महाराजा रणजीत सिंह का वैभव और ब्रितानी लूट

गत दिनों ब्रितानी समाचारपत्र ‘द गार्जियन’ ने भारत पर ब्रिटेन के शासन से जुड़े एक अभिलेख का खुलासा किया। इसमें उन घटनाओं का उल्लेख है, जिसमें अंग्रेजों ने भारत से कई बहुमूल्य आभूषणों को लूटकर ब्रितानी राज परिवार को सौंप दिया था, जिनपर अब उनका तथाकथित ‘स्वामित्व’ है। 46 पृष्ठों का यह दस्तावेज लंदन स्थित ‘इंडिया ऑफिस’ के अभिलेखागार से संबंधित है, जो अत्याचारपूर्ण ब्रितानी राज का एक प्रतीक होने के साथ यह भी समझने में सहायता करता है कि भारत को क्यों ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था।

यह भारत का प्रताप और वैभव ही था कि पहली से लेकर 15वीं शताब्दी तक भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व में सबसे बड़ी थी, तो इसके अलगे 300 वर्षों तक भारत और चीन के बीच पहले-दूसरे स्थान हेतु होड़ लगी हुई थी। ध्यान रहे कि यह संपन्नता तब थी, जब भारत अपनी मूल सनातन संस्कृति आध्यात्म, वेद, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद, रामाणय, महाभारत आदि ग्रंथों से जुड़ा था और विदेशी आक्रांताओं से उसकी रक्षा हेतु तत्पर था। ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के आगमन से पूर्व, भारत की वैश्विक अर्थव्यवस्था में 24.5% हिस्सेदारी थी, जो 1947 में ब्रितानियों के भारत छोड़ने के बाद मात्र 2 प्रतिशत रह गई। इसकी वेदना ‘द गार्जियन’ के हालिया खुलासे में मिलती है।

‘इंडिया ऑफिस’ के अभिलेख के अनुसार, वर्ष 1837 में सोसायटी डायरिस्ट फैनी ईडन और उनके भाई जॉर्ज ने पंजाब का दौरा किया था। तब जार्ज ब्रिटिश राज में भारत का गवर्नर जनरल था। उसने लाहौर में सिख साम्राज्य के संस्थापक, भारतीय संस्कृति के सच्चे रक्षकों में से एक और शेर-ए-पंजाब नाम से विख्यात महाराजा रणजीत सिंह से भेंट की। ईडन ने तब अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत कम मूल्यवान रत्न पहने हुए थे, किंतु उनका लाव-लश्कर बेशकीमती रत्नों से सजा था। महाराजा के पास इतने हीरे-जवाहरात थे कि उन्होंने अपने घोड़ों को एक से बढ़कर एक बहुमूल्य आभूषणों से सजाया था। उन्होंने लिखा था कि महाराजा रणजीत सिंह की साज-सज्जा और उनके आवास की भव्यता की केवल कल्पना ही की जा सकती थी। फैनी ईडन ने बाद में अपनी डायरी में लिखा, “यदि कभी हमें इस राज्य को लूटने की अनुमति दी जाती है, तो मैं सीधे उनके अस्तबल में जाऊंगी।” स्पष्ट है कि किस प्रकार ब्रितानियों की गिद्ध-दृष्टि तत्कालीन संपन्न भारत के पंजाब क्षेत्र पर थी।

भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा बड़ी मात्रा में लूटे गए आभूषणों और वस्तुओं में कुछ ऐसी भी धरोहरें थी, जो न केवल अनमोल थी, अपितु उस कालखंड में भारत की समृद्धि और संपन्नता का वर्णन, स्वर्ण अक्षरों में होता था। 16-17वीं शताब्दी में दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील में हीरों की खानों का पता चलने से पूर्व, दुनियाभर में भारत के गोलकुंडा खदान से निकले हीरों की धाक थी। किंतु यहां से निकले अधिकांश हीरे या तो लापता हैं या फिर विदेशी संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। उसी में से एक है— कोहिनूर, जो 11वीं शताब्दी में गोलकुंडा की गर्भ से निकला और आज लंदन स्थित ‘टावर ऑफ लंदन’ में शुशोभित है।

