भारतीय जनता पार्टी की आज की सफलता की नींव, भारतीय जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने रखी है. स्वाभाविक था कि इन कार्यकर्ताओं का निजी घर- संसार, लीक से बहुत हटकर रहा होगा. इसके बावजूद पूरे मनोयोग से अपनी घर-गृहस्थी चलाने वाली महिलाओं में से एक थीं- स्व. कुंदा नाईक, जो उत्तर प्रदेश के भू.पू. राज्यपाल श्री राम नाईक की पत्नी थीं. क्या सफल पुरुष के पीछे, पर्दे की आड़ में दृढ़ता से खड़ी रहने वाली महिलाएँ, दुनिया की अन्य महिलाओं से अलग होती हैं? श्री राम नाईक की बेटी विशाखा कुलकर्णी द्वारा लिखित, उनकी माँ की संक्षिप्त जीवनकथा तो यही कहती है.
राज्य के राज्यपाल के रूप में बाबा (श्री राम नाईक) का शपथ ग्रहण समारोह हो रहा था. शिष्टाचार के अनुसार मंच पर उनके एवं उनकी पत्नी यानी हमारी आई (माँ) श्रीमती कुंदा नाईक के लिए भव्य आसनों की व्यवस्था की गई थी. वास्तव में बाबा की देश सेवा, उसके लिए आई द्वारा दिए गए साथ तथा जीवनपर्यत उठाए गए कष्टों की सार्थकता दर्शाते उस समारोह को देखते हुए मेरे नेत्र अश्रुपूरित हो गए थे. शपथ ग्रहण समारोह के बाद एक पत्रकार की पहली प्रतिक्रिया कानों में पड़ी,” मैंने ऐसे समारोह में, राज्यपालों के परिवारजनों के अभिमान और आनंद से सराबोर चेहरे देखे हैं लेकिन ये लेडी गवर्नर कितनी शांत और संयम से बैठी थीं!” ऐसी थी हमारी आई!
यूँ तो प्रत्येक भारतीय महिला अपने पति और परिवार के लिए बहुत कुछ करती है. हालांकि भारतीय जनसंघ के आरंभिक काल में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की पत्नियों का जीवन, सामान्य महिलाओं की अपेक्षा बहुत अलग था. उनके जीवनसाथियों ने जिस जुनून से कार्य करने का व्रत लिया था, उसे देखते हुए इस व्रत पालन से सबसे ज्यादा कष्ट उनकी अर्धांगिनियों को उठाने पड़े जो उन्होंने हँसते हुए उठाए. मेरे अनुसार इन सभी महिलाओं की प्रतिनिधि के रूप में मेरी आई, सबसे सुंदर उदाहरण है. भविष्य की बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों तथा बाबा को मिली सामाजिक मान्यता के कारण, मेरी आई के सभी कष्ट एवं उनके द्वारा किए गए त्याग सार्थक हो गए जिसकी उन्होंने कभी अपेक्षा भी नहीं की थी. इसी कारण उनकी कहानी अन्य महिलाओं की अपेक्षा अधिक सुखद, सम्मानीय एवं साथ ही तनावपूर्ण भी थी. भारतीय जनता पार्टी आज केवल देश की ही नहीं वरन
विश्व की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी बन गई है. मेरी आई ‘ कुंदा नाईक’, इस पार्टी की गौरवशाली ऐतिहासिक सफलता के मौन भागीदार परिवारों की एक प्रतिनिधि है!
सात जन्मों का साथ
मेरे नाना स्व. का. ना. धारप ने अपने समय में जहाँ डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के साथ चिरनेर सत्याग्रहियों का मुकदमा लड़ा था वहीं, स्वतंत्रता के पश्चात महात्मा गाँधी की हत्या के बाद वीर सावरकर पर चलाए गए मुकदमे में, सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखने वाले भोपटकर वकील की मुंबई से वैधानिक सहायता भी की थी! वीर सावरकर के निर्दोष सिद्ध होने पर वे स्वयं मेरे नाना से मिलने, उनके घर गए थे. उस समय गिरगाँव की सड़क पर जमी लोगों की अभूतपूर्व भीड़ की चर्चा, लंबे समय तक होती रही थी. हमारी आई को 12 वर्ष की उम्र में सावरकर से भेंट करने का सौभाग्य मिला था! उनके ऊपर हुए देशप्रेम के संस्कारों का ज्यादा वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं है.
