इस आलेख में जैन धर्म के मूल सिद्धांत अपरिग्रह की विस्तृत व्याख्या की गई है। किसी भी चीज के प्रति अतिरिक्त लालसा परिग्रह की श्रेणी में आता है। परिग्रह का सीधा सम्बंध हिंसा के साथ है। असत्य वाणी और दुर्व्यवहार भी हिंसा ही है।
जैनदर्शन के कौन से तत्त्व आज की भूली-भटकी, दुःखी, संतप्त और यातनाग्रस्त मानवजाति के लिए आनेवाले समय में दिशासूचक बन सकते हैं? इसके लिए सर्वप्रथम जैनधर्म के मूल सिद्धान्त अपरिग्रह का विचार करें। ‘सूत्रकृतांग’ नामक जैन आगम के प्रथम अध्ययन में परिग्रह की बात कही गई है। परिग्रह के कारण ही पाप होता है, हिंसा होती है, भय और असत्य का आश्रय लिया जाता है। परिग्रह की लालसा ने मानव को दानव बना दिया है। उसके अन्दर निरन्तर भोग-वैभव की लालसा के ताण्डव का निर्माण किया है। अतः वर्त्तमान समय के दार्शनिक अत्यन्त दुःख के साथ इतना ही कहते हैं – ‘ढहश श्रशीी ख हर्रींश, ींहश ोीश ख रा‘ जैनदर्शन किसी वस्तु की प्राप्ति या संग्रह को ही परिग्रह नहीं कहता है। किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति को ही परिग्रह कहा जाता है। आज हम देखते हैं कि धन के प्रति आसक्ति ने मनुष्य को कितना मूल्यहीन बना दिया है। सत्ता के प्रति आसक्ति अंधी-संहारक दौड़ में परिणत हो गई है। वर्तमान संसार की असीम यातनाओं का मुख्य कारण मनुष्य की असंस्कृत, अनियन्त्रित और असामाजिक परिग्रहवृत्ति है। परंतु वास्तव में परिग्रह ही उसके दुःखों का और बन्धन का कारण बनता है, वह मनुष्य को बाह्य वस्तुओं का गुलाम बनाता है। प्रसिद्ध दार्शनिक एमर्सन ने कहा है कि ‘वस्तुएं मानवमन की पीठ पर सवार हो गई हैं।’ ऐसे समय में जैनदर्शन कहता है कि परिग्रह जितना कम होगा, पाप भी उतना ही कम होगा। भगवान महावीर ने कहा है, ‘जिस प्रकार भ्रमर पुष्प से रस चूसता है, परंतु पुष्प का नाश नहीं करता है, उसी प्रकार श्रेयार्थी मनुष्य अपनी व्यावहारिक प्रवृत्ति में दूसरों को कम से कम क्लेश और कष्ट देगा।’ आनेवाले युग में दुःखी मनुष्य अथवा संतप्त विश्व को परिग्रह का यह दृष्टिकोण नया अभिगम प्रदान करेगा।
अहिंसा कोई बाह्याचार नहीं, बल्कि समग्र मानव समाज को शान्ति प्रदान करनेवाली जीवनशैली है। जैनधर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘आचारांगसूत्र’ में कहा गया है कि, किसी भी प्राणी, जीव या सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए। यह शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है। आचारांगसूत्र के प्रथम अध्याय में हिंसा के कारण और साधनों का विवेक बतलाया गया है। भगवान महावीर की अहिंसा-
विचारधारा का अर्क उनकी इस वाणी में मिलता है –
जीववहो अप्पवहो जीवदया अप्पणो दया होई ।
ता सव्वजीवहिंसा परिचत्ता अत्तकामेहिं ॥
(भक्तपरिज्ञा,93 )
जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी या आत्मा की ही दया है। इसलिये आत्महितैषी (आत्मकाम) पुरुषों द्वारा सभी तरह की जीव-हिंसा का परित्याग किया जाता है। जहां प्रमाद है, वहां नित्य हिंसा होती है। असत्य वाणी और व्यवहार ही हिंसा है। दूसरे को किसी प्रकार का आघात पहुंचाना या भ्रष्टाचार करना भी हिंसा है। सबसे पहले विचार में हिंसा आती है, उसके बाद वाणी और व्यवहार में हिंसा आती है।
अमेरिका में एक घर में पिता ने पुत्र को डांटा तो पुत्र ने जवाब दिया – ख ुळश्रश्र ीहेेीं र्ूेी इस प्रकार मनुष्य के जीवन में, उसके आहार में तथा अखबार, सिनेमा या टेलिविजन जैसे संचार माध्यमों से, हिंसक वृत्ति को उत्तेजित करनेवाली पुस्तकों से उसका दिमाग हिंसा के विचारों से ओतप्रोत हो जाता है। ऐसे समय में अहिंसा की भावना उसकी मार्गदर्शक बनेगी। जिसके हृदय में करुणा के भाव होंगे, वह सभी प्राणियों के प्रति करुणापूर्ण व्यवहार करेगा। अहिंसा का महत्व दर्शाते हुए भगवान महावीर ने कहा है –
