18वीं लोकसभा के चुनावों की गहमा-गहमी के बीच एक ऐसी रिपोर्ट आयी है जिसे देश पहले से ही जानता था पर आधिकारिक तौर पर मोहर अब लगी है. पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) के द्वारा जारी “धार्मिक अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी – एक क्रॉस कंट्री विश्लेषण (1950-2015)” शीर्षक से एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में बहुसंख्यक (हिंदुओं) की जनसंख्या हिस्सेदारी में गिरावट आई है। अध्ययन में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि भारत में 1950 और 2015 के बीच बहुसंख्यक हिंदू आबादी की हिस्सेदारी 1950 में 84.68 प्रतिशत से घटकर 2015 में 78.06 प्रतिशत हो गई है, अर्थात इसमें 7.82 प्रतिशत की कमी हुई है। जबकि इसी अवधि (65 वर्ष) में मुसलमानों की हिस्सेदारी 9.84 प्रतिशत से बढ़कर 14.09 प्रतिशत हो गई है। अर्थात 43.15 प्रतिशत की अभूतपूर्व वृद्धि। इसी अवधि में ईसाइयों में 5.38 प्रतिशत की वृद्धि, सिखों में 6.58 प्रतिशत की वृद्धि और बौद्धों में मामूली वृद्धि देखी गई, जबकि जैन और पारसियों की संख्या में कमी देखी गई।
आज़ादी के समय देश का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ – मुसलमानों और सेक्युलरों के बीच. क्योंकि जहां पकिस्तान केवल मुसलमानों के लिए बना, वहीं हिन्दुस्तान सभी धर्मों और सम्प्रदायों को साथ लेकर चलने वाला देश बन गया. जहां पकिस्तान से चुन चुन कर हिन्दुओं को भेजा गया या मार दिया गया, वहीं हिंदुस्तान में बड़ी संख्या में मुसलमान रह गए, जिनको समानता के साथ देश का नागरिक बने रहने का अधिकार मिला. कालखंड में इनकी संख्या बढ़ती गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारत सेक्युलर है और यहां के बहुसंख्यक हिंदू सेक्युलर हैं. यही वजह है कि यहां और धर्मों और सम्प्रदायों को मानने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है. शोर के विपरीत, इस रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि अल्पसंख्यक न केवल सुरक्षित हैं, बल्कि वास्तव में भारत में फल-फूल रहे हैं।
पर इस रिपोर्ट का एक दूसरा भी पहलू है वह यह कि जैसे-जैसे हिन्दुओं की संख्या घटेगी, देश में सेक्युलरिस्म की अवधारणा पर चोट पहुंचेगी. हाल की दिनों में यह स्पष्टता से देखने में आया है. जहां जहां हिन्दू अल्पसंख्यक हुए हैं वहां इनटॉलेरेंस बढ़ने की, शरिया लागू करने की मांग उभर कर आ रही है. देश के अनेक राज्यों और जिलों में जहां-जहां हिन्दू अल्पसंख्यक हुए हैं, वहां हिन्दुओं के धार्मिक जुलूसों पर पथराव, हिंदू मान्यताओं का विरोध आदि शुरू हो गया है. पश्चिम बंगाल और केरल इसके मुख्य उदाहरण हैं.
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश के ८ राज्यों और केंद्र शाषित प्रदेशों में हिन्दू अल्प संख्यक हो गए हैं (ये राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं – लद्दाख, जम्मू & कश्मीर, लक्षद्वीप, मिजोरम, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, और अरुणाचल प्रदेश). कुछ लोग पंजाब का भी नाम लेते हैं पर वहां के बहुसंख्यक सिख हिन्दुओं का ही बृहत्तर हिस्सा हैं. इसके अलावा देश ऐसे कई राज्य हैं जहाँ हिन्दुओं की जनसंख्या तेजी से घट रही है और मुस्लिम जनसंख्या बढ़ रही है, जैसे कि पश्चिम बंगाल, केरल और उत्तराखंड जहाँ पर २००१ से २०११ के दशक में ही यह वृद्धि २% की थी. २०११ के बाद निस्संदेह यह संख्या बढ़ ही रही है.