कहते हैं कि ईश्वर ऊपर से ही जोड़ियाँ बना कर भेजता है. बहुधा इसी कारण आई-बाबा का विवाह हुआ अन्यथा पिता की छत्रछाया खो चुके किंतु समृद्ध एवं ख्याति प्राप्त परिवार की आई का, भाईे-बहनों की जिम्मेदारी उठाने वाले तथा किसी के द्वारा भी आर्थिक सहायता से वंचित मेरे पिता के साथ विवाह होना कठिन ही था. आई कई बार खुलकर कहती थीं, ” मुझे केवल निर्व्यसनी एवं सुशिक्षित पति चाहिए था इसलिए मैंने तुम्हारे बाबा के साथ विवाह करने के लिए हाँ कहा.” वहीं बाबा आँखें मिचकाकर कहते थे,”मेरी तो लॉटरी लग गई.”
संघ स्वयंसेवक की गृहिणी
वास्तव में आई के लिए उनकी गृहस्थी बहुत कठिन रही होगी. विवाह के बाद दक्षिण मुंबई के 6 बड़े-बड़े कमरों वाले अपने विशाल घर से निकलकर, वे उपनगर में डेढ़ कमरों वाली चाल में रहने लगीं. संघ से संलग्न व्यक्ति से विवाह के बाद जीवन कैसा होगा, इसकी पहली झलक आई को विवाह के 2 महीने बाद ही मिल गई जब मेरी दादी ने बड़े उत्साह से घर में सत्यनारायण की पूजा करवाई. बाबा ने बताया कि पूजा के 1 दिन पहले मूसलाधार बारिश हो रही थी जिसके कारण सीमित लोगों को ही घर में प्रसाद के लिए निमंत्रित किया गया था. हालांकि संघ परिवार में इतनी घनिष्ठता थी कि पूजा की बात सुनकर सभी ने सोचा कि इतनी बारिश में राम भाऊ निमंत्रण देने कैसे आ पाएँगे, हमें स्वयं ही प्रसाद लेने जाना चाहिए. इस कारण घर में प्रसाद लेने के लिए, स्वयंसेवकों और उनके परिजनों की भीड़ लग गई.
मेरी दादी को तीन बार नैवेद्य के लिए शीरा (सूजी का हलवा) बनाना पड़ा. यह देखकर आई चकित रह गईं लेकिन उन्होंने मन ही मन इस परिवार को अपना लिया.
आई को यह समझते देर नहीं लगी कि उनके पति सामान्य पुरुषों से अलग हैं. जहाँ एक ओर अपनी कार्यक्षमता से बाबा नौकरी में पदोन्नति पा रहे थे वहीं दूसरी ओर, जनसंघ में भी नई-नई जिम्मेदारियाँ स्वीकार कर रहे थे. वे गोरेगाँव पूर्व से 12 कि.मी. की दूरी पर स्थित सांताक्रूज पश्चिम में नौकरी करते थे, वहाँ से गोरेगाँव पश्चिम में संघ शाखा की बैठक निपटाकर घर वापस आते थे. रोज का यह आना-जाना वे साइकिल से करते थे. जल्द ही आई को बाबा का यह हिसाब समझ में आ गया कि पैदल चलने या रेल से सफर करने के बजाय साइकिल से जाने में प्रतिदिन, बाबा के 20-25 मिनट बच जाते हैं और वे अपने जीवन का ज्यादा से ज्यादा समय, समाज सेवा के लिए देना चाहते हैं. इसी कारण अपनी बेटी के पहले जन्मदिन पर ही, झोपड़पट्टी के एक कार्यकर्ता की जान बचाने में व्यस्त होने के कारण, वे जन्मदिन के उत्सव में शामिल नहीं हो पाए. इसपर आई ने क्रोधित होने के बजाय, आगे से घर के प्रत्येक सदस्य का जन्मदिन उनकी सुविधानुसार, जन्मदिन के पहले या बाद में मनाने की शुरुआत की. जब आत्मीय जनों ने भी देखा कि किसी भी महत्वपूर्ण पारिवारिक समारोह में, बाबा के सामाजिक कार्य में व्यस्त होने के कारण उनकी अनुपस्थिति को आई सहज स्वीकार कर लेती हैं तो उन्होंने भी कभी बाबा पर रोष नहीं जताया. परिवार जनों ने आई की उपस्थिति को ही, दोनों की अद्वैत उपस्थिति के रूप में स्वीकार कर लिया.
सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए सबसे बड़ी अड़चन तब आती है जब किसी पारिवारिक कार्यक्रम में वे अपना उत्तरदायित्व निभाने में पीछे रह जाते हैं. मैंने कई स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं के लिए, उनके परिवारजनों की यह भावना देखी है कि उन्हें मुफ्त के काम करने के लिए तो समय होता है लेकिन वे हमारी उपेक्षा करते हैं. मैंने कई घरों में इस तरह की कटुता को विकसित होते देखा है लेकिन हमारा घर हमेशा इसका अपवाद रहा. इसका पूरा श्रेय आई को जाता है! उन्होंने कभी गलती से भी इस तरह की भावना व्यक्त नहीं की. जब कभी मैं और मेरी बड़ी बहन निशिगंधा इस तरह की भावना व्यक्त करते तो वे तुरंत कहतीं,” मुझे पूरा विश्वास है कि जब मैं निभा नहीं पाऊँगी तो तुम्हारे बाबा उपस्थित रहेंगे ही, इसलिए मेरे मन में ऐसी भावना उत्पन्न ही नहीं होती.”
यह सही भी था. मेरे जन्म के बाद आई को दमा जैसे जिद्दी बीमारी हो गई. दमा के अटैक के कारण आई बिस्तर में लेट नहीं पाती थीं इसलिए वे रात भर आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सोती थीं.
बाबा संघ की बैठकों से भले ही कितने भी देर से आएँ, फिर भी आई को अच्छा महसूस हो इसलिए वे उन्हें गरमागरम चाय बनाकर पिलाते थे. समय आने पर बाबा कोई भी काम करने से पीछे नहीं हटते थे.
पार्टी का पूर्णकालिक कार्य
बाबा नौकरी करते हुए कंपनी के मुख्य लेखाधिकारी और कंपनी सेक्रेटरी हो गए थे. आर्थिक स्थिरता और समृद्धि आने लगी! प्राथमिक शाला में ही ताई (बड़ी बहन) पहले-दूसरे क्रमांक पर आने पर उनकी सराहना करते हुए आई ने सोचा कि जब मैं भी स्कूल जाने लगूँगी तो वे स्वयं के लिए समय निकाल सकेंगीं.
उसी समय अचानक जनसंघ के वरिष्ठ नेताओं ने बाबा से नौकरी छोड़ कर पार्टी का पूर्णकालिक काम करने के बारे में पूछा. चाहते तो बाबा भी यही थे लेकिन घर में पत्नी, दो बेटियों और अपनी माँ के प्रति उनका उत्तरदायित्व उन्हें पीछे खींच रहा था. उन्हें यह विश्वास तो था कि संघ, उनके परिवार का उत्तरदायित्व उठा लेगा लेकिन आई की सहमति के बिना इतना बड़ा निर्णय करना उन्हें उचित नहीं जान पड़ा. तब आई ने कहा,” नौकरी और पार्टी का कार्य साथ-साथ करने में आपकी बहुत खींचातानी होती है. यदि पार्टी का कार्य करने में आपको ज्यादा आनंद मिलता है तो सहर्ष करें.” हालांकि उन्होंने बाबा के सामने एक शर्त रखी,”भले ही पार्टी आपका ध्यान रखेगी लेकिन मैं हमेशा अनिश्चितता में ही रहूँगी इसलिए मुझे नौकरी करने दें.”. एक ओर बाबा जनसंघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए वहीं दूसरी ओर, आई ने शिक्षिका होना निश्चित किया और बी. एड. में प्रवेश लिया. मुंबई महानगरपालिका के माध्यमिक शाला में आई की नियुक्ति हुई. आगे आई-बाबा के जीवन में कई बदलाव आए. बाबा अपने राजनीतिक जीवन में सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए तीन बार विधायक बने, सांसद बने लेकिन तब भी आई ने, 1996 में सेवानिवृत्ति तक अपनी नौकरी जारी ही रखी.
बाबा ने 1969 में ही जनसंघ के लिए पूर्णकालिक कार्य करने का निर्णय किया था. आज यदि किसी उपचुनाव में भाजपा की पराजय हो तो हम दिल से लगा लेते हैं लेकिन उस समय चुनाव लड़ने पर पर हार ही अपेक्षित होती थी. इसका कारण यह था कि चुनाव लड़ने का उद्देश्य, जीत के बजाए संगठन का प्रसार करना था. उस समय पूरे महाराष्ट्र में जनसंघ के केवल चार विधायक थे. बाबा संगठन मंत्री के रूप में पूर्णकालिक काम कर रहे थे यानी पार्टी के अलिखित नियमों के अनुसार यह तय था कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे.
