भगवान महावीर के 27 जन्मों की कथा बहुत ही प्रेरक व मार्गदर्शक है। उन्हें भी अपने पाप-पुण्य के कर्मों का फल भोगने के लिए बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में आना पड़ा, लेकिन इस दौरान उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या व साधना नहीं छोड़ी और अंतत: उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई।
भगवान महावीर का नयसार सुतार के रूप में पहले जन्म से लेकर वर्धमान कुमार के 27 वें जन्म तक का चरित्र अद्भुत है। अपने अलग-अलग जन्मों में उन्होंने अपने पाप-पुण्य के कर्मों का फल भोगा है। कठोर साधना के बल पर वे तीर्थंकर के पद पर पहुंचे। पाप कर्म से स्वतः को कैसे बचाएं? कर्म बंधन से कैसे मुक्त हो? इसकी प्रेरणा उनके चरित्र से हमें मिलती है।
जो जीवन जीता है, प्राण धारण करता है उसे जीव कहते हैं। भगवान महावीर ने अपना जीवन पूर्ण करते हुए सभी पापों-कर्मो का क्षालन कर मोक्ष प्राप्त किया। मोक्ष प्राप्ति के बाद कोई भी जीव पुनः संसार चक्र में नहीं आता इसलिए वह जीवन हमारे लिए आदर्श रूप होता है। भगवान महावीर का जीवन आदर्श सामने रखकर उसके अनुरूप बनने के लिए सतत पुरुषार्थ करने से ही कल्याण होना सम्भव है। इसलिए स्वतः के कल्याण की दृष्टि से भगवान महावीर के 27 जन्मों का चरित्र पढ़ने से एक अद्भुत प्रक्रिया सामने आती है। क्या करना? कैसे करना? कैसा आचरण होना चाहिए? कैसा जीवन जीना चाहिए एवं यह लक्ष्य कैसे प्राप्त हो, इसके लिए भगवान महावीर का चरित्र आदर्श है।
3, 16 और 18 जन्म में उन्होंने पाप किए। 5, 6, 8, 10, 12, 14, 19, 20, 21 ऐसे जन्म उनके द्वारा किए गए पाप कर्मों के फल भोगने के हैं। हमें तो हमारे पूर्व जन्म याद भी नहीं है तथापि हम अपना वर्तमान जन्म देखें। हमारे इस जन्म के 24 वर्ष भी क्या बिना पाप किए गुजरे हैं?
स्वर्ग और नर्क, पाप करने के बाद किसी को भी स्वतः के पाप कर्म की सजा कैसे भोगनी पड़ती है, वह सजा कितनी बड़ी होती है, यह भी देखना होगा। हम नरक को प्रत्यक्ष नहीं देख सकते, परंतु भगवान महावीर को दो बार 19 वे एवं 21वें जन्म में प्रत्यक्ष रूप में नर्क में जाना पड़ा। वहां उन्होंने सजा के रूप में भयंकर दुख भोगा। इस दृष्टांत से नरक की प्रचीति होती है।
इस संसार में स्वर्ग-नर्क कुछ नहीं है, परलोक भी नहीं है। बस जो है वह इस पृथ्वी पर ही है। अन्यत्र कहीं कुछ भी नहीं है। इस पृथ्वी पर अतिशय सुख की अनुभूति देने वाला क्षेत्र स्वर्ग है। अब किस क्षेत्र को स्वर्ग की उपमा दी जा सकती है?
