विश्व का सबसे बड़ा कुम्भ मेला और महाराष्ट्र की पंढरपुर यात्रा जिसे ‘वारी’ कहते हैं, बहुत ही लोकप्रिय है। इस यात्रा में शामिल होनेवाले भक्तों को वारकरी कहते हैं। यदि आप भक्ति की शक्ति का साक्षात दर्शन और परमात्मा की अनुभूति करना चाहते हैं तो पंढरपुर वारी में अवश्य जाएं।
आषाढ़ के आते ही, महाराष्ट्र की रौनक बढ़ जाती है। इसका एकमेव कारण है वारी, पंढरपुर की वारी (यात्रा)। जहां लाखों की संख्या में भक्त संत तुकाराम महाराज और ज्ञानेश्वर महाराज की पादुकाएं लेकर पहुंच जाते हैं, पंढरपुर अपने विठू माऊली के दर्शन करने के लिए। महाराष्ट्र में भक्ति का एक ऐसा सैलाब इस वारी में उमड़ता है, जिसका वर्णन शब्दों में करना बहुत कठिन है। आप सोचिए 90-95 वर्ष की आयु में गले में तुलसी माला पहने, सर पर तुलसी वृंदावन लिए और मन में ढेर सारी भक्ति लिए, एक बुजुर्ग व्यक्ति अपने गांव से ‘माऊली-माऊली’ का जयघोष करते हुए चल पड़ता है। अश्रूपूरित नयनों से भक्ति में लीन होकर, केवल एक आस मन में लिए कि पंढरपुर जाकर विठ्ठल भगवान और माता रखुमाई के दर्शन करने हैं। ऐसी भक्ति और कहां देखने मिलेगी?
पंढरपुर की वारी, महाराष्ट्र की संस्कृति का एक अविभाज्य अंग रहा है। आषाढ़ और कार्तिक मास की शुद्ध एकादशी के दिन यह वारी पहुंच जाती है, विठुराया के दर्शन करने। कई लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि यह वारी की परम्परा आखिर कब से चली आ रही है? कहा जाता है, यह परम्परा 800 वर्षों से भी अधिक पुरानी है। एक किंवदंति के अनुसार ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी विठ्ठल पंत द्वारा विठ्ठल भगवान के दर्शन करने के लिए हिंदू महीने आषाढ़ कार्तिक में यह वारी प्रारम्भ की गई। जिसका स्वरूप आज विशाल हो गया है।
सालों से महाराष्ट्र के कोने-कोने से लाखों भाविक पंढरपुर के दर्शन करने के लिए इस वारी में शामिल होते हैं। इन सभी भक्तों को ‘वारकरी’ कहा जाता है। झांझ और मृदंग की सुरीली धुन के साथ ‘ज्ञानबा तुकाराम’ और माऊली-माऊली के जयकारे लगाते- लगाते ये सभी वारकरी लगभग 250 किलोमीटर की दूरी 21 दिन के अंतराल में पैदल चल कर तय करते हैं।
आषाढ़ी कार्तिकी वारी महाराष्ट्र की संस्कृति का एक ऐसा असीम सुंदर रूप है, जहां ना जात देखी जाती है ना वर्ण। देखी जाती है तो केवल भक्ति, हर कोई केवल भक्ति रस में लीन होकर, विठ्ठल-विठ्ठल नामस्मरण करते हुए चलते जाते हैं। हर साल हजारों लाखों भक्तगण इस वारी की उत्साहपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। जिन-जिन शहरों से होकर यह वारी गुजरती है, वे शहर सजाए जाते है। यहां पर पालखी का और वारकरियों का स्वागत बहुत ही प्रेमपूर्वक किया जाता है। वारकरियों के लिए बिना शुल्क भोजन व जलपान व्यवस्था, रहने रुकने की व्यवस्था, साथ ही नित्मकर्म करने हेतु पोर्टेबल शौचालयों की व्यवस्था की जाती है। भक्ति भाव से इन वारकरियों की आवभगत होती है, साथ ही स्वागत करने वालों के मन में होती है, असीम कृतज्ञता। वे इसे ईश्वर चरणों में की गई एक सेवा मानते हैं। कई सेवा भावी संस्थाएं एवं महाराष्ट्र की तत्कालीन सरकार भी वारकरियों की सुविधा के लिए कई कार्य करती है। उन्हें बारिश में भीगने से बचाने के लिए रेनकोट देना, उनके पहनने ओढ़ने हेतु अच्छे व स्वच्छ कपड़ों की व्यवस्था करना, शहर की स्वच्छता आदि का विशेष ध्यान रखा जाता है। सामाजिक समरसता और समाज को एक धागे में बांधने वाला पर्व है यह वारी।
इस वारी का प्रारम्भ दो प्रमुख स्थानों से होता है, जो संत ज्ञानेश्वर महाराज और संत तुकाराम महाराज के जन्मस्थान हैं, जो कि हैं, देहू और आळंदी। यहां से वारी निकलती है और फिर पुणे, जेजुरी, सासवड, तरडगांव, लोनाड, नातेपुते, फलटण, माळशिरस, शेगांव, वेलापुर और वाखरी से होते हुए पंढरपूर पंहुचती है। पंढरपूर गांव आषाढी एकादशी वाले दिन उत्साह से परिपूर्ण भक्तीरस में डूबा हुआ दिखाई पड़ता है। पूरा गांव सजा होता है और लोगों में चहलपहल होती है। विठ्ठल रखुमाई मंदिर को विशेष रूप से सजाया जाता है। यह पूरा उत्सव बहुत ही प्ररेणादायी और समाज को जोड़ने वाला है।
आज के समय में पुणे मुंबई के आईटी क्षेत्र में काम करने वाले नौजवान भी आईटी दिंडी के माध्यम से इस वारी का हिस्सा बन रहे हैं और दो या तीन दिन के लिए या कुछ घंटों के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक वारकरियों के साथ आईटी दिंडी लेकर सम्मिलित होते हैं। गांव के 95 वर्ष के शायद अनपढ़ बुजुर्ग से लेकर आईटी क्षेत्र में काम करने वाले 25 वर्ष के नौजवान तक यह वारी सबको एक रूप में बांध देती है। वारी हमें एकता सिखाती है, सामाजिक समरसता सिखाती है, भेदभाव से परे, भक्ति रस में लीन होकर एक ही भाव से जुड़ना सिखाती है।
महाराष्ट्र में निकलने वाली यह वारी केवल महाराष्ट्र तक सीमित न रहकर अब अन्य प्रदेशों को भी प्रेरणा देने लगी है। हर वर्ष विविध राज्यों में मराठी भाविक आषाढ़ी एकादशी वाले दिन एकसाथ पैदल चलकर शहर के प्राचीन विठ्ठल मंदिर में जाते हैं और विठ्ठल रखुमाई के दर्शन करते हैं। शहर के हजारों मराठी भक्त जो शायद एक दूसरे को जानते भी ना हों, वो इस वारी के माध्यम से एकसाथ आते हैं, एक दूसरे से जुड़ते हैं। शहर का माहौल देखते ही बनता है। ऐसे विभिन्न प्रदेशों में मराठी संस्कृति को पहुंचाने का काम इस वारी परम्परा ने किया है।
यदि आप अपनी आने वाली पीढ़ी को कुछ देना चाहते हैं, तो उन्हें इस वारी का हिस्सा बनाइए, उन्हें लेकर जाइए, दिखाइए की किस तरह सब एक भाव से साथ आते हैं। ये हमारे हिंदू धर्म की ताकत है जो सारे समाज को एक धागे में पिरोती है। उन्हें ये अनुभव दीजिए, क्योंकि ए.सी. वाली आराम की जिंदगी से बाहर आकर एक बार जब वे महाराष्ट्र की संस्कृति और परम्परा का यह रूप देखेंगे, तो उन्हें जिंदगी का अर्थ सही रूप में समझ आएगा।