यानी उस समय चुनावी हार भी इष्टापत्ति की तरह प्रतीत होती थी. अतः बाबा के लिए किसी भी निजी राजनैतिक महत्वाकांक्षा का तो प्रश्न ही नहीं उठता था लेकिन स्वप्न में भी राजनैतिक मान-सम्मान के चिन्ह नहीं दिखाई पड़ते थे. ऐसे में भी बाबा ने पार्टी के लिए पूर्णकालिक कार्य करने का निर्णय किया और आई ने उसे आनंद से स्वीकार ही नहीं किया बल्कि पूरी तरह निभाया भी.
सुबह की अमृत्तुल्य चाय
बाबा के इस निर्णय की परिणीति के रूप में वे जनसंघ के कार्यों में और आई अपनी घर-गृहस्थी में, पूरी तरह रम गए. बाबा जब भी घर में होते थे तो केवल गप्पे मारने के लिए ही होते थे. घर में रहते हुए, गैस सिलेंडर खत्म होने पर उसे बदलने के अतिरिक्त उन्हें अन्य कोई परिवारिक जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ी. आई सुबह 5 बजे के पहले ही उठकर, भोजन बनाकर तैयार हो जाती थीं. बाबा के उठते ही, 6.30 बजे दोनों मिलकर चाय पीते थे और आई घर से निकल जाती थी. 7 बजने के पहले ही वे स्कूल में होती थीं. कभी-कभी दोनों के सानिध्य के इन 15 मिनटों पर भी आफत आ जाती थी. फिर भी यह समय उन दोनों के लिए ही विशेष था. वह एक कप चाय, दोनों में ही दिन भर के कामों के लिए विलक्षण स्फूर्ति भर देती थी.1970 में शुरू हुई यह दिनचर्या, 1 वर्ष पहले आई के पूरी तरह बिस्तर पकड़ लेने तक जारी रही.
आपातकाल के दिन
आई जानती थी कि बाबा के दौरों के कारण चाय के प्याले में तूफान तो नहीं उठेगा लेकिन उनकी इस प्रेमसिक्त दिनचर्या में बाधा तो जरूर आएगी. हालांकि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह बाधा 19 महीनों की भी हो सकती है. आपातकाल के अंधेरे दौर में, जनसंघ के पदाधिकारियों में से केवल 2 लोग ऐसे थे जिन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया था. एक बाबा और दूसरे बबनराव कुलकर्णी! बाबा, सिर पर लगातार गिरफ्तारी की तलवार लटकी होने के बावजूद, मुंबई में आपातकाल के विरोध में किए जाने वाले आंदोलन ज्वलंत बनाए रखने के लिए कई बार 1-1 दिन बाद घर आते थे. इतना ही नहीं ,जरूरत पड़ने पर उनके लिए सप्ताह भर भी घर आना संभव नहीं हो पाता था. ताई की दसवीं की पढ़ाई में साथ देने के लिए, आई ने भी एम. ए. करने का निर्णय किया और उस पढ़ाई में आई अपनी चिंता भूल जाती थीं. उस समय हम दोनों बहनें स्कूल में थीं. हमारे लिए उस परिस्थिति की गंभीरता को समझना तो मुश्किल ही था लेकिन आई ने उन दिनों का साहस से सामना करते हुए, हमारे मन में तनाव उत्पन्न नहीं होने दिया. उस काल के दौरान उनका नौकरी करने का महत्व उजागर हो गया.
दुर्घटना जिससे जान पर बन आई
संकट जब भी आते हैं, एक के पीछे एक आते हैं. आपातकाल खत्म हुआ. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सभी विरोधियों ने एकत्र होकर केंद्र में सरकार की स्थापना की. उसके बाद जनता पार्टी की स्थापना करने का निश्चय किया गया. इससे पहले जनसंघ की अंतिम बैठक से वापस आते हुए, मुंबई के कार्यकर्ताओं की जीप बड़ी दुर्घटना का शिकार हो गई. बाबा बाल-बाल बचे लेकिन शीव के तिलक महापालिका अस्पताल में उन्हें लगातार दो महीनों तक ट्रेक्शन लगाकर रखा गया था. स्लिप डिस्क के कारण पक्षाघात होने की आशंका भी थी. हम दोनों बहनों के छोटा होने के कारण सारी जिम्मेदारी आई पर आ गई. दादी ने दृढ़ता से घर संभाला और आई प्रतिदिन, गोरेगांव से शीव की बस यात्रा कर, दिनभर अस्पताल में बाबा की सेवा करती थीं. शाम के बाद वहाँ आई के रुकने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी. इसका कारण यह था कि बाबा के सहकर्मियों ने उनके रात के भोजन, तथा उनके साथ रात में रुकने जैसी सारी जिम्मेदारियाँ स्वयं ही उठा ली थीं. वास्तव में देखा जाए तो उस समय बाबा केवल जनता पार्टी में विलीन हुई जनसंघ के मुंबई के संगठन मंत्री थे, किसी और पद पर आसीन नहीं थे. इसके बावजूद श्री अटल बिहारी वाजपेयी, सरसंघसंचालक श्री बालासाहेब देवरस से लेकर स्वयं इंदिरा गाँधी को पराजित करने वाले राजनारायण तक, कई बड़ी हस्तियाँ उनसे मिलने आई थीं. स्वयंसेवक और कार्यकर्ता तो प्रतिदिन आते ही थे. संकट समय आए उस अनुभव के आधार पर ही अक्सर आई हमसे कहती थीं,” बाबा की समाजसेवा के कारण ही लोग हमारे घर लगातार आते हैं. उनके समय-असमय आने पर उनका अपमान नहीं होना चाहिए. बाबा ने जिन लोगों को साथ जोड़ा है, वही हमारा खरा वैभव है.”
चुनाव की राजनीति
इस तरह बाबा को अपने कार्यों में आई का संतोषजनक और समझदारी भरा साथ मिला. भले ही बाबा ने राजनीति के माध्यम से समाजसेवा की राह चुनी लेकिन आज यदि किसी को बताया जाए कि 1978 में बाबा द्वारा विधानसभा के चुनाव पहली बार लड़ने के लिए, आई- बाबा दोनों को उनके पार्टी के वरिष्ठ लोगों ने राजी किया था तो लोगों को यह झूठ लगेगा. हालांकि दोनों का ही स्वभाव ऐसा था कि यदि एक बार कुछ करना निश्चित कर लिया तो फिर वे उसमें स्वयं को पूरी तरह झोंककर उस कार्य को पूरा करते थे. पार्टी की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के बावजूद भी आपातकाल के बाद होने वाले उस पहले विधानसभा चुनाव में, कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि सामान्य नागरिक भी उत्साह से अपना सहयोग दे रहे थे. इसके बावजूद आई को भी बहुत काम करने पड़े. उस समय बोरीवली मतदान क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या प्रचुर थी. तब कंप्यूटर और मोबाइल का जमाना नहीं आया था.1,39,000 मतदाताओं के कार्ड हाथ से लिखना बहुत बड़ा काम था. आई ने इसका पूरा प्रबंधन अकेले ही किया.
पार्टी के पास कार्यालय भी नहीं था. वे सारे कार्ड छपकर, हमारे दो कमरों के घर में ही आए. आई ने मुस्कुराते हुए उन मतदाता सूचियों के गट्ठे बनाने, कार्यकर्ताओं को लिखने के लिए देने, उनसे लेने, उन्हें जाँचने, समय पर उनके वितरण के लिए पोलिंग बूथ के अनुसार उनके गट्ठे बनाने के अतिरिक्त उम्मीदवार के रूप में बाबा के अन्य कामों में सहायता करने जैसे कार्य किए.
आगे चलकर भले ही उन्हें इस तरह के कार्य नहीं करने पड़े लेकिन चुनाव के समय आई के पास, नौकरी से छुट्टी लेने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता था. चुनावों की आहट होते ही वे समय पर अपने विद्यार्थियों का पाठ्यक्रम पूरा करा देती थी जिससे उनकी पढ़ाई का नुकसान न हो. वे इस बात का विशेष ध्यान रखती थीं कि चुनाव के लिए ली जाने वाली छुट्टियों के अलावा उन्हें बाकी समय छुट्टी न लेनी पड़े. बाबा ने 3 बार विधानसभा और 7 बार लोकसभा के लिए चुनाव लड़े. पार्टी बढ़ने पर कार्यकर्ताओं की संख्या भी बढ़ी लेकिन फिर भी आई की व्यस्तता वैसी ही बनी रही. मैंने सौम्य स्वभाव वाली अपनी आई को, चुनाव के दौरान कई बार रणचंडी का रूप धारण करते हुए भी देखा है. चुनाव के समय धमकियों भरे, अशोभनीय बातें करने वालों के फोन आना तय था. अधिकतर आई उन्हें सहजता से उत्तर देती थीं. हालांकि कभी-कभी आई बड़ी दिलेरी से ” हिम्मत है तो सामने आकर बोलो”,” बताओ कहाँ आकर मिलना है?”,” जो करना है, कर लो”, जैसे जुमले बोलकर दूसरी ओर के व्यक्ति को चुपचाप फोन रखने पर मजबूर कर देती थीं. इतना ही नहीं वे कभी बाबा को नहीं बताती थीं कि इस तरह के विचित्र फोन आते हैं या लोग आकर उन्हें परेशान करते हैं.
