महावीर स्वामी के चार ऐसे सिद्धांत हैं, जिसे हम अपने जीवन में उतार कर एक आदर्श जीवन जी सकते हैं। मानव में संवेदनाएं होनी चाहिए, दूसरों की आत्मा को कष्ट पहुंचाना व जीव की हत्या भी हिंसा की श्रेणी में आता है। अत: हमें अहिंसा का पालन तो करना ही चाहिए, साथ ही साथ जितनी जरुरत हो उतना ही धन अर्जित अर्थात अपरिग्रह के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। साथ ही अनेकांतवाद को जीवन में उतारना चाहिए।
महावीर स्वामी द्वारा दिए गए उपदेशों में मानव जीवन को स्पर्श करने वाले अनेक विषयों का समावेश है। जैन धर्म में जितना प्राचीन साहित्य उपलब्ध होता है, उतना शायद ही अन्य कहीं होगा।
हम यहां पर महावीर प्रभु द्वारा प्रबोधित सिद्धांतों में से मुख्य चार सिद्धांतों का परिचय प्राप्त करेंगे। ये सिद्धांत हैं : आत्मविकास, अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांतवाद।
आत्मविकास
सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:।
हमारी आंखों के समक्ष दिखाई देने वाला जगत दो भागों में विभाजित है : चेतन और जड़। मानव, पशु, पक्षी, मक्खी-मच्छर, कीड़े-मकोड़े आदि चेतन हैं। दीवार, छत, खिड़की, दरवाजे, कुर्सी, टेबल; ये सभी जड़ पदार्थ हैं। जड़ और चेतन के विषय में मुख्य भेदक तत्व है : संवेदना। संवेदना जिसका गुणधर्म है, वह आत्मा है। जड़ में संवेदना नहीं होती है।
अभी हम सभी की आत्मा इस जड़ शरीर के बंधनों में फंसी हुई है। जैन धर्म कहता है कि मानव की गोद में जन्म लेकर ऐसा जीवन जीना चाहिए कि आपके आत्मा की संवेदना अच्छी बने। आत्मा अच्छी बनेगी तो आप भी चौबीस घण्टे आनंद में रह सकोगे और आपके कारण दूसरों को भी कोई तकलीफ नहीं होगी। यदि आत्मा अच्छी बनेगी, तो एक दिन ऐसा आएगा कि आत्मा को किसी बंधन में जकड़ कर नहीं रहना पड़ेगा। आत्मा परमात्मा बन जाएगी। आत्मविकास हमारे जीवन का मूलभूत सिद्धांत होना चाहिए।
मनुष्य को चलना न पड़े, इसके लिए नए-नए प्रकार के तेज रफ्तार वाले वाहनों की खोज हो रही है, यह शरीर की अनुकूलता के लिए विकास है। दूर का सुन या देख सकें, इसके लिए टेलीफोन या टेलीविजन जैसे संसाधनों का और जीभ के टेस्ट के लिए नित-नए व्यंजन या अंततः मांसाहार जैसी रीतिभात, ये इन्द्रियों का विकास माना जाता है। परंतु क्रोध, अभिमान, माया, लोभ, ईर्ष्या, स्वार्थ, क्रूरता, दमन जैसी खराब संवेदनाओं के स्थान पर क्षमा, नम्रता, सरलता, निःस्पृहता, परोपकार जैसी अच्छी संवेदनाएं बढ़ती जाएं, ये आत्मा का विकास है। जैन धर्म समझाता है कि जब तक शरीर और आंख, कान, नाक, जीभ, चमड़ी जैसी ज्ञानेन्द्रियां हैं, तब तक उनके साथ जीना पड़ता है, जरूरत अनुसार उनका जतन भी करना पड़ता है, लेकिन इस सबके द्वारा लक्ष्य तो आत्मा की संवेदनाओं को अच्छा बनाना ही होना चाहिए।
अहिंसा
प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।
जैन शास्त्रों में इस अहिंसा को समझाने के लिए हजारों पन्ने भर जाएं, इतना लेखन आज भी उपलब्ध है। सामान्य रूप से अहिंसा का अर्थ होता है : हिंसा नहीं करना और हिंसा का मतलब है दूसरे जीव को मारना।
परंतु जैन शास्त्र अहिंसा की इतनी छोटी व्याख्या नहीं करता है। जैन शास्त्रों में कहा गया है कि पहले यह विचार करो कि कोई किसी को मारने का काम क्यों कर रहा है? जब तक प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली हिंसा के मूल में रहे हुए कारण दूर नहीं होंगे, तब तक पूर्ण अहिंसा आना सम्भव नहीं है। हिंसा के मूल कारण और कुछ नहीं हैं, बल्कि आत्मविकास के विश्लेषण में हमने जिनका विचार किया था, वह क्रोध-मान आदि खराब संवेदनाएं ही हैं। इन सभी खराब संवेदनाओं को भी विस्तार से समझाया गया है।
जैसे कि लोभ मतलब कोई यह माने कि अधिक से अधिक पैसा कमा कर संग्रहित रखने की वृत्ति, तो यह अधूरा है। मनुष्य को पैसा क्यों चाहिए? भगवान महावीर कहते हैं इसके भी मूल में जाओ। शरीर, इंद्रीय तथा मन की मजा प्राप्त करने के लिए पैसा चाहिए। इसलिए ऐसा मजा उठाने की मनोवृत्ति लोभ ही है, जिसको राग शब्द से भी जाना जाता है।
मतलब कि राग और द्वेष जैसी खराब संवेदनाओं से प्रेरित होकर अथवा ऐसी खराब संवेदनाओं का पोषण करने के लिए जो कुछ भी किया जाए, वह एक तरह से हिंसा ही हैै। इससे उलटा क्षमा, नम्रता, परोपकार आदि संवेदनाओं से प्रेरित होकर अथवा तो अच्छी संवेदनाओं का पोषण करने के लिए, जो कुछ भी किया जाए, वह अहिंसा ही है।
इसीलिए तो पक्षियों को दाना डालने जैसी अच्छी मानी जाने वाली प्रवृत्ति भी यदि शिकारी के द्वारा स्वार्थ का पोषण करने के लिए की जाती हो, तो उसे अहिंसा कैसे कहा जा सकता है। पक्षी शिकारी के जाल में फंस न जाएं, एक मात्र इस भावना से यदि अन्य रास्ता न हो, तब पत्थर फेंक कर सारे पक्षियों को उड़ा देने वाला वास्तव में दयालु ही कहलाएगा!
इसके अनुसार मनुष्य जैसे-जैसे अपनी खराब संवेदनाएं कम करता जाएगा, वैसे-वैसे उसके जीवन में सूक्ष्म अहिंसा आती जाएगी। जब पूर्णतः अच्छी संवेदनाओं से प्रेरित होकर अथवा अच्छी संवेदनाओं का पोषण करने के लिए जीवन जिया जाता है, तब संपूर्ण अहिंसा आती है। यही साधु जीवन है।
अपरिग्रह
मूर्च्छा परिग्रहः।
भगवान महावीर ने मात्र ऊंचे-ऊंचे सिद्धांतों और आदर्शों को बताने का काम ही नहीं किया है, बल्कि उन आदर्शों तक पहुंचने के लिए अद्भुत जीवनशैली भी बताई है। अपरिग्रह का सिद्धांत इसी के लिए है।
सबसे पहले यह समझते हैं कि परिग्रह मतलब क्या? भगवान महावीर कहते हैं, परिग्रह मतलब ऐसे साधन, जो आपकी आत्मा में खराब संवेदनाओं को बढ़ाने का काम करते हैं। आगे बढ़ कर भगवान ने यह भी कहा है कि अपनी अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं के प्रति आसक्ति का भाव; यह भी परिग्रह है। इसका मतलब यह हुआ कि मन में ज्यादा से ज्यादा इच्छाएं पैदा करना और उनको पूरा करने के लिए साधन प्राप्त करने के लिए पैसा संग्रह करते जाना, यह परिग्रह का मार्ग है। इससे उलटा, जीवन में व्यर्थ इच्छाओं का त्याग करके अपनी जरूरतें घटाते जाना, अपरिग्रह का मार्ग है। साथ ही लोग अच्छी संवेदनाओं को प्राप्त करें, ऐसे उपायों के लिए इकट्ठा होने वाला धन, यह भी अपरिग्रह के सिद्धांत को टिकाने वाला और उज्ज्वल करने वाला होने से अपरिग्रह ही है। इसे धर्मद्रव्य (धर्मार्थ धन) कहा जाता है।
भगवान महावीर के परिचय में ऐसे अरबपति लोग आए थे जिन्होंने पूरा जीवन एक संसारी गृहस्थ के रूप में जिया था, परंतु उन्होंने भगवान के उपदेशों को जीवन में उतारा। वो दस-दस हजार गोकुलों के मालिक होने पर भी भगवान के सिद्धांत मिलने के बाद अपनी जरूरतें घटाते गए, घटाते गए और अंत में अपने एक मात्र कक्ष के सिवाय उन्होंने सभी वस्तुओं का त्याग कर दिया! ऐसे महाश्रावकों के जीवन का वर्णन जैनों के मूलभूत माने जाने वाले आगम शास्त्रों में किया गया है।
यह परिग्रह ऐसी चीज है कि उसमें विग्रह हुए बिना नहीं रहता है। एक टुकड़ा जमीन के प्रति ममत्व के कारण होने वाले रक्तरंजित युद्धों से सदियों का मानवजाति का इतिहास भरा पड़ा है! गुजराती की एक कहावत यही बात कितने चोटदार तरीके से कह रही है! यह कहावत है : जर, जमीन ने जोरू, त्रण कजियानां छोरं (सभी झगड़ों की जड़ सम्पत्ति, भूमि और नारी है।)
अपरिग्रह के सिद्धांत का सारांश यह है कि जो आपकी इच्छाओं को बढ़ाएं, ऐसे साधनों से दूर रहो और अपनी जरूरतें कम करते जाओ, आसक्ति घटाते जाओ। जीवन नंदनवन बन जाएगा। सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग मतलब साधुजीवन।
अनेकांतवाद
सिद्धिः स्याद्वादात्।
यह सिद्धांत भगवान महावीर के द्वारा बताए हुए सभी सिद्धांतों में सिरमौर है। भगवान महावीर के इस सिद्धांत को जानने के बाद ही शायद विनोबा भावे, श्रीमहावीर भगवान को सर्वधर्म समन्वयाचार्य कहने के लिए प्रेरित हुए होंगे।
अनेकांतवाद की प्रारम्भिक व्याख्या इस प्रकार दी जा सकती है कि वस्तु के सभी पहलुओं को ध्यान में रख कर सत्य का निर्णय करना।
एक अत्यंत सादे उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। सोने का एक घड़ा है। उसके लिए यह प्रश्न पूछा जाता है कि यह स्थिर है या नाशवंत है? इसका कोई एक उत्तर पूर्ण रूप से सत्य नहीं हो सकता है, क्योंकि यदि उस घड़े को गला कर मुकुट बनाया जाए, तो घड़ा नष्ट हो जाता है और मुकुट नया उत्पन्न होता है, परंतु सोना तो वही का वही रहता है। उसका तो नाश नहीं होता है। अर्थात् स्थूल दृष्टि से यह कहा जाएगा कि सोने के घड़े के स्वरूप को ध्यान में रखा जाए तो उसको नाशवंत मानना पड़ेगा, परंतु अगर सिर्फ सोने को ध्यान में रखा जाए तो उसको स्थिर मानना पड़ेगा और मुकुट को ध्यान में रखा जाए तो उसमें उत्पत्ति माननी पड़ेगी। भगवान महावीर ने जगत के जड़-चेतन, अनेक पदार्थों के लिए, इस पूर्णसत्य को अपने 11 पट्शिष्यों के समक्ष इन शब्दों में वर्णन किया था : उप्पन्नेड् बा, विगएड़ वा, धुबेड़ वा। अर्थात् उत्पत्ति, नाश और स्थिरता; यह तीनों गुणधर्म जगत के सभी पदार्थों में मानने पड़ेंगे।
यह अनेकांतवाद अनेक स्थानों पर लागू पड़ता है, परंतु इतना निश्चित है कि यह अनेकांतवाद वास्तविकता के आधार पर खड़ा है, मात्र काल्पनिक तरंगों के आधार पर नहीं है। इस अनेकांतवाद के आधार पर ही हिंसा-अहिंसा आदि सभी आचारों का ढांचा नियोजित होता है। सच्चे दृष्टिकोण से की गई एक प्रवृत्ति अहिंसा होती है, तो वही प्रवृत्ति जब गलत दृष्टिकोण से की जाए, तो हिंसा बन जाती है। इसी प्रकार लालच नामक खराब संवेदना का पोषण करने के लिए यदि लोगों का धर्मपरिवर्तन करवाया जाए, तो यह वास्तव में अधर्म है और संतोष नामक अच्छी संवेदना का पोषण करने के लिए कोई आचार परिवर्तन करवाए, तो वह धर्म कहलाता है। अर्थात् सच्चे दृष्टिकोण से वस्तु का निर्णय करना यह अनेकांतवाद सिखाता है, जो सभी के लिए जीवनोपयोगी है।
आचार्य विजय योगतिलकसूरि