इकोनॉमिक और पोलिटिकल वीकली में छपी एक रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार केवल प्रदेशों में ही नहीं, देश के अनेकों जिलों में जनसंख्या का असंतुलन चिंताजनक तरीके से बढ़ता जा रहा है. रिपोर्ट के अनुसार देश के ४५८ जिलों में २००१ से २०११ के बीच मुस्लिम आबादी की वृद्धि २४.४ % की थी. कई जिले तो ऐसे हैं जो पूरी तरह से मुस्लिम बहुल हो गए हैं. उदाहरण के तौर पर बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी है। यहां पर 66.8 प्रतिशत और इसके नंबर आता है मालदा जिले का, जहां 51.27 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है।
यह संतोष की बात है कि इस पर प्रयास पहले ही शुरू हो गए हैं. उत्तराखंड में सामान नागरिक संहिता लागू होना एक सार्थक शुरुआत है. वही जनसंख्या नियंत्रण पर जोर देते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आगाह किया है कि परिवार नियोजन के ज़रिए जनसंख्या नियंत्रण की बात करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इससे जनसंख्या असंतुलन की स्थिति पैदा ना हो पाए. उन्होंने कहा कि जब हम परिवार नियोजन और जनसंख्या स्थिरीकरण की बात करते हैं तो हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि जनसंख्या नियंत्रण का कार्यक्रम सफलता पूर्वक आगे बढ़े लेकिन जनसांख्यिकी असंतुलन की स्थिति पैदा न हो जाए. ऐसा न हो कि किसी वर्ग की आबादी की बढ़ने की गति और उसका प्रतिशत ज़्यादा हो और कुछ जो मूल निवासी हों उन लोगों की आबादी का स्थिरीकरण समस्या बन जाए. योगी आदित्यनाथ ने यह भी कहा, ”यह एक चिंता का विषय है. हरेक उस देश के लिए जहां जनसांख्यिकी असंतुलन की स्थिति पैदा होती है. धार्मिक जनसांख्यिकी पर विपरीत असर पड़ता है. फिर एक समय के बाद वहां पर अव्यवस्था और अराजकता पैदा होने लगती है. इसलिए जब जनसंख्या नियंत्रण की बात करें तो जाति, मत-मज़हब, क्षेत्र, भाषा से ऊपर उठकर समाज में समान रूप से जागरूकता के व्यापक कार्यक्रम के साथ जुड़ने की ज़रूरत है.” इस बाबत उत्तर प्रदेश लॉ कमिशन ने उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) बिल 2021 का एक ड्राफ्ट सरकार को सौंपा है जिस पर निर्णय होना बाकी है.
इससे पहले 2019 में बीजेपी के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा भी टू चाइल्ड पॉलिसी पर एक प्राइवेट मेम्बर बिल लेकर आए थे. ‘पॉपुलेशन रेगुलेशन बिल 2019’ नाम वाले इस बिल में सरकारी योजनाओं का विशेष तौर पर तो जिक्र नहीं था, लेकिन उन्होंने सांसद, विधायक से लेकर स्थानीय निकाय चुनाव, लोन देने से लेकर राशन देने में इस नीति को लागू करने की बात की थी.
दरअसल जनसंख्या नियंत्रण और स्थिरीकरण तथा इसके लिए प्रस्तावित टू चाइल्ड पॉलिसी के पीछे का भाव है कि यदि जनसंख्या कम होगी, तो संसाधन लंबे समय तक चल पाएंगे और सरकार लोगों को बेहतर सुविधाएं दे पाएगी. फिर चाहे वो शिक्षा हो या फिर राशन या फिर स्वास्थ्य सुविधाएं साथ ही यह विचार भी है कि अगर कोई जानबूझ कर परिवार नियोजन के तरीक़े न अपनाते हुए लगातार बच्चे पैदा करता है, तो उनके रखरखाव की ज़िम्मेदारी सरकार की नहीं होनी चाहिए. ये ज़िम्मेदारी परिवार की होनी चाहिए. जनसंख्या नियंत्रण में दूसरा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है इस्लाम में मिलने वाली बहु विवाह की इज़ाज़त. मुसलमान मर्दों को चार महिलाओं से शादी करने की इजाज़त है. बहुविवाह की आलोचक और महिलाओं के हक़ के लिए काम करने वाली ज़ाकिया सोमन का मानना है कि इस ‘महिला विरोधी और पितृवादी’ रिवाज पर रोक लगा देनी चाहिए. मुंबई स्थित भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) की संस्थापक जाकिया सोमन कहती हैं कि बहुविवाह ‘नैतिक, सामाजिक और क़ानूनी रूप से घिनौना’ है. लेकिन सबसे बड़ी दिक़्क़त ये है कि इसे क़ानूनी तौर पर मान्य है. जैसे तीन तलाक़ दे देने की विवादास्पद प्रथा पर रोक लगी है वैसे ही बहु विवाह पर भी लगनी चाहिए.
जनसंख्या पर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की ताजा रिपोर्ट आने के बाद सत्तारूढ़ भाजपा ने मुसलमानों की आबादी में वृद्धि पर सवाल उठाए हैं. साथ ही आरोप लगाया है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षण कोटा में कटौती करेगी और इसे मुस्लिमों को देगी. भाजपा ने कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो भविष्य में मुस्लिम आबादी में वृद्धि के साथ आरक्षण की हिस्सेदारी में बदलाव करती रहेगी, जिसकी संभावना अधिक है क्योंकि मुसलमानों के एक से ज्यादा शादी करने की संभावना है. उन्होंने कहा कि धर्मांतरण और घुसपैठ के कारण भी आरक्षण में मुसलमानों की हिस्सेदारी बढ़ती रहेगी, क्योंकि मुसलमानों को कांग्रेस से सेक्युलर कवर मिला हुआ है.
ईएसी-पीएम की रिपोर्ट कई सवाल उठाती है, क्योंकि एक विशेष समुदाय अपनी आबादी इस तरह से बढ़ा रहा है जैसे भारत की जनसांख्यिकी को बदला जा रहा है. देश को इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है.
दरअसल मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या दर वोटबैंक की राजनीति का परिणाम है. कांग्रेस और तृणमूल तथा समाजवादी पार्टी सरीखे कई क्षेत्रीय दलों ने मुसलमानों को एक वोटबैंक के तरीके से इस्तेमाल किया है. कांग्रेस ने तो आज़ादी के समय से ही सत्ता पर पकड़ बनाये रखने के लिए मुस्लिम कार्ड खेला है. याद कीजिये ये कांग्रेस ही थी जो सत्ता के लिए धर्म के आधार पर देश का विभाजन करने को तैयार हो गयी थी. और ये वही कांग्रेस थी जो एक ओर तो हिन्दुओं से “हम दो, हमारे दो” का आव्हाहन करती रही है, वही दूसरी ओर आज मुसलमानों के लिए “जितनी आबादी, उतना हक़’ जैसे नारे देती है.
पश्चिम बंगाल में तो राजनैतिक लाभ और वोटों की चाह में जनसंख्या विद्रूपता अपने चरम पर है. वहां पर सत्तारूढ़ तृणमूल पर वोट बैंक के लिए बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देकर मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाने का आरोप है। बंगाल सरकार की शै पर घुसपैठियों ने कथित तौर पर वोटर कार्ड से लेकर राशन, आधार कार्ड व पासपोर्ट जैसे दस्तावेज तक बना लिए हैं, जिससे मुस्लिम संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जो चुनाव में अहम रोल निभाते हैं। आज बंगाल में मुस्लिम वोट बड़ा फैक्टर बन गया है. ये लोकसभा की 42 में से 13 सीटों और विधानसभा की 294 सीटों में से करीब सौ सीटों पर हार-जीत करते हैं. बांग्लादेश की सीमा से लगने वाले जिलों उत्तर दिनाजपुर में 49.92 प्रतिशत, बीरभूम में 37.06 प्रतिशत, दक्षिण 24 परगना में 35.57 प्रतिशत और उत्तर 24 परगना में 30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, जो तृणमूल का वोट बैंक बन गयी है. सीएसडीएस-लोकनीति पोस्ट पोल विश्लेषण के अनुसार, 2021 के चुनावों में 10 में से लगभग 8 मुसलमानों ने टीएमसी को वोट दिया था जो टीएमसी की जीत का कारण बना.
आज भारत को एक व्यापक जनसंख्या नीति की ज़रूरत है. धर्म आधारित जनसंख्या असंतुलन को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. जनसंख्या का यह ‘असंतुलन’ ही अंत में भौगोलिक सीमा में बदलाव का कारक होता है. यह हम १९४७ में देख चुके हैं जब देश का विभाजन जनसंख्या के ‘असंतुलन’ के कारण ही हुआ था. दुनिया में भी जनसंख्या ‘असंतुलन’ से हुए बदलावों के कई उदहारण हैं जैसे कि ईस्ट तिमोर, दक्षिण सूडान और कोसोवो आदि जनसंख्या में असंतुलन के कारण ही नए देश बने हैं. लेबनान जैसे अति समृद्ध देश जनसंख्या असंतुलन के कारण तबाह हो गए.
समय आ गया है कि केंद्र में आने वाली एनडीए की सरकार कुछ सख्त फैसले ले और देश में जनसंख्या नियंत्रण, सामान अचार संहिता जैसे कानून लाएं। इससे आबादी बढ़ा कर राजनीतिक सत्ता हासिल करने की पृवृत्ति पर रोक लगेगी. जनसंख्या नियंत्रित होने से देश के हर नागरिक, चाहे वो किसी मज़हब को मानने वाला हो, के कल्याण के लिए देश के संसाधनों के सम्यक उपयोग का रास्ता प्रशस्त होगा.
लेखक – श्याम जाजू
पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी