्द्र बाबू हम सब आपके आजीवन ऋणी थे – ऋणी हैं और ऋणी रहेंगे।
आपकी विशद् दृष्टि – आपके कृतित्व- आपकी क्रांतिकारी सोच संवैधानिक मूल्यों से चलने वाले भारत को सदैव ही दिशाबोध देते रहेंगे। राष्ट्र संस्कृति से पल्लवित नए भारत की नई पौध अपने गौरवशाली इतिहास और महापुरुषों की जड़ों की ओर लौट रही है । आपने भारतीयता के स्वत्व बोध, स्वाभिमान एवं संस्कृति के लिए जिस प्रकार से सर्वस्व आहुत कर सादगी का कीर्तिमान स्थापित किया है। उससे यह राष्ट्र अपने आदर्श ढूंढ़ेगा। यह देश फिर उठ खड़ा होगा – अपने इतिहास की गौरवगाथा और क्रांति की सोच लेकर। और सृजन का वह संसार रचेगा जिसका संकल्प आप जैसे पुरोधाओं ने दिलाया था। यह कृतज्ञ राष्ट्र आपको कभी नहीं भूलेगा – जब भी इतिहास के पन्ने पलटे जाएंगे – आप सदैव भावी भारत की राह दिखलाएंगे। और राजेन्द्र बाबू आप ही तो वह होंगे – जो बताएंगे कि – राष्ट्र संस्कृति क्या है? और भारत माता की संततियों के क्या दायित्व हैं। हमें पूर्ण विश्वास हैं कि – आपके महान व्यक्तित्व कृतित्व के आदर्श हमारे स्वाभिमान को कभी भी झुकने नहीं देंगे..!
– कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल