यज्ञ का अधिष्ठाता देव यज्ञ है। अग्नि की प्रतीक है ज्वाला, और ज्वालाओं का प्रतिरूप है अपना परम पवित्र “भगवाध्वज” हम श्रद्धा के उपासक है, अन्धविश्वास के नही। हम ज्ञान के उपासक है, अज्ञान के नही। जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध रूप में ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है।
“संघ” तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नही। व्यक्ति शाश्वत नही, समाज शाश्वत है। व्यक्ति महान है। अपने समाज में अनेक विभूतियां हुई है, आज भी अनेक विद्यमान है। उन सारी महान विभूतियों के चरणो में शत-शत प्रणाम, परन्तु अपने राष्ट्रीय समाज को, संपूर्ण समाज को, संपूर्ण हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृभूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। इस नाते किसी व्यक्ति को गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही हमने गुरु माना है।
तत्वपूजा – तेज, ज्ञान, त्याग का प्रतीक…हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवनधारा में यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है। यज्ञ शब्द के अनेक अर्थ है। व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टिजीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को यज्ञ कहा गया है। सद्गुण रूप अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों को होम करना यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना भी यज्ञ है।
यज्ञ का अधिष्ठाता देव यज्ञ है। अग्नि की प्रतीक है ज्वाला, और ज्वालाओं का प्रतिरूप है अपना परम पवित्र “भगवाध्वज” हम श्रद्धा के उपासक है, अन्धविश्वास के नही। हम ज्ञान के उपासक है, अज्ञान के नही। जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध रूप में ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है।
सच्ची पूजा – तेल जले, बाती जले-लोग कहे दीप जले..जब दीप जलता है हम कहते है या देखते है कि दीप जल रहा है, लेकिन सही अर्थ में तेल जलता है, बाती जलती है, वे अपने आपको समर्पित करते है तेल के लिए। इसी तरह व्यक्ति के लिए कोई नाम नही, प्रचार नही, परन्तु दोनो के जलने के कारण ही ‘प्रकाश’ मिलता है – यह है समर्पण।
कारगिल युद्ध मे मेजर पद्मपाणी आचार्य, गनर रविप्रसाद जैसे असंख्य वीर पुत्रो ने भारत माता के लिए अपने आपको समर्पित किया। मंगलयान में अनेक वैज्ञानिकों ने अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक सुख की तिलाञ्जलि देकर अपनी सारी शक्ति समर्पित की।
प्राचीन काल मे महर्षि दधीचि ने समाज कल्याण के लिए , संरक्षण के लिए अपने जीवन को ही समर्पित कर दिया था। समर्पण अपने राष्ट्र की, समाज की परंपरा है। समर्पण भगवान की आराधना है। गर्भवती माता अपनी संतान के सुख के लिए अनेक नियमों का पालन करती है, अपने परिवार में माता, पिता, परिवार के विकास के लिए अपने जीवन को समर्पित करती है।
खेती करने वाले किसान और श्रमिक के समर्पण के कारण ही सबको अन्न मिलता है। करोड़ों श्रमिकों के समर्पण के कारण ही सड़क मार्ग, रेल मार्ग तैयार होते हैं।
शिक्षक-आचार्यो के समर्पण के कारण ही करोड़ो लोगो का ज्ञानवर्धन होता है। डाक्टरो के समर्पण सेवा के कारण ही रोगियो को चिकित्सा मिलती है। इस नाते सभी काम अपने समान में आराधना भावना से, समर्पण भावना से होते थे। पैसा केवल जीने के लिए लिया जाता था। सभी काम आराधना भावना से समर्पण भावना से ही होते थे। परंतु आज आचरण में हृास दिखता है। राष्ट्राय स्वाहा- इदं न मम … इसलिए परम पूज्यनीय डॉ. हेडगेवार जी ने फिर से संपूर्ण समाज में, प्रत्येक व्यक्ति में समर्पण भाव जगाने के लिए, गुरुपूजा की, भगवाध्वज की पूजा का परंपरा प्रारंभ की