कुछ दिन पूर्व मुंबई की जुहू चौपाटी पर अपने परिवार के साथ घूम रहा था तो समुद्र की रेती पर दो तम्बू ग़ड़े हुए दिखाई दिए। उनमें से एक तम्बू काफी बड़ा ऊंचा एवं भव्य था। अच्छा सजाया हुआ था। कुछ कुर्सियां भी लगी हुई थीं। उस समय मात्र तीन चार लोग ही बैठे थे। तम्बू एक मजबूत बडे खम्बे पर ठहरा हुआ था। खम्बा अती सुंदर कपड़े में लपटा हुआ था। वह खम्बा तम्बू के ठीक बीच में था। तम्बू को बाकी कोई खम्बा नहीं था। तम्बू के चारों ओर से रसियां खींची हुई थीं जो रेती में गाड़ी गई कीलों से बंधी हुई थीं। कुल मिलाकर तम्बू शानदार दिख रहा था। बाजू में ही इससे कुछ छोटा दूसरा तम्बू लगा हुआ था। यहां कोई दूसरा कार्यक्रम था। वह तम्बू पहले के तम्बू से छोटा था। सजा हुआ भी कुछ कम था। लेकिन यह तम्बू केवल बीच के एक खम्बे पर टिका हुआ नहीं था। केन्द्र में एक मजबूत खम्बा अवश्य था; लेकिन उस के चारों ओर आठ दस खम्बे और थे जिन पर भी वह तम्बू टिका हुआ था।
अभी हम घूम ही रहे थे तो अचानक जोरदार समुद्री हवा आने लगी और समुद्र की जोरदार लहरें किनारे की ओर दौड़ती हुई आईं। यह सब केवल पांच मिनट हुआ। लेकिन हमने देखा कि छोटे तम्बू के आठ खम्बों मे से तीन खम्बे गिर गए थे लेकिन बाकी पांच खम्बों के कारण तम्बू गिरने से बच गया था और केन्द्रीय खम्बा टेड़ा जरूर हुआ था। लेकिन बाजू के बाहर के खम्बों के कारण गिरने से बच गया था। कुल मिलाकर इस तम्बू का कुछ नुकसान तो अवश्य हुआ था लेकिन पूर्ण खत्म होने से बच गया था। कार्यकर्ताओं ने मिलकर जल्द ही उसे ठीक कर दिया। दूसरी ओर जो एक खम्बी बड़ा तम्बू था, समुद्र की जोरदार लहर उस खम्बे तक पहुंच गई। खम्बे की नीचे की रेती खिसक जाने से, खम्बे का संतुलन न रहने से और, और कोई आधार न होने के कारण खम्बा धड़ाम से गिर गया। परिणाम स्वरूप पूरा तम्बू गिर गया। उस में बैठे कार्यकर्ता भी जख्मी हो गए। पूरा तम्बू मात्र केन्द्रीय खम्बे के आधार पर टिके होने के कारण और वह भी टूट जाने के कारण वह तम्बू मात्र केन्द्रीय खम्बे के आधार पर टिके होने के कारण और वह भी टूट जाने के कारण वह तम्बू फिर से खड़ा नहीं किया जा सका।
यह सब आखों के सामने ही हुआ था; अत: जिंदगी की सच्चाई भी आखों के सामने घूम गई। देश, समाज एवं संगठन के कार्यकर्ता इस प्रकार कार्य करते हैं मानों सारा कार्य वे ही कर रहे हैं अथवा सारा कार्य उनके ही आधार पर चल रहा है; अन्य किसी की आवश्यकता अथवा महत्व नहीं है। सामूहिक नेतृत्व को उभरने नहीं देते या वह दब जाता है। इससे संगठन की शक्ति पूर्ण रूप से खत्म हो जाती है। केवल एवं केवल व्यक्तिवाद पनपता है। कई कारणों से वह व्यक्ति असफल हो गया तो पूरा संगठन सब कुछ खत्म हो जाता है। फिर से उसे खड़ा करना अत्यंत कठिन, लगभग असम्भव हो जाता है। यह बात धार्मिक, सामाजिक अथवा राजनीतिक सभी संगठनों को लागू होती है। अत: हर क्षेत्र में हम यह पूरा ध्यान रखें कि हम एक खम्बे का तम्बू न खड़ा करें न खड़ा होने दें। अनेक खम्बों के तम्बू का एक खम्बा अवश्य बनें। आवश्यकता हो और योग्यता हो तो अनेक खम्बों के तम्बू का भले ही केन्द्रीय खम्बा बनें लेकिन जहां तक हो एक खम्बे के तम्बू से बचें।
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