तुंगं न मंदराओ, आगासाओ किसाभयं नत्थि ।
जह तह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नत्थि ॥
(मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल जगत में कुछ नहीं है, उसी प्रकार अहिंसा के समान जगत में अन्य कोई धर्म नहीं है।)
परिग्रह का सीधा सम्बन्ध हिंसा के साथ है और इस कारण से भावी समाज के लिए शोषण और भ्रष्टाचार भी हिंसा का एक रूप बनेगा। गरीब, कमजोर, लाचार अथवा शोषित जनों का अनुचित लाभ लेना मात्र सामाजिक अन्याय ही नहीं, बल्कि हिंसा और निर्दयता भी है। यही अहिंसा अन्य मत, धर्म अथवा दर्शन के साथ सह अस्तित्व का सूचन करता है। अतः मुनि संतबालजी ने कहा है, ‘मानव समाज को अहिंसक संस्कृति और सहअस्तित्व का उपहार देनेवाला जैनधर्म है।’ आधुनिक युग को और भावी विश्व को ऐसी भावनाओं की विशेष आवश्यकता है। जॉनथन स्विफ्ट ने एक स्थान पर लिखा है – “We have just enough religion to make us hate but not enough to make us love one -another’ इन भावनाओं के अंजन आँखों में लगाकर ही हम धार्मिक कट्टरता और धर्मांधता को दूर कर “Religious fellowship’ तक पहुंच सकते हैं। आज विश्व में आतंकवाद अनेक रूपों में देखने को मिलता है, ऐसे समय में अहिंसा के द्वारा ही मानवजाति का उद्धार किया जा सकता है। इस अहिंसा से ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह उत्पन्न होता है। इसका मूल महावीर ने अपरिग्रह में दर्शाया है यह भूलना नहीं चाहिए।
अहिंसा के आचार की दृष्टि से जैनधर्म का आहार सम्बंधी गहन विचार प्रगट होता है। आहार का सम्बंध मन के साथ है। जैसा अन्न वैसा मन; इसीलिए आहार के विषय में जागृति रखने को कहा गया है। उन्होंने आहार और मिताहार की महिमा कही है। आज उपवास का महत्व स्वास्थ्य और आरोग्य के क्षेत्र में भी उतना ही स्वीकार किया गया है। निसर्गोपचार इसकी पहली सीढ़ी के रूप में उपवास का महत्व दर्शाता है। आयुर्वेद के ग्रंथों में भी इसकी इतनी ही महत्ता स्वीकार की गई है। जैन समाज में लम्बे समय का उपवास प्रचलित है। पश्चिम के देशों में भी उपवास द्वारा रोगियों को रोगमुक्त करने के उदाहरण देखने को मिलते हैं। डॉ. केरिंगटन कहते हैं, ‘उपवास से हृदय को असीम शक्ति मिलती है। हृदय को मजबूत और सशक्त बनाने के लिए उपवास सबसे सरल मार्ग है कारण कि इससे एक तो हृदय को अधिक आराम मिलता है और दूसरी बात विषैली दवा के बिना ही रक्त अधिक शुद्ध होता है।’ यह तो हुआ उपवास का शारीरिक प्रभाव, परंतु इसके साथ ही जैसे वर्षों से शरीर में संचित अशुद्धियां दूर होती है, वैसे ही हृदय में जाग्रत होनेवाली दुर्वृत्तियां भी कम होती हैं। इसी प्रकार जैनधर्म में शाकाहार के महत्त्व का भी वर्णन किया गया है। आज विदेशों में कई चित्रकार और कलाकार शाकाहार अपनाते हैं और यही शाकाहार जैनधर्म के आहार विचार का मूल स्तम्भ है। आज हार्टअटैक और ब्लडप्रेशर जैसे रोगों का प्रमाण बहुत बढ़ गया है। इसमें आयंबिल बहुत उपयोगी होता है। इस आहारशास्त्र को आज की वैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। उस समय के समस्त विचार अनुभव पर आधारित थे। आधुनिक विज्ञान प्रयोग पर आधारित है। आज अमेरिका में डॉक्टर सूर्यास्त से पूर्व भोजन करने की सलाह रोगी को देते हैं। यह बात वर्षों पूर्व शास्त्रों में लिखी गई है। इसमें परमाणु की गति का विचार किया गया है। भाषा की उत्पत्ति का विचार किया गया.
ध्यानपद्धति भविष्य के मनुष्य के तन-मन के रोगों को दूर कर सकती है। ‘प्रेक्षाध्यान’ के प्रयोग इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। मन की शक्ति के लिए पच्चक्खाण ध्यान की उच्च भूमिका के लिए काउसग्ग, आन्तरिक दोषों को पहचानने के लिए प्रतिक्रमण, आंतरिक शुद्धि के लिए पर्युषण तथा वीरता की भावना के लिए क्षमा जैसी भावना को अपनाने से ही हम आनेवाले समय में पराक्रमी मनुष्य प्राप्त कर सकेंगे।
जैनधर्म में वर्ण का विरोध है, जाति का विरोध है, जन्म नहीं बल्कि कर्म से मनुष्य की पहचान की जाती है । ॐकार के जाप से ब्राह्मण, जंगल में रहने से मुनि अथवा सिरमुण्डन से श्रमण नहीं कहलाता है। जैनधर्म ने कहा है कि ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण और समता से श्रमण कहलाता है। इसके नमस्कार मंत्र में किसी व्यक्ति को प्रणाम नहीं किया गया है, बल्कि तीर्थंकर, सिद्ध तथा आचार्य जैसे गुणों के धारक को प्रणाम किया गया है। स्वयं भगवान महावीर ने कहा है -‘मेरी शरण में आने से नहीं, बल्कि धर्म की शरण में जाने से मुक्ति मिलेगी।’
आज दुनिया प्रदूषण से परिपूर्ण है। वृक्षों के नाश ने मनुष्य को दुष्काल का शाप दिया है। प्राणियों की कुछ जातियां नष्ट हो गई हैं। ऐसे समय में जैनधर्म की जयणा का पालन करने योग्य है। जैन श्रावक कुछ विशेष तिथियों में हरी साग-सब्जी नहीं खाते हैं। जैन साधुओं के आचार में पर्यावरण का कितना ध्यान रखा गया है।
जैनधर्म में सत्य की अनोखी प्रतिष्ठा है और दूसरे महाव्रत के रूप में सत्य का स्थान है। ‘प्रश्नव्याकरण’ में ‘सत्य ही भगवान है’ ऐसा कहा गया है। जबकि ‘आचारांगसूत्र’ में कहा गया है, ‘सत्य की आज्ञा पर टिका हुआ बुद्धिमान मनुष्य मृत्यु को भी जीत लेता है।’ इस सत्य का अनुभव मनुष्य की अन्तरात्मा में होता है। महावीर का जीवन ही साधना से प्राप्त अनुभव पर आधारित है। अतः वे कहते हैं कि मैं पूर्णज्ञानी हूं और इस बात को आप स्वीकार करें, ऐसा मैं नहीं कहता, बल्कि प्रत्येक जीव सच्ची साधना करे, तो इस पद को प्राप्त कर सकता है, ऐसा उनका उपदेश है। स्वयं भगवान महावीर ने 27 भव की साधना और उसके बाद साढे बारह वर्ष की तपश्चर्या के बाद तीर्थंकर पद की प्राप्ति की थी।
‘मैं कहता हूं, वही सत्य है’ ऐसे आग्रह, दुराग्रह या पूर्वाग्रह में विचार की हिंसा समाहित है। जबकि दूसरे के कथन में भी सत्य का अंश हो सकता है, ऐसी उदारदृष्टि ही अनेकांत है, कारण कि सत्य सापेक्ष है। आपकी दृष्टि का सत्य और उसके प्रति आपकी श्रद्धा तथा अन्य की दृष्टि का सत्य और उसके प्रति उसकी श्रद्धा। इस प्रकार जीवन की सर्वदृष्टि की अनेकान्त में समता है, सहिष्णुता है, समन्वय है और सह अस्तित्व की भावना है। सत्य की खोज के लिए अविरत प्रयत्न की एक वास्तविक पद्धति है।
समस्त वस्तु के प्रति सापेक्ष भाव से विचार करना और प्रत्येक स्थिति में स्थित सत्य के अंश को देखने का नाम अनेकान्त है। ‘जो मेरा है, वही सत्य है’ ऐसा नहीं, बल्कि ‘जो सत्य है, वह मेरा है’ ऐसी भावना प्रगट हुई। भगवान महावीर के जीवन में ‘जो सत्य है, वह मेरा है’ इस बात को प्रमाणित करने के अनेक प्रसंग मिलते हैं। उन्होंने अपने पटधर ज्ञानी गौतम को आनंद श्रावक से क्षमा मांगने के लिए कहा था। भगवान महावीर स्वामी के समय में अनेक विवाद चल रहे थे। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी बात को सत्य साबित करने के लिए अन्य के विचारों का खण्डन करता था। अन्य के विचारों का खण्डन करने की बजाय मण्डन करने की भावना भगवान ने बतलाई। उन्होंने कहा – ‘अपनी एकान्त बनी हुई दृष्टि को अनेकान्त बनाओ। यदि ऐसा करोगे, तभी तुम्हारी दृष्टि को ढंक देनेवाले ‘सर्वदा’ शब्द से निर्मित दुराग्रहरूपी परदा हट जाएगा। और फिर तुरंत ही तुमको शुद्ध सत्य का स्पष्ट और स्वच्छ दर्शन होगा।’
इस प्रकार भगवान महावीर ने मत, वाद, विचारधाराओं और मान्यताओं के बीच मनुष्य के हृदय में चलनेवाले विवाद को दूर करने का प्रयास किया। इसके लिए सात अंधे व्यक्ति हाथी को जिस प्रकार देखते हैं, उसका दृष्टांत दिया। इस अनेकांतवाद से मनुष्य अन्य मत से भी विचार कर सकता है और यदि ऐसा होगा, तो विश्व के आधे दुःख दूर हो जाएंगे। अनेकांत समन्वय और विरोध परिहार का मार्ग बतलाता है। विनोबाजी कहते हैं कि अनेकांत दृष्टि जगत को महावीर की विशिष्ट देन है।
आइन्सटाईन ने भौतिक जगत में सापेक्षवाद को ढूंढा। भगवान महावीर ने 2600 वर्ष पूर्व व्यवहार जगत को सापेक्षवाद बतलाया।
जैनधर्म के दर्शन सह अस्तित्व की भावना के ऊपर विचार करने योग्य है। एक ओर विचारों का समन्वय है तो दूसरी ओर अन्य धर्मों के प्रति आदर है। सम्राट् कुमारपाल या विष्णुवर्धन जैसे राजाओं ने जैन मंदिरों के साथ-साथ विष्णु और शिव के मंदिर भी बनवाए। कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने सोमनाथ मंदिर में मात्र शिव-प्रार्थना ही नहीं की, बल्कि शिवस्तुति के एक श्लोक की रचना भी की। भविष्य में धर्म के उदात्त तत्व का समन्वय करने के लिए अनेकांत दृष्टि एक आधारशिला साबित होगी।
कई धर्म विज्ञान की चुनौतियों के समक्ष टिक नहीं सके। महावीर एक महान वैज्ञानिक थे। डॉ. जगदीशचन्द्र बोस ने प्रयोग करके यह साबित किया कि वनस्पति में जीवन है। पानी देनेवाले माली को आते हुए देखकर वृक्ष हंसते हैं और कुल्हाड़ी लेकर काटनेवाले व्यक्ति को आते हए देखकर भय से कांपते हैं। भगवान महावीर और उनसे पूर्व भगवान ऋषभदेव ने ये बातें कही थीं। उन्हें किसी भी प्रकार के माईक्रोस्कोप के विना कंदमूल में पाए जानेवाले असंख्य जीवों के विषय में ज्ञान था। वस्तुतः धर्म स्वयं एक विज्ञान है। धर्म के पास अनुभूति का सत्य है। विज्ञान के पास तर्क और प्रयोग का सत्य है। विज्ञान के दृष्टिकोण से यदि धर्म की शैली को परखा जाए तो कई अद्भूत सत्यों के तर्क का समर्थन मिलेगा।
नारीप्रतिष्ठा का प्रबल उद्घोष इस धर्म में सतत् सुना जाता है। भगवान महावीर ने नारी को ज्ञान और मुक्ति की अधिकारिणी के रूप में घोषणा की। चन्दनबाला साध्वी को सबसे पहले दीक्षा देकर नारीजाति के प्रश्नों के समाधान हेतु उसे माध्यम बनाया। श्वेतांबर परंपरा में मल्लीनाथ स्वामी स्त्री होते हुए भी तीर्थंकर हुए।
धर्म के मर्म को समझने का जैसे-जैसे प्रयास करेंगे, वैसे-वैसे इसमें से मानवजाति के लिए दिशानिर्देशक नवनीत तो मिलेगा ही, परंतु इसके लिए बहुत कुछ छोड़ना भी पड़ेगा। नई दृष्टि को स्वीकार करना पड़ेगा। पुरानी चीजों के प्रशंसागान में से मुक्त होना पड़ेगा। जड़ क्रियारूपी छिलके को फोड़ना पड़ेगा। आधुनिक टेक्नोलोजी की इस दौड़ में इसकी उपेक्षा या अवगणना तो सम्भव नहीं है। अब तो मनुष्य की आत्मा के साथ इसे जोड़ना पड़ेगा। अक्रियता, गतानुगतिकता और कूपमण्डूकता से बाहर आकर धर्मभावना की सक्रियता और समयसंदर्भता प्रगट करनी पड़ेगी।
डॉ. कुमारपाल देसाई