हमारे खिलाड़ियों और खेल संगठनों को यह साफ संदेश दिया है कि ओलम्पिक जैसी अति प्रतिष्ठित खेल प्रतियोगिता में उच्चतम प्रदर्शन करने के लिए एक ठोस योजना सहित परिश्रम और धन व्यय में अपार वृद्धि की आवश्यकता है। परिणाम के दृष्टिकोण से स्पष्ट शब्दों में कहा जाए कि पदकों की संख्या के अनुसार यह उपलब्धि पर्याप्त नहीं है तो हर खेल प्रेमी इस सत्य को स्वीकार करेगा।
इस वर्ष फ्रांस की राजधानी पेरिस में 26 जुलाई से 11 अगस्त तक प्रत्येक 4 सालों में आयोजित होनेवाला 33वां ओलम्पिक सम्पन्न हुआ। बड़ी उम्मीद के साथ हमारे देश के 117 खिलाड़ी (मैदानी एथलीट-29, कुश्ती-06, तीरंदाजी-06, मुक्केबाजी-06, गोल्फ-04, लॉन टेनिस-03, तैराकी-02, बैडमिंटन-7, नौकायान-02, घुड़सवारी-01, जुडो-01, नौकायान-01, वेट लिफ्टिंग-01, भालाफेंक-2, टेबल टेनिस-08, निशानेबाजी-21, हॉकी-19) ओलम्पिक में हिस्सा लेने गए। चैनलों के निजीकरण के बाद प्रसारण और आंखों देखा हाल सुनाने का भी अंदाज इतना आकर्षक और दिलचस्प हो गया है कि देशवासियों ने पदकों की आस में दिन-रात की परवाह न करते हए ओलम्पिक के उद्घाटन समारोह के साथ-साथ भारतीय खिलाड़ियों के सभी खेलों का सीधा प्रसारण देखा। कहना न होगा कि सभी खिलाड़ियों ने अपना दमखम दिखाते हुए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। कुछ आरम्भिक दौर में निपटे तो कुछ खिलाड़ी क्वार्टर फाईनल तक पहुंचे, तो कहीं यह यात्रा सेमीफाइनल तक पहुंचकर ही रुक गई। फाइनल में केवल एक खिलाड़ी पहुंचा, लेकिन स्वर्ण से वो भी वंचित रहा। अंतत: हमें केवल 6 पदकों के साथ लौटना पड़ा। इस ओलम्पिक प्रदर्शन की तुलना पिछली ओलम्पिक से की जाए तो हमें निश्चित रूप से निराशा होगी। हमें एक भी स्वर्ण पदक नहीं मिला। सारांश यह कि 140 करोड़ का देश और पदकों की संख्या सिर्फ 06, जो यह दर्शाता है कि लगभग 25 करोड़ की जनसंख्या पर हमें एक पदक प्राप्त हुआ है।
इस परिणाम ने हमारे खिलाड़ियों और खेल संगठनों को यह साफ संदेश दिया है कि ओलम्पिक जैसी अति प्रतिष्ठित खेल प्रतियोगिता में उच्चतम प्रदर्शन करने के लिए एक ठोस योजना सहित परिश्रम और धन व्यय में अपार वृद्धि की आवश्यकता है। परिणाम के दृष्टिकोण से स्पष्ट शब्दों में कहा जाए कि पदकों की संख्या के अनुसार यह उपलब्धि पर्याप्त नहीं है तो हर खेल प्रेमी इस सत्य को स्वीकार करेगा। हमारी सबसे बड़ी उम्मीद भाला फेंक प्रतियोगिता में नीरज चोपड़ा से थी, लेकिन वो भी फाइनल दौर में कुछ अंकों से ही सही, लेकिन चूक गए। इसके बावजूद नीरज के सिल्वर मेडल का महत्व भी कम नहीं है। निशानेबाज मनु भाकर ने कड़ी स्पर्धा में व्यक्तिगत रूप से 2 कांस्य पदक जीते। इनके अलावा स्वप्निल कुसाले और अमन सेहरावत ने व्यक्तिगत रूप से और हॉकी टीम ने दलगत कांस्य पदक जीते। एक भी गोल्ड मेडल नहीं जीत पाने के कारण पदक तालिका में हम 71वें स्थान पर रहे। आंकड़ों के हिसाब से यदि हमें एक भी गोल्ड मेडल मिला होता तो हम प्रथम 50 में जरूर होते। अन्य देशों के प्रदर्शन की बात की जाए तो संयुक्त राज्य अमेरिका 40 स्वर्ण पदक सहित 126 पदकों के साथ पहले स्थान पर रहा, जबकि हमारी तरह विस्फोटक जनसंख्या वाला देश चीन 40 स्वर्ण पदक सहित 96 पदकों के साथ दूसरे स्थान पर रहा। तीसरे स्थान पर जापान रहा, जिसने 45 पदक प्राप्त किए।
जिस तरह हम क्रिकेट में जुनून की हद पार करने तक आस लगाते हैं। इस बार कुछ ऐसी तो नहीं पर आस जरूर बंधी थी कि पिछली बार से ज्यादा पदक प्राप्त होंगे। हमें विश्वास था कि नीरज चोपड़ा से एक स्वर्ण पदक पक्का है। निशानेबाजी में भी सनसनी फैलाई जाएगी। हॉकी में कांस्य से अधिक इस बार कम से कम रजत जीतेंगे, लेकिन आशा के विपरीत ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अंतिम समय में हमारे खिलाड़ी चूकते रहे, परिणामस्वरूप कांस्य या फिर चौथे स्थान पर नजर आना कोई आश्चर्यजनक नहीं था।
निश्चित रूप से हमारे कुछ खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिद्वंदियों को अन्य प्रतियोगिताओं में कड़ी चुनौतियां पेश करते रहे हैं और विश्व चैम्पियन भी बने हैं, लेकिन ओलम्पिक खेलों का वातावरण अलग होता है। इसके अलावा ओलम्पिक में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का एक मनोवैज्ञानिक दबाव भी होता है, जिसके कारण सभी छोटे-बड़े खिलाड़ी अंतिम समय में आत्मविश्वास खो देते हैं। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। हमें इस ओलम्पिक से सबक लेकर आगे की ओर देखना होगा। अपने खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने में हमें जो भी कदम उठाने पड़ें, वो उठाए जाए। सच बात तो यह है कि खेलों को संचालित करने के लिए संस्थानों के बुनियादी ढांचे अपर्याप्त हैं। पदक जीतनेवाले देश हमसे कहीं आगे हैं। उनके यहां जहां खेल संस्थानों की संख्या हजारों में होंगी, वहां हमारे देश में यह संख्या अब तक 200 तक भी नहीं पहुंच पाई है। स्टेडियमों की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। खेल प्रतिभाओं की पहचान के लिए भी ज्यादातर शहरी क्षेत्रों पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है, जबकि यह खोज अभियान ग्रामीण भारत के क्षेत्रों से किए जाने की जरूरत है।
यह देखा गया है कि पलायन को विवश ग्रामीण भारत के युवाओं को अधिकांशत: नगरों और महानगरों में मजदूरी पेशे में खपा दिया जाता है। नगरों और महानगरों में निर्माण कार्य से जुड़े बड़े-बड़े भवन और सड़क निर्माण प्रोजेक्ट्स में जहां साहस और आत्मविश्वास की जरूरत होती है, वहां आपको ग्रामीण युवा चेहरे ही दिखाई देंगे। क्या ऐसे युवाओं को पलायन से रोका नहीं जा सकता, ताकि उन्हें उचित खेल मंच प्रदान किया जाए। जहां तक सरकार द्वारा क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों को विकसित करने के प्रयास की बात है तो सरकार द्वारा वर्ष 2018 में मणिपुर के इम्फाल में खेल विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है। इसके अलावा सरकार की देखरेख में ‘खेलो इंडिया’ का आयोजन नियमित रूप से किया जा रहा है। इस योजना ने आशाजनक परिणाम देने अवश्य शुरू किए हैं। इस योजना का ही यह परिणाम है कि इस ओलम्पिक दल में 28 खिलाड़ी ऐसे थे जिनकी प्रतिभा को ‘खेलो इंडिया’ ने पहचाना और उन्हें एक अंतर्राष्ट्रीय मंच प्रदान किया था।
पुरस्कार देने में भी एक नई सोच की आवश्यकता है। केवल खेल प्रतियोगिताओं में जीतनेवालों को मालामाल करना ही एकमात्र लक्ष्य न हो। इसमें कड़ी स्पर्धा के बाद टीम में हिस्सा बनानेवालों को भी नियमित राशि के अलावा अतिरिक्त आर्थिक सम्मान देना आवश्यक है।
जो भी हुआ अब वो अतीत है, वर्तमान ओलम्पिक विजेताओं ने समस्त देशवासियों को यह वचन दिया है कि अगली बार ओलम्पिक में पदकों का रंग अवश्य बदेलगा। आशा करते हैं कि अगले ओलम्पिक में पदकों का रंग बदलेगा और उनकी संख्या कम से कम दो अंकों में होगी। प्रश्न यह है कि क्या हमें अपने प्रदर्शन पर बहुत खुश होना चाहिए? उत्तर है कि बहुत खुश तो नहीं पर ‘दिल बहलाने को गालिब ये ख्याल भी अच्छा है’ की तर्ज पर सुकून अवश्य मिल सकता है कि हम ओलम्पिक से अब खाली हाथ नहीं लौटते हैं।
– राजीव रोहित