लोकसभा चुनाव के समय मतदान क्षेत्र बहुत विस्तृत था. 110 किलोमीटर क्षेत्र के लोक सभा मतदान क्षेत्र में, बाबा के साथ लगातार प्रचार के लिए जाने वाले कार्यकर्ताओं का बड़ा समूह साथ होता था. इन सब के खाने-पीने की व्यवस्था आई ही करती थीं. लगातार रोटियाँ बेलने के कारण आई की कमर अकड़ जाती थी. आगे चलकर उसके लिए भी कार्यकर्ताओं की सहायता मिलने लगी लेकिन फिर भी आई सब पर पैनी निगाह रखती थीं. आई इन सभी कार्यकर्ताओं के लिए अपने हाथ के बनाए हुए अचार, पापड़ मुरब्बे आदि खास तौर पर जमा करके रखती थी. आई घर आने वाले अथवा फोन करने वाले कार्यकर्ताओं, नागरिकों, पत्रकारों से बात करते हुए, बाबा और उनके साथियों के टाइम टेबल संभालते हुए, महत्वपूर्ण सूचनाओं का आदान-प्रदान भी करती थीं. आई भली-भाँति जानती थीं कि भले ही बाबा चुनावी कार्यक्रम के दौरान पालघर जैसे दूरस्थ ग्राम में हो, लेकिन समय पड़ने पर (मोबाइल फोन का अस्तित्व न होने पर भी) वहाँ उन्हें तत्परता से किस तरह समाचार पहुँचाया जाए. हमारी इन्हीं आई को, किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में अपनी शान का प्रदर्शन करने में जरा भी रुचि नहीं थी. बाबा के 50 वर्षों के राजनैतिक कार्यकाल में उनके मंत्री, राज्यपाल बनने पर आयोजित स्वागत समारोह, बाबा के अमृत महोत्सव जैसे गिने-चुने कार्यक्रमों में ही लोगों ने उन्हें मंच पर देखा होगा.
बाबा लोकल ट्रेन से यात्रा करते थे जिसकी सराहना करने के लिए कई लोगों ने उनकी यात्रा के फोटो प्रकाशित किए हैं. कोई यह नहीं जानता कि अंधेरी के स्कूल में स्थानांतरित हो जाने पर, इन सांसद की पत्नी प्रतिदिन ही लोकल ट्रेन से सफर करती है.
कैंसर का प्रहार
उसी दौरान एक बार किस्मत ने उनकी फिर परीक्षा ली. बाबा के अच्छे स्वास्थ्य के चलते और निर्व्यसनी (सुपारी तक का व्यसन नहीं) होते हुए भी 1994 में अचानक उन्हें कैंसर हो गया. लिंफोमा, जोकि अत्यंत गंभीर अवस्था में पहुच चुका था. जब डॉक्टर ने कहा कि 3 कीमोथेरेपी के बाद भी ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि वे ठीक होंगे या नहीं, तब मानों आई के पैरों तले जमीन खिसक गई. हालांकि यह सोच कर कि यदि वे कमजोर पड़ गईं तो बाबा हताश हो जाएँगे, उन्होंने उस पूरी कालावधि में एक बार भी अपनी आँखों में आँसू नहीं आने दिए. उनकी आँखों में आँसू तब आए जब बाबा पूरी तरह ठीक होकर, सभा में अटल जी का भाषण सुन रहे थे! उस भाषण में अटल जी ने बाबा से कहा, ”आपका साफ-सुथरा, व्यवस्थित गृहस्थाश्रम सभी के लिए अनुकरणीय है. आप भारत माता की और सेवा कर सकें, इसलिए आपको पुनर्जन्म मिला है.”