न्यूयार्क या वॉशिंगटन जैसे शहरों को यदि स्वर्ग कहा जाए तो वहां 11 सितंबर को हुई घटना वर्ल्ड ट्रेड सेंटर ध्वस्त होने के बाद तथा एंथ्रेक्स के भय के कारण रात दिन लोग घबराते हैं, उसे स्वर्ग कैसे कह सकते हैं।
वैसे ही अतिशय दुखदायक क्षेत्र नर्क है और वह भी पृथ्वी पर ही है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। कारण आज उस क्षेत्र में गंदगी होने के कारण नर्क कहें और कालांतर में उसका रूपांतरण सुंदर बगीचे या उद्यान के रूप में हो जाए तो उसे क्या स्वर्ग कहेंगे? ऐसे स्वर्ग-नर्क बदलने वाले हैं क्या? नहीं, इसलिए नास्तिक लोगों द्वारा स्पष्ट रूप से परलोक में स्वर्ग लोक और नर्क लोक मानना सही है। यह भगवान महावीर के 27 जन्मों से स्पष्ट होता है। पापकर्म के कारण भगवान महावीर को भी सजा भोगने के लिए 20वें जन्म में पशु योनि में जाना पड़ा था। सिंह का जन्म लेना पड़ा तथा 19 वें और 21 वें जन्म में नर्क में भी जाना पड़ा।
19 वें जन्म में वे सातवें नर्क में गए। अतिशय भयंकर वह अंतिम नर्क। घोर अंधकार और महादुख भोगने के इस सातवें नरक में उनका अंतिम वर्ष 33 सागरोपम का है। एक सागरोपम में असंख्य वर्ष होते हैं, तो कल्पना कीजिए कि 33 सागरोपम याने कितने वर्ष हुए होंगे। आश्चर्य की बात यह है कि सातवें नर्क में जाकर और असंख्य वर्षों तक अपने कर्म फलों का दुख भोगकर भी उनका कर्म क्षय नहीं हुआ।
19 वां जन्म-असंख्य वर्षों के 7वें नरक की सजा प्राप्त कर उन्होंने सिंह रूप में 20वां जन्म लिया। सिंह का धर्म ही पशुओं को मारकर खाना होता है और यह जीव हिंसा उन्हें नर्क में ले जाती है। सिंह का जीवन समाप्त होने के बाद वे पुनः नर्क में गए। इस बार वे चौथे नरक में गए।
विचार कीजिए भगवान बनने वाले जीव को यदि इतना सब सहन करना पड़ता है तो हम जैसों का क्या? कर्म सत्ता बहुत बड़ी और बलवान होती है। संसार का कोई भी प्राणी हो जिसने पाप किया है उसे उसका फल भोगना ही होगा। इस पर से हमें कुछ सीख लेनी चाहिए।
राजकुमार विमल का जन्म
22 वें जन्म में भगवान महावीर ने मनुष्य योनि में जन्म लिया। वे विमल राजकुमार बने। मन ही मन उन्होंने निश्चय किया कि अब भूल कर भी कोई पाप नहीं करना और यही सच है कि पाप ना करना ही सबसे बड़ा धर्म है। भगवान का नाम स्मरण, भगवान की पूजा-भक्ति या व्रत-तप किसी भी प्रकार के उपचार करने की अपेक्षा यह पापाचरण (18 प्रकार की हिंसा) न करना ही सबसे बड़ा धर्म है। आज हमें अलग ही चित्र दिखाई देता है। जब दर्शन, पूजा, व्रत, तप इत्यादि अनेक प्रकार के धार्मिक कार्य लोग करते हैं, तीर्थ यात्राएं भी करते हैं, परंतु व्यवहार में पाप की प्रवृत्ति छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं। 100 बार तीर्थ यात्रा करने के बाद भी झूठ बोलना तो छोड़िए उसे कम करने के लिए भी तैयार नहीं होते। पाप किया तो वह भोगना भी पड़ेगा, यह भगवान महावीर के जीवन से सिद्ध होता है।
विमल राजकुमार ने सांसारिक सुखों को छोड़कर साधना की और उनमें सम्यत्व प्राप्ति का बीजारोपण हुआ। उसके बाद 22वें जन्म से उनका आत्मिक उत्थान प्रारम्भ हुआ। 23वें जन्म में वे चक्रवर्ती बने। बहुत बड़ी राजसत्ता, अपार संपत्ति और समृद्धि मिली। इतने बड़े राज्य का कार्यभार सम्भालना कोई साधारण काम नहीं था। परंतु पाप से अलग रहकर उन्होंने संसार का परित्याग किया और दीक्षा लेकर वे साधु बने। उन्होंने अपने करोड़ वर्ष के काल में बड़ी साधना की और उत्कृष्ट चारित्र्य का पालन किया।
24वें वर्ष में वे स्वर्ग गए और वहां देव बने। 25वें जन्म में मनुष्य गति में पुनः आए, नंदन राजा बने। उनका जीवन 25 लाख वर्ष का था। उसमें 24 लाख वर्ष उन्होंने सांसारिक कार्य किए। न्याय और नीतिमत्ता से शासन किया। अंत में संसार छोड़कर साधु धर्म की दीक्षा ली। 1 लाख वर्ष तक साधु जीवन में रहकर नंदन राजश्री ने बहुत बड़ी तपस्या की। करीब-करीब 11 लाख 80 हजार 645 मास क्षमण किया। एक महीना उपवास याने एक मास क्षमण। ऐसे उन्होंने 11 लाख से ज्यादा मास क्षमण किया। 1 वर्ष में 12 महीने के हिसाब से 12 लाख से ज्यादा महीने होते हैं। शेष दिनों में नंदन राजर्षि ने वीशा स्थानक की विशिष्ट उपासना कर तीर्थंकर नाम अर्जित किया। उम्र पूरी होने के बाद 26 वें जन्म में 10 प्राणत नामक स्वर्ग में गए। 20 सागरोपम तक वहां देव रूप में रहे।
27 वें जन्म में महावीर भगवान बने, परंतु भगवान बनने के लिए उन्हें 27 जन्मों की बहुत बड़ी साधना करनी पड़ी, तब उनका आत्मिक उत्थान पूर्ण हुआ। 30 वर्ष तक महावीर गृहस्थाश्रम में रहे, उसके बाद दीक्षा लेकर साधना करने निकल गए। जैन धर्म में प्रत्येक भगवान को दीक्षा लेना आवश्यक होता है। जैसे कर्म सिद्धांत के सभी नियम सर्व सामान्य व्यक्ति को लागू होते हैं वैसे ही वे भगवान को भी लागू होते हैं।
कर्म क्षय और आत्मोन्नति
30 वें वर्ष दीक्षा लेकर वे साधु बने और साधना करने हेतु जंगल में घूमे। 12:30 वर्ष मौन धारण किया, खड़े-खड़े ध्यान किया, नींद भी नहीं ली, अप्रमत्त रूप से ध्यान और तपस्या करते रहे।
एक ओर वे कठोर तपस्या एवं ध्यान साधना कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर पिछले जन्म में किए गए अनेक पाप कर्मों के फल भोगने का समय भी आया। उसकी भी सजा उन्हें भोगनी पड़ी। उनके कान में खीले भी ठोके गए। इतना सब कुछ हुआ पर उसकी ओर ध्यान न देते हुए आत्मोन्नति करने वाले भगवान महावीर ने अपना उद्देश्य साध्य किया तथा उम्र के 42वें वर्ष में तीर्थंकर भगवान बने। उन्होंने धर्मोपदेश किया, धर्म तीर्थ की स्थापना की, जाति आधारित वर्ण व्यवस्था समाप्त की, धर्माश्रित चतुर्विध संघ व्यवस्था स्थापित की।
भगवान महावीर ने तप-त्याग प्रधान धर्म की स्थापना की। अपरिग्रह का सिद्धांत प्रतिपादित किया। अहिंसा तत्व ज्ञान की प्रतिष्ठापना की।
जैन धर्म के सिद्धांत के अनुसार भगवान को परमेश्वर या परमात्मा कहा गया है। परंतु उन्हें सृष्टि का सर्जन या विसर्जन नहीं करना पड़ता। वे सुखदाता या दुखहर्ता भी नहीं हैं। कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्ति के लिए आत्मिक उत्थान का धर्म उन्होंने सिखाया और 30 वर्ष तक इस पृथ्वी तल पर विचरण करके भगवान महावीर ने लाखों लोगों का कल्याण किया। उन्हें 72 वर्ष समाप्त होने के बाद मोक्ष प्राप्ति हुई। वे सिद्ध मुक्त हो गए।
ऐसा यह भगवान महावीर का 27 जन्मों का चरित्र सभी के लिए बहुत बड़ा आदर्श है, उससे बहुत प्रेरणा मिलती है। साधक का आत्मबल-मनोबल बढ़ता है। सच्चा मोक्ष मार्ग मिलता है, दुर्गति से बचाता है, ऐसे अनेक लाभ हैं। इसलिए भगवान महावीर का चरित्र अनेक बार पढ़ना चाहिए और उसका चिंतन-मनन करना चाहिए।
लेखक – कल्पेश वोरा