कोहिनूर का प्रथम प्रमाणिक वर्णन ‘बाबरनामा’ में मिलता है, जिसके अनुसार 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह मालवा के हिंदू राजा के पास था, जो क्रूर इस्लामी आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी के साथ दिल्ली सल्तनत के कई उत्तराधिकारियों के हाथों में पहुंचा और बाबर के बाद कालांतर में शाहजहां ने इसे अपने मयूर सिंहासन में जड़वा दिया। जब 18वीं शताब्दी में ईरानी नादिर शाह ने भारत पर आक्रमण किया, तब उसने सर्वप्रथम इस बेशकीमती हीरे को कोहिनूर अर्थात् ‘प्रकाश का पर्वत’ नाम दिया।

कालांतर में कई आक्रांताओं के बाद वर्ष 1812-13 में सफल सैन्य अभियानों के बाद यह भारतीय हीरा महाराजा रणजीत सिंह को प्राप्त हुआ। दिसंबर 1838 में उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और उपचार के उपरांत 27 जून 1839 को उनका देहांत हो गया। जीवन के इसी अंतिम पड़ाव में महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी वसीयत में कोहिनूर को पुरी में भगवान जगन्नाथ के श्रीचरणों में अर्पित करने की घोषणा की थी, जोकि पारिवारिक कलह और अंग्रेजों के हस्तक्षेप के कारण संभव नहीं हो सकी।

महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद अंग्रेज, पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू कर चुके थे। अपनों की गद्दारी ने सिख साम्राज्य को अत्याधिक क्षति पहुंचाई। अंतिम पुरुष वंशज दलीप सिंह को अल्पायु में राजगद्दी पर बैठा दिया गया। अंग्रेजों ने मां महारानी जिंदा कौर को अपमानित करते हुए उन्हें उनके बालक दलीप सिंह से अलग कर दिया और बनारस के पास गंगा नदी के किनारे स्थित चुनार किले भेज दिया। इस दौरान ब्रितानियों ने वर्ष 1849 में प्रपंच करते हुए नाबालिग महाराजा को इंग्लैंड की महारानी को कोहिनूर उपहार स्वरूप देने हेतु बाध्य कर दिया। इस षड़यंत्र की पटकथा लॉर्ड डलहौजी ने लिखी थी। अंग्रेज शासकों ने एक योजना के अनुरूप दलीप सिंह को ईसाई चिकित्सक सर जॉन स्पेंसर लोगिन और उनकी पत्नी को सौंपा, जहां मतांतरण के बाद उन्हें उनकी मूल संस्कृति, भाषा और पंजाब की जड़ों से काट दिया। इंग्लैंड और रूस से भारत लौटने के बाद दलीप सिंह ने पुन: सिख पंथ तो अपनाया, किंतु तबतक काफी देर हो चुकी थी। यह विडंबना है कि विभाजित पंजाब आज भी चर्च प्रेरित मतांतरण का प्रकोप झेल रहा है, जिसके खिलाफ अकाल तख्त आदि सिख संगठन अपनी आवाज बुलंद कर रहे है।

जिस कोहिनूर को अंग्रेजों ने लगभग पौने दो सौ साल पहले छल करके भारत से ब्रितानी राज परिवार को सौंपा और सितंबर 2022 तक दिवंगत महारानी एलिजाबेथ-2 के ताज का हिस्सा भी रहा, उसे 6 मई 2023 को होने वाले राज्याभिषेक में नई महारानी कैमिला ने पहनने से इनकार कर दिया है। आखिर इसका कारण क्या है? अंतरराष्ट्रीय मीडिया के अनुसार, बकिंघम महल ने वर्तमान भारत के साथ किसी राजनयिक विवाद से बचने के लिए महारानी के मुकुट से कोहिनूर हीरे को निकाल दिया है। ब्रिटेन का यह निर्णय, क्या विश्व में भारत के बढ़ते कद का परिचायक नहीं?

– बलबीर पुंज

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