मंत्री की पत्नी
1998 के चुनावों के बाद बाबा को रेल तथा अन्य चार विभागों का राज्य मंत्री पद दिया गया. कुछ समाचार पत्रों के संपादकों ने भी इस आशय के लेख लिखे ,”राम नाईक को कैबिनेट मंत्री न बनाते हुए राज्य मंत्री क्यों बनाया गया?” बाबा संघ के अनुशासन का पालन करते थे. वे सौंपी गई जिम्मेदारी को आनंद और उत्साह से निभाते थे लेकिन आई उनसे भी दो कदम आगे थीं. उन्होंने सबके सामने बाबा से कहा, ”अटलजी को इतनी पार्टियों की मिली जुली सरकार बनानी है. उन्होंने आपसे अपनत्व भरा व्यवहार किया यही बड़े गौरव की बात है. आपने पार्टी के लिए पूर्णकालिक कार्य की शुरुआत की तब हमने सपने में भी, आज तक मिले सम्मान के बारे में नहीं सोचा था. रेलवे आपका प्रिय विषय है. इस अवसर को अपने कार्यों से, सुनहरा अवसर साबित करके दिखाएँ.”
आई कभी भी किसी समारोह में मंत्री की पत्नी के रूप में सुशोभित होने के लिए नहीं गईं. एक मंत्री की पत्नी के रूप में उनके लिए अविस्मरणीय अनुभव ये थे कि उनके घर लता मंगेशकर आई थीं, जयवंती बेन मेहता के घर उन्होंने अटलजी के साथ बैठकर भोजन किया, फिल्म सावरकर के प्रदर्शन के लिए दिल्ली आए हुए सुधीर फड़के हमारे घर ठहरे आदि. विरक्ति की ओर झुकी हुई यह सात्विकता ही आई की शक्ति थी.
यही कारण था कि जब इतना काम करने के बाद भी बाबा चुनाव में पराजित हुए तो आई को यही अफसोस था कि क्या लोग उनके द्वारा किए गए काम को भूल गए? वे उस पराजय के राजनीतिक दाँव-पेंच, तर्क समझ रही थीं फिर भी, बाबा की को हार उन्होंने दिल से लगा लिया. हालांकि बाबा की तरह ही उनका सिद्धांत भी यही था कि चुनाव उनके लिए जीवन का लक्ष्य कभी नहीं रहा, हारने पर भी अपने कार्य बंद नहीं करने चाहिए. जब 10 बार चुनाव लड़ने के बाद बाबा ने, उनसे आगे चुनाव न लड़ने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने उनके इस निर्णय की सराहना की. बाबा ने चुनावी अखाड़ा छोड़ दिया और उसके बाद पार्टी ऐतिहासिक बहुमत से सत्ता में आई. तब आई ने बाबा से ’पार्टी’ माँगी. उम्मीदवार न होते हुए भी उस चुनाव में बाबा ने दिन-रात परिश्रम किया था. उन्होंने आई से कहा, ”दिल्ली कार्यकारिणी की बैठक होने के बाद हम कहीं विश्राम करने के लिए जाएगे.” आई यह कहते हुए हँस दीं कि हर बार की तरह इस बार भी उनका आश्वासन खोखला है. उनके मुख से मानो नियति ही हँस रही थी.
राजभवन या सोने का पिंजरा
उस बैठक के बाद दोनों तुरंत यात्रा के लिए निकल गए. विश्राम के लिए नहीं बल्कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के राज्यपाल पद का उत्तरदायित्व निभाने के लिए, वे 5 वर्ष के लिए लखनऊ चले गए. बाबा ने दिन-रात काम करके अपने कार्यों से जतला दिया कि राज्यपाल का पद निवृत्ति के लिए अथवा ऐशो-आराम के लिए नहीं है. हालांकि उस राजमहल में आई एक तरह से त्रस्त हो गई. अनजाने में उन्हें भी, बाबा की तरह ही लोगों के प्रति मन में मोह उत्पन्न हो गया था. सादगी तो मानो उनके रक्त में ही थी. इसलिए स्वाभाविक था कि उस पद के साथ मिलने वाला शिष्टाचार कई बार उनसे सहन नहीं होता था. अब उनका प्रिय वाक्य बन गया था, ”मैं सोने के पिंजरे में कैद मैना हो गई हूँ.” हालांकि ये लेडी गवर्नर, 4-4 शेफ के होते हुए भी विशाल रसोई घर में भोजन बनाने जाती थीं.
उनकी हिंदी बोली में उत्तर भारतीय मिठास तो नहीं थी लेकिन वह सच्चाई और आस्था से ओतप्रोत थी. इसी कारण राजभवन सामान्य सेवक भी जब देखता कि उन्होंने थोड़ा सा ही भोजन किया है तो वे उनसे, भोजन के बाद थोड़ी आइसक्रीम लेने का आग्रह करते थे. इतना ही नहीं, साँस की तकलीफ के कारण वे सीढ़ियाँ चढ़-उतर नहीं सकती थीं. जब यह बात उनके अंग रक्षकों को पता चली तो वे कहते थे, ” हम आपको उठाकर ले चलेंगे लेकिन आप गंगा आरती के लिए जरूर चलें.”
जब राज्यपाल पद के कार्यकाल की समाप्ति पर आई-बाबा वापस लौट रहे थे तो वहाँ ऐसा माहौल था जैसा किसी लड़की के ससुराल जाने के समय होता है. जिसे देखो, वही आई-बाबा को अश्रुपूरित नेत्रों से विदाई दे रहा था लेकिन आई हमेशा की तरह ही शांत रहकर मुस्कुराते हुए हरेक से कह रही थीं,” मुंबई दूर नहीं है, कभी भी आना.”
नारी शक्ति की अनोखी अभिव्यक्ति
आई का व्यक्तित्व, नारी शक्ति की अनोखी अभिव्यक्ति था जो अत्यंत संवेदनशील और भावनाप्रधान था. यह उनका प्रिय विचार था कि भावनाप्रधान व्यक्ति, भावनाओं का आडंबर नहीं करता और दूसरों की भावनाओं का विचार करता है. इस अर्थ में वे भावना प्रधान थीं. वास्तव में उन्होंने अपने पति के लिए समर्पित जीवन जीया जो अंधा प्रेम अथवा पारंपरिक व्यवहार न होकर, उनका अपना चुनाव था. उन्होंने सबकुछ इतनी सहजता से किया कि देखने वाला सोच भी नहीं सकता कि उन्होंने बाबा के लिए कितने त्याग किए, कितने कष्ट सहे. बाबा के उपलब्ध न होने पर भी घर का कोई भी निर्णय कभी लंबित नहीं हुआ. स्वयं बाबा के लिए सब कुछ करने को तैयार आई- घर में काम करने वाली बाइयों से लेकर, अपनी घनिष्ठ सहेलियों तथा रिश्तेदार महिलाओं को समय-समय पर बताती रहीं कि पति का अन्याय सहन न करें और आत्मसम्मान से जीएँ. उनका कहना था ,”मेरे बड़े भाग्य हैं जो मुझे अपने पति से संघर्ष नहीं करना पड़ा लेकिन आप अपने स्वाभिमान से समझौता न करें.” अपने कार्यस्थल में भी उन्होंने हमेशा आत्मसम्मान बनाए रखा. इस तरह दृढ़ आत्मसम्मान वाली हमारी आई, सही मायनों में कुटुंब का मेरुदंड ही थीं. वे हर तरह से सक्षम थीं. उस समय को देखते हुए, उनका दो बेटियों के बाद परिवार सीमित करने का निर्णय भी किसी आश्चर्य से कम नहीं था! उनके शब्दों में कहा जाए तो,” दो बेटियाँ पर्याप्त हैं.” हमारी परवरिश करते हुए उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा कि तुम लड़की हो तो यह करो अथवा यह मत करो.
जीवन के अंतिम 11 महीने उन्होंने पूरी तरह बिस्तर पर ही बिताए. इसके बावजूद उनका केवल अस्तित्व ही, घर में प्रसन्न माहौल बनाए रखता था. आज वे नहीं हैं. फिर भी दिखाई दे ही जाती हैं- संतुष्ट एवं तृप्त लोगों की आँखों में, घर के लिए परिश्रम करने वाली गगृहिणियों में, स्वाभिमान से समझौता न करने वाली कर्तव्यनिष्ठ महिलाओं के अभिमान में तथा बाबा, ताई , शार्दुल और मेरे हृदय में!
– विशाखा कुलकर्णी
Very inspirational
Yes, very inspiring! Behind every great man there is a Woman, is so true!
From the book ‘Charaiveti ‘ we learnt about Naikji. But thanks Vishakha, you have given in brief your mother’s contribution!
तेथे कर माझे जुळती!
Very well written Vishakha.
🙏🙏She was a loving,humble,grounded and strong lady .Respect ,love and regards 💞🙏
🙏🙏🙏🙏🙏
Dear Vishakha, you have encapsulated dear Kunda kakus life so beautifully. Remembering her with respect and love 🙏
🙏🙏🙏
Very inspirational 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
प्रिय विशाखा, आईचे अंतरंग, कर्तृत्व आणि कर्तव्य खूप छान उतरले आहे लेखातून. एका मुलीने आईला दिलेली सुंदर आदरांजली.
Very inspirational.